राजनैतिक पार्टियाँ भी वोट लेने के लिये क्या-क्या हथकंडे अपनाती है, कभी नारे गढ़ती हैं, कभी बड़े-बड़े वादे करती हैं, कभी पिछली प्रगति के झूठे प्रचार करती है, कभी लुभावने घोषण पत्र छपवाती हैं, और कभी व्यक्ति-विशेष को प्रधानमंत्री बनाने का सपना दिखाती हैं। कुछ शब्द-जाल देखिये गरीबी मिटाओं, मेरा भारत महान, इन्डिया शायनिंग। चुनाव के बाद घोषण-पत्रों को न तो कोई उठा कर देखता है, न ही सरकार से जनता पूछती है कि वे काम कब होंगें जिनका वादा किया था, चुनाव के समय वोटों के ध्रुवीकरण हेतु अडवाणी, मुलायम, मयावती को प्रधानमंत्री का प्रोजेक्ट किया गया। बहुजन वालों नें सर्वजन की बात शुरू कर दी। कभी जिसने यह कहा था कि तिलक, तराजू और तलवार- इनको मारों जूते चार, उसनें बाद में इस नारें से अपना हाथ खींच लिया।
यू0पी0 की सत्ताधारी पार्टी की बातों पर ग़ौर करें- तीन वर्ष पूर्व जब चुनाव में उतरी और जीती तब उसका नारा यह था- चढ़ गुंडन की छाती पर- मुहर लगा दो हाथी पर। अब तीन वर्ष बाद यही पार्टी जिसने गुंडो को खुली छुट दे दी थी, उनसे पल्ला झाड़ती नज़र आती है। जब यह देखो कि पार्टी के कुछ गुंडो विधायक सांसद लूट खसोट मार घाड़ में लिप्त हैं और जनता में छवि बिगाढ़ रही है तो लोग निकाले जाने लगे, मुख्तार अंसारी जिनकों अभी तक संरक्षण प्राप्त था, उन्हें गुंडा मान लिया गया। आम कार्यकर्ताओं को तो निकाला गया, लेकिन वाडे के बावजूद सांसदो, विधायकों की कोई सूची अभी तक सामने नहीं आई।
इसी पार्टी की एक और पैतंरे बाजी देखिये काग्रेंस एँव केन्द्र के खिलाफ रोज़ ही दो दो हाथ करने वाली पार्टी नें संसद में विपक्ष के बजट के कटौती प्रस्ताव के खिलाफ़ सरकार का इस हेतु समर्थन किया ताकि सुप्रिम कोर्ट में मायावती के खिलाफ़ आय से अधिक संपत्ति के मामले में सी0बी0आई0 ढ़ील दे दे।
इसी पार्टी का एक और मामला सत्ता के तीन साल पूरे होने पर किये गये कामो का ब्योरा अख़बारों के पूरे एक पृष्ठ में छपा है- एक आइटम ऊर्जा- तीन वर्ष में इस पर 23679 करोड़ रूपये खर्च किये गये। 9739 अम्बेडकर ग्रामों, 3487 सामान्य ग्रामों, 3487 दलित बस्तियों तथा 3590 मजरों का विधुतीकरण। जब भी जांच होती है, काम नजर नहीं आते। बजट खर्च हो जाता है।
ग्रामों की संख्या विद्युतीकरण हेतु बढ़ाते जाइये, तार दौड़ाते रहिये, उत्पादन की फ्रिक न कीजिये। घोषित/अघोषित कटौती करके हर वर्ग को परेशान करते रहिये। जब मेगावाट बढ़ोत्तरी न हो तो विस्तार से क्या लाभ। व्यवस्थापकों के लिये यह कथन अशिष्ट तो नहीं लेकिन सख्त जरूर है :-
घर में नहीं दाने-अम्मा चली भुनाने
यह रहा यह वादा कि कुछ उत्पादन 2014, कुछ 2020 आदि तक बढ़ेगा। तो क्या पता तब तक हो सकता है आप न रहें, हो सकता है हम न रहें-
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक
-डॉक्टर एस.एम हैदर