डा0 इकबाल ने कभी अपनी एक कविता की पंक्ति में कहा था कि यूनान, मिस्र, रोम सभी मिट गये लेकिन हिन्दुस्तान का नामो निशान अब भी बाकी है। आज की बात अगर कही जाय तो सच यह है कि हम में उभरने की संभावनायें देखकर अनेक देश हम को मिटाने के लिये तरह-तरह की चालें चल रहे हैं।
पड़ोस के और दूर के देश भी कभी खुलकर और कभी छुपकर हम पर वार करते हैं। पड़ोस की दास्तान मालूम ही है, पाकिस्तान से कई युद्ध भी हुए, कई बार सुलह हुई, ताशकन्द और शिमला में बाते हुई, आगरा में कोशिश हुई, लाहौर बस यात्रा की गई लेकिन बात वहीं की वहीं रही। तिब्बत तथा दलाई लामा को लेकर चीन से खटापटी जो 1962 से शुरू हुई अब भी किसी न किसी रूप में जारी है। श्रीलंका से भी तमिलों व शान्ति सेना को लेकर दिलों में सफाई नहीं आ सकी। बंगला देश से कभी बनती है कभी घुसपैठ और पानी को लेकर बात बिगड़ जाती है। नेपाल हमारा मित्र था लेकिन प्रचण्ड को लेकर तनाव गले की हड्डी बना।
बहुत समय तक रूस हमारा सच्चा मित्र बना रहा, फिर रूस खण्डों में बटा, भारत की नीतियां भी गड़बड़ायी। जाहिर शाह के जमाने तक अफगानिस्तान विश्वसनीय था, अब जो हाल है देख ही रहे हैं, आतंकियों और तालिबानों ने भारत के पैर उखाड़ दिये। अमेरिका खुद ही वहां दलदल में फंसा है, हमारी क्या मदद करेगा।
अब दूर के कुछ देशों की बात करते हैं, नेहरू के जमाने में अरबों से अच्छी निभ रही थी फिर इस्राईल से पैंगे बढ़ी, सम्बंधों में वह बात नहीं रह गई। ईरान हमारा पुराना और पक्का मित्र था, परन्तु इस रास्ते पर हम कभी एक कद़म चुपके से आगे रखते हैं तो अमेरिकी दबाव में दो कदम पीछे पिछड़ने पर मजबूर हो जाते है।
पश्चिमी शाक्तियों ने हमको ही नहीं पूरी दुनिया को उंगलियों पर नचाया है, पहले इंगलैण्ड आगे था, अब नेतृत्व अमेरिका के हाथ में है। यह सब बातें जो मैं कह रहा हूँ शंकाए या अशंकायें नहीं है न ही नकारात्मक सोच है और न ‘स्काई इज़ फालिंग’ जैसी कोई बात है। इन बातों के स्पष्ट प्रमाण है। पुरानी बातों के लिये इतिहास की किताबें देखिये। नई और सामाजिक बातों के लिये आजकल के अखबार ही काफी है। विदेशी हस्तक्षेप अन्याय और सीनाजोरी के बस कुछ छोटे छोटे उदाहरणों पर ध्यान दीजिये-
यह बात आश्चर्य जनक भी है और दुखद भी कि विदेशी अपने यहाँ भी हम पर जुल्म करते हैं और हमारे देश में आकर भी हमारे सीने पर मूंग दलते हैं-एक तरफ़ ऑस्ट्रेलिया में सौ से अधिक भारतीयों पर जानलेवा हमले हुए, दूसरी तरफ हमारी शराफ़त देखियें कि राजा जी पार्क में ढाई सौ से अधिक विदेशियों ने दुगड्डा स्रोत में काफी दिन पूर्व घुसपैठ कर के पूरा एक गांव ही बसा लिया था, मीडिया की पहल पर पार्क निदेशक रसाईली ने बड़ी मुश्किल से क्षेत्र को समझा बुझाकर खाली कराया।
हस्तक्षेप की तीसरी घटना पुरूलिया में हथियार गिराने की है। 1995 का यह मामला अब तक हल न हो सका, डेनमार्क के नागरिक नील्स हाल्क्स नें पाचं रूसियों और एक ब्रिटिश नागरिक के साथ मिलकर यह घटना अंजाम दी थी। प्रत्यर्पण का वादा तब ही किया गया जब उल्टे भारत ही से कुछ शर्तें मनवाई गई, पहली यह कि उसे सज़ाये मौत नहीं दी जायेगी, दूसरी यह कि बुलाये जाने पर उसे फिर डेनमार्क भेज दिया जायेगा।
अब सब से ताज़ी घटना हेडली से सम्बंधित है-सभी को मालूम है कि पाकिस्तान प्रायोजित मुम्बई की दर्दनाक आतंकी हमले की योजना बनाने में उसका बड़ा रोल था और हमले से पूर्व यह अमरीकी नागरिक भारत के कई शहरों में आया गया तथा रहा था। यद्यपि अमेरिका आतंकवाद को मिटाने में भारत को सहायता देने के बराबर जबानी दावे करता है परन्तु हेडली के प्रत्यर्पण की बात जाने दीजिये केवल पूछताछ करने तक की इजाजत नहीं दे रहा है। भारत की जांच टीम तो एक बार अमेरिका गई भी परन्तु बैरंग लौटा दी गई। जो बात विदेश सचिव या विदेश मंत्री स्तर पर तय हो जाना चाहिये थी, वह इतनी महत्वपूर्ण हो गई कि उसके हल करने की याचना मनमोहन सिंह को ओबामा से उस समय करना पड़ी जब वह परमाणु सुरक्षा सम्मेलन में भाग लेने के लिये अमेरिका गये।
सारांश यह है कि सरकारें हमेशा जनता को यही आभास देती है कि गलती दूसरों की है, जनता भी बिना सोचे सरकारी ढोल पर थिरकने लगती है, यदि कोई अपने देश की आलोचना करे तो उसकी देश भक्ति खतरे में पड़ती है। उक्त सभी मामलों में हमारी गलतियां कम नहीं है, हमारी नीतियों में बहुत छेद है। बहरहाल यह समझना चाहिये कि-
जहां बाजू सिमटते हैं, वहीं सय्याद होता है। -डा0 एस0एम0 हैदर