5:46 pm
gpalgoo
PIYUSH CONSTANTअद्भुत नौ नंबर, (लगातार पीयूष).यह बहुत दिलचस्प है, यह मेरी अपनी खोज, भविष्य बहुत जल्द ही अपने गणित पर अपने स्वयं बुक मैथ्स प्रकाशित करेंगे --- एक अध्ययन (में हिन्दी) में मैं प्यार गणित, है, या वेबसाइट के रूप में हो सकता.अंकों की किसी भी संख्या में ले, यहाँ मैं 25 और 32 के ले जा रहा हूँ अब,तुम इस तरह चार तरह से उन्हें लिख सकते
हैं
25*32=800
25*23=575
52*23=1196
52*32=1664
अब बहुत अद्भुत, किसी भी कम करने के लिए एक के बाद एक बड़ा एक,
1664-1196 = 468 = 4 +6 +8 18 = 1 +8= 9
1664-575 = 1089 = 1 +0 +8 + 9= 18=1+8 =9
1664-800 =864= 8 +6 +4 = 18 = 1 +8=9
1196-800=396=3+9+6=18=1+8=9
1196-575=621=6+2+1=9
800-575=225=2+2+5=9
नौ हमेशा, किसी भी अंकों के लिए, नहीं, शरीर के सभी PIYUSHDADRIWALA के लिए आरक्षित कॉपी कर सकते हैं,
10:34 am
Sumit Pratap Singh
मंच पर अपनी दुल्हन के संग स्थान ग्रहण किए लल्लू भइया बड़े मुस्कुरा रहे थे। आसपास बाराती व घराती अपने आप में मस्त थे । लल्लू भइया के चेहरे पर इतना मेकअप थोपा गया था कि जब-जब भी वह हँसते थे तो कुछ-कुछ रावण जैसे प्रतीत होते थे । लल्लू भइया को देखते-देखते पुरानी यादो में खो गया ।उन् दिनों लल्लूजी ने सोलहवें वसंत में प्रवेश किया था । हर कन्या को देखकर उनका मन का मयूर बन कर नृत्य करने लगता था । अपने ही मोहल्ले में रहने वाली एक कन्या पर लल्लू लट्टू हो गए थे । अब उसके घर के आस-पास ही उनका समय व्यतीत होने लगा । उनके घरवालों को उनका घर से बाहर रहना खला नहीं क्योंकि उन्होंने लल्लू जी को कई महीनों पहले ही आवारा घोषित कर दिया था । कन्या का नाम कम्मो था । वह दसवीं कक्षा की छात्रा थी । लल्लू भइया भी दसवीं कक्षा में थे । बस एक बार ही तो फेल हुए थे । आख़िर एक दिन उनकी मेहनत रंग लायी । लल्लू भइया ने कम्मो को फंसा लिया । अब लल्लू जी अपने गोल-मटोल शरीर वाले व्यक्तित्व पर अभिमान करने लगे तथा अपने साथियों के साथ किसी जीते हुए योद्धा की भांति हाथी जैसी मस्तानी चाल में चलते थे । कम्मो भी प्रसन्न थी उसे लल्लू के रूप में उसे एक व्यक्तिगत सहायक जो मिल गया था । वह उनसे अपना हर प्रकार का कार्य करवाती थी। लल्लू भइया भी कम्मो के प्रेमपाश में जकडे हुए उसकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करते रहते। उन्होंने अपनी पढाई को संन्यास देकर कम्मो के गृह कार्य में अपना पूरा समय देना आरम्भ कर दिया था। कम्मो की सहेलियां कम्मो से ईर्ष्या भाव रखने लगीं थीं तथा अपने लिए भी लल्लू जैसे सुयोग्य बॉय-फ्रेंड खोजने का प्रयास करने लगीं थीं। लल्लू भइया कम्मो के प्रेम में खो कर प्रेम गीत लिखने लगे थे। एक दिन उनके पिता जी ने उनका लिखा प्रेम गीत पढ़ लिया और उनकी जमकर मरम्मत की। किन्तु लल्लू भइया के शरीर में भी राँझा,मजनूं व फरहाद जैसे महान प्रेमियों जैसा रक्त भरा था सो वे अपने प्रेम-पथ से तनिक भी विचलित नहीं हुए। एक दिन कम्मो छत पर लल्लू जी द्वारा दिए गए उपहार संग खेल रही थी। तभी उसके पड़ोस में रहने वाली उसकी सखी ने उस उपहार को भेंट करने वाले के विषय में कम्मो से पूछा। कम्मो ने मासूमियत से सबकुछ बता दिया। यह सुनते ही वह लड़की भड़क गई तथा कम्मो से बोली कि वह पंडित होकर एक नीच जाति के लड़के से कैसे मित्रता कर सकती है? कम्मो को जैसे सदमा सा लग गया उसने गुस्से में लल्लू द्वारा दिया गया उपहार छत से नीचे फैंक दिया । उस दिन लल्लू भइया का पहली बार ह्रदय टूटा था । वह ऋग्वेद के दसवें मंडल में वर्णित पुरूष सूक्त में विराट द्वारा चार वर्णों की उत्पत्ति को कोस रहे थे । कितने दुखी थे वह उस दिन । मित्रों के लाख समझाने के बावजूद भी उनका दुःख कम नही हुआ । उन्होंने गुटखा खाकर आत्महत्या करने का प्रयास किया और नशे में पार्क में कई घंटे चक्कर खाकर पड़े कम्मो से अपना ध्यान बंटाने के लिए लल्लू जी मुंह-तोड़ खेल मुक्केबाजी सीखना प्रारंभ कर दिया। वह स्टेडियम में अत्यधिक परिश्रम करने लगे। यह क्रम भी अधिक दिनों तक न चल सका । एक दिन उनके साथी मुक्केबाज़ ने उन्हें रिंग में ऐसा धोया कि उनका मुंह टमाटर जैसा लाल कर दिया । कई दिन शर्म के मारे वह घर से नहीं निकले । अब उन्होंने कई कन्यायों से एक साथ नैना मिलाने आरंभ कर दिये परन्तु सभी ने उन्हें भाई बनाना ही पसंद किया । एक कन्या की माँ ने तो लल्लू जी के कालर पकड़कर दो चार झापड़ भी रसीद दिये। पर लल्लू भइया हिम्मत नहीं हारते थे। यदि कोई कन्या उन्हें गलती से भी देख लेती वह उससे राखी या थप्पड़ ही लेकर लौटते थे। समय बीता और उन्होंने एक छोटी-मोटी नौकरी ढूँढ ली। सड़कों पर दौड़ लगाते और बसों में धक्के खाते-२ उनका "कन्या पटाऊ अभियान" चालू रहा। उनके प्रत्येक मित्र के पास गर्ल-फ्रेंड थी। अब उनके लिए यह प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुका था। किंतु कमबख्त किस्मत ऐसी थी कि कोई लड़की उन्हें घास नहीं डालती थी। अपनी इज्ज़त बचाने का उन्होंने एक उपाय खोजा। उन्होंने एक-दो कन्याओं को बहन बना लिया व कभी-२ उनके साथ घूमने-फिरने निकल जाते। जब कोई मित्र उन कन्यायों के विषय में पूछता तो वह आँख मार के मुस्करा देते। मित्र यह समझता कि वे सब लल्लू भइया कि गर्ल-फ्रेंड हैं। एक दिन उनके माता-पिता ने उनकी शादी पक्की कर दी। माँ-बाप कि चिंता जायज थी। क्योंकि लल्लू भइया कि उम्र काफ़ी हो गई थी तथा जो कोई भी रिश्ता लेकर आता था लल्लू जी के व्यक्तित्व को देख कर भाग खड़ा होता था। आख़िर एक लड़की का बाप एक दिन फंस ही गया। लल्लू जी के माँ-बाप ने चट मंगनी पट ब्याह की नीति अपनाई और उनके फेरे पडवा दिये। मित्रों ने पकड़कर हिलाया तो होश में आया। आशीर्वाद समारोह आरम्भ हो चुका था। हम सबने भी लल्लू भइया को बधाई दी व उनके संग कैमरे में कैद हो गए। मंच से उतरते हुए लल्लू जी के पिता जी पर दृष्टि गई तो उन्हें देखकर ऐसा लगा कि जैसे वे ईश्वर से कह रहे हों कि भला हो उसका जो उसने उनके लड़के की उम्र निकलने से पहले ही शादी करवा दी। लल्लू भइया को मुड़कर देखा तो प्रतीत हुआ कि वह भी कुछ ऐसा ही सोच रहे थे। रात को घर लौटते हुए मैं और मेरे मित्र पहले और अब के लल्लू भइया में तुलना करते हुए उनके सुखी विवाहित जीवन की कामना कर रहे थे।
7:03 pm
निर्मला कपिला
कहानी--- बेटियों की माँ
सुनार के सामने बैठी हूं । भारी मन से गहनों की पोटली पर्स मे से निकाल कर कुछ देर हाथ में पकड़े रखती हूं । मन में बहुत कुछ उमड़ घमुड़ कर बाहर आने को आतुर है । कितन प्यार था इन जेवरों से । जब कभी किसी शादी व्याह पर पहनती तो देखने वाले देखते रह जाते । किसी राजकुमारी से कम नही लगती थी । खास कर लड़ियों वाला हार कालर सेट पहन कर गले से छाती तक सारा झिलमला उठता । मुझे इन्तजार रहता कि कब कोई शादी व्याह हो तो सारे जेवर पहून । मगर आज ये जेवर मेरे हाथ से निकले जा रहे थे । दिल में टीस उठती है ----- दबा लेती हू ---- लगता है आगे कभी व्याह शादियों का इन्तजार नही रहेगा -------- बनने संवरन की इच्छा इन गहनों के साथ ही पिघल जाएगी । सब हसरतें लम्बी सास खींचकर भावों को दबाने की कोशिश करती हू । सामने बेटी बैठी है -------- अपने जेवर तुड़वाकर उसके लिए जेवर बनवाने है ----- क्या सोचेगी बेटी ----- मा का दिल इतना छोटा है ? अब मा की कौन सी उम्र है इतने भारी जेवर पहनने की ------------- अपराधी की तरह नज़रें चुराते हुए सुनार से कहती हू ‘ देंखो जरा, कितना सोना है ? वो सारे जेवरों को हाथ में पकड़ता है - उल्ट-पल्ट कर देखता है - ‘इनमें से सारे नग निकालने पड़ेंगे तभी पता चलेगा ?‘‘टीस और गहरी हो जाती है --------इतने सुन्दर नग टूट कर पत्थर हो जाएगे जो कभी मेरे गले में चमकते थे । शायद गले को भी यह आभास हो गया है -------बेटी फिर मेरी तरफ देखती है ----- गले से बड़ी मुकिल से धीमी सी आवाज़ निकलती है ---हा निकाल दो‘ ।उसने पहला नग जमीन पर फेंका तो आखें भर आई । नग के आईने में स्मृतियां के कुछ रेषे दिखाई दिए । मा- पिता जी - कितने चाव से पिता जी ने आप सुनार के सामने बैठकर यह जेवर बनवाए थे । ‘ मेरी बेटी राजकुमारी इससे सुन्दर लगेगी । मा की आखें मे क्या था --- उस समय में मैं नही समझ पाई थी या अपने सपनों में खोई हुई मा की आखें में देखने का समय ही नही था । शायद उसकी आखों में वही कुछ था जो आज मेरी आखें में है, दिल में है ---- शरीर के रोम-रोम में है । अपनी मा का दर्द कहा जान पाई थी । सारी उम्र मा ने बिना जेवरों के काट दी । वो भी तीन बेटियों की शादी करते-करते बूढ़ी हो गई थी । अब बुढ़े आदमी की भी कुछ हसरतें होती हैं । बच्चे कहा समझ पाते हैं ---- मैं भी कहा समझ पाई--- इसी परंपरा में मेरी बारी है फिर कैसा दुख ----मा ने कभी किसी को आभास नहीं होने दिया, उन्हें शुरू से कानों में तरह-तरह के झूमके, टापस पहनने का शौक था मगर छोटी की शादी करते-करते सब कुछ बेटियों को दे दिया । फिर गृहस्थी के बोझ में फिर कभी बनवाने की हसरत घरी रह गई । किसी ने इस हसरत को जानने की चेष्टा भी नही की । औरत के दिल में गहनों की कितनी अहमियत होती है ---- यह तब जाना जब छोटी के बेटे की शादी पर उन्हें सोने के टापस मिले । मा के चेहरे का नूर देखते ही बनता था ‘देखा, मेरे दोहते ने नानी की इच्छा पूरी कर दी‘‘ वो सबसे कहती ।धीरे-धीरे सब नग निकल गए थे । गहने बेजान से लग रहे थे । शायद अपनी दुर्दाशा पर रो रहे थे --------------‘ अभी इन्हें आग में गलाना पड़ेगा तभी पता चलेगा कि कितना सोना निकलेगा ।‘‘‘हा,, गला दो‘ बचा हुआ साहस इकट्ठा कर, दो शब्द निकाल पाई ।उसने गैस की फूकनी जलाई । एक छोटी सी कटोरी को गैस पर रखा, उसमें उसने गहने डाले और फूकनी से निकलती लपटों से गलाने लगा । लपलपाटी लपटों से सोना धधकने लगा । एक इतिहास जलने लगा ---- टीस और गहरी हुई । लगा जीवन में अब कोई चाव ----- नही रह गया है ---- एक मा‘-बाप के बेटी के लिए देखे सपनों का अन्त हो गया और मेरे मा- बाप के बीच उन प्यारी यादों का अन्त हो गया ----- भविष्य में अपने को बिना जेवरों के देखने की कल्पना करती हू तो ठेस लगती है । मेरी तीन समघनें और मैं एक तरफ खड़ी बातें कर रही है । इधर-उधर लोग खाने पीने में मस्त है । कुछ कुछ नज़रें मुझे ढूंढ रही है । थोड़ी दूर खड़ी औरतें बातें कर रही है । एक पूछती है ‘लड़की की मा कौन सी है ? ‘‘दूसरी कहती है ‘अरे वह जो पल्लू से अपने गले का आर्टीफिशल नेकलेस छुपाने की कोशिश कर रही है ।‘‘ सभी हस पड़ती हैं । समघनों ने शायद सुन लिया है ----- उनकी नज़रें मेरे गले की तरफ उठी --------- क्या है उन आखों में जो मुझे कचोट रहा है ---- हमदर्दी ----- दया--- नहीं--नहीं व्यंग है, बेटिया जन्मी हैं तो सजा तो मिलनी ही थी ----- उनके चेहरे पर लाली सी छा जाती है । बेटों का नूर उनके चेहरे से झलकने लगता है । अन्दर ही अन्दर गर्म से गढ़ी जा रही हूं, क्यों ? क्या बेटियों की मा होना गुनाह है ---- सदियों से चली आ रही इस परंपरा से बाहर निकल पाना कठिन है । आखें भर आती हैं । साथ खड़ी औरत कहती है बेटियों को पराए घर भेजना बहुत कठिन है और मुझे अन्दर की टीस को बाहर निकालने का मौका मिल जाता है । एक दो औरतें और सात्वना देती है । ---- आसुयों को पोंछकर कल्पनाओं से बाहर आती हू । मैं भी क्या उट पटाग सोचने लगती हू --- अभी तो देखना है कि कितना सोना है । शायद उसमें थोड़ा सा मेरे लिये भी बच जाए । सुनार ने गहने गला कर सोने की छोटी सी डली मेरे हाथ पर रख दी । मुटठी में भींच कर अपने को ढाढस बंधाती हू । इतनी सी डली में इतने वर्षों का इतिहास समाया हुआ था । तोल कर हिसाब लगाती हू तो बेटी के जेवर भी इसमें पूरे नही पड़ते है ------ मेरा सैट कहा बनेगा । फिर सोचती हू सास का सैट रहने देती हू ---- बेटी को इतना पढ़ा लिखा दिया है एक महीने की पगार में सैट बनवा देगी । मुझे कौर बनावाएगा ? मगर दूसरे ही पल बेटी का चेहरा देखती हू । सारी उम्र उसे सास के ताने सुनने पड़ेंगे कि तुम्हारे मा-बाप ने दिया क्या है------ नहीं नही मन को समझाती ह अब जीवन बचा ही कितना है । बाद में भी इन बेटियों का ही तो है । एक चादी की झाझर बची थी । उस समय - समय भारी घुघरू वाली छन छन करती झाझरों का रिवाज था ----- नई बहू की झाझर से घर का कोना कोना झनझना उठता । साढ़े तीन सौ ग्राम की झाझर को पुरखों की विरासत समझ कर रखना चाहती थी मगर पैसे पूरे नही पड़ रहे थे दिल कड़ा कर उसे भी सुनार को दे दिया । सुनार के पास तो यू पुराने जेवर आधे रह जाते है ------- झाझर को एक बार पाव में डालती हू -------------- बहुत कुछ आखें में घूम जाता है । बरसों पहले सुनी झकार आज भी पाव में थिरकन भर देती है । मगर आज पहन कर भी इसकी आवाज बेसुरी लग रही है ---शायद आज मन ठीक नही है । उसे भी उतार कर सुनार को दे देती हू ।सुनार से सारा हिसाब किताब लिखवाकर गहने बनने दे देती हू । उठ कर खड़ी होती हू तो लड़खडार जाती हू । जैसे किसी ने जान निकाल दी हो । बेटी बढ़कर हाथ पकड़ती है---- डर जाती हू कहीं बेटी मेरे मन के भाव ने जान ले । उससे कहती हू अधिक देर बैठने से पैर सो गए हैं । अैार क्या कहती ? कैसे बताती कि इन पावों की थिरकन समाज की परंपंराओं की भेंट चढ़ गई है ।सुनार सात दिन बात जेवर ले जाने को कहता है । सात दिन कैसे बीते बता नहीं सकती--- हो सकता है मैं ही ऐसा सोचती हू । ाायद बाकी बेटियों की मायें भी ऐसा ही सोचती होंगी । आज पहली बार लगता है मेरी आधुनिक सोच कि बेटे-बेटी में कोई फरक नहीं है , चूर-चूर हो जाती है --- जो चाहते हैं कि समाज बदले बेटी को सम्मान मिले --- वो सिर्फ लड़की वाले हैं । कितने लड़के वाले जो कहते है दहेज नहीं लेंगे ? वल्कि वो तो दो चार नई रस्में और निकाल लेते है । उन्हें तो लेने का बहाना चाहिए । लगता है और कभी इस समस्या से मुक्त नही हो सकती ।------ औरत ही दहेज चाहती है । औरत ही दहेज चाहती है सास बनकर ------- औरत ही दहेज देती है, मा बनकर । लगता है तीसरी बेटी की शादी पर बहुत बूढ़ी हो गई हू ----- शादियों के बोझ से कमर झुक गई है ----- खैर अब जीवन बचा ही कितना है । आगे बेटियां कहती रहती थी ‘मा यह पहन लो, वो पहन लो---- ऐसे अच्छी लगती है -----‘अब बेटिया ही चली गई तो कौन कहेगा । कौन पूछेगा ----मन और भी उदास हो जाता है । रीता सा मन----रीता सा बदन- लिए हफते बाद सुनार के यहा फिर जाती हू ---- बेटी साथ है ---- बेटी के चेहरे पर चमक देखकर कुछ सकून मिलता है ।जैसे ही सुनार ने गहने निकाल कर सामने रखे, बेटी का चेहरा खिल उठता है ---- उन्हें बड़ी हसरत से पहन-पहन कर देखती है और मेरी आखों के सामने 35 वर्ष पहले का दृष्य घूम गया--------मैं भी तो इतनी ही खु थी -----------मा की सोचों से अनजान -------लेकिन आज तो जान गई हू --- सदियों से यही परंपरा चली आज रही है -----मैं वही तो कर रही जो मेरी मा ने किया ---बेटी की तरफ देखती हू उसकी खूशी देखकर सब कुछ भूल जाती ---- अपनी प्यारी सी राजकुमारी बेटी से बढ़कर तो नहीं हैं मेरी खुायॉं -----मन को कुछ सकून मिलता है ----जेवर उठा कर चल पड़ती हॅ बेटी की ऑंखों के सपने देखते हुूए । काष ! मेरी बेटी को इतना सुख दे, इतनी शक्ति दे कि उसको इन परंपराओं को न निभाना पड़े ----- मेरी बेटी अब अबला नहीं रही, पढ़ी लिखी सबला नारी है, वो जरूर दहेज जैसे दानव से लड़ेगी ----- अपनी बेटी के लिए----मेरी ऑंखों में चमक लौट आती है -----पैरों की थिरकन मचलने लगती है --------------।
3:25 pm
Taarkeshwar Giri
सामाजिक बंधन एक ऐसा बंधन हैं, जो न तो किसी तरह का या किसी देश का संविधान हैं और ना ही कानून। बल्कि ये एक ऐसी परम्परा हैं जो सदियों से चली आ रही हैं।
परंपरा भी ऐसी कि अलग-अलग। एक तरह कि नहीं। अगर हम बात हिंदुस्तान कि ही करे तो पुरे हिंदुस्तान मैं सैकड़ो तरह कि सामाजिक मान्यताएं हमें मिल जाएँगी। सामाजिक मान्यताएं धार्मिक रीती रिवाज को भी जन्म देती हैं और समाज को एक सूत्र में बांधने का भी काम करती हैं।
धार्मिक मान्यताएँ कि तरफ अगर हम अपना ध्यान करें तो उसमे भी हमें काफी भिन्नता दिखाई देती हैं, जैसे कि पूजा पद्धति को ही ले ले, बंगाल का हिन्दू वर्ग काली कि पूजा करता हैं तो उत्तर भारत के लोग दुर्गा और वैष्णव देवी कि पूजा करता हैं, उत्तर भारत के लोग कृष्ण और राम कि पूजा करते हैं तो दक्षिण भारत के लोग वेंकटेश और जगन्नाथ जी कि उपासना करते हैं, ये उपासना पद्धति आज जरुर धार्मिक बन गई हैं मगर किसी ज़माने में सिर्फ सामाजिक तरीका ही था।
शादी -विवाह के तरीके भी कुछ ना कुछ भिन्न हो ते हैं, हिमाचल के कुछ आदिवाशी कबीले में एक प्रथा हैं कि चाहे वो कितने ही भाई क्यों ना हो, शादी सिर्फ बड़े भाई कि ही होगी और पत्नी वो सबकी बनेगी( महाभारत काल में द्रोपदी कि तरह)। राजस्थान के आदिवाशी कबीलों में शादी से पहले लड़का एक साल तक लड़की के घर रहता हैं और अगर वो एक साल तक लड़की के घर का खर्च उठा सकता हैं तभी शादी कि बात आगे बढ़ेगी वर्ना ख़त्म।
और भी ना जाने कितनी परम्पराएँ जन्म देती हैं एक राष्ट को जिसे हम भारत वर्ष या हिंदुस्तान कहते हैं। इतनी सारी सामाजिक भिन्नताएं होने के बावजूद भी हिंदुस्तान एक जुट हैं।
ये मेरा पहला लेखा हैं नेट प्रेस के लिए। लेख लम्बा ना हो जाय इसलिए फिर कभी।
1:23 pm
Pardeep Dhaniya
सिरसा: हरियाणा के सिरसा में प्रेमिका की जलती चिता में कूदकर एक 17 साल के लड़के ने जान दे दी। लड़की के परिवार वालों को इस प्रेम संबंध पर आपत्ति थी और घर वालों के इस व्यवहार से आजिज होकर लड़की ने खुदकुशी कर ली थी।
यह घटना सिरसा जिले के रोड़ी गांव की है। वीरपाल कौर 9वीं में पढ़ती थी और वह अपने ही स्कूल के 11वीं में पढ़नेवाले बिट्टू सिंह से प्यार करती थी। बिट्टू पंजाब के मालसिंहवाला गांव का रहनेवाला था और वह यहां पर अपने मामा के साथ रहता था। वीरपाल और बिट्टू पिछले 2 साल से एक दूसरे को प्यार करते थे।
बिट्टू से रिलेशनशिप की बात जब वीरपाल के घर वालों को पता चली, तब उन्होंने उसको जबरदस्त छाड़ लगाई। इससे दुखी होकर पिछले 26 नवंबर को वीरपाल ने अपनी बॉडी पर किरोसीन छिड़क ली और आग लगा ली। इसके बाद उसे सिरसा हॉस्पिटल ले जाया गया, जहां पिछले सोमवार को उसकी मौत हो गई।
जैसे ही बिट्टू को वीर पाल के मरने की खबर मिली, वह परेशान हो गया। इसके बाद वह वहां पहुंचा जहां पर वीरपाल के परिवार वाले उसका अंतिम संस्कार कर रहे थे। जांच से पता चला कि वह सोमवार से गायब था। उसकी साइकल श्मशान घाट के पास मिली है। पता चला है कि वह वीरपाल की चिता के पास उस समय गया, जब सब लोग वहां से लौट आए थे।
रोड़ी थाना के सब इंस्पेक्टर और केस के जांच अधिकारी बच्चन सिंह ने कहा कि बिट्टू जैसे ही वहां पहुंचा, उससे रहा नहीं गया। वह अपनी प्रेमिका की जलती चिता में कूद गया। बिट्टू की मौत के बारे में लोगों को तब पता चला, जब चिता में दो लोगों की जली हुई बॉडी के अंश के दिखे।
इसीबीच सिरसा के एसपी सतिन्दर गुप्ता ने कहा यह ऑनर किलिंग का मामला नहीं है। पहली नजर में यह आत्महत्या का केस लगता है। हमने बॉडीज को पोस्टमॉर्टम के लिए भेज दिया है