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26.6.10

मेहनत रंग लायी एक पिता की

बरेली जनपद के सीबीगंज इलाके में तत्कालीन सहायक पुलिस अधीक्षक जे रविन्द्र गौड़ के दिशा निर्देशन में मुकुल गुप्ता नाम के नौजवान को पुलिस ने पकड़ कर हत्या कर दी थी। मुकुल गुप्ता के पिता ब्रजेन्द्र गुप्ता ने न्यायलय की शरण लेकर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई थी जिसकी विवेचना स्थानीय पुलिस को ही दी गयी थी जिसपर ब्रजेन्द्र गुप्ता ने माननीय उच्च न्यायलय इलाहाबाद में याचिका दायर कर सी.बी.आई जांच कराने की मांग की थीकानूनी दांव पेच के बाद 20 फरवरी 2010 को न्यायलय ने सी.बी.आई जांच के आदेश दिए। जांच के उपरांत सी.बी.आई ने अब वर्तमान में पुलिस अधीक्षक बलरामपुर जे रविन्द्र गौड़ समेत 11 पुलिस कर्मियों के ऊपर हत्या हत्या के सबूत मिटाने का वाद दर्ज कराया है।
कानून के रक्षकों द्वारा वह-वाही इनाम प्राप्त करने के लिए नवजवानों को पकड़ कर हत्या का सिलसिला बहुत पुराना हो रहा है। पीड़ित पक्ष द्वारा आवाज उठाने पर कोई कार्यवाही नहीं हो पाती है यदि किसी तरह प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज भी हो जाती है तो उसकी विवेचना उसी विभाग के निचले स्तर के अधिकारी करने लगते हैं। विवेचना के नाम पर विवेचना अधिकारी साक्ष्य मिटाने का ही काम करते हैं इसलिए आवश्यक यह है एनकाउन्टर में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर पुलिस विभाग से अतिरिक्त जांच एजेंसी से जांच करनी चाहिए जिससे जनता का विश्वास पैदा होगा और फर्जी तरीके से एनकाउन्टर के नाम पर हत्याएं रोकी जा सकती हैं।
बधाई के पात्र हैं श्री ब्रजेन्द्र गुप्ता जिन्होंने ने अपने पुत्र की हत्या के अपराधियों को सजा दिलाने के लिए एक लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ी। एक अधिवक्ता होने के नाते मैं उनका कष्ट समझ सकता हूँ कि उन्होंने न्याय प्राप्त करने के लिए कितने कष्ट सहे होंगे। अभी उनको हत्यारों को सजा कराने के लिए काफी प्रयास करने होंगे

हिसार में ऑनर किलिंग

हिसार । इज्जत के लिए हत्या करने का एक और मामला सामने आया है। अपने मजहब से बाहर लव मैरिज करने वाले युवक की हत्या कर दी गई। युवक का शव शुक्रवार को हिसार के एक होटेल से मिला। युवक के परिवार वालों ने हत्या का इल्जाम लड़की के परिवार वालों पर लगाया है। पुलिस सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक , 28 वर्षीय इस युवक का नाम प्रणव कुमार (बदला हुआ नाम) था। वह एक मुस्लिम युवती से लव मैरिज करने के बाद से हिसार के अर्बन एस्टेट-2 में अपने परिवार से अलग रह रहा था। पुलिस की तफतीश में पता चला है कि प्रणव को गुरुवार को लड़की के परिजनों ने फोन करके बुलाया था। लेकिन शुक्रवार सुबह उसकी लाश, हिसार के बस अड्डे के सामने स्थित होटल के कमरा नंबर 121 से बरामद हुई। प्रणव के शरीर पर चोट के गहरे निशान पाए गए हैं। कमरे से हथोड़ा व कुछ बोतलें भी बरामद हुई हैं। एएसपी पंकज नैन ने बताया कि युवक हिसार के एक प्राइवेट स्कूल में कंप्यूटर ऑपरेटर था। उसके पिता हिसार की एक फैक्ट्री में फोरमैन के पद पर कार्यरत हैं। प्रणव ने 15 नवंबर 2009 को जयपुर की मुस्लिम लड़की रुखसाना (बदला हुआ नाम) से लव मैरिज की थी। प्रेम प्रसंग के दौरान रुखसाना के परिजनों ने प्रणव के खिलाफ अपहरण व बलात्कार का केस दर्ज कराया था, लेकिन रुखसाना ने पुलिस को प्रणव के पक्ष में बयान दिया और दोनों ने शादी कर ली थी। प्रणव के पिता ने पुलिस को बताया कि इस शादी से रुखसाना के परिवार वाले खुश नहीं थे और उन्होंने ही आलोक की हत्या की है। बताया जाता है कि रुखसाना के पिता राजस्थान से एक राजनीतिक पार्टी के प्रदेश महासचिव हैं। पुलिस प्रवक्ता के अनुसार होटेल में कमरा किसी दूसरे के नाम से बुक करवाया गया था। पुलिस मामले की तहकीकात रुपयों के लेन-देन से लेकर सट्टेबाजी आदि जैसे पहलुओं पर भी गौर करते हुए कर रही है। पुलिस के अनुसार युवक अपनी पत्नी के साथ देर रात तक मोबाइल पर संपर्क में था।

25.6.10

कितने मुनासिब हैं विशेष पुलिसिया दस्ते- अंतिम भाग

विशेष बलों के जरिए होने वाली फर्जी गिरफ्तारियों का सिलसिला उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है। दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल भी मनगढ़ंत कहानी पर फर्जी गिरफ्तारी करने के मामले में अदालत में मुँह की खा चुकी है। दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल की करतूत तब सामने आईं, जब अदालत ने मुठभेड़ के बाद गिरफ्तार किए गए कथित आतंकियों को रिहा कर दिया। इन कथित आतंकियों को स्पेशल सेल ने 2005 में मुठभेड़ के बाद दिल्ली से गिरफ्तार किया था। इन पर भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून पर हमले की साजिश का आरोप था। जिसे स्पेशल सेल ने एक बड़ी कामयाबी के तौर पर प्रचारित किया था। जबकि गिरफ्तार किए गए सभी चारो लोग पुलिस की तरफ से पेश की गई चार्जशीट के विरोधाभासी ब्यौरों के आधार पर निचली अदालत द्वारा बरी कर दिए गए हैं। अदालत ने स्पेशल सेल के कामकाज से असंतोष व्यक्त करते हुए बार-बार टिप्पणी की है कि स्पेशल सेल ने अपने अधिकारों का बेजा इस्तेमाल किया है। दिल्ली पुलिस ने मार्च 2005 में जिन चार लोगों को आतंकी बताकर गिरफ्तार किया था, पाँच साल बाद जब वे छूटे तो उनके पास न तो वह उल्लास था और न वे सपने, जो उन्होंने पुलिसिया साजिश का शिकार होने से पहले सँजोये थे।
आउट ऑफ टर्न प्रमोशन लेकर फर्जी एनकाउंटर करके अपनी पीठ थपथपाने वाली पुलिस से जन्मे विशेष दस्ते अब आतंकवाद और नक्सलवाद के नाम पर लोगों को निशाना बना रहे हैं। ऐसे में ये सवाल करना सहज हो जाता है कि आखिर देश का संविधान जो आजादी, जो सहूलियतें देता है, उसको नुकसान पहुँचाने वाले पुलिसकर्मी निर्दोष कैसे हो सकते हैं? क्या इन दस्तों के कारनामों से संविधान की मूल भावना को चोट नहीं पहुँचती है? दरअसल राजनीति में दिनों-दिन बढ़ती जा रही गैर-जिम्मेदारी ऐसे सवालों से मुँह चुरा रही है। जबकि सत्ता अपने अपने अपराध को छिपाने के लिए खौफजदा समाज बनाने की कोशिश में है। एक ऐसा समाज जहाँ हर किसी को केवल अपने जान और माल की चिंता में ही व्यस्त रहने की मजबूरी हो और सत्ता के पक्षपाती कदमों के संगठित
प्रतिरोध की स्थितियाँ ही न बन पाएँ। यही कारण है कि अधिकारों का दुरुपयोग करने के तमाम आरोपों के बावजूद विशेष पुलिस दस्तों को बनाए रखा जा रहा है। सत्ता भययुक्त समाज बनाने के लिए
धीमी न्याय प्रक्रिया का फायदा उठाकर इन बलों का बखूबी इस्तेमाल कर रही है। यही कारण है कि किसी भी बड़ी वारदात के बाद चैबीस या अड़तालीस घंटे के भीतर एक साथ कई गुनाहगारों की गिरफ्तारी हो जाती है। साजिशकर्ता जानते हैं कि जब तक मामला निष्कर्ष पर पहुँचेगा और अदालत का फैसला आएगा, तब तक बात पुरानी हो चुकी होगी। इसके अलावा ये विशेष दस्ते फर्जी गिरफ्तारियों और मनगढंत कहानियों के जरिये अपने औचित्य का भी बचाव करते हैं। क्योंकि जब तक इस तरह के अपराध होते रहेंगे या होने की सम्भावनाएँ जताई जाती रहेंगी, तब तक इन विशेष दस्तों के बने रहने का तर्क मजबूत रहेगा। कुल मिलाकर विशेष दस्तों को मिलने वाली विशेष सुविधाएँ इस तरीके के भ्रष्टाचार के लिए मनोबल देती हैं।
कहने का साफ मतलब है कि जब देश का सामान्य कामकाज सामान्य नियमों से चल सकता है,तो विशेष कानून और विशेष कार्य बल कितने जरूरी हैं? अगर ऐसे बलों की आवश्यकता है तो यह तय करने की जिम्मेदारी किसकी है कि इन बलों से नैसर्गिक न्याय की अवधारणा को कोई चोट न पहुँचे। अगर कोई नागरिकों की गरिमा को नुकसान पहुँचाता है तो ऐसे लोगों को दंडित करने की जिम्मेदारी किसकी है ? वक्त रहते सामान्य विधि प्रक्रियाओं और व्यवस्थाओं को मजबूत किया जाना जरूरी है, ताकि किसी भी तरह के विशेषाधिकार के बल पर नागरिकों की अस्मिता पर चोट करने वाली कारगुजारियों को रोका जा सके। ऐसे में इन विशेष पुलिसिया दस्तों को भंग किया जाना मानवाधिकारों के संरक्षण में पहला कदम साबित होगा।

(समाप्त)

-ऋषि कुमार सिंह
मोबाइल: 09313129941

फांसी पर लटके मिले युवक-युवती

फतेहाबाद: टोहाना नगर के रतिया रोड़ पर अजय ट्रासपोर्ट कम्पनी के कार्यालय के सामने स्थित खाली पड़ी कोठी की ऊपरी मंजिल पर एक अज्ञात युवक व युवती का शव छत से झूलता हुआ पाये जाने से सनसनी फैल गई। शहर पुलिस ने दोनों शवों को अपने कब्जे में लेकर पोस्टमार्टम के लिए सरकारी अस्पताल में भिजवा दिया है। अनुमान लगाया जा रहा है कि लगभग डेढ़ माह से दोनों शव इस मकान में लटक रहे थे। रतिया रोड़ के दुकानदारों को पिछले लगभग पन्द्रह-बीस दिनों से बदबू का अहसास हो रहा था। उन्होंने पास के खाली स्थानों में कुत्तो के शव के पड़े होने की आशका के चलते इसे गंभीरता से नहीं लिया। आज अचानक प्रात: ग्यारह बजे के करीब उक्त कमरे से जबरदस्त बदबू फैलने से दुकानदारों के अलावा राह चलते लोगों को भारी परेशानी हो रही थी। लोगों को आशका व्यक्त हुई कि उक्त कोठी में से ही बदबू आ रही है। लोगों ने शहर थाना में फोन के द्वारा सूचना दी। सूचना मिलते ही शहर पुलिस की टीम थाना प्रभारी मदन के नेतृत्व में उक्त कोठी के मुख्य द्वार पर पहुंची, जहा लोगे के गेट को जंजीर से बंद कर ताला जड़ा हुआ था, लेकिन गेट लूज बंद होने से उसमें से निकलना आसान था। पुलिस ने मुख्य द्वार का ताला तोड़कर मुंह को रूमाल से ढांपकर उस कोठी की ऊपरी मंजिल में प्रवेश किया तो कमरे के अन्दर एक युवक व युवती का शव छत पर लगी हुक के साथ बंधी रस्सी से लटक रहा था। शव पुराना होने के कारण चेहरे के हालात बिगड़े हुए थे तथा शिनाख्त करना भी मुश्किल था। युवक का शव छत की ओर व युवती का शव रस्सी से बंधा जमीन पर लटक रहा था। युवती की दोनों टागे कुत्ताों द्वारा नोचे जाने की आशका व्यक्त की जा रही थी क्योंकि कमरे के बाहर पैरों की हड्डिया पड़ी पाई गई है। पुलिस ने तुरन्त सीन ऑफ क्राइम की टीम को मामले की सूचना दी जिस पर कुछ ही घटों बाद टीम ने पहुच कर कमरे में लटके शवों के इर्द गिर्द जाच पड़ताल कर आवश्यक सबूत एकत्र किये। शहर थाना प्रभारी मदन लाल ने बताया कि उक्त शव टोहाना नगर के वासी नहीं हो सकते क्यों कि पिछले एक माह के दौरान थाना शहर में किसी ऐसे युवक युवती के लापता होने का कोई मामला दर्ज नहीं है। फिलहाल पुलिस उन दोनों की शिनाख्त के लिए छानबीन कर रही है। इस बारे में पुलिस अधीक्षक जगवंत सिंह लांबा से बात की गई तो उन्होंने कहा कि प्राथमिक जांच में यह आत्महत्या का मामला नजर आ रहा है। उन्होंने कहा कि युवक युवती के फतेहाबाद जिले से बाहर होने का अनुमान है। क्योंकि अभी तक जिले में इस तरह का मामला सामने नहीं आया है।

24.6.10

कितने मुनासिब हैं विशेष पुलिसिया दस्ते

देश में उत्तर प्रदेश पुलिस प्रताड़ना से होने वाली मौतों में सबसे आगे है, तो मानवाधिकार हनन के भी मामले में किन्हीं दूसरे राज्यों से पीछे नहीं है। हाल के दिनों में विशेष पुलिसिया दस्तों के द्वारा किए गए कथित मुठभेड़ों पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। जबकि इन विशेष पुलिसिया दस्तों का गठन संगठित अपराधों और आतंकी वारदातों से निपटने के नाम पर किया गया था, लेकिन वक्त बीतने के साथ ये विशेष दस्ते सवालों के घेरे में आ गए। ये विशेष दस्ते अपने कामकाज के तरीके में मानवाधिकार हनन का केंद्र बन गए हैं। गौरतलब है कि हरियाणा में अपराधियों से निपटने के लिए बनाई गई स्पेशल टास्क फोर्स ऐसे ही आरोपों के चलते भंग कर दी गई। हरियाणा एस0टी0एफ0 पर सर्राफा व्यापारियों से पैसे वसूलने का आरोप लगा। सी0सी0टी0वी0 कैमरे में कैद हुईं तस्वीरों के आधार पर एस0टी0एफ0 के सात जवानों समेत एस0टी0एफ0 के मुखिया अशोक श्योराण को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया है। हरियाणा की घटना से यह बहस जरूरी हो गई है कि सामान्य पुलिस की तुलना में एस0टी0एफ0 जैसे विशेषाधिकार प्राप्त दस्ते कितने उपयुक्त होते हैं, क्योंकि अपराधियों पर नकेल कसने की लिए बनाए गए ये दस्ते कई संगीन आरोपों में घिरते जा रहे हैं। इन दस्तों पर न केवल बेगुनाहों को फँसाने का आरोप है, बल्कि जबरन उगाही, सरेआम हथियारों का प्रदर्शन, बिना नम्बर प्लेट की गाड़ी से चलने जैसे कई आरोप समय-समय पर लगते रहे हैं।
केवल उत्तर प्रदेश में इन विशेष पुलिसिया दस्तों के कामकाज को लेकर लगातार अँगुली उठती रही है। उत्तर प्रदेश पुलिस की एस0टी0एफ0 और ए0टी0एस0 पर दर्जनों फर्जी गिरफ्तारियाँ करने का आरोप है। इस बात को लेकर समय-समय पर मानवाधिकार संगठनों ने न केवल एस0टी0एफ0 व ए0टी0एस0 को भंग करने की, बल्कि फर्जी गिरफ्तारियों के मामले में ए0टी0एस0 अधिकारियों का नार्को टेस्ट कराने की माँग भी की है। फर्जी गिरफ्तारियों की असलियत तब सामने आई, जब अदालतों में साक्ष्यों के अभाव में या पकड़े गये लोगों के घटनास्थल पर मौजूद न होने के पुख्ता सबूतों के आधार पर अदालत ने फैसला सुनाया। पश्चिम बंगाल से गिरफ्तार किया गया राजू बंगाली नामक युवक बेकसूर पाया गया, हालाँकि एस0टी0एफ0 ने उसे हूजी का कमांडर बताया था। ए0टी0एस0 और एस0टी0एफ0 ने राजू बंगाली की निशानदेही पर जिन लोगों को गिरफ्तार किया था, वे लोग अभी तक जेलों में रहने को मजबूर हैं। उत्तर प्रदेश में एस0टी0एफ0 की फर्जी गिरफ्तारियों का दूसरा साक्ष्य 19 नवम्बर 2009 को लखनऊ की अदालत में सामने आया, जब 23 जून 2007 को लखनऊ में विस्फोटक छुपाने के मामले की सुनवाई चल रही थी। उत्तर प्रदेश एस0टी0एफ0 ने अज़ीज़ुर्रहमान नाम के शख्स को पश्चिम बंगाल से गिरफ्तार करते हुए जो कहानी पेश की थी, उसके अनुसार 22/23 जून की रात अजीजुर्रहमान लखनऊ में मौजूद था। जबकि 22 जून को पश्चिम बंगाल की सी0आई0डी0 ने अजीजुर्रहमान को चोरी के आरोप में कोर्ट में पेश किया था। जहाँ अलीपुर कोर्ट के मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने उसे 6 दिन की रिमांड पर भेजा था, कोर्ट की तरफ से जारी की गई रिमांड की सर्टीफाइड कॉपी इस बात का सबूत है। कुल मिलाकर पश्चिम बंगाल का अदालती दस्तावेज यह साबित करता है कि अज़ीज़ुर्रहमान किसी भी सूरत में 22/23 जून 2007 को लखनऊ में नहीं हो सकता है। गौरतलब है कि एस0टी0एफ0 ने हूजी के कथित एरिया कमांडर जलालुद्दीन उर्फ बाबू की निशानदेही पर अज़ीज़ुर्रहमान को दो अन्य लोगों एस के मुख्तार और मोहम्मद अली अकबर के साथ गिरफ्तारी की थी। तीनों की निशानदेही पर 11 जुलाई 2007 को मोहनलालगंज के गढ़ी गाँव से विस्फोटक भी बरामद किया था। जबकि जलालुद्दीन उर्फ बाबू को 23 जून 2007 को लखनऊ के रेजीडेंसी के पास से गिरफ्तार किया गया था। एसटीएफ ने बाबू को संकट मोचन मंदिर और श्रमजीवी एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों का मास्टरमाइंड बताया था।
सबसे अफसोसजनक हालत यह है कि अज़ीज़ुर्रहमान की फर्जी गिरफ्तारी के सबूत सामने आने के बाद उत्तर प्रदेश पुलिस, एटीएस और एसटीएफ तीनों एक दूसरे को जिम्मेदारे ठहराने लगे। एडीजी राजीव जैन ने ए0टी0एस0 को जिम्मेदार बताया, जबकि ए0टी0एस0 प्रमुख सब्बरवाल ने ए0टी0एस0 बनाये जाने से पहले का मामला बताकर बचने की कोशिश की। वहीं एस0टी0एफ0 प्रमुख व ए0डी0जी0 बृजलाल ने पूरे मामले पर ए0टी0एस0 को जिम्मेदार बताया और कारण दिया कि इस तरह के सारे मामले ए0टी0एस0 ही देख रही है। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश पुलिस, ए0टी0एस0 और एस0टी0एफ0 तीनों जिम्मेदारी लेने से बचते दिखाई दे रहे हैं। जबकि तत्कालीन डी0जी0पी0 विक्रम सिंह ने बाकायदा संवाददाता सम्मेलन बुलाकर यह घोषणा की थी कि 22/23 जून 2007 की रात तीनों यानी अजीजुर्रहमान, एस0के0 मुख्तार और अली अकबर लखनऊ में मौजूद थे। जलालुद्दीन उर्फ बाबू के गिरफ्तार होने की खबर टेलीविजन पर देखकर वे भाग गए थे। कुल मिलाकर अदालत में सामने आया पूरा वाक़िया यह साबित करने के लिए काफी है कि उत्तर प्रदेश में मानवाधिकारों के लिए ये विशेष अधिकार संगठन किस तरह का खतरा पैदा कर रहे हैं? गौरतलब है कि अज़ीज़ुर्रहमान की गिरफ्तारी फर्जी होने के ठोस सबूत के बावजूद अदालत ने अज़ीज़ुर्रहमान की जमानत याचिका खारिज कर दी। मुकदमें की पैरवी कर रहे एडवोकेट मोहम्मद शुऐब ने असंतोष व्यक्त करते हुए अपना वकालतनामा वापस ले लिया। चूँकि पूरी न्याय व्यवस्था साक्ष्यों के होने या न होने पर काम करती है, ऐसे में ठोस साक्ष्यों की अवहेलना अपने आप में कई सवाल खड़े करता है।

-ऋषि कुमार सिंह
मोबाइल: 09313129941

विशालकाय तीन ट्रालें बने चर्चा का विषय

सिरसा: गुजरात के कांडला घाट से वॉयलर लेकर बठिंडा के श्री गुरू गोबिंद सिंह रिफायनरी के लिए रवाना हुआ विशालकाय तीन ट्रालें आज 3 महीने 20 दिन का सफर तय करने के पश्चात सिरसा पहुंच गया। दिल्ली पूल पर इस विशालकाय ट्राले को देखने के लिए सिरसा वासी उमड़ पड़े। इस ट्राले के साथ चल रहे हाईड्रोलिक इंजीनियर शंकर दूदूथी ने बताया कि यह विशाल ट्राला गुजरात के कांडला घाट से बठिंडा के लिए रवाना हुआ है। उन्होंने बताया कि प्रत्येक ट्राले में 250 से 300 के करीब टायर लगे हुए हैं वहीं इस ट्राले को खीचने के लिए वोल्वों कम्पनी के दो शक्तिशाली इंजन लगे हुए हैं तथा साथ ही प्रत्येक ट्राले की देखरेख के लिए 50 से अधिक कर्मचारी जुटे हुए हैं। शंकर ने बताया कि प्रत्येक दिन वे 10 से 15 किलो मीटर का सफर तय करते हैं और इतने सफर के बाद टायरों का रखरखाव और अन्य पुर्जों की जांच की जाती है। उन्होंने बताया कि गुजरात से बठिंडा तक का 17 सौ किलो मीटर का सफर उन्हें तय करना है। जबकि सिरसा तक उन्होंने 15 सौ किलो मीटर का सफर तय कर लिया है। जब उनसे पूछा गया कि रास्तें में उन्हें किन दिक्कतों का सामना करना पडा तो उन्होंने बताया कि आंधी बारिश के इलावा शहरों में नीचे लगी बिजली की तारों के कारण उन्हें काफी परेशानी झेलनी पडती है। उन्होंने बताया कि इससे पहले भी वे मध्य प्रदेश के जिला वीणा, उत्तर प्रदेश के मथुरा, हरियाणा के पानीपत के बाद अब बठिंडा के लिए ये वायलर सप्लाई करने जा रहे हैं। 30 फुट ऊंचाई व 137 फुट लम्बाई वाले ये तीन ट्राले शहर के लोगों के लिए चर्चा का विषय जरूर बने हुए हैं।

23.6.10

अतिवाद की लड़ाई - 2

राजशाही जब खारिज की गयी जोकि एक समय तक ईश्वर प्रदत्त मानी जाती थी और यह तय हुआ कि अब राजाओं को जनता चुनेगी तो संसदीय लोकतंत्र की स्थापना, सैद्धांतिक तौर पर लोगों द्वारा ईश्वर के लिये खारिजनामा ही था, क्योंकि राजा उसके प्रतिनिधि होते थे और राजा को खा़रिज करना इश्वर को खारिज करने से कहीं कम न था बल्कि वह एक प्रत्यक्ष भय था. इस नयी व्यवस्था के बारे में प्रस्फुटित होने वाले विचार जरूरी नहीं कि वे केवल लिंकन के ही रहे हों पर ये विचार राजशाही के लिये अतिवादी ही थे. राजशाही के समय का यही अतिवाद आज हमारे समय के लोकतंत्र में परिणित हुआ. अतिवाद हमेशा समय सापेक्ष रहा है पर वह भविष्य की संरचना के निर्माण का भ्रूण विचार भी रहा जिसे ऐतिहासिक अवलोकन से समझा जा सकता है.
ज्योतिबाफुले, सावित्रीबाई फुले, राजाराम मोहनराय जैसे कितने नाम हैं जो लोग अपने समय के अतिवादी ही थे. इन्हें आज का माओवादी भी कह सकते हैं चूंकि ये संरचना प्रक्रिया में विद्रोह कर रहे थे एक दमनकारी व शोषणयुक्त प्रथा का अंत करने में जुटे थे. भविष्य में जब समाज के मूल्यबोध बदले तो इन्हें सम्मानित किया गया, क्या नेपाल में ऐसा नहीं हुआ. सत्तावर्ग ने इन शब्दों के मायने ही आरक्षित कर लिये हैं. किसी भी समय का अतिवाद, उस समय के सत्तावर्ग के लिये अपराधी और भविष्य के समाज का निर्माता होता है बशर्ते वह उन मूल्यों के लिये हो जो मानवीयता और आजादी के दायरे को व्यापक बनाये.
उन्हें उग्रवादी घोषित कर दिया जायेगा, आसानी से अराजक कह दिया जायेगा जो आवाज उठाते हैं कि घोषित करने वालों की बनी बनायी व्यवस्थायें, भले ही वह एक व्यापक समुदाय के लिये निर्मम और अमानवीय हो पर उनके लिये सुविधा भोगी है, के खिलाफ आवाज उठाना, उनकी व्यवस्थित जिंदगी व उनके जैसे भविष्य में आने वालों की जिंदगी में खलल पैदा करती है. मसलन आप असन्तुष्ट रहें पर इसे व्यक्त न करें, व्यक्त भी करें तो उसकी भी एक सीमा हो, उसके तौर-तरीके उन्होंने बना रखें हैं. इसके बाहर यदि आप उग्र हुए, गुस्सा आया तो यह उग्रवादी होना है. इस प्रवृत्ति को आपसी बात-चीत, छोटे संस्थानों से लेकर देश की बड़ी व्यवस्थाओं तक देखा जा सकता है जहाँ असंतुष्ट होना, असहमति उनके बने बनाये ढांचे से बाहर दर्ज करना, अराजक और उग्रवादी होना है और इन शब्दों के बोध जनमानस में अपराधिकृत कर दिये गये हैं.
अभिषेक मुखर्जी जिसकी बंगाल पुलिस द्वारा हाल में ही हत्या कर दी गयी क्या यह सोचने पर विवश नहीं करता कि आखिर वे क्या कारण हैं कि १३ भाषाओं का जानकार और जादवपुर विश्वविद्यालय का एक प्रखर छात्र देश की उच्च पदाधिकारी बनने की सीढ़ीयां चढ़ते-चढ़ते लौट आता है और लालगढ़ के जंगलों में आदिवासियों की लड़ाई लड़ने चला जाता है, क्या यह सचमुच युवाओं का भटकाव है जो गुमराह हो रहे हैं, जिसे सरकार बार-बार दोहराती रहती है या व्यवस्था की कमजोरी और सीमा की पहचान कर विकल्प की तलाश. अनुराधा गांधी, कोबाद गांधी, साकेत राजन, तपस चक्रवर्ती, शायद देश और दुनिया के बड़े नौकरसाह बन सकते थे, पर वर्षों बरस तक लगातार जंगलों की उस लड़ाई का हिस्सा बने रहे जिसे सरकार अतिवाद की लड़ाई मानती है और ये उसे अधिकार की. शायद समाज में जब तक अतिवाद और अतिवादि रहेंगे, स्वभाव में जब तक उग्रता बची रहेगी तमाम दुष्प्रचारों के बावजूद नये समाज निर्माण की उम्मीदें कायम रहेंगी.

( समाप्त )

-चन्द्रिका
स्वतंत्र लेखन व शोध