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15.6.10

लो क सं घ र्ष !: हिंदी ब्लॉगिंग की दृष्टि से सार्थक रहा वर्ष-2009, भाग-7


..आज जिसप्रकार हिन्दी के चिट्ठाकार अपने लघु प्रयास से व्यापक प्रभामंडल बनाने में सफल हो रहे हैं, वह भी साधन और सूचना की न्यूनता के बावजूद , कम संतोष की बात नही है हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय स्वरुप देने में हर उस ब्लोगर की महत्वपूर्ण भुमिका है जो बेहतर प्रस्तुतीकरण, गंभीर चिंतन, सम सामयिक विषयों पर सूक्ष्मदृष्टि, सृजनात्मकता, समाज की कु संगतियों पर प्रहार और साहित्यिक- सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम से अपनी बात रखने में सफल हो रहे हैं। ब्लॉग लेखन और वाचन के लिए सबसे सुखद पहलू तो यह है कि हिन्दी में बेहतर ब्लॉग लेखन की शुरुआत हो चुकी है जो हम सभी के लिए शुभ संकेत का द्योतक है
हम चर्चा करेंगे वर्ष -२००९ के उन महत्वपूर्ण चिट्ठों की जिनके पोस्ट पढ़ते हुए हमें महसूस हुआ कि यह विचित्र किंतु सत्य है । यानी आज की इस चर्चा में हम चौंकाने वाले उन आलेखों की बात करेंगे जिन्हें पढ़ने के बाद आप यह कहने को विवश हो जायेंगे कि क्या सचमुच ऐसा ही है ? आईये उत्सुकता बढ़ाने वाले आलेखों की शुरुआत करते हैं हम मसिजीवी पर जुलाई-२००९ में प्रकाशित पोस्ट ३८ लाख हिन्दी पृष्ठ इंटरनेट पर से । इस आलेख में यह बताया गया है कि -चौदह हजार एक सौ बाइस पुस्तकों के अड़तीस लाख छत्तीस हजार पॉंच सौ बत्तीस ..... हिन्दी के पृष्ठ । बेशक ये एक खजाना है जो हम सभी को उपलब्ध है ....बस एक क्लिक की दूरी पर ...!इस संकलन में कई दुर्लभ किताबें तक शामिल हैं ।
दूसरा आलेख जो सबसे ज्यादा चौंकाता है वह है -उन्मुक्त पर २८ जून को प्रकाशित आलेख सृष्टि के कर्ता-धर्ता को भी नहीं मालुम इसकी शुरुवात का रहस्य । इस आलेख में श्रृष्टि के सृजन से संवंधित अनेक प्रमाणिक तथ्यों की विवेचना की गई है । वैसे यह ब्लॉग कई महत्वपूर्ण जानकारियों का पिटारा है । प्रस्तुतीकरण अपने आप में अनोखा , अंदाज़ ज़रा हट के इस ब्लॉग की विशेषता है ।इस चिट्ठे की सबसे ख़ास बात जो समझ में आयी वह है ब्लोगर के विचारों की दृढ़ता और पूरी साफगोई के साथ अपनी बात रखने की कला ।
तीसरा आलेख जो हमें चौंकता है , वह है- रवि रतलामी का हिन्दी ब्लॉग पर ०६ अप्रैल को प्रकाशित पोस्ट चेतावनी: ऐडसेंस विज्ञापन कहीं आपको जेल की हवा न खिला दे । इसमे बताया गया है कि- ०५ अप्रैल को यानि कल इसी ब्लॉग में भारतीय समयानुसार शाम पांच से नौ बजे के बीच एक अश्लील विज्ञापन प्रकाशित होता रहा। विज्ञापन एडसेंस की तरफ से स्वचालित आ रहा था और उसमें रोमन हिन्दी में पुरुष जननांगों के लिए आमतौर पर अश्लील भाषा में इस्तेमाल किए जाने वाले की-वर्ड्स (जिसे संभवत गूगल सर्च में ज्यादा खोजा जाता है) का प्रयोग किया गया था ।
चौथा आलेख जो हमें चौंकता है वह है- अगड़म-बगड़म शैली के विचारक अलोक पुराणिक अपने ब्लॉग के दिनांक २६.०६.२००९ के एक पोस्ट के माध्यम से इस चौंकाने वाले शब्द का प्रयोग करते हैं कि -आतंकवादी आलू, कातिल कटहल…. । है न चौंकाने वाले शब्द ? उस देश में जहाँ पग-पग पर आतंकियों का खतरा महसूस किया जाता हो हम दैनिक उपयोग से संवंधित बस्तुओं को आतंकवादी कहें तो अतिश्योक्ति होगी हीं ।
लेकिन लेखक के कहने का अभिप्राय यह है कि -महंगाई जब बढ़ती है, तो टीवी पर न्यूज वगैरह में थोड़ी वैराइटी आ जाती है। वैसे तो टीवी चैनल थ्रिल मचाने के लिए कातिल कब्रिस्तान, चौकन्नी चुड़ैल टाइप सीरयल दिखाते हैं। पर तेज होती महंगाई के दिनों में हर शुक्रवार को महंगाई के आंकड़े दिखाना भर काफी होता है।
आतंकवादी आलू, कातिल कटहल, खौफनाक खरबूज, तूफानी तोरई जैसे प्रोग्राम अब रोज दिखते हैं। मतलब टीवी चैनलों को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ रही है, वो सिर्फ आलू, तोरई के भाव भर दिखा रहे हैं। हम भी पुराने टाइप के हारर प्रोग्रामों से बच रहे हैं। अन्य शब्दों में कहें, तो कातिल कब्रिस्तान टाइप प्रोग्राम तो काल्पनिक हुआ करते थे, आतंकवादी आलू और कातिल कटहल के भाव हारर का रीयलटी शो हैं।

-रवीन्द्र प्रभात
(क्रमश:)

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून-2010 अंक में प्रकाशित

14.6.10

हिंदी ब्लॉगिंग की दृष्टि से सार्थक रहा वर्ष-2009, भाग-6

आईये शुरुआत करते हैं व्यंग्य से , क्योंकि व्यंग्य ही वह माध्यम है जिससे सामने वाला आहत नहीं होता और कहने वाला अपना काम कर जाता है ऐसा ही एक ब्लॉग पोस्ट है जिसपर सबसे पहले मेरी नज़र जाकर ठहरती है ....१५ अप्रैल को सुदर्शन पर प्रकाशित इस ब्लॉग पोस्ट का शीर्षक है - आम चुनाव का पितृपक्ष ......व्यंग्यकार का कहना है कि -"साधो, इस साल दो पितृ पक्ष पड़ रहे हैं दूसरा पितृ पक्ष पण्डितों के पत्रा में नहीं है लेकिन वह चुनाव आयोग के कलेण्डर में दर्ज है इस आम चुनाव में तुम्हारे स्वर्गवासी माता पिता धरती पर आयेंगे, वे मतदान केन्द्रों पर अपना वोट देंग और स्वर्ग लौट जायेंगे "


इस व्यंग्य में नरेश मिश्र ने चुटकी लेते हुए कहा है कि -" अब मृत कलेक्ट्रेट कर्मी श्रीमती किशोरी त्रिपाठी को अगर मतदाता पहचान पत्र हासिल हो जाता है और उसमें महिला की जगह पुरूष की फोटो चस्पा है तो इस पर भी आला हाकिमों और चुनाव आयोग को अचरज नहीं होना चाहिए अपनी धरती पर लिंग परिवर्तन हो रहा है तो स्वर्ग में भी क्यों नहीं हो सकता स्वर्ग का वैज्ञानिक विकास धरती के मुकाबले बेहतर ही होना चाहिए "

गद्य व्यंग्य के बाद आईये एक ऐसी व्यंग्य कविता पर दृष्टि डालते हैं जिसमें उस अस्त्र का उल्लेख किया गया है जिसे गाहे-बगाहे जनता द्बारा विबसता में इस्तेमाल किया जाता हैजी हाँ शायद आप समझ गए होंगे कि मैं किस अस्त्र कि बात कर रहा हूँ ?जूता ही वह अस्त्र है जिसे जॉर्ज बुश और पी चिदंबरम के ऊपर भी इस्तेमाल किया जा चुका हैमनोरमा के ०९ अप्रैल के पोस्ट जूता-पुराण में श्यामल सुमन का कहना है कि -"जूता की महिमा बढ़ी जूता का गुणगान।चूक निशाने की भले चर्चित हैं श्रीमान।।निकला जूता पाँव से बना वही हथियार।बहरी सत्ता जग सके ऐसा हो व्यवहार।।भला चीखते लोग क्यों क्यों करते हड़ताल।बना शस्त्र जूता जहाँ करता बहुत कमाल।।"

इस चुनावी बयार में कविता की बात हो और ग़ज़ल की बात हो तो शायद बेमानी होगी वह भी उस ब्लॉग पर जिसके ब्लोगर ख़ुद गज़लकार हो०९ अप्रैल को अनायास हीं मेरी नज़र एक ऐसी ग़ज़ल पर पड़ी जिसे देखकर -पढ़कर मेरे होठों से फ़ुट पड़े ये शब्द - क्या बात है...! चुनावी बयार पर ग़ज़ल के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति को धर देने की यह विनम्र कोशिश कही जा सकती हैपाल ले इक रोग नादां... पर पढिये आप भी गौतम राजरिशी की इस ग़ज़ल कोग़ज़ल के चंद अशआर देखिये-न मंदिर की ही घंटी से, न मस्जिद की अज़ानों सेकरे जो इश्क, वो समझे जगत का सार चुटकी में.......बहुत मग़रूर कर देता है शोहरत का नशा अक्सरफिसलते देखे हैं हमने कई किरदार चुटकी मेंखयालो-सोच की ज़द में तेरा इक नाम क्या आयामुकम्मिल हो गये मेरे कई अश`आर चुटकी में......!


मैत्री में २४ मई के अपने पोस्ट आम चुनाव से मिले संकेत के मध्यम से अतुल कहते हैं कि "लोकसभा चुनाव के परिणाम में कांग्रेस को 205 सीटें मिलने के बाद पार्टी की चापलूसी परंपरा का निर्वाह करते हुए राहुल गांधी और सोनिया गांधी की जो जयकार हो रही है, वह तो संभावित ही थी, लेकिन इस बार आश्चर्यचकित कर देनेवाली बात यह है कि देश का पूरा मीडिया भी इस झूठी जय-जयकार में शामिल हो गया है। इस मामले में मीडिया ने अपने वाम-दक्षिण होने के सारे भेद को खत्म कर लिया है।"



दरवार के १६ मार्च के पोस्ट जल्लाद नेता बनकर आ गए में धीरू सिंह ने नेताओं के फितरत पर चार पंक्तियाँ कुछ इसप्रकार कही है -" नफरत फैलाने गए, आग लगाने गए, चुनाव क्या होने को हुए-जल्लाद चहेरे बदल नेता बनकर गए "


प्राइमरी का मास्टर के १३ मार्च के पोस्ट में श्री प्रवीण त्रिवेदी कहते हैं पालीथिन के उपयोग करने पर प्रत्याशी मुसीबत में फंस सकते हैं जी हाँ अपने आलेख में यह रहस्योद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा है की "पर्यावरण संरक्षण एवं संतुलन समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। बिगड़ते पर्यावरण के इसी पहलू को ध्यान में रखते हुए निर्वाचन आयोग ने चुनावी समर में पालीथिन को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध लगा दिया है।इसके तहत पालीथिन, पेंट और प्लास्टिक के प्रयोग को भी वर्जित कर दिया गया है।मालूम हो कि चुनाव प्रचार के दौरान पालीथिन का इस्तेमाल बैनर, पंपलेट तथा स्लोगन लिखने के रूप में किया जाता है। बाद में एकत्र हजारों टन कचरे का निपटारा बहुत बड़ी चुनौती होती है। लेकिन इस बार यह सब नहीं चल पाएगा।"

कस्‍बा के ०९ अप्रैल के पोस्ट लालू इज़ लॉस्ट के माध्यम से श्री रविश कुमार ने बिहार के तीन प्रमुख राजनीतिक स्तंभ लालू-पासवान और नीतिश के बाहाने पूरे चुनावी माहौल का रेखांकन किया हैश्री रविश कुमार कहते है कि -"बिहार में जिससे भी बात करता हूं,यही जवाब मिलता है कि इस बार दिल और दिमाग की लड़ाई है। जो लोग बिहार के लोगों की जातीय पराकाष्ठा में यकीन रखते हैं उनका कहना है कि लालू पासवान कंबाइन टरबाइन की तरह काम करेगा। लेकिन बिहार के अक्तूबर २००५ के नतीजों को देखें तो जातीय समीकरणों से ऊपर उठ कर बड़ी संख्या में वोट इधर से उधर हुए थे। यादवों का भी एक हिस्सा लालू के खिलाफ गया था। मुसलमानों का भी एक हिस्सा लालू के खिलाफ गया था। पासवान को कई जगहों पर इसलिए वोट मिला था क्योंकि वहां के लोग लालू के उम्मीदवार को हराने के लिए पासवान के उम्मीदवार को वोट दे दिया। अब उस वोट को भी लालू और पासवान अपना अपना मान रहे हैं। "

अनसुनी आवाज के २८ मार्च के एक पोस्ट चुनावों में हुई भूखों की चिंता में अन्नू आनंद ने कहा है की- "कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में सबके लिए अनाज का कानून देने का वादा किया है। घोषणा पत्र में सभी लोगों को खासकर समाज के कमजोर तबके को पर्याप्त भोजन देने देने का वादा किया गया है। पार्टी ने गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले हर परिवार को कानूनन हर महीने 25 किलो गेंहू या चावल तीन रुपए में मुहैया कराने का वादा किया है। पार्टी की घोषणा लुभावनी लगने के साथ हैरत भी पैदा करती है कि अचानक कांग्रेस को देश के भूखों की चिंता कैसे हो गई।" वहीं अपने २९ मई के पोस्ट में बर्बरता के विरुद्ध बोलते हुए चिट्ठाकार का कहना है -चुनावों में कांग्रेस की जीत से फासीवाद का खतरा कम नहीं होगा।

चुनाव के बाद के परिदृश्य पर अपनी सार्थक सोच को प्रस्थापित करते हुए रमेश उपाध्याय का कहना है की -"भारतीय जनतंत्र में--एक आदर्श जनतंत्र की दृष्टि से--चाहे जितने दोष हों, चुनावों में जनता के विवेक और राजनीतिक समझदारी का परिचय हर बार मिलता है। पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में भी उसकी यह समझदारी प्रकट हुई।" यह ब्लॉग पोस्ट ०२ जून को लोकसभा चुनावों में जनता की राजनीतिक समझदारी शीर्षक से प्रकाशित है


१९ मई को भारत का लोकतंत्र पर प्रकाशित ब्लॉग पोस्ट पर अचानक नज़र ठहर जाती है जिसमें १५वि लोकसभा चुनावों की पहली और बाद की दलगतस्थिति पर व्यापक चर्चा हुयी हैवहीं ३० अप्रैल को अबयज़ ख़ान के द्वारा अर्ज है - उन चुनावों का मज़ा अब कहां ? जबकि २७ अप्रैल को कुलदीप अंजुम अपने ब्लॉग पोस्ट के मध्यम से अपपनी भावनाएं व्यक्त करते हुए कहते हैं-" सुबह को कहते हैं कुछ शाम को कुछ और होता ,क्या अजब बहरूपिये हैं, हाय ! भारत तेरे नेता !! २५ अप्रैल को हिन्दी युग्म पर सजीव सारथी का कहना है की - "आम चुनावों में आम आदमी विकल्पहीन है ....!"कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिये- "चुनाव आयोग में सभी प्रतिभागी उम्मीदवार जमा हैं,आयु सीमा निर्धारित है तभी तो कुछ सठियाये धुरंधरदांत पीस रहे हैं बाहर खड़े, प्रत्यक्ष न सही परोक्ष ही सही,भेजे है अपने नाती रिश्तेदार अन्दर,जो आयुक्त को समझा रहे हैं या धमका रहे हैं,"जानता है मेरा....कौन है" की तर्ज पर...बाप, चाचा, ताया, मामा, जीजा आप खुद जोड़ लें...!"

राजनीति और नेता ऐसी चीज है जिसपर जितना लिखो कम है , इसलिए आज की इस चर्चा को विराम देने के लिए मैंने एक अति महत्वपूर्ण आलेख को चुना हैयह आलेख श्री रवि रतलामी जी के द्बारा दिनांक 14-4-2009 को Global Voices हिन्दी पर प्रस्तुत किया गया है जो मूल लेखिका रिजवान के आलेख का अनुवाद हैआलेख का शीर्षक है- इस प्रविष्टि की स्थाई कड़ी" href="http://hi.globalvoicesonline.org/india-the-advent-of-citizen-driven-election-monitoring/" rel=bookmark>आम चुनावों में लगी जनता की पैनी नज़रइन पंक्तियों से इस आलेख की शुरुआत हुयी है -"हम जिस युग में रह रहे हैं वहाँ जानकारियों का अतिभार है। ज्यों ज्यों नवीन मीडिया औजार ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच बना रहे हैं, साधारण लोग भी अपना रुख और अपने इलाके की मौलिक खबरें मीडिया तक पहुंचा रहे हैं। ट्विटर और अन्य सिटिज़न मीडिया औजारों की बदौलत ढेरों जानकारी आजकल तुरत फुरत साझा कर दी जाती है। मुम्बई आतंकी हमलों के दौरान ट्विटर के द्वारा जिस तरह की रियल टाईम यानी ताज़ातरीन जानकारियाँ तुरत-फुरत मिलीं उनका भले ही कोई लेखागार न हो पर यह जानकारियाँ घटनाक्रम के समय सबके काम आईं।"

-रवीन्द्र प्रभात
(क्रमश:)

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून-2010 अंक में प्रकाशित

लो क सं घ र्ष !: हिंदी ब्लॉगिंग की दृष्टि से सार्थक रहा वर्ष-2009, भाग-5

आईये आज की चर्चा की शुरुआत करते हैं सामाजिक , सांस्कृतिक और एतिहासिक महत्व से संवंधित विविध विषयों पर केंद्रित कुछ महत्वपूर्ण पोस्ट से ।

" ब्लॉगिंग अभिव्यक्ति का माध्यम है। पर सार्वजनिक रूप से अपने को अभिव्यक्त करना आप पर जिम्मेदारी भी डालता है। लिहाजा, अगर आप वह लिखते हैं जो अप्रिय हो, तो धीरे धीरे अपने पाठक खो बैठते हैं।" यह कहना है श्री ज्ञान दत्त पांडे जी का मानसिक हलचल के २६ जनवरी के पोस्ट अपनी तीव्र भावनायें कैसे व्यक्त करें? पर व्यक्त की गई टिपण्णी में ।

वहीं उड़न तश्तरी .... के १३ फरवरी (प्रेम दिवस ) के पोस्ट मस्त रहें सब मस्ती में... में श्री समीर भाई ने बहुत ही मार्मिक बोध कथा का जिक्र किया है कि" एक साधु गंगा स्नान को गया तो उसने देखा कि एक बिच्छू जल में बहा जा रहा है। साधु ने उसे बचाना चाहा। साधु उसे पानी से निकालता तो बिच्छू उसे डंक मार देता और छूटकर पानी में गिर जाता। साधु ने कई बार प्रयास किया मगर बिच्छू बार-बार डंक मार कर छूटता जाता था। साधु ने सोचा कि जब यह बिच्छू अपने तारणहार के प्रति भी अपनी डंक मारने की पाशविक प्रवृत्ति को नहीं छोड़ पा रहा है तो मैं इस प्राणी के प्रति अपनी दया और करुणा की मानवीय प्रवृत्ति को कैसे छोड़ दूँ। बहुत से दंश खाकर भी अंततः साधु ने उस बिच्छू को मरने से बचा लिया..........!"

जबकि २९ मार्च के घुघूतीबासूती पर प्रकाशित पोस्ट गाय के नाम पर ही सही में पॉलीथीन की थैलियाँ हमारे पर्यावरण के लिए कितना घातक हैं यह महसूस कराने कि विनम्र कोशिश की गई है जो प्रशंसनीय है ।

सारथी के २२ अप्रैल के एक पोस्ट अस्मत लुटाने के सौ फार्मूले !">अस्मत लुटाने के सौ फार्मूले ! में श्री शास्त्री जे सी फिलिप जी के सारगर्भित विचारों को पढ़ने के बाद मुझे यह महसूस हुआ कि सचमुच पश्चिमी सभ्यता के प्रति हमारा रुझान हमारी संस्कृति को कलंकित कर रहा है । शास्त्री जी कहते हैं कि -"पिछले कुछ सालों से भारत में विदेशी पत्रिकाओं एवं सीडी की बाढ आई हुई है. इसका असर सीधे सीधे हमारी युवा पीढी पर हो रहा है. इसके सबसे अच्छे दो नमूने हैं “प्रोग्रेस” के नाम पर भारतीय जवानों को शराबी बनाने की साजिश (पब संस्कृति) और बाबा-बाल्टियान दिवस (वेलेन्टाईन) जैसे मानसिक-व्यभिचार पर आधारित त्योहार ।"

क्वचिदन्यतोअपि..........! के २४मईके पोस्ट आकाश गंगा को निहारते हुए .... में श्री अरविन्द मिश्र विजलिविहिन गाँव का बहुत ही सुन्दर तस्वीर प्रस्तुत करते दिखाई देते हैं ।

वहीं प्रेम ही सत्य है के ३० मई के पोस्ट समझदार को इशारा काफी पर मीनाक्षी जी मानवीय संवेदनाओं को बड़े ही सहज ढंग से अभिव्यक्त करती दिखायी देती हैं ।

जबकि रंजना भाटिया जी के ब्लॉग कुछ मेरी कलम से के २५ जून के पोस्ट कविता सुनाने के लिए पैसे :) पर सन १९६० का एक सच्चा वाकया सुनाती हुयी कवियित्री रंजू कहती है-"यह किस्सा ।सन १९६० के आस पास की बात है दिल्ली के जामा मस्जिद के पास उर्दू बाजार का .यहाँ एक दुकान थी मौलवी सामी उल्ला की ॥जहाँ हर इतवार को एक कवि गोष्ठी आयोजित की जाती ॥कुछ कवि लोग वहां पहुँच कर अपनी कविताएं सुनाया करते सुना करते और कुछ चर्चा भी कर लेते सभी अधिकतर शायर होते कविता लिखने ,सुनाने के शौकीन ,सुनने वाला भी कौन होता वही स्वयं कवि एक दूजे की सुनते , वाह वाह करते और एक दूजे को दाद देते रहते..........!"२५ अप्रैल २००९ को प्रकाशित आलेख पर अचानक जाकर निगाहें ठिठक जाती है , जिसका शीर्षक है देश का बीमा कैसे होगा ? इस आलेख में एक सच्चे भारतीय की अंत: पीडा से अवगत हुआ जा सकता है ।

दालान में प्रकाशित इस आलेख की शुरुआत इन शब्दों से हुयी है -"देश का बीमा कैसे होगा ? किसके हाथ देश सुरक्षित रहेगा ? इतिहास कहता है - किस किस ने लूटा ! जिस जिस ने नहीं लूटा - वोह इतिहास के पन्नों से गायब हो गया ! गाँधी जी , राजेन बाबु , तिलक इत्यादी को अब कौन पढ़ना और अपनाना चाहता है ?"

इसी क्रम में दूसरा आलेख जो पढ़ने के लिए मजबूर करता है वह है कभी गिनती से जामुन खरीदा है ..... जी हाँ , ममता टी वी पर ३० मार्च को प्राकशित इस आलेख में ममता जी कहती है कि "आपको गिनती से जामुन खरीदने का अनुभव हुआ है कि नही हम नही जानते है पर हमें जरुर अनुभव हुआ है । गिनती से जामुन खरीदने का अनुभव हमें हुआ है और वो भी गोवा में ।"ममता टी वी एक गृहस्वामिनी की कलम से निकले सुझाव, वर्णन, चित्र एवं अन्य आलेख से संवंधित ऐसा चिट्ठा है जिसके कुछ पोस्ट पढ़ते हुए आप अपने दर्द को महसूस कर सकते हैं ।

इसी क्रम में तीसरा आलेख जो पढ़ने के लिए मजबूर करता है वह है मार्केटिंग का हिंदी फंडा यह आलेख आशियाना का १५ मई २००९ का पोस्ट है , जिसमे बताया गया है कि "एक लड़के को सेल्समेन के इंटरव्यू में इसलिए बाहर कर दिया गया क्योंकि उसे अंग्रेजी नहीं आती थी।" हिन्दुस्तान में हिन्दी का ऐसा दुर्भाग्य? सचमुच निंदनीय है । यह ग़ाज़ियाबाद निवासी रवीन्द्र रंजन का निजी चिट्ठा है और अपने पञ्च लाईन से आकर्षित करता है, जिसमें कहा गया है कि कुछ कहने स‌े बेहतर है कुछ किया जाए, जिंदा रहने स‌े बेहतर है जिया जाए.... !

इसी क्रम में आगे जिस आलेख पर नज़र जाती है वह है - आज भी हर चौथा भारतीय भूखा सोता हैधनात्मक चिन्तन पर २१ अगस्त को प्रकाशित पोस्ट के माध्यम से ब्लोगर ने कहा है कि जब भारत विश्व शक्ति बनकर उभरने का दावा कर रहा है,ऐसे समय देश में हर चौथा व्यक्ति भूखा है। भारत में भूख और अनाज की उपलब्धता पर भारत के एक ग़ैर-सरकारी संगठन की ताज़ा रिपोर्ट को प्रस्तुत किया गया है इस ब्लॉग पोस्ट में ।

फुरसतिया" के २३ सितंबर के एक पोस्ट मंहगाई के दौर में ,मन कैसे हो नमकीन पढ़ते हुए जब हम अनायास ही श्री अनूप शुक्ल जी के दोहे से रू-ब-रू होते हैं तो होठों से ये शब्द फ़ुट पड़ते है - क्या बात है ...! एक बानगी देखिये- "मंहगाई के दौर में ,मन कैसे हो नमकीन, आलू बीस के सेर हैं, नीबू पांच के तीन।
चावल अरहर में ठनी,लड़ती जैसे हों सौत, इनके तो बढ़ते दाम हैं, हुई गरीब की मौत।"


-रवीन्द्र प्रभात
(क्रमश:)

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून-2010 अंक में प्रकाशित

13.6.10

लो क सं घ र्ष !: हिंदी ब्लॉगिंग की दृष्टि से सार्थक रहा वर्ष-2009, भाग-4

वहीं मँहगाई के सन्दर्भ में हवा पानी पर प्रकाशित एक कविता पर निगाहें जाकर टिक जाती हैं जिसमें कहा गया है कि हमनें इस जग में बहुतों से जीतने का दावा किया पर बहुत कोशिशों के बाद भी हम मँहगाई से जीत नहीं पाए। वहीं कानपुर के सर्वेश दुबे अपने ब्लॉगमन की बातेंपर फरमाते हैं-कुछ समय बाद किलो में, वस्तुएँ खरीदना स्वप्न हो जाएगा, 10 ग्राम घी खरीदने के लिए भी बैंक सस्ते दर पर कर्ज उपलब्ध कराएगा। नमस्कार में प्रो.सी.बी. श्रीवास्तव की कविता छपी है जिसमें कहा गया है कि-मुश्किल में हर एक साँस है, हर चेहरा चिंतित उदास है। वे ही क्या निर्धन निर्बल जो, वे भी धन जिनका कि दास है। फैले दावानल से जैसे, झुलस रही सारी अमराई। घटती जातीं सुख सुविधाएँ, बढ़ती जाती है मँहगाई।
आमजन से मेरा अभिप्राय उन मजदूरों से है जो रोज कुआँ खोदता है और रोज पानी पीता है। मजदूरों की चिंता और कोई करे या करे मगर हमारे बीच एक ब्लॉग है जो मजदूरों के हक और हकूक के लिए पूरी दृढ़ता के साथ बिगुल बजा रहा है। जी हाँ वह ब्लॉग है बिगुल। यह ब्लॉग अपने आप को नई समाजवादी क्रान्ति का उद्घोषक मानता है और एक अखबार के मानिंद मजदूर आंदोलनों की खबरे छापता है यह ब्लॉग तमाम मजदूर आंदोलनों की खबरों से भरा-पड़ा है। चाहे वह गोरखपुर में चल रहे मजदूर आन्दोलन की खबर हो अथवा गुड़गाँव या फिर लुधियाना का मामला, पूरी दृढ़ता के साथ परोसा गया है।
सामाजिक सरोकारों के प्रति दृढ़ता के साथ अग्रणी दिखा लोकसंघर्ष ब्लाग। इस ब्लाग में मुहम्मद शुऐब का ज्वलंत मुद्दों पर जनआकांक्षाओं के प्रति समर्पित आलेख जवाबदेही ध्यान आकृष्ट करता रहा-पूरे वर्ष भर और लोकसंघर्ष में ‘सुमन‘ के लेख कुछ ज्यादा तीखे दिखे। कुल मिलाकर यह ब्लाग अपने जन सरोकारों को प्रस्तुत करने की दिशा में सर्वाधिक चर्चित रहा।
वहीं संवाद डाट काम के माध्यम से भी जाकिर अली रजनीश ने सम्मान की एक नई परम्परा की शुरूआत की। उनका सामुदायिक ब्लाॅग तस्लीम लगातार अंधविश्वास के घटाटोप अंधकार को नष्ट करता दिखाई दिया। साथ हीं साइंस ब्लॉगर एसोसिएशन और लखनऊ ब्लॉगर एसोसिएशन ने ब्लॉग जगत में चर्चित साझा मंच बनने की दिशा में अपने महत्वपूर्ण कदम बढ़ाए।
आइए अब चलते हैं एक ऐसे ब्लॉग पर जहाँ होती है प्राचीन सभ्यताओं की वकालत। जहाँ बताया गया है कि प्रारम्भ में आदिमानव ने संसार को कैसे देखा होगा? गीजा का विशाल पिरामिड 20 साल में एक लाख लोगों के श्रम से क्यों बना? फिलिपीन के नए लोकसभा भवन के सामने मनु की मूर्ति क्यों स्थापित की गई है? ऐसे तमाम रहस्यों की जानकारी आपको मिलेगी इस ब्लॉग ‘‘मेरी कलम से‘‘ पर।
इस ब्लॉग के दिनाँक 05.04.2009 के प्रकाशित आलेख-‘‘यूरोप में गणतंत्र या फिर प्रजातंत्र ने मुझे बरबस आकर्षित किया और मैं इस ब्लॉग को पढ़ने के लिए विवश हो गया। इस आलेख में बताया गया है कि-यूरोप के सद्यः युग में गणतंत्र (उसे वे प्रजातंत्र कहते हैं) के कुछ प्रयोग हुए हैं। इंग्लैंड में इसका जन्म हिंसा से और फ्रांस में भयंकर रक्त-क्रांति से हुआ। कहा जाता है, फ्रांस की राज्य-क्रांति ने अपने नेताओं को खा डाला, और उसी से नेपोलियन का जन्म हुआ, जिसने अपने को ‘सम्राट‘ घोषित किया, और इसी में हिटलर, मुसोलिनी एवं स्टालिन सरीखे तानाशाहों का जन्म हुआ। कैसे उत्पन्न हुआ यह प्रजातंत्र का विरोधाभास?
इसमें यह भी उल्लेख है कि-व्यक्ति से लेकर समष्टि तक एक सामाजिक-जीवन खड़ा करने में भारत के गणतंत्र के प्रयोग संसार को दिशा दे सकते हैं। कुटुंब की नींव पर खड़ा मानवता का जीवन शायद ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ को चरितार्थ कर सके।
प्राचीन सभ्यताओं की वकालत के बाद आइए चलते हैं सार्वजनिक जीवन से जुड़े व्यवहारों-लोकाचारों में निभाती, टूटती मानवीय मर्यादाओं पर बेबाक टिप्पणी करने वाले और कानूनी जानकारियाँ देने वाले दो महत्वपूर्ण ब्लॉग पर। एक है तीसरा खम्भा और दूसरा अदालत
ऐसा ही एक आलेख तीसरा खम्भा ब्लॉग पर मेरी नजरों से दिनाँक 31.05.2009 को गुजरा। आलेख का शीर्षक था आरक्षण से देश गृहयुद्ध की आग में जलने न लगे। इसमें एक सच्चे भारतीय की आत्मिक पीड़ा प्रतिविम्बित हो रही है। इस तरह के अनेक चिंतन से सजा हुआ है यह ब्लॉग। सच तो यह है कि अपने उद्भव से आज तक इस ब्लॉग ने अनेक सारगर्भित पोस्ट दिए हैं, किन्तु वर्ष-2009 में यह कुछ ज्यादा मुखर दिखा।
आइए अब वहाँ चलते हैं जहाँ बार-बार कोई न जाना चाहे , जी हाँ हम बात कर रहे हैं अदालत की। मगर यह अदालत उस अदालत से कुछ अलग है। यहाँ बात न्याय की जरूर होती है, फैसले की भी होती है और फैसले से पहले हुई सुनवाई की भी होती है मगर उन्हीं निर्णयों को सामने लाया जाता है जो उस अदालत में दिया गया होता है । यानी यह अदालत ब्लॉग के रूप में एक जीवंत इन्सायिक्लोपीडिया है। मुकद्दमे में रुचि दिखाने वालों के लिए यह ब्लॉग अत्यन्त ही कारगर है , क्योंकि यह सम सामयिक निर्णयों से हमें लगातार रूबरू कराता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि भिलाई छत्तीसगढ़ के लोकेश के इस ब्लॉग में दिनेशराय द्विवेदी जी की भी सहभागिता है , यानी सोने पे सुहागा।


-रवीन्द्र प्रभात
(क्रमश:)

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून-2010 अंक में प्रकाशित

लो क सं घ र्ष !: हिंदी ब्लॉगिंग की दृष्टि से सार्थक रहा वर्ष-2009, भाग-3

वर्ष -2008 में 26/11 की घटना को लेकर हिन्दी ब्लॉग जगत काफी गंभीर रहा। आतंकवादी घटना की घोर भत्र्सना हुई और यह उस वर्ष का सबसे बड़ा मुद्दा बना, मगर इस वर्ष यानी 2009 में जिस घटना को लेकर सबसे ज्यादा बवाल हुआ वह है समलैंगिकता के पक्ष में दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला। पहली बार हिन्दुस्तान ने समलैंगिकता के मुद्दे पर सार्वजनिक रूप से बहस किया है। हिन्दी ब्लॉग जगत ने भी इसके पक्ष विपक्ष में बयान दिए और देश में समलैंगिकता पर बहस एकबारगी सतह पर गई
किसी ने कहा कि लैंगिक आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव का स्थान आधुनिक नागरिक समाज में नहीं है, पर लैंगिक मर्यादाओं के भी अपने तकाजे रहे हैं और इसका निर्वाह भी हर देश काल में होता रहा है, तो किसी ने कहा कि भारतीय दंड विधान की धारा 377 जैसे दकियानूसी कानून की आड़ में भारत के सम लैंगिक और ट्रांसजेंडर लोगों को अकारण अपराधी माना जाता रहा है, लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय ने किसी भी प्रकार के यौन और जेंडर रुझानों से ऊपर उठकर सभी नागरिकों के अधिकार को मान्यता देने का ऐतिहासिक कार्य किया है तो किसी ने कहा की यह विडंबना ही कहा जाएगा कि अंग्रेजों द्वारा 1860 में बनाया गया यह कानून खुद इंग्लैंड के कानूनी किताबों में से सालों पहले मिट चुका, लेकिन भारत में यह उनके जाने के बाद भी दशकों तक कायम है आदि।
रेखा की दुनिया ने अपने 09 जुलाई 2009 के अंक में समलैगिकता की जोरदार वकालत करते हुए लिखा है जिस देश में कामसूत्र की रचना हुई आज उसी धरती पर वात्स्यायन के वंशज काम संबंधी अभिरुचि को बेकाम ठहराने में लगे हैं घृणा के इस दोहरे मापदंड पर उनका गुस्सा देखने लायक है इस आलेख में। महाशक्ति के दिनांक 29.07.2009 के आलेख का शीर्षक है समलैंगिंक बनो पर अजीब रिश्ते को विवाह का नाम न दो, विवाह को गाली मत दो । परमेन्द्र प्रताप सिंह कहते हैं कि वह दृश्य बड़ा भयावह होगा जब लोग केवल अप्राकृतिक सेक्स के लिए समलैगिंक विवाह करेंगे, अर्थात संतान की इच्छा विवाह का आधार नहीं होगा। अपने ब्लॉग पर अंशुमाल रस्तोगी कहते हैं कि अब धर्मगुरु तय करेंगे कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। नया जमाना के 16 अगस्त 2009 के पोस्ट वात्स्यायन, मिशेल फूको और कामुकता (2) के अनुसार समलैंगिकों की एक पत्रिका को दिए साक्षात्कार में फूको ने कहा ‘कामुकता’ को दो पुरूषों के प्रेम के साथ जोड़ना समस्यामूलक और आपत्तिजनक है। ‘‘अन्य को जब हम यह एक छूट देते हैं कि समलैंगिता को शुद्धतः तात्कालिक आनंद के रूप में पेश किया जाए, दो युवक गली में मिलते हैं, एक- दूसरे को आँखों से रिझाते हैं, एक-दूसरे के हाथ एक-दूसरे के गुप्तांग में कुछ मिनट के लिए दिए रहते हैं। इससे समलैंगिकता की साफ सुथरी छवि नष्ट हो जाती है।
दस्तक ने अपने 11 अगस्त 2009 के पोस्ट में टी.वी चैनलों का उमड़ता गे प्रेम पर चिंता व्यक्त की है । कहा है कि 2 जुलाई का दिन दिल्ली हाई कोर्ट का वह आदेश, पूरा मीडिया जगत के शब्दों में कहें तो खेलने वाला मुद्दा दे गया। जी हाँ हम बात कर रहें हैं हाईकोर्ट के उस आदेश का जिसमें देश में अपनें मर्जी से समलैगिंक संबंध को मंजूरी दे दी गई थी। ठीक हाँ भाई समलैंगिक को मंजूरी मिली। उनको राहत मिला। पर उनका क्या जिनका चैन हराम हो गया। आखिर जो गे नहीं उनकी तो शामत आ गई।
इधर चैनल वालों को ऐसा मसाला मिल गया जिसको किसी भी चैनल ने छोड़ना उम्दा नहीं समझा। उधर इस चक्कर में और दूसरें मुद्दे जरूर छूट गए। दिलीप के दलान से श्रनसल 10, 2009 को एक घटना का जिक्र आया कि घर की घंटी बजी, साथ-साथ बहुत लोगों की। अंदर से गुड्डी दौड़ती हुई आई, झट से दरवाजा खोला। बाहर खड़े भैया ने गुड्डी से कहा गुड्डी ये तुम्हारी भाभी हैं। गुड्डी के चेहरे पर खुशी की जगह बारह बज गए और वह फिर दोबारा जितनी तेजी से दौड़ती हुई आई थी उतनी तेजी से वापस दौड़ती हुई माँ के पास गई, और माँ से बोली माँ भैया आपके लिए भैया लेके आए हैं। परिकल्पना पर भी मंगलवार, 29 जुलाई 2009 को ऐसी ही एक घटना का जिक्र था जिसका शीर्षक था-शर्मा जी के घर आने वाली है मूंछों वाली बहू, बहूभोज में आप भी आमंत्रित हैं। बात कुछ ऐसी है के 7 जुलाई 2009 के एक पोस्ट ‘यहाँ’ आसानी से पूरी होती है समलैंगिक साथी की तलाश, में यह रहस्योद्घाटन किया गया है कि क्लबों, बार, रेस्टोरेंट व डिस्कोथेक में होती हैं साप्ताहिक पार्टियाँ। पिछले 10 वर्षों से लगातार बढ़ रही है समलैंगिक प्रवृत्ति। पिछले छह वर्षों में बढ़ा है समलैंगिकता का चलन। समलैगिकों में 16 से 30 वर्ष आयु वर्ग के लोगों की संख्या अधिक दक्षिणी दिल्ली व पश्चिमी दिल्ली में होती हैं। अप्राकृतिक संबधों को गलत नहीं मानते समलैंगिक। उनके लिए प्यार का अहसास भी अलग है और यौन संतुष्टि की परिभाषा भी अलग है। समलिंगी साथी के आकर्षण का सामीप्य ही उन्हें चरम सुख प्रदान करता है तभी तो चढ़ती उम्र में वह एक ऐसे हमराही की तलाश करते हैं जो तलाश उन्हें आम आदमी से कुछ अलग करती है।
इस सन्दर्भ में भड़ास के तेवर कुछ ज्यादा तीखे दिखे जिसमें उसने स्पष्ट कहा कि समलैंगिकता स्वीकार्य नहीं बल्कि उपचार्य है । मोहल्ला का समलैंगिकता पर कानून की मुहर से प्रकाशित शीर्षक में कहा गया है कि नैतिकता ये कहती है कि यौन संबंधों का उद्देश्य संतानोत्पत्ति है, लेकिन समलैंगिक या ओरल इंटरकोर्स में यह असंभव है। वहीं ब्लॉग खेती-बाड़ी के दिनाँक 05 जुलाई 2009 के एक पोस्ट में समलैंगिकता के सवाल पर बीबीसी हिन्दी ब्लॉग पर राजेश प्रियदर्शी की एक बहुत ही यथार्थ टिप्पणी आई है, जो थोड़ा असहज करने वाली है लेकिन समलैंगिक मान्यताओं वाले समाज में इन दृश्यों से आप बच कैसे सकते हैं? हमारे देश में इस वक्त दो अति-महत्वपूर्ण किंतु ज्वलंत मुद्दे हैं-पहला नक्सलवाद का विकृत चेहरा और दूसरा मँहगाई का खुला तांडव। आज के इस क्रम की शुरुआत भी हम नक्सलवाद और मँहगाई से ही करने जा रहे हैं। फिर हम बात करेंगे मजदूरों के हक के लिए कलम उठाने वाले ब्लॉग, प्राचीन सभ्यताओं के बहाने कई प्रकार के विमर्श को जन्म देने वाले ब्लॉग और न्यायालय से जुड़े मुद्दों को प्रस्तुत करने वाले ब्लॉग की।
आम जन के दिनांक 23.06.2009 के अपने पोस्ट नक्सली कौन? में संदीप द्विवेदी कहते हैं, कि गरीबी में अपनी जिन्दगी काट रहे लोग क्यों सरकार के खिलाफ बन्दूक थाम लेते हैं इसे समझने के लिए आपको उनकी तरह बन कर सोचना होगा। सरकार गरीबी और बेरोजगारी खत्म करने की पूरी कोशिश कर रही है, लेकिन यह दिनों दिन और भयानक होती जा रही है। इसका कारण हम आप सभी जानते हैं। रोजाना छत्तीसगढ़ और झारखण्ड के अर्द्धसैनिक बलों के जवान नक्सलियों के हाथों मारे जाते हैं और जो बच जाते हैं वे मलेरिया या लू के चपेट में आ कर अपने प्राण त्याग देते हैं। क्या अब सरकार नक्सलियों का ख़ात्मा लिट्टे की तरह करेगी? लेकिन इतना याद रखना होगा कि लिट्टे ने अपने साथ 1 लाख लोगों की बलि ले ली। क्या सरकार इसके लिए तैयार है। नक्सलियों के साथ आर-पार की लड़ाई से बेहतर है कि हम अपनी घरेलू समस्या को घर में बातचीत से ही सुलझा लें वरना एक दिन यह समस्या बहुत गंभीर हो जाएगी।

-रवीन्द्र प्रभात
(क्रमश:)

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून-2010 अंक में प्रकाशित

12.6.10

चोरों से सरकारी कार्यालय भी महफूज नहीं

चोरों ने किया तहसील कार्यालय के एयरकंडीशनर पर हाथ साफ
सफीदों,(हरियाणा): आजकल सफीदों में चोरों का साया इतना बढ़ गया है कि उनसे आम जनमानस के साथसाथ सरकारी कार्यालय भी महफूज नहीं हैं। इसका जीताजागता उदाहरण सफीदों का मिनी सचिवालय हैं जहां स्थित तहसीलदार कार्यालय की उप रजिस्ट्रार शाखा के कक्ष में लगे एयरकंडीशनर पर से चोरों ने हाथ साफ कर दिया। चोरों को यहां के प्रशासन का भी कोई डर नहीं रह गया है। सबसे अहम बात यह है कि चोरी की वारदात का स्थल सफीदों का मिनी सचिवालय है जहां पर उपमंडल अधिकारी(नागरिक), उप पुलिस अधीक्षक व तहसीलदार कार्यालय सहित कई अन्य कार्यालय स्थित है तथा यहीं पर ही इन सभी अफसरों के आवास भी बने हुए हैं। इस मामले में सफीदों के तहसीलदार ज्ञानप्रकाश बिश्र्रोई ने एयरकंडीशनर चोरी की रिपोर्ट पर दर्ज करवाई है। उनके द्वारा दर्ज करवाई गई रिपार्ट में कहा गया है कि तहसील कार्यालय में मलकियत के बैनामे, इकरारनामे, मुखत्यारनामे व वसीयत आदि के दस्तावेजों को पंजीकृत करने से संबंधित कक्ष के इस एयरकंडीशनर किसी ने चोरी कर लिया है। पुलिस ने अज्ञात चोरों के खिलाफ चोरी का मामला दर्ज करके छानबीन शुरू कर दी है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि अब तो चोरों ने तहसील कार्यालय का एयरकंडीशनर चोरी किया है, अगर कल को कोई इसी कार्यालय का रिकार्ड चोरी करके ले गया तो या होगा? प्रशासन एयरकंडीशनर तो नया ले आयेगा लेकिन रिकॉर्ड कहां से लाएगा?

लो क सं घ र्ष !: हिंदी ब्लॉगिंग की दृष्टि से सार्थक रहा वर्ष-2009, भाग-2

वर्ष-2009 में जो कुछ भी हुआ उसे हिंदी चिट्ठाजगत ने किसी भी माध्यम की तुलना में बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने की पूरी कोशिश की है। चाहे बाढ़ हो या सूखा या फिर मुम्बई के आतंकवादी हमलों के बाद की परिस्थितियाँ, चाहे नक्सलवाद हो या अन्य आपराधिक घटनाएँ, चाहे पिछला लोकसभा चुनाव हो अथवा हुए कई राज्यों के विधानसभा चुनाव या साम्प्रदायिकता, चाहे फिल्में हों या संगीत, चाहे साहित्य हो या कोई अन्य मुद्दा, तमाम ब्लॉग्स पर इनकी बेहतर प्रस्तुति हुई है।
कुछ ब्लॉग ऐसे है जिनकी चर्चा कई ब्लॉग विश्लेषकों के माध्यम से विगत वर्ष 2008 में भी हुई थी और आशा की गई थी कि वर्ष 2009 में इनकी चमक बरकरार रहेगी। ब्लॉग चर्चा के अनुसार सिनेमा पर आधारित तीन ब्लॉग वर्ष 2008 में शीर्ष पर थे । एक तरफ तो प्रमोद सिंह के ब्लॉग सिलेमा सिलेमा पर सारगर्भित टिप्पणियाँ पढ़ने को मिली थीं, वहीं दिनेश श्रीनेत ने इंडियन बाइस्कोप के जरिए निहायत ही निजी कोनों से और भावपूर्ण अंदाज से सिनेमा को देखने की एक बेहतर कोशिश की थी। तीसरे ब्लॉग के रूप में महेन के चित्रपट ब्लॉग पर सिनेमा को लेकर अच्छी सामग्री पढ़ने को मिली थी। हालाँकि समयाभाव के कारण परिकल्पना पर केवल एक ब्लॉग इंडियन बाइस्कोप की ही चर्चा हो पाई थी। यह अत्यन्त सुखद है कि उपर्युक्त तीनों ब्लाॅग्स वर्ष 2009 में भी अपनी चमक और अपना प्रभाव बनाये रखने में सफल रहे हैं ।
इसीप्रकार जहाँ तक राजनीति को लेकर ब्लॉग का सवाल है तो अफलातून के ब्लॉग समाजवादी जनपरिषद, नसीरुद्दीन के ढाई आखर, अनिल रघुराज के एक हिन्दुस्तानी की डायरी, अनिल यादव के हारमोनियम, प्रमोद सिंह के अजदक और हाशिया का जिक्र किया जाना चाहिए। ये सारे ब्लाॅग्स वर्ष 2008 में भी शीर्ष पर थे और वर्ष 2009 में भी शीर्ष पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हुए हैं ।
वर्ष 2008 में संगीत को लेकर टूटी हुई, टूटी हुई, बिखरी हुई आवाज, सुरपेटी, श्रोता बिरादरी, कबाड़खाना, ठुमरी, पारूल चाँद पुखराज का चर्चित हुए थे, जिनपर सुगम संगीत से लेकर क्लासिकल संगीत को सुना जा सकता था, पिछले वर्ष रंजना भाटिया का अमृता प्रीतम को समर्पित ब्लॉग ने भी ध्यान खींचा था और जहाँ तक खेल का सवाल है, एनपी सिंह का ब्लॉग खेल जिंदगी है पिछले वर्ष शीर्ष पर था। पिछले वर्ष वास्तु, ज्योतिष, फोटोग्राफी जैसे विषयों पर भी कई ब्लॉग शुरू हुए थे और आशा की गई थी कि ब्लॉग की दुनिया में 2009 ज्यादा तेवर और तैयारी के साथ सामने आएगा। यह कम संतोष की बात नहीं कि इस वर्ष भी उपर्युक्त सभी ब्लाॅग्स सक्रिय ही नहीं रहे अपितु ब्लॉग जगत में एक प्रखर स्तंभ के मानिंद दृढ़ दिखे। निश्चित रुप से आनेवाले समय में भी इनकी दृढ़ता और चमक बरकरार रहेगी यह मेरा विश्वास है।
यदि साहित्यिक लघु पत्रिका की चर्चा की जाए तो पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष ज्यादा धारदार दिखी -मोहल्ला। अविनाश मोहल्ला के कॉलम में चुने ब्लॉगों पर मासिक टिप्पणी करते हैं और उनकी संतुलित समीक्षा भी करते हैं। इसीप्रकार वर्ष 2008 की तरह वर्ष 2009 के अनुराग वत्स के ब्लॉग ने एक सुविचारित पत्रिका के रूप में अपने ब्लॉग को आगे बढ़ाया हैं।
आपको यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि भारतीय सिनेमा में जीवित किंवदंती बन चुके बिग बी श्री अमिताभ बच्चन जल्द ही अपना हिंदी में ब्लॉग शुरू करेंगे। यह घोषणा उन्होंने 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के अवसर पर की है। उन्होंने कहा है कि-यह बात सही नहीं है कि मैं सिर्फ अंग्रेजी भाषा के प्रशंसकों के लिए लिखता हूँ। अमिताभ ने अपने ब्लॉग पर खुलासा किया है कि वह जल्दी ही हिंदी और अन्य भाषाओं में ब्लॉग लिखने की चेष्टा करेंगे, ताकि हिंदी भाषी प्रशंसकों को सुविधा हो। जबकि मनोज बाजपेयी पहले से ही हिन्दी में ब्लॉग लेखन से जुड़े हैं।
पिछले वर्ष ग्रामीण संस्कृति को आयामित कराने का महत्वपूर्ण कार्य किया था खेत खलियान ने, वहीं विज्ञान की बातों को बहस का मुद्दा बनाने में सफल हुए थे पंकज अवधिया अपने ब्लॉग मेरी प्रतिक्रया में। हिन्दी में विज्ञान पर लोकप्रिय और अरविन्द मिश्रा के निजी लेखों के संग्राहालय के रूप में पिछले वर्ष चर्चा हुई थी सांई ब्लॉग की, ग़ज़लों, मुक्तकों और कविताओं का नायाब गुलदस्ता महक की, ग़ज़लों का और गुलदस्ता है अर्श की, युगविमर्श की, महाकाव्य की, कोलकाता के मीत की, डॉ. चन्द्र कुमार जैन की, दिल्ली के मीत की, दिशाएँ की, श्री पंकज सुबीर जी के सुबीर संवाद सेवा की, वरिष्ठ चिट्ठाकार और सृजन शिल्पी श्री रवि रतलामी जी का ब्लॉग“ रचनाकार की, वृहद् व्यक्तित्व के मालिक और सुप्रसिद्ध चिट्ठाकार श्री समीर भाई के ब्लॉग“ उड़न तश्तरी“ की, " महावीर" " नीरज " "विचारों की जमीं" "सफर " " इक शायर अंजाना सा…" "भावनायें... " आदि की।
इसी क्रम में हास्य के एक अति महत्वपूर्ण ब्लॉग ठहाका हिंदी जोक्स तीखी नजर बनततमदज बामुलाहिजा चिट्ठे सम्बंधित चक्रधर का चकल्लस और बोर्ड के खटरागी यानी अविनाश वाचस्पति तथा दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका आदि की । वर्ष 2008 के चर्चित ब्लॉग की सूची में और भी कई महत्वपूर्ण ब्लॉग जैसे जबलपुर के महेंद्र मिश्रा के निरंतर, अशोक पांडे का “कबाड़खाना“, डाॅ राम द्विवेदी की अनुभूति कलश, योगेन्द्र मौदगिल और अविनाश वाचस्पति के सयुक्त संयोजन में प्रकाशित चिट्ठा हास्य कवि दरबार, उत्तर प्रदेश के फतेहपुर के प्रवीण त्रिवेदी का “प्राइमरी का मास्टर“ लोकेश जी का “अदालत“, बोकारो झारखंड की संगीता पुरी का गत्यात्मक ज्योतिष, उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर सकल डीहा के हिमांशु का सच्चा शरणम्, विवेक सिंह का स्वप्न लोक, शास्त्री जे सी फिलिप का हिन्दी भाषा का सङ्गणकों पर उचित व सुगम प्रयोग से सम्बन्धित सारथी, ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल और दिनेशराय द्विवेदी का तीसरा खंभा आदि की चर्चा वर्ष-2008 में परिकल्पना पर प्रमुखता के साथ हुई थी और हिंदी ब्लॉगजगत के लिए यह अत्यंत ही सुखद पहलू है, कि ये सारे ब्लॉग वर्ष-2009 में भी अपनी चमक बनाये रखने में सफल रहे हैं।

-रवीन्द्र प्रभात
(क्रमश:)

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून-2010 अंक में प्रकाशित