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8.6.10

लो क सं घ र्ष !: तमसो मा ज्योर्तिगमय

बिजली न होने से जो समस्यायें होती हैं, उनकी सूची हम आप बैठकर किसी भी समय बना सकते हैं, परन्तु एक समस्या मेरे संज्ञान में अभी तक नहीं थी, वह यह कि कुछ ऐसे कुआंरे हैं जिनके घर में भी अंधेरा है और जीवन में भी बिजली न होने के कारण इन बेचारों की शादी भी नहीं हो पा रही है। मैं जो लिख रहा हूँ आप इसे गप्प न समझिये। खबर जो आई है उसे मैं अक्षरशः नकल किये देता हूॅ:-
-अधिवक्ता निर्मल सिंह ठीक ठाक परिवार के हैं। देखने सुनने में भी ठीक हैं और कमाते भी अच्छा है। इसके बावजूद इन्हें विवाह के लिये बढ़िया घर से रिश्ता नहीं मिल रहा।
-अमरेश यादव दुग्ध विभाग में काम करते हैं, बढ़िया नौकरी है। सामाजिक स्थिति ठीक ठाक है। घर परिवार अच्छा होने के बावजूद इनका अब तक विवाह नहीं हो सका हैं।
इन युवाओं का मंगल और शनि ठीक हैं राहु और केतु का योग भी अच्छा है.... दर असल इन युवाओं की कुण्डली में है बिजली संकट दोष। इस दोष के कारण लोग इस गांव में अपनी बिटिया ब्याहना नहीं चाहते।’’
यह केवल इन दो व्यक्तियों की बात नहीं है। यहां के अनेक युवा अविवाहित हैं। यह व्यथा-कथा है, राजधानी लखनऊ के करीब के ग्रामों की।
इन खबरों में मजा न लीजिये न चुटकुले बाजी कीजिए। हमको इनकी इस गंभीर समस्या से पूरी हमदर्दी है, परन्तु हम कर ही क्या सकते हैं।
पुराने संस्कृत वाक्यों में अब भी बड़ा दम है। मैं एक ही सलाह दे सकता हूॅ कि सभी दुखी युवक एक सामूहिक जप समारोह आयोजित करें और जब तक बिजली व्यवस्था ठीक न हो प्रतिदिन यही पढ़ते रहें-
तमसो मा ज्योर्तिगमय

-डॉक्टर एस.एम हैदर

7.6.10

लो क सं घ र्ष !: नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला: क्यूबा- अंतिम भाग


भीतर और बाहरः चैकस और मजबूत

जो चीज हमने 20वीं सदी के इतिहास में देखी और जिससे हम कुछ सीख सकते हैं वे शोषण और अत्याचारों के खिलाफ हुईं क्रान्तियाँ तो थीं ही, पर साथ ही ये भी कि क्रान्ति कर लेने के बाद उसे सँभालना, उसे वक्त के कीचड़ में धँसने से रोकना और भी बड़ी, और भी कठिन जिम्मेदारी होती है। यह जिम्मेदारी क्यूबा ने निभाई, वहाँ के लोगों ने और करिश्माई क्रान्तिकारी नेताओं ने निभाई। इंकलाब को नाकाम करने वाली ताकतों को खदेड़ना और बाकी रहे लोगों के साथ उत्पादन के समाजवादी ढाँचे का निर्माण करना, लोगों के बीच संपत्ति के सामूहिक सामाजिक स्वामित्व की समझदारी पैदा करना और इस रास्ते पर चलते हुए भी दुनिया की रफ्तार के साथ पीछे न होना, अदब में, तहजीब में, विज्ञान में, नये-नये कारनामे अंजाम देना और इस सब को इंकलाब के दायरे के भीतर इस तरह समेटना कि न किसी को दम घुटता महसूस हो और साथ ही इंकलाब का दायरा भी बगैर शोरगुल के अपना कद बढ़ाता जाए-ये सब क्यूबा ने खुद सीखा और दुनिया में इंकलाब की ख्वाहिश रखने वालों को सिखाया।
यह सब तो लम्बी तैयारी वाले रोज-रोज, इंच-इंच बढ़ने वाले काम हैं लेकिन लोगों की ऐसी हर कोशिश को नाकाम करने के लिए जो ताकतें सक्रिय हैं, उनसे निपटना, अंदर और बाहर व्यूह रचना कर पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के जबड़ों से इंकलाब को बचाना भी बेहद मुश्किल काम था। लोगों को लगता है कि जब तक सोवियत संघ था तब तक क्यूबा को कोई समस्या नहीं थी। यह सच नहीं है। यह रास्ता कभी आसान नहीं था। जब सोवियत संघ था तब भी देश के भीतर की आबादी को समाजवादी उत्पादन पद्धति में ढालने के प्रयास बरसों की मेहनत और चींटी की चाल ही साबित होते थे। इसके बावजूद नये-नये कल्पनाशील कार्यक्रमों के जरिये लोगों को इस दिशा में आगे बढ़ाना और एक गौरव भाव का विकास करते हुए बाकी दुनिया को रास्ता दिखाना इंकलाब के बाद का एक जरूरी काम था जिसे क्यूबा ने कर दिखाया ।

जिंदगी के बारे में नजरिया बदल गयाः मारक्वेज

हमारे वक्त के एक महान रचनाकार और नोबल से सम्मानित गाब्रिएल गार्सिया मारक्वेज उर्फ गाबो का मानना है कि 1958 के पहले तक वे मनोरंजन पूर्ण लेखन करते थे, व्यंग्यात्मक राजनीतिक लेखन भी करते थे लेकिन 1959 की 1 जनवरी को क्यूबा में जो क्रांति हुई, उसने जिंदगी के बारे में उनका नजरिया बदल दिया। क्यूबा के इंकलाब ने ऐसा सिर्फ गाबो की जिदगी में ही नहीं किया था, बल्कि लैटिन अमेरिका की पूरी आबादी ही जिंदगी, आज़ादी और इंकलाब के ऐसे सुरूर में आ गई थी जो सुरूर आज तक फीका नहीं पड़ सका। उसके बाद से तो खैर सारी दुनिया के ही वे सारे लोग क्यूबा, फिदेल और चे के प्यार की गिरफ्त में पड़ते रहे जिन्हें इंसानियत और न्याय से प्यार है।
बहरहाल तो हुआ यूँ कि पूँजीवादी मुल्कों की प्रेस और मीडिया क्यूबा की क्रान्ति को बदनाम करने की काफी कोशिश कर रहे थे। एक रोज़ कोलंबिया में रह रहे और वहाँ के अखबार से अपनी रोजी-रोटी कमा रहे गाबो से क्यूबा का एक प्रतिनिधि आकर मिला और उसने गाबो को क्यूबा आने, वहाँ की न्याय व अन्य व्यवस्थाएँ देखने का आमंत्रण दिया। क्यूबा की आजादी, वहाँ के लोगों की मासूमियत, ईमानदारी और अपने इंकलाब के लिए सम्मान देखकर गाबो ताजिंदगी क्यूबा के प्यार में रच बस गए। इसके कुछ ही महीनों बाद उन्हें क्यूबा की क्रान्तिकारी सरकार द्वारा बनाई गई समाचार एजेंसी ’प्रेन्सा लेटिना’ में काम करने का मौका मिला। बाद में गाबो को प्रेन्सा लेटिना का प्रतिनिधि बनाकर न्यूयाॅर्क भी भेजा गया। धीरे-धीरे गाबो और फिदेल की दोस्ती भी बढ़ती गई। दरअसल जब मारक्वेज ने 1970 में ’ दि स्टोरी आॅफ अ शिप रेक्ड’ लिखी थी तो उसमें एवेन्चुरा नामक जहाज की गति की गणना में कुछ गलती थी, जिसकी तरफ सबसे पहले मारक्वेज का
ध्यान फिदेल ने ही खींचा था। तब से हमेशा मारक्वेज अपनी किताब छपने के पहले पांडुलिपि फिदेल कास्त्रो को पढ़ाते हैं, और सारी दुनिया में वे लैटिन अमेरिका की शोषण से आजादी, अस्मिता और कोलंबिया व अन्य लैटिन अमेरिकी देशों में संघर्षरत क्रान्तिकारियों की ओर से मध्यस्थ्ता करते हैं, उनकी माँगों को दुनिया के सामने लाते हैं।

चे के शब्दों में फिदेल

क्यूबा की क्रान्ति के सबसे अहम, सबसे अद्भुत और भूकंपकारी तत्व का नाम है फिदेल कास्त्रो। फिदेल के व्यक्तित्व की यह खासियत है कि वह जिस भी आंदोलन में भागीदारी करेगा, उसका नेतृत्व करेगा। उसके अंदर महान नेतृत्व के गुण हैं और इनके साथ साफगोई, ताकत, और साहस के साथ उसकी लोगों की इच्छा को पहचानने की अद्वितीय क्षमता ने उसे इतिहास में ये सम्मानजनक जगह दिलाई है। भविष्य में उसका असीमित विश्वास और उसे अपने साथियों से ज्यादा साफ और दूर तक समझ कर उससे दो कदम आगे का फैसला ले सकने की उसकी क्षमताओं ने, उसकी सांगठनिक योग्यता और कमजोर करने वाले भेदों का विरोध करने की उसकी ताकत ने, लोगों के लिए उसके बेतहाशा प्यार ने और जन कार्रवाई का रुख तय कर सकने की उसकी क्षमता ने क्यूबा की क्रान्ति का सबसे अहम किरदार बनाया है।

-विनीत तिवारी
मोबाइल : 09893192740

(समाप्त)

लो क सं घ र्ष !: न उनकी दोस्ती अच्छी, न उनकी दुश्मनी अच्छी

(हतोयामा)
आप नें देखा अभी जापान में क्या हुआ ? आम तौर पर लोग यही समझते हैं कि अमेरिका व जापान के बीम गाढ़ी- छनती है। अब यह राज़ खुलता नज़र आता है कि सरकारी स्तर पर चाहे यह सत्य हो परन्तु जनता के स्तर पर ऐसा विचार सही नही है।
आप जानते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के अवसर पर उक्त दोनो देश एक दूसरे क प्रबल विरोधी थे। यही कारण था कि अमेरिका नें जापान के दो शहरों हीरोशिमा एँव नागासाकी पर परमाणु बम बरसा कर दोनो को बर्बाद कर दिया था। बाद में दोनो देश मित्र बने यह मित्रता इतनी बढ़ी कि जापान के दक्षिणी द्वीप ओकिनावा में अमेरिका नें अपना सैन्य अड्डा स्थापित कर लिया । अब स्थिति यह है कि अमेरिकी फौज का वहाँ आधा हिस्सा मौजूद है।
अमेरिका तो दुनिया भर में दादागीरी भी करता है और स्वार्थ पूर्ति भी। जापानी जनता को भी इस बात का एहसास हुआ उसने इस अड्डे को हटवाने के लिये आवाज़ उठाई।
पिछले साल सितम्बर में वहाँ प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने वाले हतोयामा नें अपने चुनावी वादों नें अमेरिका सैन्य अड्डे फुतेन्वा को स्थानातरिक करने का वादा किया था, लेकिन बाद में वाशिंगटन को खुश रखने के लिये वह अपने वादे से मुकर गये।
इस फैसले से प्रधानमंत्री के गठबंधनसहयोगी सोशल डेमोक्रेट्स नाराज हो गये। इस निर्णय के कारण हाल में हुए जनमत संग्रह में उनकी लोकप्रियता 70 प्रतिशत से घटकर 20 प्रतिशत पहुंच गई।
अन्ततः 63 वर्षीय हतोयामा को यह कहते हुए अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा ‘‘सरकार जनता की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाई।’’
क्या मेरे इस सवाल को आप मानेंगे।
उनकी दोस्ती अच्छी, उनकी दुश्मनी अच्छी।

डॉक्टर एस.एम हैदर

6.6.10

लो क सं घ र्ष !: नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला: क्यूबा-5




साम्राज्यवाद का दुःस्वप्नः क्यूबा और फिदेल


आइजनहावर, कैनेडी, निक्सन, जिमी कार्टर, जानसन, फोर्ड, रीगन, बड़े बुश और छोटे बुश, बिल क्लिंटन और अब ओबामा-भूलचूक लेनी-देनी भी मान ली जाए तो अमेरिका के 10 राष्ट्रपतियों की अनिद्रा की एक वजह लगातार एक ही मुल्क बना रहा - क्यूबा।
1991 में जब सोवियत संघ बिखरा और यूरोप की समाजवादी व्यवस्थाएँ भी एक के बाद एक ढहती चली गईं तो यह सिर्फ पूँजीवादियों को ही नहीं वामपंथियों को भी लगने लगा था कि अब क्यूबा नहीं बचेगा। फिर जब फिदेल कास्त्रो की बीमारी और फिर मौत की अफवाह फैलाई गई तब भी यही लगा था कि फिदेल के मरने के बाद कौन होगा जो इतनी समझदारी और कूटनीति से काम लेते हुए क्यूबा को अमेरिकी आॅक्टोपस से बचाये रख सके।
लेकिन क्यूबा बना रहा। न केवल बना रहा बल्कि अपने चुने हुए रास्ते पर मजबूत कदमों के साथ आगे बढ़ता रहा।
फिदेल कास्त्रो को मारने और क्यूबा की आजादी खत्म करने की कितनी कोशिशें अमेरिका की तरफ से हुई हैं, इसकी गिनती लगाते-लगाते ही गिनती बढ़ जाती है। सन 2006 में यू0के0 में चैनल 4 ने एक डाॅक्युमेंट्री प्रसारित की थी जिसका शीर्षक था-कास्त्रो को मारने के 638 रास्ते (638 वेज टु किल कास्त्रो)। फिल्म में फिदेल कास्त्रो को मारने के अमेरिकी प्रयासों का एक लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया था जिसमें सी.आई.ए. की मदद से फिदेल को सिगार में बम लगाकर उड़ाने से लेकर जहर का इंजेक्शन देने तक के सारे कायराना हथकंडे अपनाए गए थे। तकरीबन 40 बरस तक फिदेल कास्त्रो के सुरक्षा प्रभारी और क्यूबा की गुप्तचर संस्था के प्रमुख रहे फेबियन एस्कालांते बताते हैं कि ’लाल शैतान’ को खत्म करने के लिए अमेरिका, सी0आई0ए0 और क्यूबा के भगोड़े व गद्दारों ने हर मुमकिन कोशिश की। फिल्म के निर्देशक डाॅलन कैन्नेल और निर्माता पीटर मूर ने अमेरिका में ऐशो-आराम की जिंदगी बिता रहे ऐसे बहुत से लोगों से मुलाकात की, जिन पर फिदेल की हत्या की कोशिशों का इल्जाम है। उनमें से एक सी0आई0ए0 का रिटायर्ड अधिकारी फेलिक्स रोड्रिगुएज भी था जो 1961 में क्यूबा पर अमेरिकी हमले के वक्त क्यूबा के विरोधियों का प्रशिक्षक था और जो 1967 में चे ग्वेवारा के कत्ल के वक्त बोलीविया में भी मौजूद था। यहाँ तक कि अमेरिकी जासूसी एजेंसियों की नाकामियों से परेशान होकर अमेरिकी हुक्मरानों ने फिदेल को मारने के लिए माफिया की भी मदद ली थी।
कुछ बरसों पहले 80 पार कर चुके फिदेल कास्त्रो भाषण देते हुए हवाना में चक्कर खाकर गिर गए थे। उनकी पैर की हड्डी भी इससे टूट गई थी। बस, फिर क्या था। अमेरिकी अफवाह तंत्र पूरी तरह सक्रिय होकर फिदेल की मृत्यु की अफवाहें फैलाने लगा। लेकिन फिदेल ने फिर दुनिया के सामने आकर सब अफवाहों को ध्वस्त कर दिया। जब फिदेल के डाॅक्टर से किसी पत्रकार ने पूछा कि क्या उनकी जिंदगी का यह आखिरी वक्त है तो डाॅक्टर ने कहा कि फिदेल 140 बरस की उम्र तक स्वस्थ रह सकते हैं।
लेकिन फिदेल ने क्यूबा की जिम्मेदारियों को सँभालने में सक्षम लोगों की पहचान कर रखी थी। सन् 2004 से ही धीरे-धीरे फिदेल ने अपनी सार्वजनिक उपस्थिति को कम करना शुरू कर दिया था। फिर 2006 में फिदेल ने अपनी जिम्मेदारियाँ अस्थायी तौर पर राउल कास्त्रो को सौंपीं। चूँकि राउल कास्त्रो फिदेल के छोटे भाई भी हैं इसलिए सारी दुनिया में पूँजीवादी मीडिया को फिर दुष्प्रचार का एक बहाना मिला कि कम्युनिस्ट भी परिवारवाद से बाहर नहीं निकल पाए हैं। लेकिन ये बात कम लोग जानते हैं कि राउल कास्त्रो फिदेल के भाई होने की वजह से नहीं बल्कि अपनी अन्य योग्यताओं की वजह से क्यूबा के इंकलाब के मजबूत पहरेदार चुने गए हैं। सिएरा मास्त्रा के पहाड़ों पर 1956 में जिस सशस्त्र अभियान में चे और फिदेल अपने 80 अन्य साथियों के साथ ग्रान्मा जहाज में मैक्सिको से क्यूबा आए थे, राउल उस अभियान का बेहद महत्त्वपूर्ण हिस्सा थे। बटिस्टा की फौजों से चंद महीनों के भीतर हुई सैकड़ों मुठभेड़ों में फिदेल, चे, राउल और उनके 10 अन्य साथियों को छोड़ बाकी सभी मारे गए थे। यह भी कम लोग जानते हैं कि फिदेल के कम्युनिस्ट बनने से भी पहले से राउल कम्युनिस्ट बन चुके थे। न सिर्फ जंग के मैदान में एक फौज के प्रमुख की तरह बल्कि सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक चुनौतियों का भी राउल कास्त्रो ने मुकाबला किया है। मंदी के संकटपूर्ण ौर में खेती की उत्पादकता बढ़ाने के लिए आज क्यूबा के जिस शहरी खेती के प्रयोग की दुनिया भर में प्रशंसा होती है, वह दरअसल राउल कास्त्रो की ही कल्पनाशीलता का नतीजा है।
बेशक पूरी दुनिया में फिदेल एक जीवित किंवदंती हैं इसलिए क्यूबा से बाहर की दुनिया में हर क्यूबाई उपलब्धि चे और फिदेल के खाते में ही जाती है। लेकिन इसका मतलब यह भी है कि फिदेल ने अपना इतना विस्तार कर लिया है कि वहाँ अनेक अनुभवी व नये लोग तैयार हैं। राउल कास्त्रो सिर्फ फिदेल के भाई होने का नाम ही नहीं, बल्कि इंकलाब की जिम्मेदारी सँभालने के लिए तैयार लोगों में से एक नाम है।

इंकलाब का बढ़ता दायरा

आज सोवियत संघ को विघटित हुए करीब दो दशक पूरे हो रहे हैं। ऐसी कोई बड़ी ताकत दुनिया में नहीं है जो अमेरिका को क्यूबा पर हमला करने से रोक सके। क्यूबा से कई गुना बड़े देश इराक और अफगानिस्तान को अमेरिका ने सारी दुनिया के विरोध के बावजूद ध्वस्त कर दिया। चीन में कहने के लिए कम्युनिस्ट शासन है लेकिन बाकी दुनिया के कम्युनिस्ट ही उसे कम्युनिज्म के रास्ते से भटका हुआ कहते हैं। उत्तरी कोरिया ने अपनी सुरक्षा के लिए परमाणु शक्ति संपन्न बनने का रास्ता अपनाया है। फिर अब अमेरिका को कौन सी ताकत क्यूबा को नेस्तनाबूद करने से रोकती है? वह ताकत क्यूबा की क्रान्तिकारी जनता की ताकत है जिसे पूरी दुनिया की मेहनतकश और इंसाफ पसंद जनता अपना हिस्सा समझती है और अपनी ताकत का एक अंश सौंपती है।
पिछले बीस बरसों से वे लगातार चुनौतियों से जूझ रहे हैं अनेक मोर्चों पर बिजली की कमी की समस्याएँ, रोजगार में कमी, उत्पादन और व्यापार में कमी और बाहरी दुनिया के दबाव अपनी जगह बदस्तूर कायम हैं ही, फिर भी, इतने कम संसाधनों और इतनी ज्यादा मुसीबतों के बावजूद क्यूबा ने शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा और जन पक्षधर जरूरी चीजों को अपने नागरिकों के लिए अनुपलब्ध नहीं होने दिया। अप्रैल 2010 में क्यूबा के लाखों युवाओं को संबोधित करते हुए राउल कास्त्रो ने कहा कि ’इतनी मुश्किलों में से उबरने की ताकत सिर्फ सामूहिक प्रयासों और मनुष्यता को बचाने की प्रतिबद्धता से ही आती है, और वह ताकत समाजवाद की ताकत है।’ ये सच है कि कई मायनों में क्यूबा की जनता आज सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है। लेकिन वे जानते हैं कि इसका सामना करने और हालातों को अपने पक्ष में मोड़ लेने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। सर्वग्रासी पूँजीवाद अपने जबड़े फैलाए क्यूबा के इंकलाब को निगलने के लिए 50 वर्षों से ताक में है। चे ने 1961 में लिखा था कि गलतियाँ तो होती हैं लेकिन ऐसी गलतियाँ न हों जो त्रासदी बन जाएँ। क्यूबाई जनता जानती है कि समाजवाद के बाहर जाने की गलती त्रासदियाँ लाएगी।
आज सिर्फ क्यूबा में ही नहीं, सारी दुनिया में हर उस शख्स के भीतर की आवाज फिदेल और क्यूबा के लोगों और क्यूबा की आजादी के साथ है जिसके भीतर अन्याय के खिलाफ जरा भी बेचैनी है। आज चे, फिदेल और क्यूबा सिर्फ एक देश तक महदूद नाम नहीं हैं बल्कि वे पूरी दुनिया के और खासतौर पर पूरे दक्षिण अमेरिका के साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के प्रतीक हैं। अमेरिका जानता है कि फिदेल और क्यूबा पर किसी भी तरह का हमला अमेरिका के खिलाफ एक ऐसे विश्वव्यापी जबर्दस्त आंदोलन की वजह बन सकता है जिसकी लहरों से टकराकर साम्राज्यवाद-पूँजीवाद की नाव तिनके की तरह डूब जाएगी।
क्यूबा की प्रेरणा, जोश और फिदेल की अनुभवी सलाहों के मार्गदर्शन में आज लैटिन अमेरिका के अनेक देशों में अमेरिकी साम्राज्यवाद और सरमायादारी के खिलाफ आंदोलन मजबूत हुए हैं और वेनेजुएला और बोलीविया में तो परेशानहाल जनता ने इन शक्तियों को सत्ता भी सौंपी है। अपनी ताकत को बूँद-बूँद सहेजते हुए पूरी सतर्कता के साथ ये आगे बढ़ रहे हैं। क्यूबा ने उनकी ताकत को बढ़ाया है और वेनेजुएला के राष्ट्रपति चावेज और बोलीवियाई राष्ट्रपति इवो मोरालेस के उभरने से क्यूबा को भी बल मिला है। अमेरिकी चक्रव्यूह से अन्य देशों को भी निजात दिलाने के लिए वेनेजुएला की पहल पर लैटिन अमेरिकी देशों को एकजुट करके ’बोलीवेरियन आल्टरनेटिव फाॅर दि अमेरिकाज’ (एएलबीए) और बैंक आॅफ द साउथ के दो क्षेत्रीय प्रयास किए हैं जिनसे निश्चित ही पूँजीवाद के बनाए भीषण मंदी के दलदल में फँसे देशों को कुछ सहारा भी मिलेगा और साथ ही समाजवादी विकल्प में उनका विश्वास बढ़ेगा। अब तक इन प्रयासों में हाॅण्डुरास, निकारागुआ, डाॅमिनिका, इक्वेडोर, एवं कुछ अन्य देश जुड़ चुके हैं। यह देश मिलकर अमेरिका की दादागीरी को कड़ी व निर्णायक चुनौती दे सकते हैं। नये दौर में ऐसी ही रणनीतियाँ तलाशनी होंगी।

-विनीत तिवारी
मोबाइल : 09893192740

(क्रमश:)

5.6.10

लो क सं घ र्ष !: नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला: क्यूबा-4


क्यूबा का इंकलाबः एक अलग मामला

क्यूबा की क्रान्ति न रूस जैसी थी न चीन जैसी। वहाँ क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टियाँ पहले से क्रान्ति के लिए प्रयासरत थीं और उन्होंने निर्णायक क्षणों में विवेक सम्मत निर्णय लेकर इतिहास गढ़ा। उनसे अलग, क्यूबा में जो क्रान्ति हुई, उसे क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी का भी समर्थन या अनुमोदन हासिल नहीं था। उस वक्त क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी फिदेल के गुरिल्ला युद्ध का समर्थन नहीं करती थी बल्कि बटिस्टा सरकार के ऊपर दबाव डालकर ही कुछ हक अधिकार हासिल करने में यकीन करती थी। लेकिन वक्त के साथ न केवल फिदेल ने क्यूबाई इंकलाब को सिर्फ एक देश के इंकलाब से बाहर निकालकर उसे एक अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की अहम तारीख बनाया बल्कि अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट बिरादरी ने भी क्यूबा के इंकलाब को साम्राज्यवाद से बचाये रखने में हर मुमकिन भूमिका निभाई।
चे ग्वेवारा का प्रसिद्ध लेख ’क्यूबाः एक्सेप्शनल केस?’ क्यूबा की क्रान्ति की अन्य खासियतों पर और समाजवाद की प्रक्रियाओं पर विलक्षण रोशनी डालता है।
करिष्मा दर करिश्मा जनता की ताकत से
1961 की 1 जनवरी को 1 लाख हाई स्कूल पास लोगों के साथ पूरे मुल्क को साक्षर बनाने का अभियान शुरू किया गया और ठीक एक साल पूरा होने के 8 दिन पहले ही क्यूबा को पूर्ण साक्षर करने का करिश्मा कर दिखाया। दिसंबर 22, 1961 को क्यूबा निरक्षरता रहित क्षेत्र घोषित कर दिया गया। ऐसे करिश्मे क्यूबा ने अनेक क्षेत्रों में दिखाए और अभी भी जारी हैं। इंकलाब के तत्काल बाद जमीन पर से विदेशी कब्जे खत्म किए गए और बड़े किसानों व कंपनियों से जमीनें लेकर छोटे किसानों व खेतिहर मजदूरों को बाँटी गईं। इंकलाब के बाद के करीब बीस-पच्चीस वर्षों तक क्यूबा ने तरक्की की अनेक छलाँगें भरीं। बेशक सोवियत संघ व अन्य समाजवादी देशों के साथ सामरिक-व्यापारिक संबंधों की इसमें अहम भूमिका रही। गन्ने की एक फसल वाली खेती से शक्कर बनाकर क्यूबा ने सोवियत संघ से शक्कर के बदले पेट्रोल और अन्य आवश्यक वस्तुएँ हासिल कीं। उद्योगों का ही नहीं खेती का भी राष्ट्रीयकरण करके खेतों में काम करने वाले मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा, छुट्टियाँ, मुफ्त शिक्षा, इलाज की सुविधाएँ और बच्चों के लिए झूलाघर खोले गए। क्रान्ति के महज 7 वर्षों के भीतर क्यूबा की 80 फीसदी कृषि भूमि पर सरकार का स्वामित्व था। निजी स्वामित्व वाले जो छोटे किसान थे, उनके भी सरकार ने जगह-जगह कोआॅपरेटिव बनाए और उन्हें प्रोत्साहित किया। सबके लिए भोजन, रोजगार, शिक्षा और सबके लिए मुफ्त इलाज की सुविधा ने क्यूबा को मानव विकास के किसी भी पैमाने से अनेक विकसित देशों से आगे लाकर खड़ा कर दिया था।

मुश्किल दौर का मुकाबला क्रान्ति के औजारों से

सोवियत संघ के विघटन से निश्चित ही क्यूबा की अर्थव्यवस्था पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा। भीषण मंदी ने क्यूबा को अपनी चपेट में ले लिया। सोवियत संघ केवल क्यूबा की कृषि उपज का खरीददार ही नहीं था बल्कि क्यूबा की ईंधन और रासायनिक खाद की जरूरतों का भी बड़ा हिस्सा वहीं से ही पूरा होता था। सोवियत संघ के ढहने से क्यूबा में रासायनिक खाद और कीटनाशकों की उपलब्धता 80 फीसदी तक गिर गई और उत्पादन में 50 फीसदी से ज्यादा गिरावट आई। क्यूबा के प्रति व्यक्ति प्रोटीन और कैलोरी खपत में 30 फीसदी कमी दर्ज की गई। लेकिन क्यूबा इन सभी समस्याओं से बगैर किसी बाहरी मदद के जिस तेजी से फिर सँभला, वह क्यूबाई करिश्मों की गिनती को ही बढ़ाता है। अपने दक्ष व प्रतिबद्ध वैज्ञानिकों और लोगों के प्रति ईमानदार, दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति ने 1995 के मध्य तक अपनी कृषि को पूरी तरह बदल कर नये हालातों के अनुकूल ढाल लिया। रासायनिक खाद के बदले जैविक खाद से खेती की जाने लगी। एक फसल के बदले विविधतापूर्ण फसल चक्र अपनाए गए। आज क्यूबा सारी दुनिया में जैविक खेती और जमीन का सही तरह से इस्तेमाल करने वाले देशों में सबसे आगे है।
यही स्थिति ऊर्जा के क्षेत्र में भी हुई। सोवियत संघ से पेट्रोलियम की आपूर्ति बंद हो जाने के बाद क्यूबा के वैज्ञानिकों व इंजीनीयरों ने बड़े पैमाने पर सौर ऊर्जा और पनबिजली के संयंत्रों पर काम किया। कम बिजली खपत वाले रेफ्रीजरेटर, हीटर, बल्ब इत्यादि बनाए गए और आज क्यूबा वैकल्पिक व प्रकृति हितैषी ऊर्जा उत्पादन में भी दुनिया की अग्रिम पंक्ति में है।
पश्चिमी यूरोप में प्रत्येक 330 लोगों की देखभाल के लिए एक डाॅक्टर है; अमेरिका में प्रत्येक 417 लोगों की देखभाल के लिए एक डाक्टर है, जबकि क्यूबा में प्रत्येक 155 लोगों की देखभाल के लिए एक डाॅक्टर है। क्यूबा जैसा छोटा सा देश 70 हजार से ज्यादा डाक्टर्स को प्रशिक्षित कर रहा है और उन्हें दुनिया के हर हिस्से में मानवता की मदद के लिए भेज रहा है जबकि उससे कई गुना बड़ा अमेरिका करीब 64 से 68 हजार डाक्टरों का ही प्रशिक्षण कर पा रहा है।

-विनीत तिवारी
मोबाइल : 09893192740

(क्रमश:)

लो क सं घ र्ष !: सपने देखना और सपने बुनना.......


सपने देखना और सपने बुनना , हमे भी आता है प्रजापति ..
सिर्फ तुम्हे नहीं .
फूटपाथ पर
होने का अर्थ
ये नहीं है न्याय कई देवता ,
की हमे सपने नही आते .
सपने देखना सिर्फ तुम्हारी मिलकियत नहीं .
तिजोरियो के स्वामी .
हमे भी हासिल है हक़ .
की सपने देखू
बेहतर दुनिया और बेहतर मनुष्य होने के सपने .
उजाडो तुम बार -बार /उजाडो मेरे सपनों के
घोश्लो को
कभी प्रदूषण निवारण के नाम पर
कभी सहर की खूबसूरती के नाम पर .
कभी न्याय के देवताओ के हुक्म पर
कभी विकाश की गंगा बहाने के बहाने
सत्ता ,शासन और तिजोरी का मिलन पर्व
भले ही मनाया जा रहा हो पूरी दुनिया में .
भले ही दुनिया का सबसे बड़ा हैवान .
सभ्यताओ का पाठ पढ़ा रहा हो हमे .
हमे सपने देखने और सपने बुनने से
नहीं रोक सकता वो
कयू की मेरा सपना सिर्फ अपना सपना नहीं है .
पूरी कायनात का है मेरा सपना
मनुष्यता की हिफाज़त में ...........

-सुनील दत्ता

4.6.10

लो क सं घ र्ष !: पत्नी बचाना मुश्किल है

(आरोप यदि सही हैं तो शर्मनाक है)

ईजराइल के सरकारी दौरे पर गए लेफ्टिनेंट जनरल ए.के नंदा ने साथ में गए कर्नल रैंक के अधिकारी की पत्नी से छेड़-छाड़ की। यह आरोप कर्नल रैंक के अधिकारी की पत्नी ने सेना प्रमुख की पत्नी व आर्मी वाईव्स से मिलकर लगाया। इसके पूर्व भी सेना के पांच बड़े अफसरों ने अपने मातहत अफसरों की पत्नियों का यौन उत्पीडन का मामला प्रकाश में आया था। समय-समय पर उच्च पदस्थ सैन्य अधिकारियो के खिलाफ अपने अधीनस्थ अधिकारियो की पत्नियों से छेड़-छड के मामले प्रकाश में आते रहे हैं। पूर्वोत्तर भारत में सेना का पूर्णतया नियंत्रण है। मणिपुर में सेना के खिलाफ औरतों का निवस्त्र प्रदर्शन तक हो चुका है। समाज में हमारी सेना के अदम्य साहस और शौर्य की गाथाएं जन-जन में प्रचलित हैं किन्तु दूसरा पक्ष यह भी है कि सेना में यौन उत्पीडन, भ्रष्टाचार के मामले जब प्रकाश में अक्सर आते रहते हैं तो एक तबका इस बात की वकालत करने लगता है कि इसकी चर्चा मत करो सेना का मनोबल टूटेगा। हमारी सेना में अब इस तरह की हरकतें ज्यादा संख्या में होने लगी हैं और भ्रष्टाचार भी अन्य विभागों की तरह चरम पर हैं। पुलिस वालों की भांति फर्जी एनकाउंटर भी होने लगे हैं। कुछ वर्ष पूर्व जब रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज हुआ करते थे तो देश के विभिन्न आयुध भण्डारो में विस्फोट हो गए थे और सारा हिसाब किताब बराबर कर लिया गया था। सेवानिवृत्ति सैन्य अधिकारियो की भी कारनामें देश भक्ति पूर्ण नहीं हैं। आज जरूरत इस बात की है कि सैन्य समुच्चयों को लोकतान्त्रिक करण किया जाए और उनमें उच्च आदर्श, उच्च मापदंड स्थापित करने की परंपरा की आवश्यकता है। मनोबल कम न होने पावे इसलिए उनके हर अपराधिक कृत्य को माफ़ करने का कोई औचित्य नहीं है अगर सेना बाबा आदम जमाने की सोच रखकर लूट और खसोट पर आधारित व्यवस्था पर चलती है तो भारत की रक्षा भी नहीं हो सकती है। एक सेवानिवृत्ति सैनिक ने बताया कि सेना में पत्नियों को सुरक्षित रखना आसान नहीं है। कठोर नियमो और उपनियमो के तहत सैन्य अधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारी को कुसित इच्छा न पूरी होने पर दण्डित भी कर देते हैं।

सुमन
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