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4.6.10

लो क सं घ र्ष !: नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला: क्यूबा-3


हम कम्युनिस्ट नहीं हैं: फिदेल (1959)

1 जनवरी 1959 को क्यूबा में बटिस्टा के शोषण को हमेशा के लिए समाप्त करने के बाद अप्रैल, 1959 में फिदेल एसोसिएशन आॅफ न्यूजपेपर एडिटर्स के आमंत्रण पर अमेरिका गये जहाँ उन्होंने एक रेडियो इंटरव्यू में कहा कि ’मैं जानता हूँ कि दुनिया सोचती है कि हम कम्युनिस्ट हैं पर मैंने बिल्कुल साफ तौर पर यह कहा है कि हम कम्युनिस्ट नहीं हैं।’ उसी प्रवास के दौरान फिदेल की साढ़े तीन घंटे की मुलाकात अमेरिकी उप राष्ट्रपति निक्सन के साथ भी हुई जिसके अंत में निक्सन का निष्कर्ष यह था कि ’या तो कम्युनिज्म के बारे में फिदेल की समझ अविश्वसनीय रूप से बचकानी है या फिर वे ऐसा कम्युनिस्ट अनुशासन की वजह से प्रकट कर रहे हैं।’ लेकिन फिदेल ने मई में क्यूबा में अपने भाषण में फिर दोहरायाः ’न तो हमारी क्रान्ति पूँजीवादी है, न ये कम्युनिस्ट है, हमारा मकसद इंसानियत को रूढ़ियों से, बेड़ियों से मुक्त कराना और बगैर किसी को आतंकित किए या जबर्दस्ती किए, अर्थव्यवस्था को मुक्त कराना है।’
बहरहाल न कैनेडी के ये उच्च विचार क्यूबा के बारे में कायम रह सके और न फिदेल को ही इतिहास ने अपने इस बयान पर कायम रहने दिया। जनवरी 1959 से अक्टूबर आते-आते जिस दिशा में क्यूबा की क्रान्तिकारी सरकार बढ़ रही थी, उससे उनका रास्ता समाजवाद की मंजिल की ओर जाता दिखने लगा था। मई में भूमि की मालिकी पर अंकुश लगाने वाला कानून लागू कर दिया गया था, समुंदर के किनारों पर निजी स्वामित्व पहले ही छीन लिया गया था। अक्टूबर में चे को क्यूबा के उद्योग एवं कृषि सुधार संबंधी विभाग का प्रमुख बना दिया गया था और नवंबर में चे को क्यूबा के राष्ट्रीय बैंक के डाइरेक्टर की जिम्मेदारी भी दे दी गई थी। बटिस्टा सरकार के दौरान क्यूबा के रिश्ते बाकी दुनिया के तरक्की पसंद मुल्को के साथ कटे हुए थे, वे भी 1960 में बहाल कर लिए गए। सोवियत संघ और चीन के साथ करार किए गए तेल, बिजली और शक्कर का सारा अमेरिकी व्यवसाय जो बटिस्टा के जमाने से क्यूबा में फल-फूल रहा था, सरकार ने अपने कब्जे में लेकर राष्ट्रीयकृत कर दिया। जुएखाने बंद कर दिए गए। पूरा क्यूबाई समाज मानो कायाकल्प के एक नये दौर में था।
यह कायाकल्प अमेरिकी हुक्मरानों और अमेरिकी कंपनियों के सीनों पर साँप की तरह दौड़ा रहा था। आखिर 1960 की ही अगस्त में आइजनहाॅवर ने क्यूबा पर सख्त आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। क्यूबा को भी इसका अंदाजा तो था ही इसलिए उसने मुश्किल वक्त के लिए दोस्तों की पहचान करके रखी थी। रूस और चीन ने क्यूबा के साथ व्यापारिक समझौते किए और एक-दूसरे को पँूजीवाद की जद से बाहर रखने में मदद की।
उधर अमेरिका में आइजनहाॅवर के बाद कैनेडी नये राष्ट्रपति बने थे जिन्होंने पहले आइजनहाॅवर की नीतियों की आलोचना और क्यूबाई क्रान्ति की प्रशंसा की थी। उनके पदभार ग्रहण करने के तीन महीनों के भीतर ही क्रान्ति को खत्म करने का सीआईए प्रायोजित हमला किया गया जिसे बे आॅफ पिग्स के आक्रमण के नाम से जाना जाता है। चे, फिदेल और क्यूबाई क्रान्ति की प्रहरी जनता की वजह से ये हमला नाकाम रहा। सारी दुनिया में अमेरिका की इस नाकाम षड्यंत्र की पोल खुलने से, बदनामी हुई। तब कैनेडी ने बयान जारी किया कि यह हमला सरकार की जानकारी के बगैर और क्यूबा के ही अमेरिका में रह रहे असंतुष्ट नागरिकों का किया हुआ है, जिसकी हम पर कोई जिम्मेदारी नहीं है।

कम्युनिस्ट कहलाना हमारे लिए गौरव की बात हैः फिदेल (1965)

उधर, दूसरी तरफ फिदेल को भी 1961 में बे आॅफ पिग्स के हमले के बाद यह समझ में आने लगा था कि अमेरिका क्यूबा को शांति से नहीं रहने देगा। पहले जो फिदेल अपने आपको कम्युनिज्म से दूर और तटस्थ बता रहे थे, दो साल बाद एक मई 1961 को फिदेल ने अपनी जनता को संबोधित करते हुए कहा कि ’हमारी शासन व्यवस्था समाजवादी शासन व्यवस्था है और मिस्टर कैनेडी को कोई हक नहीं कि वे हमें बताएँ कि हमें कौन सी व्यवस्था अपनानी चाहिए, हम सोचते हैं कि खुद अमेरिका के लोग भी किसी दिन अपनी इस पूँजीवादी व्यवस्था से थक जाएँगे।’
1961 की दिसंबर को उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा कि ’मैं हमेशा माक्र्सवादी-लेनिनवादी रहा हूँ और हमेशा रहूँगा।’
तब तक भी फिदेल और चे वक्त की नब्ज को पहचान रहे थे। चे ने इस दौरान सोवियत संघ, चीन, उत्तरी कोरिया, चेकोस्लावाकिया और अन्य देशों की यात्राएँ कीं। चे को अमेरिका की ओर से इतनी जल्द शांति की उम्मीद नहीं थी इसलिए क्यूबा की क्रान्ति को बचाये रखने के लिए उसे बाहर से समर्थन दिलाना बहुत जरूरी था। क्यूबा तक आने वाली जरूरी सामग्रियों के जहाज रास्ते में ही उड़ा दिए जाते थे और क्यूबा पर अमेरिका के हवाई हमले कभी तेल संयंत्र उड़ा देते थे तो कभी क्यूबा के सैनिक ठिकानों पर बमबारी करते थे। बेहद हंगामाखेज रहे कुछ ही महीनों में इन्हीं परिस्थितियों के भीतर अक्टूबर 1962 में सोवियत संघ द्वारा आत्मरक्षा के लिए दी गई एक परमाणु मिसाइल का खुलासा होने से अमेरिका ने क्यूबा पर अपनी फौजें तैनात कर दीं। उस वक्त बनीं परिस्थितियों ने विश्व को नाभिकीय युद्ध के मुहाने पर ला खड़ा किया था। आखिरकार सोवियत संघ व अमेरिका के बीच यह समझौता हुआ कि अगर अमेरिका कभी क्यूबा पर हमला न करने का वादा करे तो सोवियत संघ क्यूबा से अपनी मिसाइलें हटा लेगा।
अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम और परिस्थितियों के भीतर अपना कार्यभार तय करते हुए अंततः 3 अक्टूबर 1965 को फिदेल ने साफ तौर पर पार्टी का नया नामकरण करते हुए उसे क्यूबन कम्युनिस्ट पार्टी का नया नाम दिया और कहा कि कम्युनिस्ट कहलाना हमारे लिए फ़ख्ऱ और गौरव की बात है।

-विनीत तिवारी
मोबाइल : 09893192740

(क्रमश:)

3.6.10

लो क सं घ र्ष !: नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला: क्यूबा -2

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद हालात और खराब हुए। बटिस्टा ने क्यूबा को अमेरिका से निकाले गए अपराधियों की पनाहगाह बना दिया। बदले में अमेरिकी माफिया ने बटिस्टा को अपने मुनाफों में हिस्सेदारी और भरपूर ऐय्याशियाँ मुहैया कराईं। उस दौर में क्यूबा का नाम वेश्यावृत्ति, कत्ले आम, और नशीली दवाओं के कारोबार के लिए इतना कुख्यात हो चुका था कि 22 दिसंबर 1946 को हवाना के होटल में कुख्यात हवाना कांफ्रेंस हुई जिसमें अमेरिका के अंडर वल्र्ड के सभी सरगनाओं ने भागीदारी की। यह सिलसिला बेरोक-टोक चलता रहा।
1955 में बटिस्टा ने ऐलान किया कि क्यूबा किसी को भी जुआघर खोलने की इजाजत दे सकता है बशर्ते कि वह व्यक्ति या कंपनी क्यूबा में होटल उद्योग में 10 लाख अमेरिकी डालर का या नाइट क्लब में 20 लाख डाॅलर का निवेश करे। इससे अमेरिका में कैसिनो के धंधे में नियम कानूनों से परेशान कैसिनो मालिकों ने क्यूबा का रुख किया। जुए के साथ तमाम नये किस्म के अपराध और अपराधी क्यूबा में दाखिल हुए। अमेरिका के प्रति चापलूस रहने में बटिस्टा का फायदा यह था कि अपनी निरंकुश सत्ता कायम रखने के लिए उसे अमेरिका से हथियारों की अबाध आपूर्ति होती थी। यहाँ तक कि अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहाॅवर के जमाने में क्यूबा को दी जाने वाली पूरी अमेरिकी सहायता हथियारों के ही रूप में होती थी। एक तरह से ये दो अपराधियों का साझा सौदा था।
आइजनहाॅवर की नीतियों का विरोध खुद अमेरिका के भीतर भी काफी हो रहा था। आइजनहाॅवर के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी और उनके बाद अमेरिका के राष्ट्रपति बने जाॅन एफ0 कैनेडी ने आइजनहाॅवर की नीतियों की आलोचना करते हुए कहा थाः ’सारी दुनिया में जिन देशों पर भी उपनिवेशवाद हावी है, उनमें क्यूबा जितनी भीषण आर्थिक लूट, शोषण और अपमान किसी अन्य देश का नहीं हुआ है, और इसकी कुछ जिम्मेदारी बटिस्टा सरकार के दौरान अपनाई गई हमारे देश की नीतियों पर भी है।’ इसके भी आगे जाकर आइजनहाॅवर की नीतियों की आलोचना करते हुए कैनेडी ने क्यूबा की क्रान्ति का व फिदेल और उनके क्रान्तिकारी साथियों का समर्थन भी किया।
लेकिन यह समर्थन वहीं खत्म भी हो

गया जब उन्हें समझ आया कि क्यूबा की क्रांति सिर्फ एक देश के शासकों का उलटफेर नहीं, बल्कि वह एक नये समाज की तैयारी है और पूँजीवाद के बुनियादी तर्क शोषण के ही खिलाफ है, और इसीलिए उस क्रान्ति को समाजवाद के भीतर ही अपनी जगह मिलनी थी।
बटिस्टा सरकार के दौरान जो हालात क्यूबा में थे, उनके प्रति एक ज़बर्दस्त गुस्सा क्यूबा की जनता के भीतर उबल रहा था। फिदेल कास्त्रो के पहले भी बटिस्टा के तख्तापलट की कुछ नाकाम कोशिशें हो चुकी थीं। विद्रोही शहीद हुए थे और बटिस्टा और भी ज्यादा निरंकुश। खुद अमेरिका द्वारा माने गये आँकड़े के मुताबिक बटिस्टा ने महज सात वर्षों के दौरान 20 हजार से ज्यादा क्यूबाई लोगों का कत्लेआम करवाया था। इन सबके खिलाफ फिदेल के भीतर भी गहरी तड़प थी। जब फिदेल ने 26 जुलाई 1953 को मोंकाडा बैरक पर हमला बोल कर बटिस्टा के खिलाफ विद्रोह की पहली कोशिश की थी तो उसके पीछे यही तड़प थी। अगस्त 1953 में फिदेल की गिरफ्तारी हुई और उसी वर्ष उन्होंने वह तकरीर की जो दुनिया भर में ’इतिहास मुझे सही साबित करेगा’ के शीर्षक से जानी जाती है। उन्हें 15 वर्ष की सजा सुनायी गई थी लेकिन दुनिया भर में उनके प्रति उमड़े समर्थन की वजह से उन्हें 1955 में ही छोड़ना पड़ा। 1955 में ही फिदेल को क्यूबा में कानूनी लड़ाई के सारे रास्ते बन्द दिखने पर क्यूबा छोड़ मैक्सिको जाना पड़ा जहाँ फिदेल पहली दफा चे ग्वेवारा से मिले। जुलाई 1955 से 1 जनवरी 1959 तक क्यूबा की कामयाब क्रान्ति के दौरान फिदेल ने राउल कास्त्रो, चे और बाकी साथियों के साथ अनेक छापामार लड़ाइयाँ लड़ीं, अनेक साथियों को गँवाया लेकिन क्यूबा की जनता और जमीन को शोषण से आजाद कराने का ख्वाब एक पल भी नजरों से ओझल नहीं होने दिया।

-विनीत तिवारी
मोबाइल : 09893192740

(क्रमश:)

Hum Do : Abhi Na Jao Chhod Kar Ke Dil Abhi Bhara Nahi

2.6.10

लो क सं घ र्ष !: नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला: क्यूबा -1

1959 में जब क्यूबा में सशस्त्र संघर्ष द्वारा बटिस्टा की सरकार को अपदस्थ करके फिदेल कास्त्रो, चे ग्वेवारा और उनके क्रान्तिकारी साथियों ने क्यूबा की जनता को पूँजीवादी गुलामी और शोषण से आजाद कराया तो उसके बाद मार्च 1960 में माक्र्सवाद के दो महान विचारक और न्यूयार्क से निकलने वाली माक्र्सवादी विचार की प्रमुखतम् पत्रिकाओं में से एक के संपादकद्वय पॉल स्वीजी और लिओ ह्यूबरमेन तीन हफ्ते की यात्रा पर क्यूबा गए थे। अपने अध्ययन, विश्लेषण और अनुभवों पर उनकी लिखी किताब ’क्यूबाः एनाटाॅमी आॅफ ए रिवाॅल्यूशन’ को वक्त के महत्त्व के नजरिये से पत्रकारिता, और गहरी तीक्ष्ण दृष्टि के लिए अकादमिकता के संयोग का बेहतरीन नमूना माना जाता है। आज भी क्यूबा को, वहाँ के लोगों, वहाँ की क्रान्ति और हालातों को समझने का यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। बहरहाल, अपनी क्यूबा यात्रा की वजह से उन्हें अमेरिकी सरकार और गुप्तचर एजेंसियों के हाथों प्रताड़ित होना पड़ा था। ऐसे ही मौके पर दिए गए एक भाषण के कारण 7 मई 1963 को उन्हें अमेरिका विरोधी
गतिविधियों में लिप्त होने और क्यूबा की अवैध यात्रा करने और कास्त्रो सरकार के प्रोपेगंडा अभियान का हिस्सा होने के इल्जाम में एक सरकारी समिति ने जवाब-तलब किया था। वह पूछताछ स्मृति के आधार पर प्रकाशित की गई थी। उसी के एक हिस्से का हिन्दी तर्जुमाः
सवालः यह मंथली रिव्यू में 1960 से 1963 के दौरान क्यूबा पर प्रकाशित लेखों की एक सूची है। क्या यह सही है?
जवाबः यह सही तो है, लेकिन अधूरी है। हमने क्यूबा पर इससे ज्यादा लेख छापे हैं।
सवालः क्या इन लेखों को छापने के लिए आपको क्यूबाई सरकार ने कहा था?
जवाबः हर्गिज नहीं। हमने ये लेख अपने विवेक से प्रकाशित किए क्योंकि हमारी दिलचस्पी लम्बे समय से इस बात में है कि गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी, अशिक्षा, रिहाइश के खराब हालात और अविकसित देशों में महामारी की तरह मौजूद असंतुलित अर्थव्यवस्था से उपजने वाली जो बुराइयाँ हैं, उनसे किस तरह निजात पाई जा सकती है। क्यूबा में क्रान्ति की गई और इन समस्याओं को हल किया गया। लैटिन अमेरिका के दूसरे देशों में ये बुराइयाँ अभी भी मौजूद हैं। सारे अविकसित लैटिन अमेरिकी देशों में सिर्फ एक ही देश है जहाँ ये बुराइयाँ खत्म की जा सकीं, और वह है क्यूबा।
सवालः क्या आप लैटिन अमेरिका के देशों में कम्युनिस्ट कब्जे/ तख्तापलट की हिमायत कर रहे हैं?
जवाबः मैंने ऐसा नहीं कहा बल्कि आपने कहा। मैंने कहा कि ये सारी बुराइयाँ सभी अविकसित देशों के लिए बड़ी समस्याएँ हैं, जिनमें लैटिन अमेरिका के देश भी शामिल हैं, और मेरे खयाल से इन समस्याओं का हल उस तरह के इंकलाब से निकलेगा, जो फिदेल कास्त्रो ने क्यूबा में किया है।
प्रसंगवश मैं ये भी बता दूँ कि लैटिन अमेरिका के लिए इस तरह के इंकलाब की तरफदारी मैं तब से कर रहा हूँ जब फिदेल कास्त्रो की उम्र सिर्फ करीब 10 बरस रही होगी।
सवालः क्या आप क्यूबा की कम्युनिस्ट सरकार के प्रोपेगैंडिस्ट (प्रचारक) हैं?
जवाबः मैं क्यूबा की ही नहीं, किसी भी सरकार का, या किसी पार्टी का या किसी और संगठन का प्रोपेगैंडिस्ट नहीं हूँ, लेकिन हाँ, मैं प्रोपेगैंडिस्ट हूँ-सच्चाई का।
इसके भी पहले लिओ ह्यूबरमैन ने जून 1961 में दिए एक भाषण में जो कहा था, वह आज भी प्रासंगिक है।
’’मैं एक क्षण के लिए भी स्वतंत्र चुनावों, अभिव्यक्ति की आज़ादी या प्रेस की आज़ादी के महत्त्व को कम नहीं समझता हूँ। ये उन लोगों के लिए बेहद जरूरी और सबसे महत्त्वपूर्ण आज़ादियाँ हैं जिनके पास खाने के लिए भरपूर है, रहने, पढ़ने-लिखने और स्वास्थ्य की देखभाल करने के लिए अच्छी सुविधाएँ हैं, लेकिन इन आजादियों की जरूरत उनके लिए सबसे पहली नहीं है जो भूखे हैं, निरक्षर हैं, बीमार और शोषित हैं। जब हममें से कुछ भरे पेट वाले खाली पेट वालों को जाकर यह कहते हैं कि उनके लिए मुक्त चुनाव सबसे बड़ी जरूरत हैं तो वे नहीं सुनेंगे; वे बेहतर जानते हैं कि उनके लिए दुनिया में सबसे ज्यादा जरूरी क्या है। वे जानते हैं कि उनके लिए सबसे ज्यादा और किसी भी और चीज से पहले जरूरी है रोटी, जूते, उनके बच्चों के लिए स्कूल, इलाज की सुविधा, कपड़े और एक ठीक-ठाक रहने की जगह। जिंदगी की ये सारी जरूरतें और साथ में आत्म सम्मान-ये क्यूबाई लोगों को उनके समूचे इतिहास में पहली बार हासिल हो रहा है। इसीलिए, जो जिंदगी में कभी भूखे नहीं रहे, उन्हेें ताज्जुब होता है कि वे (क्यूबा के लोग) कम्युनिज्म का ठप्पा चस्पा होने से घबराने के बजाय उत्साह में ’पैट्रिया ओ म्यूर्ते’ (देश या मौत) का नारा क्यों लगाते हैं।’’
जुल्म जब हद से गुजर जाए तो
1959 में क्यूबा में क्रान्ति होने के पहले तक बटिस्टा की फौजी तानाशाही वाली अमेरिका समर्थित सरकार थी। बटिस्टा ने अपने शासनकाल के दौरान क्यूबा को वहशियों की तरह लूटा था। अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने पर ही नहीं, शासकों के मनोरंजन के लिए भी वहाँ आम लोगों को मार दिया जाता था। अमेरिका के ठीक नाक के नीचे होने वाले इस अन्याय को अमेरिकी प्रशासन देखकर भी अनदेखा किया करता था क्योंकि एक तो क्यूबा के गन्ने के हजारों हेक्टेयर खेतों पर अमेरिकी कंपनियों का कब्जा था, चारागाहों की लगभग सारी ही जमीन अमेरिकी कंपनियों के कब्जे में थी, क्यूबा का पूरा तेल उद्योग और खनिज संपदा पर अमेरिकी व्यावसायिक घराने ही हावी थे। वे हावी इसलिए हो सके थे क्योंकि फौजी तानाशाह बटिस्टा ने अपने मुनाफे के लिए अपने देश का सबकुछ बेचना कबूल कर लिया था।

-विनीत तिवारी
मोबाइल : 09893192740

(क्रमश:)

1.6.10

सिखाय देव बलमा दस्तखत बनाना...............

"अशिक्षा समाज प्रदत्त अभिशाप है।" 
अभिशापित व्यक्ति के कष्टों का अंत नहीं। उसके कारण वह पग-पग 
पर कष्ट भोगता है। देरसबेर समाज को भी उसके दंश झेलने पड़ते हैं।
एक अभिशप्त नारी की व्यथा को इस लोकगीत में अनुभव कीजिए। 
                                                                -डॉ० डंडा लखनवी 

                       लोकगीत

सिखाय   देव बलमा  दस्तखत  बनाना।
सुहात   नाहीं  हमका  अंगुठा   लगाना॥

जब   मैं  जाती   बैंक   पइसा   निकारै,
अंगूठा    पकड़   बबुआ   शेखी   बघारै,

मिजाज वहिका लागै तनी आशिकाना॥
सिखाय  देव बलमा  दस्तखत बनाना॥
                                      
पोस्टमैन  आवै   मनिआडर  जो  लावै,
छापै  अंगूठा  की   कसि  कसि  लगावै,
सिहात  नाहीं वहिका  अंगुठा  दबाना।
सिखाय देव बलमा दस्तखत बनाना॥

आवै    चुनाव    मतदान    करै    जाई,
अंगुठा   थमाय   बाद   अंगुरी    थमाई,
चलत नाहीं  हुआं  सैयां  कोऊ बहाना।
सिखाय  देव  बलमा दस्तखत बनाना॥

लो क सं घ र्ष !: बुलबुल-ए-बे-बाल व पर - अंतिम भाग


फिर सिराजुद्दीन बहादुर शाह जफ़र को एक मामूली मुल्ज़िम की हैसियत से ज़िला वतन कर दिया। वह 1862ई0 में (रंगून में) अपने वतन से दूर इस आलम-ए-फ़ानी को तर्क कर गए।
सच तो यह है कि दिल्ली के आखि़री ताजदार ज़फ़र बेचारे, बेकस, बेदोस्त ओ यार और वाक़ई बेपरो बाल थे। लेकिन वे अपनी तमाम बेचारगियों और कमजोरियों के बावजूद हिन्दुस्तान में हिन्दू, मुस्लिम, इत्तेफाक़ और आजादी की अलामत रहे थे। इस राज़ से अंग्रेज सरकार भी बखूबी वाक़िफ़ थी कि ज़फ़र का कोई असर बाकी न छोड़ने के लिए हर मुमकिन कोशिश थी। खुद बा एतबार मुसलमानों से उनके खिलाफ प्रोपे्रगण्डा करवाया। बाज़ असहाब जानते बूझते अपने मफ़ादात की खातिर और बाज लोग बादिले नाख़्वास्ता (न चाहते हुए) बस अपनी कौम को तलवार के मुँह से बचाने की खातिर इस प्रोपेगण्डे में शामिल हो गए जैसा कि सर सैय्यद शामिल हुए थे और अपनी मारूफ़ तसनीफ़ (प्रसिद्ध रचना) असवाबे बग़ावत ए हिन्द में कलम बन्द फरमाया था-
‘‘दिल्ली के माज़ूल बादशाह (अपदस्थ राजा) का यह हाल था कि अगर उससे कहा जाता कि पाकिस्तान में जिन्नों का बादशाह आपका ताबेदार है तो वह उसको सच समझता और एक छोड़ दस फ़रमान लिख देता। दिल्ली का माज़ूल बादशाह हमेशा ख़्याल करता था कि मैं मक्खी और मच्छर बनकर उड़ जाता हूँ और लोगों की और मुल्कों की खबर ले आता हूँ और इस बात को वह अपने ख़याल में सच समझता और दरबारियों से तस्दीक़ चाहता था। ‘‘
‘‘दरअसल यह एक ऐसा बाअसर हरबा था (प्रभावशाली हथियार) जिसे अहले मग़रिब (पश्चिम देश वाले) सदियों से बड़ी खूबी से इस्तेमाल करते आए हैं और अहले बर्तानिया भी इस काम में माहिर थे। लेकिन सिर्फ यह मनफ़ी (नकारात्मक) प्रोपेगण्डा काफी नहीं था, उनकी वफ़ात के बाद भी हिन्दुस्तान की एकजहती और इत्तेफाक की मिटती अलामत का कोई निशान बाकी नहीं रहना था। ज़रा रंगून में कैदियों की निगरानी करने काले अंग्रेज अफसर नेलसन डेविस के रोजनामचे में ज़फ़र की तजहीज़ व तकफ़ीन (कफ़न व दफ़न) के हालात मुताला (अध्ययन) कीजिए और इस अलामत-ए-इकजहती का इन्हदाम (हार या पराजय) किस तरह रूए अमल आया वह देखिए व सबक हासिल कीजिए। इस सिलसिले में नेलसन डेविस ने अपने रोजनामचे में लिखा है-
‘‘रंगून जुमेरात सात नम्बर 1862ई0
अबू ज़फ़र मोहम्मद बहादुर शाह आज सुबह पाँच बजे इंतकाल कर गए, चूँकि तमाम तैयारियाँ मुक़म्मल थीं इसलिए आज ही शाम 4 बजे गार्ड के उक़ब (घेरे) में ईंटों की कब्र में उनकी तदफीन कर दी गई और कब्र की ऊपरी सतह पर मिट्टी डालकर सतहे जमीन के साथ हमवार (समतल) कर दी गई। थोड़े फासलों पर बाँसों का अहाता खींच दिया गया है ताकि जब तक बाँस गल सड़कर गिरें जमीन पर घास उग चुकी हो और कोई अलामत ऐसी बाकी न रहे जिससे आखिरी मुगल शहंशाह की कब्र की निशान देही की जा सके।
मरहूम की तजहीज़ व तकफ़ीन के लिए एक मुल्ला की खिदमात हासिल की गई थी। जनाजे को एक सन्दूक में रखकर ऊपर से सुर्ख रंग की एक सूती चादर से ढाँप दिया गया था मुसलमानों का एक हुजूम बाजार से आकर अहाते के करीब जमा हो गया था, लेकिन उस हुजूम को एक फ़ासले पर रखा गया और इस तरह कि उनमें से कोई भी मैय्यत को न छू सके। कोई नाखुश गवार वाक़िया पेश नहीं आया। बादशाह के दोनों बेटे जवँाबख्त और शाह अब्बास और बादशाह का खादिम अहमद बेग जनाजे के साथ थे। शाही खानदान के दीगर अफराद (बच्चों और औरतों) को जनाजे में शिरकत की इजाजत नहीं थी।
चुनाँचे हिन्दुस्तान की एकजहती और इत्तेफ़ाक़ की इस अलामत को मिटा देने और हिन्दुस्तान पर पूरी तरह कब्जा करने के बाद अंग्रेजों ने ‘‘बाँटो और हुक्म करो’’ की हिकमते अमली पर सऊरी तौर पर हिन्दुओं और मुसलमानों के दरमियान निफ़ाक़ (फूट) डाला और उन दो बड़ी क़ौमों को एक दूसरे से नफरत कराकर उनको एक दूसरे से लड़ाकर खुद हिन्दुस्तान पर अपना हुक्म चलाया। वे इस हिकमत ए अमली में इतना कामयाब रहे कि आज तक उनकी हिकमत ए अमली के असरात गाहे बगाहे महसूस किए जा रहे हैं। अब यह ख़बर सुनने में आई है कि जफर की मैय्यत रंगून से दिल्ली लाने की तहरीक चली है। यह बड़ी अच्छी खुशखबरी है।
क्योंकि जफर की मैय्यत को हिन्दुस्तान वापस मुन्तक़िल करने से तो शायद मैय्यत को कुछ नहीं मिलेगा। लेकिन यह हिन्दुस्तान में एक नये दौर की तरफ एक क़दम होगा जिसमें पुराने नफ़रतों को भुलाकर इत्तेहाद व इत्तेफ़ाक़ की यादें जिन्दा की जाएँगी और बहादुर शाह ज़फ़र फिर एक ऐसे दौर के रूये अमल आने की अलामत होंगे।

अनुवादक-मो0 जमील शास्त्री
साभार-चहारसू पत्रिका
प्रकाशित-रावलपिण्डी, पाकिस्तान

(समाप्त)

सरकार देश से कत्लखानों को बंद करवाए : राधेश्याम

एस.एस. जैन महासभा के प्रांतीय समेलन संपन्न
सफीदों, (हरियाणा) : सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की पालना करते हुए हरियाणा सरकार प्रदेश में जैन धर्म के प्रमुपर्युषण पर्वों के दौरान कत्लखानों को बंद करवाए। यह बात एस.एस. जैन महासभा के प्रांतीय अध्यक्ष राधेश्याम जैन ने कही। वे सफीदों के जैन मंदिर में महासभा के प्रांतीय समेलन को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि जैन धर्म में पर्युषण पर्व की बड़ी महता है। इन दिनों में जैन साधु-साध्वियां तथा श्रावक-श्राविकाएं तपस्या करते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए जैन समाज ने सन २००५ में सर्वोच्च न्यायालय में अपील की। इस अपील को मंजूर करते हुए सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ के माननीय न्यायाधिपति मार्कण्डेय काटजू ने १४ मार्च २००८ केतिहासिक निर्णय में गुजरात उच्च न्यायालय का निर्णय बदलते हुए कहा था कि अहमदाबाद में जैन धर्मावलबियों की धार्मिक भावना का आदर करते हुए पर्युषण के दौरान दिन तक कत्लखाने बंद रखे जाने चाहिए। सम्राट अकबर का हवाला देते हुए कहा गया कि सम्राट अकबर ने भी धर्मावलबियों की धार्मिक भावना का आदर करते हुए शिकार मांस सेवन का निश्चित अवधि के लिए त्याग कर दिया था। प्रांतीय अध्यक्ष ने सरकार से पूरजोर अपील की कि पुर्यषण पर्वों के दिनों के दौरान प्रदेश में कत्लखाने पूरी तरह से बंद किए जाने चाहिए। इसके अलावा उन्होंने सरकार से मांग की कि अन्य राज्यों की तरह से ही ईसाईयों, मुसलमानों सिखों की तरह से प्रदेश के में जैन माज को अल्पसंयक का दर्जा दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि प्रदेश की कुल जनसंया में मात्र ५७१६७ ही जैन समाज के हैं। इसलिए इनकों अल्पसंका दर्जा दिया जाना जायज है। उन्होंने बताया कि मध्यप्रदेश, चंडीगढ़, उत्तरप्रदेश, त्तराचंल, राजस्थान, महाराष्ट, पश्चिम बंगाल, बिहार, तमिलनाडू, कर्नाटक दिल्ली की सरकारों ने जैन समाज को अल्पसंका दर्जा दिया हुआ है। उन्होंने कहा कि जैन समाज पिछड़ता ही चला जा रहा है। इसका मुकारण समाज में एकता का अभाव है। उन्होंने समाज के लोगों से आह्वान किया कि वे एकजूट रहें तथा एकजूट होकर अपने अधिकारों के लिए लड़ें। इस प्रांतीय समेलन में प्रदेश कार्यकारिणी के चुनाव भी संपन्न हुए। जिसमें काफी विचार-विमर्श के बाद सर्वसम्मति से राधेश्याम जैन को ही पुनः एस.एस. जैन महासभा का प्रांतीय अध्यक्ष चुन लिया गया। इसके अलावा महासचिव जे.पी. जैन तथा कोषध्यक्ष सुरेश चंद जैन को चुना गया। उपस्थित जैन समाज के लोगों ने सर्वसाति से हुई इन नियुक्तियों का स्वागत किया।