1.6.10
जातिगत जनगणना से भारतीय एकता को खतरा : ओझा
हिन्दु मैरिज एक्ट मे संशोधन होना जरूरी : फरमाणा
पुलिस ने किया गांव स्तर पर क्राइम फ्री कमेटी का गठन
सफीदों, (हरियाणा) : सफीदों पुलिस क्षेत्र से क्राइम के खातमें को लिए हर दिन नएनए प्रयोग कर रही है। इसी कड़ी में सफीदों पुलिस ने ग्रामीण क्षेत्र को क्राइम मुक्त करने के लिए एक नई पहल की है। इस पहल में सबसे पहले पुलिस ने निकटवर्ती रामपुरा गांव को चुना। पुलिस ने रामपुरा गांव को क्राइम फ्री बनाने के लिए बारह सदस्यीय कमेटी गठित की है। सबसे अहम बात यह है कि इस कमेटी में गांव के हर वर्ग के लोगों को शामिल किया गया है। यह कमेटी न सिर्फ गांव में क्राइम को रोकेगी, बल्कि गांव के विकास में भी अहम भूमिका निभाएगी। सफीदों थाना प्रभारी दलीप सिंह ने बताया कि पुलिस हमेशा समाज में शांति एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिए प्रयासरत रहती है, लेकिन फिर भी गांवों में क्राइम बढ़ता ही जा रहा है। उन्होंने बताया कि ग्रामीण क्षेत्र को क्राइम फ्री बनाने के लिए पुलिस विभाग ने विशेष पहल की है, जिसमें हलके के सभी गांवों में क्राइम फ्री कमेटियों का गठन किया जाएगा। इसी के मद्देनजर रामपुरा गांव में बारह सदस्यीय कमेटी का गठन किया गया है। उन्होंने बताया कि इस कमेटी में पूर्व सरपंच हरभजन सिंह, सुरेंदर सिंह, रणजीत सिंह, जसवंत सिंह, गुरभजन सिंह, जिलाराम, धर्मा, हरभजन सिंह, रोशनलाल, रमेश सैनी, इकबाल व कुशदीप सिंह को शामिल किया गया है। उन्होंने बताया ये कमेटी पुलिस और पलिक के बीच तालमेल बनाने के लिए अहम भूमिका निभाएगी। जल्द ही क्षेत्र के सभी गांवों में इन कमेटियों का गठन किया जाएगा।
राईस सैलर में आग लगने से चावल व बारदाना जलकर राख
लो क सं घ र्ष !: ब्लॉग उत्सव 2010
सम्मानीय चिट्ठाकार बन्धुओं,
ब्लोगोत्सव की आखिरी परिचर्चा : क्या आत्मा अमर है ?
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सुमन सिन्हा की कविता : तुम्हारे नामhttp://utsav.parikalpnaa.
मैं पुनर्जन्म नही मानता : कर्नल अजय कुमार http://www.parikalpnaa.com/
बसंत आर्य की लघुकथा : खिडकियाँ
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कई उदहारण भी हैं....जिससे यह प्रमाणित होता हैं कि पुनर्जन्म है : नवीन कुमार
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मेरे विचार से पुनर्जन्म होता है : वंदना श्रीवास्तव http://www.parikalpnaa.com/
रजिया मिर्ज़ा का संस्मरण : सलाम एक ग़रीब की महानता को
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हाँ कुछ है जिसे हम पुनर्जन्म कह सकते है...क्या आप मानते है??" : नीता
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मेरे लिए मेरा अनोखा बंधन ही पुनर्जन्म है ... प्रीती मेहता http://www.parikalpnaa.com/
कारगिल के शहीदों को नमन :पवन चन्दन की कविता
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अंतरजाल पर परिकल्पना के श्री रविन्द्र प्रभात द्वारा आयोजित ब्लॉग उत्सव 2010 लिंक आप लोगों की सेवा में प्रेषित हैं।
-सुमन
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31.5.10
लो क सं घ र्ष !: बुलबुल-ए-बे-बाल व पर -2
जैसा कि ऊपर बताया गया ज़फ़र को मुल्क व दौलते-बादशाही बस नाम को ही मिली थी, वे सूरत ए हाल से बखूबी वाकिफ़ थे लेकिन उनके पास करने को कुछ नहीं था क्योंकि उस अहद में ज़माने ने ख़ासतौर पर हिन्दुस्तान के लिए और आमतौर पर आलमे मशरिक़ के लिए कुछ ऐसी करवट पलटी थी जैसा कि आजकल मौजूदा दौर में फिर पलटने लगा है। उसको सँभालना उन बुलबुले बे बालो पर के लिए ना मुमकिन था क्योंकि वे एक ऐसी हालत में थे कि दस्ते दुआ भी दराज़ करें कज़ाए इलाही को नहीं बदल सकते थे:-
दिखाती है जो शमशीर-ए- कज़ा अपनी जबरदस्ती।
नहीं दस्ते दुआ की काम आती, है सिपर दस्ती। (ढाल)
ज़फ़र की उल्टी क़िस्मत इतनी बिगड़ी हुई थी कि कज़ा ए इलाही के सामने उनकी दुआएँ कुछ काम न आने के साथ-साथ जिनसे उनकी उम्मीदे वाबस्ता थीं वे उनसे कह रहे थे ‘‘पहले तुम मर तो लो फिर तुम्हारी उम्मीदें पूरी हो जाएँगी।’’
मैंने कहा कहो तो मसीहा तुम्हें कहूँ।
कहने लगे कि कहना अभी पहले मर तो लो।।
दरअसल वह अपनी इस हालत पर सरापा एहतेजाज है और कभी कभार उनका यह अन्दरूनी एहतेजाज (असंतोष) यूँ जाहिर होता है और वे सोने के पिंजड़े को टुकड़े-टुकड़े करना चाहते हैं और कहते हैं:-
क़फ़स के टुकड़े उड़ा दूँ, फड़क-फड़क कर आज।
इरादा मेरा असीरान-ए-(कैदी) हम नफस यूँ हैं।
लेकिन उनके पास लब-बस्ता (बँधे होठों से) एहतेजाज के सिवा कुछ भी नहीं है और वे बस एहतेजाज-ए मख़्फ़ी (गुप्त) कर पाते हैं क्योंकि वे किसी और के यानी अंग्रेजों के बस में हैं और उनके पेंशन ख़्वार, जिसकी याद दहानी अंग्रेज हर मौके पर कराया करते हैं। ज़फ़र खून के आँसू बहाते हुए कहते हैं-
जो उनकी जान पर गुज़रे है वह वही जाने।
ख़ुदा किसी को जहाँ में किसी के बस न करे।
किसी के बस होने को न चाहने के बावजूद उनको अपनी बेचारगी का सख्त एहसास है। वैसे भी ये बे बालो पर बुलबुल अपने पिंजड़े से निकलेगा तो क्या करेगा? उसमें उड़ने तक की हिम्मत व सलाहियत बाक़ी नहीं है-
ऐ असीरों अब न पर में ताक़ते परवाज़ है
क्या करोगे तुम निकल कर दाम से, बैठे रहो।
फिर उसी मानी में कहते हैं-
खोल दे सैय्याद तू खिड़की क़फ़स की शौक़ से।
बुलबुले बे-बालो-पर ज़ालिम किधर उड़ जाएगी।
बिल्कुल इसी तरह ज़फ़र की मुन्दरजाज़ील (निम्नलिखित) खूबसूरत ग़ज़ल में उस बुलबुले बे-बालो-पर की उदासी, बेचारगी और हालते पुर मलाल की उम्दा तस्वीर कसी की गईं है, वे यूँ फरमाते हैं -
सूफियों में हूँ न रिन्दो में न मय-ख़्वारों में हूँ।
ऐ बुतो बन्दा खुदा का हूँ, गुनहगारों में हूँ।।
मेरी मिल्लत है मोहब्बत मेरा मजहब इश्क है।
ख़्वाह हूँ मैं काफ़िरों में ख़्वाहदींदारों में हूँ।
सफ-ए-आलम पे मानिन्दे नगीं मिसले क़लम।
या सियह रूयों में हूँ या सियह कारों में हूँ।
न चढँू सर पर किसी के, न, मैं पाँवों पर पड़ूँ,
इस चमन के न गुलों में हूँ न मैं ख़ारों में हूँ।
सूरत ए तस्वीर हूँ मैं मयक़दा में दहर के,
कुछ न मदहोशों में हूँ मैं और न होशियारों में हूँ।
न मेरा मोनिस है कोई और न कोई ग़मगु़सार,
ग़म मेरा ग़मख़्वार है मैं ग़म के ग़मख़्वारों में हूँ।
जो मुझे लेता है फिर वह फेर देता है मुझे,
मैं अजब इक जिन्से नाकारा खरीदारों में हूँ।
खान-ए-सैय्याद में हूँ मैं तायर-ए-दार
पर न आज़ादों में हूँ न मैं गिरफ्तारों में हूँ,
ऐ ज़फ़र मैं क्या बताऊँ तुझसे जो कुछ हूँ सो हूँ,
लेकिन अपने फ़ख्र-ए-दीं के क़फ़स बरदारों में हूँ।
जफ़र एहतेजाज और तक़दीरे ए इलाही पर रज़ा के आलम में पेंचओ ताब खाते थे कि 1857 ई0 में अचानक हिन्दुस्तान में अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ एक तूफान बरपा हुआ। मेरठ से बग़ावत करके अपने अंग्रेज अफसरों को क़त्ल करने वाले सिपाही देहली चले आए और देहली पर काबिज होने के बाद उन्होंने बहादुर शाह ज़फ़र को अपनी तह़रीक का लीडर मुक़र्रर किया। ज़फ़र सिन रशीदा (वयोवृद्ध) थे और बाद में उड़ाने वाली अफवाहों के मुताबिक अक़्ली लिहाज से माज़ूर भी थे लेकिन उसके बावजूद वह इस तहरीक के अंजाम का अंदाजा बखूबी कर रहे थे क्योंकि उन्हें अंग्रेजों की ताक़त और अपने आसपास में मौजूद इलाही बख्श जैसे लोगों के काबिले यक़ीन न होने का इल्म था इसलिए उन्होंने शुरू में बग़ावत करने वालों को रोकने की कोशिश की लेकिन जब उन्होंने देखा कि इस सैलाब को रोकना नामुमकिन हैं तो वे भी उसमें बेअख़्तियार बहने लगे। फिर बेशुमार लड़ाइयाँ र्हुइं। बहुत सारे मासूमों का खून बहाया गया, अंग्रेजों ने देहली पर कब्जा कर लिया और मुग़ल खानदान को नेस्तानाबूद करके हिन्दुस्तान पर हुक्मरानी करने लगे और बहादुर शाह की औलाद को क़त्ल करके शहर दिल्ली को बर्बाद कर दिया।
-ख़लील तौक़आर
अनुवादक-मो0 जमील शास्त्री
साभार-चहारसू पत्रिका
प्रकाशित-रावलपिण्डी, पाकिस्तान
( क्रमश: )
लो क सं घ र्ष !: बुलबुल-ए-बे-बाल व पर -1
20 जनवरी 1858ई0 को बवक़्ते सुबह दीवाने ख़ास क़िला देहली। यह हिन्दुस्तान की तारीख़ के लिए एक अहम मोड़ है। हिन्दुस्तान को गु़लामी की ज़जीरों में जकड़ने के लिए एक आख़िरी चाल चली जा रही है। आज हिन्दुस्तान की आज़ादी की आख़िरी किरन तारीकी के हाथों मिटाई जा रही है और हिन्दुस्तान ग़ुलामी के एक तवील (लम्बे) दौर में क़दम रखता है।
इस दिन क़िला-देहली के दीवाने ख़ास में देहली के आख़िरी ताजदार और मुग़ल ख़ानदान के आख़िरी चिराग़ बहादुर शाह ज़फ़र के मुक़दमे का पहला-पहला इजलास शुरू होता है। प्रेसीडेंट, मेम्बरान, वकील-सरकार मौजूद हैं। मुल्ज़िम मुहम्मद बहादुर शाह साबिक़ (भूतपूर्व) शाह देहली को लाया जाता है।
इजलास के मुजतमअ़ (इकट्ठा) करने और लेफ्टिनेन्ट कर्नल डास को प्रेसीडेंट बनाने के एहकाम पेश होते और पढ़े जाते हैं। अफसरान मुतअय्यिना (नियुक्त) के नाम मुल्जिम की मौजूदगी में पढ़े जाते हैं।
मुल्जिम से अदालत का सवाल-आपको मौजूदा मेम्बरान जेवरी (पंचगण) व प्रेसीडेंट के मुक़दमे की समाअत (सुनवाई) करने में कोई एतराज है?
जवाब-मुझे कोई एतराज नहीं है।
दुनिया की ज़िन्दगी कितनी फ़रेबदह, कितनी झूठी है कि देखिए बाबरी ख़ानदान के आखिरी चश्मो चिराग़, दिल्ली के आखिरी ताजदार और मुल्के सुखन के शहसवार बहादुर शाहज़फ़र, आज 20 जनवरी 1858ई0 को अपने महल के दीवाने खास में एक समाअ़त में एक मामूली मुल्ज़िम की हैसियत से लाए जाते हैं और उनसे सवाल किया जा रहा है कि ‘‘मौजूदा मेम्बरान जेवरी और प्रेसीडेंट के मुकदमा की समाअ़त करने में कोई एतराज है?’’
वह कैसे एतराज करते? उनसे उनका मुल्क, उनका शहर, उनकी रैय्यत, उनका महल, उनकी औलाद, उनके दोस्त-यार, मुख़्तसर उनका सब कुछ ज़बरदस्ती छीन लिया गया था और पूछा तक नहीं गया था कि आपको कोई एतराज है कि नहीं?
हिन्दुस्तान किस तरह गुलामी की ज़ंजीरों में गिरफ्तार हुआ और एक बादशाह मामूली मुल्ज़िम की हैसियत से अजनबियों की अदालत में लाया गया, यह बात किसी से मख़्फ़ी (छिपी) नहीं है, लेकिन आइए एक ज़वाल पज़ीर (अवनति की ओर अग्रसर) सल्तनत के आखिरी तख्त नशीन होने की वजह से बअज़ो (कुछ लोगों) की निगाह में पैदाइशी मुजरिम उन शायर बादशाह की ज़िन्दगी के औराक़ (पन्ने) उनकी शायरी से भी मदद लेते हुए पल्टें और देखें कि क़ज़ाए इलाही (ख़ुदाई हुक्म) इंसान को कहाँ से कहाँ पहुँचाती है।
बहादुर शाह ज़फ़र का पूरा नाम अबू ज़फ़र सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुर शाह था। उनकी वलादत (जन्म) 28 शाबान 1189 हिजरी मुताबिक़ 14 अक्तूबर 1775ई0 को उनके वालिद अकबर शाह सानी (द्वितीय) की वली अहदी के ज़माने में अकबर शाह की हिन्दू बीबी लालबाई के बतन (उदर) से हुई थी। ज़फ़र की परवरिश उनके दादा शाह आलम सानी के जे़रे साया (आश्रय में) हुई थी जो कि बदनसीबी में अपने पोते से कुछ कम नहीं थे। 22 अक्तूबर 1764ई0 को बक्सर के मुक़ाम पर अंग्रेजों के सामने शिकस्त खाने के बाद 1788ई0 में ग़ुलाम क़ादिर नामी एक ज़ालिम के हुक्म से शाह आलम सानी की आँखें निकाल दी गईं, फिर मरहठों के हाथों वह सालहा साल गिरफ्तार रहे, तावक़्त ये कि लार्ड लैक की फौजों ने जमुना पार करके देहली पर कब्जा किया और उनको फिर अपनी बराये नाम बादशाहत मिली। यह बादशाहत 1807ई0 में बहादुर शाह के वालिद अकबर शाह सानी को मुन्तक़िल (हस्तान्तरित) हो गई। अकबर शाह सानी का ज़माना कुछ आराम व सुकून का ज़माना था लेकिन देहली के लाल किले पर मुस्तमिल (आधारित) इस बादशाहत के लिए भी साजिशें और चपकुलशें (हड़बोंग) थीं और ज़फ़र और उनके भाई मिर्जा जहाँगीर के दरम्यान वली अहदी (उत्तराधिकार) के लिए कुछ अरसा मुक़ाबिला जारी रहा। इस मुक़ाबिले में उनके वालिद अकबर शाह, मिर्जा जहाँगीर की तरफदारी कर रहे थे। ज़फ़र अपनी जिन्दगी के इस बड़े इम्तिहान में यक व तनहा थे और आस-पास में मौजूद लोग मुख़्लिस नहीं थे। जैसा कि एक शेर में वे रक़मतराज हैं (लिखते हैं):-
मुँह पे मिलते ये हैं दिल में अदावत रखते।।
वह तख्तनशीन होने को तो हुए थे लेकिन उनकी बादशाहत बस लाल क़िला के दीवारों के अन्दर थी। एक तरफ सर पर अंगे्रजों की तलवार और दूसरी तरफ शाही ख़जाना के खाली होने की वजह से किला के बाहर साहूकारों का घेरा और वे उस नकली सोने के क़फ़स (पिंजड़ेे) के अन्दर एक बालो पर टूटे हूए बुलबुल की सूरत अपनी ज़िन्दगी बसर करने लगे। ज़फ़र को उनके अपने मुल्क में, उनके अपने शहर में और हत्ता कि उनके अपने क़िले के अन्दर सारे काम अंग्रेजों के जे़रे अस़र (अधीन) अंजाम देने पड़ते थे। दिल्ली शहर या महल में जो कुछ भी हो अंग्रेजों के दस्तकुर्द (हस्तक्षेप) से छुटकारा हासिल नहीं कर पाता था। इस सूरत ए हाल को ज़फ़र यूँ बयान करते हैं:-
वह फिरंगी जा़दे कलकत्ता जो सीखा नापना।।
-ख़लील तौक़आर
अनुवादक-मो0 जमील शास्त्री
साभार-चहारसू पत्रिका
प्रकाशित-रावलपिण्डी, पाकिस्तान
( क्रमश: )