आप अपने क्षेत्र की हलचल को चित्रों और विजुअल समेत नेटप्रेस पर छपवा सकते हैं I सम्पर्क कीजिये सेल नम्बर 0 94165 57786 पर I ई-मेल akbar.khan.rana@gmail.com दि नेटप्रेस डॉट कॉम आपका अपना मंच है, इसे और बेहतर बनाने के लिए Cell.No.09416557786 तथा E-Mail: akbar.khan.rana@gmail.com पर आपके सुझाव, आलेख और काव्य आदि सादर आमंत्रित हैं I

22.5.10

शिक्षा का व्यापारीकरण

पढ़ता रहा हूं कल्याणकारी राज्य के बारे में और उस कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए आन्दोलनों में हिस्सेदार भी रहा हूं। दवा और पढ़ाई मुफ्त में मुहैया कराना और रोज़गार की गारन्टी देना एक काल्याणकारी राज्य का कर्तव्य होता है। सिर्फ मुफ्त पढ़ाई ही नहीं बल्कि देश के नागरिकों को एक जैसी पढ़ाई की व्यवस्था करना कल्याणकारी राज्य का कर्तव्य है, लेकिन क्या हो रहा है अपने देश में संसद और विधान सभाओं में उपलब्ध कराया जाने वाला पानी कहीं उस कुंए का तो नहीं जिसमें भांग घुली हो।

आन्दोलन चलता रहा मुफ्त और समान शिक्षा व्यवस्था लागू कराने का और शिक्षा का माध्यम और सरकार का कामकाज देशी भाषाओं को बनाये जाने का, लेकिन सारे आन्दोलन ठप पड़ गये और नतीजा आया उल्टा। देश का राज-काज अपनी भाषा में नहीं किया जा रहा है, शिक्षा का माध्यम अपनी मातृ-भाषा का न बनाकर विदेशी भाषा को बना दिया गया है, ऐसा क्यों? क्या देश का स्वामी अंग्रेजी भाषा वाले देश को मान लिया गया है और हम गुलाम। उनकी भाषा को सीखने और समझने में फख्र महसूस करते हैं। वाह रे! स्वामी भक्ति।

गरीब व्यक्ति शायद प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर ले लेकिन उससे आगे पढ़ाने का खर्च आम आदमी बर्दाश्त कर पाने में समर्थ नहीं है। निम्न मध्यम वर्गीय व्यक्ति हाईस्कूल और इण्टर तक अपने बच्चों को पढ़ा पाने में समर्थ हो पाता है, लेकिन उससे ऊंची शिक्षा दिला पाना उसकी सामथ्र्य से बाहर है। उच्च मध्यम श्रेणी का व्यक्ति अपना श्रम बेच पाने में कुछ समर्थ सा दिखता है और यही वर्ग देश में बढ़ रहे भ्रष्टाचार में सहायक सिद्ध होता है क्योंकि यह जाने-अनजाने उच्च और ऊंची पूंजीपति वर्ग दलाली और चाटुकारिता में लगा रहता है। अगर देखा जाए तो यह वर्ग अपनी आय से ज्यादा खर्च करके भी बचत कर लेता है और अपनी आय से ज्यादा खर्च कर बचत कर पाना ही भ्रष्टाचार का धोतक है।

सरकारी कॉलेज नहीं के बराबर रह गये हैं। सहायता प्राप्त कॉलेज इक्का-दुक्का हैं, लेकिन शिक्षण-प्रशिक्षण के कारखानें और दुकाने इतनी ज्यादा खुल गई हैं कि उन्हें खरीदने के लिए होड़ सी लगी रहती है। शिक्षा के इस व्यापार में मांग और पूर्ति का भी सिद्धान्त भी नहीं लागू हो पाता है इसलिए कि पूर्ति कितनी भी बढ़ जाए उसका दर कम नहीं होने को आता और कहीं दर में कमी आती है तो शिक्षा का स्तर घट जाता है और वह केवल इस कारण कि पढ़ाने वाले ही निम्न स्तर के होते हैं।

वाह रे हमारी सरकार, मुफ्त और समान शिक्षा देकर अपने नागरिकों को समान अवसर देने के सिद्धान्त को नकार कर कुछ परिवारों तक शिक्षा को सीमित कर देना चाहती है और देश में केवल तीन वर्ग बनाने की तैयारी कर रही है पहला-शासक वर्ग जिसमें बहुराष्ट्रीय कम्पनियां (अपने देश के औद्योगिक घरानों को मिलाकर), दूसरा तबका पहले तबके का दलाल और सेवक और तीसरा तबका देश की शासित प्रजा। हमारी सरकार अपने देश में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सिर्फ उद्योग में ही लाकर संतुष्टि नहीं मिली तो उसने शिक्षा जगत में भी विदेश (शैक्षिक बहुराष्ट्रीय कम्पनी) को स्थापित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा। इसलिए कि सरकार में शामिल लोग पीढ़ी दर पीढ़ी या तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और दूसरे देशों का दलाल बनकर रहना चाहते हैं या फिर उन्हें आशा है कि वह भी एक दिन उनके साथ सहभागी बनेंगे और फिर शासक कहलाएंगे। यही कारण है कि शिक्षा का व्यापारीकरण किया जाना।
-मोहम्मद शुऐब एडवोकेट

21.5.10

कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक........

राजनैतिक पार्टियाँ भी वोट लेने के लिये क्या-क्या हथकंडे अपनाती है, कभी नारे गढ़ती हैं, कभी बड़े-बड़े वादे करती हैं, कभी पिछली प्रगति के झूठे प्रचार करती है, कभी लुभावने घोषण पत्र छपवाती हैं, और कभी व्यक्ति-विशेष को प्रधानमंत्री बनाने का सपना दिखाती हैं। कुछ शब्द-जाल देखिये गरीबी मिटाओं, मेरा भारत महान, इन्डिया शायनिंग। चुनाव के बाद घोषण-पत्रों को न तो कोई उठा कर देखता है, न ही सरकार से जनता पूछती है कि वे काम कब होंगें जिनका वादा किया था, चुनाव के समय वोटों के ध्रुवीकरण हेतु अडवाणी, मुलायम, मयावती को प्रधानमंत्री का प्रोजेक्ट किया गया। बहुजन वालों नें सर्वजन की बात शुरू कर दी। कभी जिसने यह कहा था कि तिलक, तराजू और तलवार- इनको मारों जूते चार, उसनें बाद में इस नारें से अपना हाथ खींच लिया।
यू0पी0 की सत्ताधारी पार्टी की बातों पर ग़ौर करें- तीन वर्ष पूर्व जब चुनाव में उतरी और जीती तब उसका नारा यह था- चढ़ गुंडन की छाती पर- मुहर लगा दो हाथी पर। अब तीन वर्ष बाद यही पार्टी जिसने गुंडो को खुली छुट दे दी थी, उनसे पल्ला झाड़ती नज़र आती है। जब यह देखो कि पार्टी के कुछ गुंडो विधायक सांसद लूट खसोट मार घाड़ में लिप्त हैं और जनता में छवि बिगाढ़ रही है तो लोग निकाले जाने लगे, मुख्तार अंसारी जिनकों अभी तक संरक्षण प्राप्त था, उन्हें गुंडा मान लिया गया। आम कार्यकर्ताओं को तो निकाला गया, लेकिन वाडे के बावजूद सांसदो, विधायकों की कोई सूची अभी तक सामने नहीं आई।
इसी पार्टी की एक और पैतंरे बाजी देखिये काग्रेंस एँव केन्द्र के खिलाफ रोज़ ही दो दो हाथ करने वाली पार्टी नें संसद में विपक्ष के बजट के कटौती प्रस्ताव के खिलाफ़ सरकार का इस हेतु समर्थन किया ताकि सुप्रिम कोर्ट में मायावती के खिलाफ़ आय से अधिक संपत्ति के मामले में सी0बी0आई0 ढ़ील दे दे।
इसी पार्टी का एक और मामला सत्ता के तीन साल पूरे होने पर किये गये कामो का ब्योरा अख़बारों के पूरे एक पृष्ठ में छपा है- एक आइटम ऊर्जा- तीन वर्ष में इस पर 23679 करोड़ रूपये खर्च किये गये। 9739 अम्बेडकर ग्रामों, 3487 सामान्य ग्रामों, 3487 दलित बस्तियों तथा 3590 मजरों का विधुतीकरण। जब भी जांच होती है, काम नजर नहीं आते। बजट खर्च हो जाता है।
ग्रामों की संख्या विद्युतीकरण हेतु बढ़ाते जाइये, तार दौड़ाते रहिये, उत्पादन की फ्रिक न कीजिये। घोषित/अघोषित कटौती करके हर वर्ग को परेशान करते रहिये। जब मेगावाट बढ़ोत्तरी न हो तो विस्तार से क्या लाभ। व्यवस्थापकों के लिये यह कथन अशिष्ट तो नहीं लेकिन सख्त जरूर है :-

घर में नहीं दाने-अम्मा चली भुनाने

यह रहा यह वादा कि कुछ उत्पादन 2014, कुछ 2020 आदि तक बढ़ेगा। तो क्या पता तब तक हो सकता है आप न रहें, हो सकता है हम न रहें-
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक

-डॉक्टर एस.एम हैदर

19.5.10

बुद्धि जहाँ खत्म होती है, वहीँ पर हाथ चलने लगता है

आज बाराबंकी में बिजली की समस्या को लेकर उत्तेजित अधिवक्ताओं के एक समूह ने जिला मजिस्टे्ट श्री विकास गोठलवाल के कार्यालय में घुसकर जमकर तोड़ फोड़ की कई वर्षों से बुद्धिजीवी तबके का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिवक्तागण हिंसा करने पर उतारू हो जाते हैं जिससे न्यायिक व्यवस्था ध्वस्त होने लगती है जबकि किसी भी समस्या का सामाधान अधिवक्ता समाज बड़े आसानी से कर देता है जनता के हर तबके का आदमी किसी किसी रूप में अधिवक्ताओं से सलाह लेकर ही कार्य करता है किन्तु आज कल अधिवक्ता समाज के कुछ लोग हिंसा पर उतारू ही रहते हैं इससे पूर्व कानपूर में अधिवक्ता वर्सेस पुलिस की मारपीट के कारण कई बार कार्य बहिष्कार हो चुका है सेन्ट्रल बार एसोशिएसन के चुनाव में भी कुछ अधिवक्ताओं ने मतपत्र फाड़ डाले और जम कर बवाल किया जबकि अधिवक्ताओं के पास प्रत्येक समस्या का विधिक उपचार मौजूद है उसका प्रयोग करना चाहिए
अधिवक्ताओं के बीच में एक बड़ी संख्या जिसकी रोजी-रोटी अन्य व्यवसाय से चलती है वह अपने काले कारनामो को छिपाने के लिए काला कोट पहनकर न्यायलय परिसरों का उपयोग कर रहे हैं दूसरी तरफ अधिवक्ता समुदाय ने एक ऐसा तबका रहा है जो किसी भी क्षेत्र में कार्य पाने के कारण विधि व्यवसाय में रहा है उसको जब कहीं चपरासी की भी नौकरी नहीं मिली तो वह कुंठाग्रस्त होकर अधिवक्ता हो गया वहीँ पर एक बड़ी संख्या अच्छे ईमानदार अधिवक्ताओं का है जो सम्पूर्ण न्याय व्यवस्था को संचालित करने में मदद करता है और उसका कोई भी झगडा किसी से नहीं होता है उसको झगडा करने के लिए वक्त ही नहीं रहता है लेकिन नॉन प्रैक्टिसिंग लायर्स ने अधिवक्ताओं की छवि जनमानस में खराब कर रखी है जिसको बार कौंसिल ऑफ़ इंडिया को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है अन्यथा विधि व्यवसाय पर संकट के बदल मंडराते रहेंगे और विधि व्यवसाय पर अराजक तत्वों का कब्ज़ा हो जायेगा ऐसा ही मत माननीय उच्च न्यायलय लखनऊ ने भी किया है

मेरा निश्चित मानना है जहाँ बुद्धि खत्म होती है, वहीँ पर हाथ हिंसा करने के लिए उठते हैं गाली गलौज की भाषा भी वहीँ प्रयोग होती है चाहे समाज हो या ब्लॉग जगत

18.5.10

कर्नल साहब का नया रोजगार बंद

सेना के प्रति हमारी भावनाएं जुडी रहती हैं। देश के अधिकांश लोग सैनिको को अत्याधिक सम्मान की नजर से देखते हैं किन्तु सेना से सेवानिवृत्त होने के बाद कर्नल एम.पी सिंह ने चोरो का एक गिरोह बनाकर मध्य प्रदेश राजस्थान से नयी-नयी गाड़ियाँ चोरी करवा कर इंजन चेसिस नंबर में बदलाव कर चंडीगढ़, हैदरबाद, दिल्ली और लुधियाना में बेचने का काम कर रहे थे कर्नल साहब जब सेना में रहे होंगे तो अपनी कारगुजारियो से बाज नहीं आये होंगे इनके अधिकांश ग्राहक भारतीय सैन्य अधिकारी हैं जिसमें कुछ लोगो ने चोरी की खरीदी हुई करें वापस भी कर दी हैं। भारतीय कानून व्यवस्था के अनुसार चोरी का सामान खरीदना अपराध है। सेना का मामला है वह कुछ भी करे सब ठीक है सामान्य नागरिक ने यदि यही कारें खरीदी होती तो वह जेल की हवा खा रहे होते। यही फर्क है सेना और सामान्य नागरिक में।
आज भी सेना के उच्च पदस्थ अधिकारी सेवानिवृत्ति के बाद दिल्ली में नोर्थ या साउथ ब्लाक में देखे जा सकते हैं और यह लोग कंपनी बनाकर शस्त्रों की खरीद-फरोख्त में दलाली का काम करते हैं जबकि होना यह चाहिए कि सेवानिवृत्ति के बाद स्वच्छ एवं सम्मानित जीवन जीना चाहिए जिससे जनता के अन्दर उनके प्रति आदर भाव बना रहे लेकिन स्तिथि बद से बदतर होती जा रही है जहाँ भी जरा सी भी जांच हुई है सेना में, सामान्य प्रशासन की तरह घोटाले भ्रष्टाचार ही नजर आया है

मगर उनका कहना..................................


                                 -डॉ० डंडा लखनवी
 
किसी की तरक़्क़ी विरासत से होती॥
किसी की तरक़्क़ी सियासत से होती।
मगर  उनका  कहना हमारी तरक़्क़ी-
पुलिस महकमे में हिरासत से होती॥

/////////////////////////////////////////////////////////////
////////////////////////////////////////////////////////////

17.5.10

नकली दूध के परिणाम

हम लोग जो दूध पि रहे है उसमे से ज्यादा तर बनावटी है/बनावटी दूध कार्सिनोजेनिक होता है / इस तरह के दूध के बहुत भयानक परिणाम होते है / यह केंसर पैदा करता है / इस के अन्दर जो सोडा होता वह दिल ,किडनी और लीवर के लिए हानिकारक होता है. यूरिया जो इसमें मिलाया जाता है वह साइड इफेक्ट्स होते है /स्टार्च हमारी पाचन नाली को नुकसान पहुचाता है / जेंताम्यिसिन जिससे नकली दूध बनाया जाता है केंसर को जनम देता है कास्टिक सोडा एसिडिटी, अल्सर, और अन्त्रिओं के रोगों को जनम देता है./ लम्बे समय तक बनावटी दूध पिने से जोड़ो का दर्द ,तुब्र्क्लोसिस , हेपेतैतास ऐ और बी हो जाता है.एक सर्वे ने बताया है की लगबघ १२ परदेशो में दूध में बहुत जयादा पेस्त्तिसैदाज़ यानि दवयिया मिली है जो की सेहत के लिए बहुत हानिकारक है.

संरक्षण वृक्षों जीवों और वन्यजीवों का या इंसानों का भी

कुछ भागों में वृक्षों के संरक्षण का कानून लागू है। वृक्षों की सुरक्षा आवश्यक है पर्यावरण को संतुलित बनाये रखने के लिए और वन्यजीवों की सुरक्षा भी आवश्यक है। लुप्तप्राय जीवों की सुरक्षा के लिए पशुओं के प्रति क्रूरता को रोकना भी आवश्यक है, पशुओं से काम लेने के लिए। हमारे देश की एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री को बराबर पशुओं के प्रति क्रूरता रोकने में लगी हुई हैं और इस कार्य के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर रखा है लेकिन शासन तंत्र का कोई भी व्यक्ति चाहे वह पूर्व हो या वर्तमान इंसानों के प्रति सुरक्षा के लिए नहीं सोचता।
अस्तित्व की लड़ाई केवल वन्यजीवों या जलजीवी प्राणियों में ही नहीं बल्कि पक्षियों में भी पाई जाती है। इंसान ही ऐसा प्राणी है जिसमें बुद्धि, विवेक और करूणा का भाव पाया जाता है लेकिन अधिसंख्यक इंसानों ने भी अपने अंदर का यह भाव खो दिया है और पशुवत हो चले हैं। अपने को सभ्य कहने वाला इंसानों का समाज अपने कमजोरों को असभ्य कहता है और इंसानियत से गिरकर ऐसे कमजोरों के लिए उनका स्थान पैरों में रखता है। उन्हें ऊपर उठने और तरक्की करने से रोकता है, अगर वह हिम्मत करके आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं तो यह सभ्य समाज कभी उनका अंग भंग करता है, कभी वन्यजीव समझकर उनका शिकार करता है और कभी पालतू जीव समझकर बिना खाना दिये उनसे भरपूर मेहनत लेता है और इसके खिलाफ अगर कोई आवाज उठती है तो उसे सभ्य समाज सामूहिक रूप से दबा देता है।

सभ्य समाज ही नहीं, तथाकथित सभ्य समाज द्वारा रचित सभ्य एवं असभ्य समाज द्वारा निर्वाचित सरकारें भी तथाकथित सभ्य समाज की मदद में खड़ी रहती हैं और निर्वाचित सरकार में हिस्सेदारी रखने वाले लोग जनसाधारण का प्रतिनिधित्व न करके केवल चुनिंदा लोगों का प्रतिनिधित्व करते और अपने को उनके साथ आगे बढ़ाने के लिए उनकी चाटुकारिता करते हुए दिखते हैं (अपवाद को छोड़कर)। यह चाटुकार प्रतिनिधि केवल जीव-जन्तुओं और जीव-जन्तुओं की सुरक्षा के नाम पर फायदा उठाने वाले लोगों के लिए काम करते हैं, वन्य प्राणियों की सुरक्षा के लिए कानून बनाते हैं लेकिन वनवासियों के विरूद्ध उठ खड़े होते हैं और कभी-कभी उनके विरूद्ध अपने आकाओं को मदद पहुंचाने के लिए युद्ध का एलान करते हैं।

आइए व्रत लें, जीवों के प्रति क्रूरता न अपनाने का, वन्य जीवों और वृक्षों की सुरक्षा का और इसी के साथ वनवासियों और तथाकथित सभ्य समाज द्वारा निर्धारित असभ्य समाज को ऊपर उठाने का, यदि ऐसा न हुआ तो देश खुशहाल नहीं रहेगा।

मोहम्मद शुऐब एडवोकेट