सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री श्री कमल नयन काबरा की शीघ्र प्रकाशित होने वाली पुस्तक 'आम आदमी - बजट और उदारीकरण' प्रकाशन संस्थान नई दिल्ली से प्रकाशित हो रही है जिसकी कीमत 250 रुपये है उसी पुस्तक के कुछ अंश नेट पर प्रकाशित किये जा रहे हैं।
-सुमन
इस पर गर्व करने वाले यह भुला देते हैं कि लगभग 52 लाख करोड़ रूपयों की वर्तमान चालू कीमतों पर राष्ट्रीय आय का यह खर्च बमुश्किल पाँचवा हिस्सा ही है और कुछ अरसे पहले तक देखे गये तीस प्रतिशत के स्तर से गिरावट दिखाता है। वैश्विक मन्दी, भारत पर इसके कुप्रभाव, राष्ट्रीय दीर्घकालीन समस्याओं के जटिलतर और व्यापक होते आयामों , सरकारी खर्चं की घटती प्रभावशीलता तथा इसमें हो रहे बड़े-बड़े सुराख, जनाकांक्षाओं में वृद्धि तथा मूल्यगत स्तर पर स्वयं सरकारों और शासक दलों की घोषित प्रतिबद्धताएँ और नीतियाँ यह रेखांकित करती है कि सरकारी भूमिका सापेक्ष तथा निरपेक्ष दोनों स्तरों पर बढ़े। यहाँ तक कि राष्ट्रीय आय में सार्वजनिक क्षेत्र का हिस्सा गिरकर 25 प्रतिशत के 2000 के अंक से जब करीब 21 प्रतिशत रह गया है। जाहिर है निजीकरण तथा गैर-बराबरी का दायरा बढ़ा हैं। याद दिलाया जा सकता है कि हाल ही में भारत ने भी जी-20 के अन्य देशों के साथ यह माना था कि हम बाजारवादी कट्टरता से मुक्त हों तथा ग्रोथ के टिकाऊपन के लिए उसमें व्यापक भागीदारी लाएँ। सरकार और सामाजिक उद्यमिता मिलकर शैडो- बैंकिंग तथा नियमविहीन वित्तीयकरण से छुट्टी पाकर ही एक अनावश्यक उतार-चढ़ावपूर्ण आर्थिक स्थिति से बच सकते है। भारत की बजट नीतियों कके स्थायित्व, समष्टिगत सन्तुलन और वृद्धि-दर की रफ्तार बढ़ाने से कम जरूरत समावेशी विकास की नहीं मानी गयी है। पाठ्य-पुस्तकों वाले अर्थशास्त्र से बाहर आने पर यह नजर आता है कि सामाजिक यथार्थ, सरकारों और उद्देश्यों की जमीन पर महँगई, बेरोजगारी,विषमता, असमावेशीकरण तथा पर्यावरण संरक्षण- सन्तुलन आदि से निपटना ज्यादा बड़ी चुनौतियाँ हैं। हमारे नीतिकारों के आदर्श धनी देशों तथा चीन ने सरकारी खर्च में बहुत इजाफा किया है, परन्तु हमारी बाजारवादी हठधर्मिता बरकरार है। बजट के निर्माता ऐसी जरूरतों को स्वीकारते हैं। यहाँ तक कहा गया है कि समावेशी और समतापूर्ण विकास सन् 2009 के चुनावों के मुख्य जनादेश है।
क्या सरकारी खर्च तथा सम्पन्न और दिन-ब-दिन सम्पन्न होते जा रहे तबकों से प्राप्त कर राजस्व सीमित रखकर आय तथा सम्पत्ति पुनर्वितरण को एक अस्वीकार्य नीति मानते हुए हम वास्तव में विद्यमान ढाँचें में वृद्धि-दर की तेज रफ्तार द्वारा जन-कल्याण के आंशिक कार्यक्रमों को आगे बढ़ा सकते हैं? खासकर उच्चतम आय कर दर को घटाकर हम उन समृद्ध तबकों की ही उपकृत कर रहे हैं।क्या पूरी तरह पारम्परिक लीक पीटते बजट के फलितार्थ और इसके प्रावधानो के औचित्य की परख इसी कसौटी पर की जा सकती है? वैसे आज तक, खासकर सन् 1980 के बाद हम इन दो नावों पर एक साथ सवारी कर रहे हैं। अपरिवर्तित वर्तमान आर्थिक- सामाजिक ढांचे मे हम ’ग्रोथ’ की नाव के साथ-साथ ’समावेशीकरण’ की नाव पर भी सवार होना चाहते है। ताकि आर्थिक बढ़ोतरी की नाव में बैठकर हम पिछड़ेपन, गरीबी, विषमता आदि के विकराल सैलाब को पार कर सकें। ख्याली पुलाव का सहारा न सरलता से और न ही जल्दी छूट पाता है। आजकल हम बजट के प्रावधानों पर कम और उसके नतीजों पर ज्यादा ध्यान देने लगे हैं। सही भी है। वित्त मंत्री ने अपनी तीसरी चुनौती के रूप में आज भी शासन-प्रबन्ध की प्रभावशीलता, खरेपन, पारदर्शिता आदि पर समुचित जोर दिया हैं।इस नजरिए से देखने पर बजट के सभी पक्षों(राजस्व, व्यय उनके क्षेत्र और प्रदर्शनवार आवंटन, सहायक नीतियों, कार्यक्रमों) पर समग्र और समन्वित रूप से विवेचन करके ही बजट के चरित्र उसकी दिशा और दशा को समझा जा सकता है।
उपरोक्त नजरिए से देख सकना बजट के तुरन्त बाद के विवेचन में पूरी तरह सम्भव नहीं हो सकता है, परन्तु एक रास्ता इस कठिन काम में थोड़ी मदद कर सकता हैं। इस साल का बजट किसी भी रूप में कोई नवीनता अथवा नवाचार से युक्त नहीं है। हाँ, आज देश के वैश्विक, आर्थिक, सामाजिक ज्वलन्त प्रश्न अवश्य नया गुणात्मक रूप धारण कर चुकें है। सारी दुनिया में बाजार और अतिवित्तीकृत, नियमनविहीन पूँजीवादी धनी और गरीब देशों के संकट और आम इंसान पर इसकी पुरजोर दोहरी मार ने खलबली मचा रखी है। विचारों, नीतियों और कार्यक्रमों के स्तर पर सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था के अति-वैश्वीकरण (जीडीपी के 47 प्रतिशत तक) और उदारीकरण के यथार्थ को नामंजूर नही करती हैं। इन नीतियों के नतीजे बेरोजगारी,विषमता, बाहरी थपेड़ों की चपेट से नहीं बच पाने आदि के रूप में अनेक सरकारी और अन्तर्राष्ट्रीय आकलन मान चुके हैं। कुछ आधिकारिक अध्ययन तो इन मामलों में स्थिति के बदतर होने के आँकड़े भी देते हैं। सबको कुछ न कुछ परोसने और किसी पर भी भारी बोझ नहीं डालने की तात्कालिक बधाइयाँ बटोरने की ’समझदारीपूर्ण’ राजनीतिक नीति लागू की गयी है। इस तरह हम कहाँ मे सम्पन्न वर्गो की चहेती ऊँची ग्रोथ दर और आम आदमी की जरूरत समावेशीकरण की नीति के लक्ष्य को साथ-साथ पूरा कर पाएँगे?
-कमलनयन काबरा