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5.3.10

लोकतंत्र से ‘‘लोक’’ लुप्त

देश की आजादी से पहले ‘‘लोक’’ की महत्ता नहीं थी। महत्ता थी तो मात्र शाह की। शाह यानी बादशाह और जहां बादशाहत चलती है उसे हम नाम देते हैं राजशाही का। आजादी से पहले बादशाहत थी वह चाहे ब्रिटेन की महारानी रही हों, मुगल शासक रहे हों या पूरे देश में टुकड़ों-टुकड़ों में बंटे हुए राजा। कुल मिलाकर हम यह कहेगें कि अपने देश में खण्डित राजशाही की और छोटा-छोटा राज्य लेकर पूरे देश में राजाओं की भरमार। जो अपने-अपने राज्य के विस्तार के लिए आये दिन आपस में लड़ते रहते थे। तब राजा छत्रपति बनने की आकांक्षा संजोए एक-दूसरे पर हमला करता था। इसी का लाभ उठाकर विदेशी आक्रमणकारी भी हमला करते रहते थे। कुछ हमलावर विजय प्राप्त करने के बाद इस देश को अपना देश समझकर इसके विकास के लिए और देश को एक करने के लिए प्रयासरत रहे। कुछ को सफलता मिली और वह महान कहलाए।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी आयी पहले उसका मकसद केवल व्यापार था। कच्चा माल और बेगार करने वाले या सस्ते मजदूरों के सहारे उसने अपने को बढ़ाया और मौका पाकर अपना पैर जमाया। टीपू जैसे बहादुर अपनों के निकम्मेपन, लालच, चापलूसी करने वालों और सत्ता लोलुप लोगों के कारण अंग्रेजों के सामने टिक नहीं सके और देश अंग्रेजों गुलामी की जंजीर में जकड़ गया।

गोस्वामी तुलसीदास के कथन से उत्प्रेरित होकर कुछ संघर्षशील लोग आगे बढ़े, वो चाहे अपना राज्य बनाये रखने का संघर्ष रहा हो या फिर लोक द्वारा संचालित लोक संघर्ष रहा हो। राजाओं द्वारा किया गया संघर्ष अंग्रेजों द्वारा दबा दिया गया लेकिन लोक द्वारा संचालित लोक संघर्ष रंग लाया और 15 अगस्त 1947 को भारतीय मूल के प्रतिनिधियों अंग्रेजों द्वारा सत्ता सौंप दी गई, वह भी देश को खण्डित करके।

26 जनवरी 1950 को सिद्धान्त रूप में सत्ता लोक के हाथों सौंप दी गई और लोक का बहुमत प्राप्त करने वाले सत्ता में आये लेकिन पहले तो लगा था कि सत्ता में लोक की भागीदारी है लेकिन धीरे-धीरे लोक की भागीदारी खत्म होती सी दिखने लगी। देश को फिर खण्डित करने का प्रयास तथाकथित लोक प्रतिनिधियों द्वारा किया जाने लगा। इन तथाकथित प्रतिनिधियों ने लोक को सम्प्रदाय, जाति, क्षेत्र, भाषा, भूषा आदि के नाम पर लोक को बांट दिया। लोक को बांटने वाले लोगों ने यह सब कुछ अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए किया। जो लोग सम्प्रदाय और धर्म के नाम पर सत्ता में पहुंचना चाहते थे या पहुंचना चाहते हैं उन्होंने साम्प्रदायिक भावना भड़का कर लोक को विभाजित किया। जो लोग जाति के नाम पर सत्ता में पहुंच सकते थे उन्होंने जाति के नाम पर लोक को विभाजित किया। कुछ ऐसे हैं जो क्षेत्रीयता के नाम पर लोक को बांटकर देश की धरती को भी बांटने के लिए प्रयासशील हैं। कुल मिलाकर हर समीकरण अपनाया जा रहा है।

देश के घटक (अवयव) को बांटकर तथाकथित लोक प्रतिनिधि अपने क्षेत्र के राजा बन बैठे हैं। लोकहित को परे रखकर स्वहित में लगे हुए हैं। लोक को असुरक्षित कर अपनी सुरक्षा के लिए कानून बनाते हैं। बड़े लोक प्रतिनिधि स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप में आये और हर एक को कोई कोई सुरक्षा कवच शासन ने मुहैया कराया। यह सुरक्षा कवच में रहने वाले लोग लोक प्रतिनिधि होते हुए लोक से अलग लोक की सुविधा का ध्यान रखकर सुरक्षा कवच में रहकर लोकहित के विपरीत काम करते हैं। इन लोक प्रतिनिधियों में भू-माफिया भी हैं, शिक्षा माफिया भी हैं, एन0जी00 माफिया भी हैं, उद्योग माफिया हैं, सरकारी ठेकों पर कब्जा देने वाले हैं या पूरी-पूरी सरकारी सहायता और सरकारी धन डकार जाने वाले लोग हैं या फिर ऐसे लोगों के हित साथक बनकर उनके हिस्सेदार लोग हैं।

बड़े उद्योगों को सरकार से यही लोक प्रतिनिधि सुविधा दिलाते हैं, सस्ते दर पर भूमि और पूंजी का अंश दिलाते हैं और लोक के हिस्से में आती है तो केवल विवशता और भूख। अगर लोग अपने प्रतिनिधियों के इस कृत्य से क्षुब्ध होकर विरोध में उतरते हैं तो उन्हें अतिवादी कहकर जेलों में डाल दिया जाता है और इस लोकशाही में लोक की आवाज दबा दी जाती है। लोक की आवाज दबाने में लोक प्रतिनिधि, उद्योगपति और नौकरशाहों की सांठ-गांठ चलती है। नौकरशाह खुद सुरक्षा कवच में रहते हैं, इन्हीं लोक प्रतिनिधियों से अपनी सुरक्षा सम्बंधी कानून बनवाकर लोक प्रतिनिधियों से अपना वेतन और सुविधायें बढ़वाते हैं और ये लोक प्रतिनिधि अपने वेतन और सुविधा के लिए कानून बना लेते हैं। इस तरह पिसता है तो जग साधारण, वह भर पेट भोजन की व्यवस्था कर पाता है, वह शिक्षा में आगे बढ़ पाता है और नतीजे में बेसहारा यह बेचारा मूक होकर रह गया है। अगर इस मूकता को वाणी मिली तो लोक फिर से बेगार करेगा, जानवरों की तरह काम के बदले आधा पेट भोजन या आधा शरीर ढकने को कपड़ा मिल गया तो बहुत है वरना हमारे लोक प्रतिनिधि देश बचाओ अभियान चला कर स्वयं को बचाने में लगे हुए हैं।
मोहम्मद शुऐब
...........क्रमशः

4.3.10

बजट नीतियाँ लीक से हटने की दरकार - 2

सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री श्री कमल नयन काबरा की शीघ्र प्रकाशित होने वाली पुस्तक 'आम आदमी - बजट और उदारीकरण' प्रकाशन संस्थान नई दिल्ली से प्रकाशित हो रही है जिसकी कीमत 250 रुपये है उसी पुस्तक के कुछ अंश नेट पर प्रकाशित किये जा रहे हैं
-सुमन

देश में असमानताएँ, गरीबी, आजीविका विहीनता, असुरक्षा बढ़ी हैं। कारण-अकारण निजी तथा सामूहिक (भीड़) के स्तर पर आक्रोश के हिंसक धमाके-वाकये आम घटना बन गये हैं, कुछ सैकड़ो असुरक्षित नेताओं की जान की रक्षा करने पर 5 से 6 सौ करोड़ रूपए फूँके जा रहे हैं और हजारों- लाखों लोग चंद बाहरी-अन्दरूनी आतंकियों के शिकार बनते रहते हैं। पर्यावरण प्रदूषण तथा प्राकृतिक संसाधनों की घटती मात्रा तथा गिरती गुणवत्ता बजट में उधार जुटाई गयी अतिविशाल राशि के बोझ से भी ज्यादा बोझ अजन्मी भावी पीढ़ियों पर डाल रहे है।
इन सब सवालों से कन्नी काटते हुए वही बढ़त दर को बढ़ाने का खटराग लगातार हमारे बजटकारों का महँगा, अदूरदर्शी, असामाजिक शौक बना हुआ हैं। अभी एक जगह विजयदान देथा ने लिखा था कि पूरी तरह करोड़ों तारों से रोशन आसमान कि तरह धरती के अँधेरे में अपनी राह टटोलते इंसान को एक चिंगारी भर रोशनी नहीं दे पाता हैं। यह उसी आसमाँ की चर्चा है जो अमीर खुसरो की पहेली की रत्नों भरी उल्टी थाली की तरह कभी जमीन पर रोशनी का एक कतरा तक पहुँचाने में कई प्रकाश वर्ष लगा देता हैं। मुझे लगा कि हमारे अर्थशास्त्री और नीतिकार आखिर करोड़ों तारो से चमकते आसमान और पिछले कुछ दर्शकों में कई गुणा बढ़ी राष्ट्रीय आय की समरूपता, उनका सादृश्य क्यों नहीं देख पाते है। बढ़ती राष्ट्रीय आय की यह अरबों की राशि इतनी ऊपर ही अटक जाती है और दूरान्त सितारों की तरह एक टिमटिमाती ढिबरी जैसी और एक ढिबरी जितनी उपयोग भी इन करोड़ों नागरिकों के लिए नहीं बन पाती है।
हाँ, बढ़ाए उत्पादन। तेज आर्थिक वृद्धि। परन्तु उस दूरस्थ आसमान में नहीं, उन अटटालिकाओं में नहीं, जिन्हे आम आदमी केवल हसरत भरी निगाहों से देख भर सकते हैं, किन्तु उन्हें पा सकने के नादान ख्वाब तक नहीं पाल सकते हैं।
यदि इस रूपक को आगे बढ़ाएँ, तो कहा जा सकता है कि उल्कापात की तरह गरीबों और ग्रामीणों के लिए हजारों-लाखों करोड़ रूपए कि कार्यक्रमों के बजट में जगह दी गयी हैं। पुराने बजटोें से चालू कीमतों पर और कहीं अधिक मात्रा मेें, परन्तु प्रति-व्यक्ति क्या पल्ले पड़ता है? क्या अरबों रूपयों के सार्वजनिक उपक्रमों बेचने का मानस बनाकर, उसे बजट से बहरहाल बाहर रखकर, कुछ हजार परिवारों को यह जन-सम्पत्ति ’बेच’ कर, हमारे बजटकर्ता देश में व्याप्त दारूण गैर- बराबरी को दारूणतर नहीं कर देगंे? क्या ऐसा अनार्जित, राजकीय अनुकम्पा पर आधारित सम्पत्ति का केन्द्रीकरण तथाकथित सामाजिक कार्यक्रमों (जिन्हे समावेशी विकास की धुरी बताया जाता है) की मरहम से गरीबी, बेरोजगारी, बदहाली और गन्दगी के नासूरों का इलाज कर पाएगा? क्या अगले वर्ष वित्त मंत्री जब लोक सभा में बजट पेश करने खड़े होंगे, तो यह दावा कर पाएँगे कि इस साल गरीबी घटी है, रोजगार बढ़त के कारण बेरोजगारों की संख्या घटी है, उपभोक्ता कीमतों मेें कमी आयी है आदि- आदि समावेशी विकास की आड़ में दूरस्थ आसमाँ में और नये, चमकते सितारे जोड़कर क्या अँधेरी झोपड़िययों, तंग बस्तियों और गांवों की पगडंडियों पर अंधेरा कुछ कम कर पाएँगे?
विकास के विकट भ्रम में फँसे खाते-पीते अभिजात तबके व्यस्त हैं बजट के फलस्वरूप अपनी-अपनी माली हालत में आने वाले बदलाव, आमतौर पर इजाफे का हिसाब जोड़ने में। बाकी भारत के लिए ये बजट, ये बहसें आदि सब चोंचले हैं खाए- अघाए, लोगों का। क्या हम कह सकते हैं कि चलो, 2009 के जनादेश के बाद इस बजट में ’कुछ’ तो हुआ और जब इतना हो सकता है तो और ज्यादा, और शुभ, और जनपक्षीय भी हो तो सकता है। हाँ यह सम्भव है और होगा, विशेषतः हमारे नये उदीयमान युवकों की ताकत से जो न नेताओं के वंशज हैं, न जिनके जन्म के वक्त से ही उनके मुँह में चाँदी की चम्मच है और न ही उनके अग्रज हमारे अखबारो के तीसरे पन्ने की शख्सियत है। आम आदमी के बेटे-बेटियाँ ही एक नये बजट की शुरूआत कर पाएँगें।
वृद्धि और समावेशीकरण: एक म्यान में दो तलवार
एक बार एक प्रखर अन्तर्दृष्टिपूर्ण अर्थशास्त्री ने भारत की एक नयी पंचवर्षीय योजना के बारे में कहा था कि यह वहीं चली आ रही योजनाओं की नवीनतम किस्त है। हमारी संघीय सरकार के इस वर्ष के बजट के बारे भी यह उक्ति उपयुक्त नजर आती है। बजट में खर्च राष्ट्रीय आय की आम तौर पर दो अंकों में देखी गयी वृद्धि दर के असर से बढ़ जाते हैं। इस वर्ष भारत सरकार का खर्च दस लाख करोड़ रूपयों का अंक पार कर गया हैं।
-कमलनयन काबरा
(क्रमश:)

2.3.10

देश के विकास में महिलाओं का योगदान उल्लेखनीयः पहाड़िया

राज्यपाल ने किया महिला कालेज के शिलान्यास
सफीदों, (हरियाणा) : देश की आजादी एवं देश के विकास में महिलाओं ने अपनी अहम भूमिका निभाई है। यह बात प्रदेश के राज्यपाल महामहिम जगन्नाथ पहाड़िया ने कही। वे सफीदों (हरियाणा) में सरकार व इंदिरा प्रियदर्शनी महिला शिक्षा समिति के तत्वावधान में करोड़ो रूपए की लागत से बनने वाले महिला कालेज के शिलान्यास के उपरांत उपस्थित लोगों को संबोधित कर रह थे उन्होंने कहा कि महिलाओं के उत्थान का यह जीवंत उदाहरण है कि आज विश्र्व के पहले लोकतंत्र में देश की राष्ट्रपति व लोकसभा अध्यक्ष सरीखे अत्यंत महत्वपूर्ण पदों पर बेहतरीन संस्कारों की महिलाएं आसीन हैं और यह भी गौरव की बात है कि देश के विकास में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, मदर टरव्सा, लता मंगेसकर, सरोजनी नायडू, किरण बेदी व कल्पना चावला सरीखी महिलाओं का योगदान उल्लेखनीय है। उन्होंने कहा कि नारी शिक्षा का विशेष् महत्व है योंकि शिक्षित नारी से दो परिवारों परिजनों तथा ससुराल का उत्थान होता है। आज के पुरूष् प्रधान समाज में नारी अपनी विशेष् पहचान बना रही है। नारी किसी ाी कार्य में पुरूषें से पीछे नहीं हैं। आज इक्कीसवीं सदी के समृद्ध भारत के निर्माण में महिलाओं को आर्थिक, सामाजिक व शैक्षणिक समान प्राप्तहै तथा महिलाओं को पुरूषें के बराबर के अधिकार प्राप्त है। उन्होंने कहा कि नारी के उत्थान के लिए भारत सरकार ने महिला समृद्धि योजना लागू की है जबकि हरियाणा सरकार ने अनुसूचित जातियों की लड़कियों को शिक्षा के लिए नकद प्रोत्साहन राशि योजना शुरू की है। महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए हरियाणा सरकार ने इस कड़ी में जिला सोनीपत के खानपूर गांव में भगत फूलसिंह महिला विश्वविनालय सहित अन्य कई तकनीकी शिक्षण सस्ंथानों की स्थापना की है। शिक्षकों की भर्ती में महिलाओं को फ्फ् प्रतिशत तथा पंचायती राज में पचास प्रतिशत आरक्षण देकर हरियाणा सरकार ने महिलाओं के विकास में अनुकरणीय पहल की है। उन्होंने उमीद जताई की सफीदों का ये महिलाकालेज भी क्षेत्र का शैक्षणिक विकास करव्गा। उन्होंने कालेज के निर्माण में आने वाली किसी भी कठिनाई को दूर करने का भरोसा दिलाया। उन्होंने कालेज के निर्माण में अपने एच्छिक कोष् से पांच लाख रूपए की राशी देने की घोष्णा करने के साथ इसके निर्माण के लिए हरियाणा सरकार से अतिरिक्त अनुदान दिलवाने भरोसा दिलाया। इस मौके पर अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। इसके अलावा उन्होंने महाभारतकालीन नगर सफीदों की गौरवगाथा तथा सफीदों के प्राचीन इतिहास को लेकर नागक्षेत्र सरोवर के बाहर एक ऐतिहासिक शिलालेख का भी अनावरण किया। उन्होंने सफीदों के इतिहास से प्रभावित होकर इसके विकास के लिए कुरूक्षेत्र विकास बोर्ड के अंतर्गत विकास कार्य करवाए जाने के लिए एक सर्वे करवाने का आश्र्वासन दिया। इस अवसर पर मुチय रूप से राज्यपाल की धर्मपत्नी शांतिदेवी, उपायुक्त एम. शाईन, पुलिस अधीक्षक सतीश बालन, अतिरिक्त उपायुक्त बी.बी. कौशिक, एस.डी.एम. सत्यवान इंदौरा, हरियाणा टैस ट्रियुनल के सदस्य कर्मबीर सैनी, कांग्रेसी नेता रामकिशन बैरागी, समाजसेवी टी.सी. गर्ग, पालिका प्रधान राकेश जैन व उनोगपति लखमीचंद गर्ग के अलावा अनेक गण्यमान्य लोग मौजूद थे।

1.3.10

कारागार से कविता : मेरा प्यारा हिन्दुस्तान

मेरा प्यारा हिन्दुस्तान, प्यारा-प्यारा हिन्दुस्तान
हिन्दू-मुस्लिम आंखें इसकी, आर्या का दिल
गंगा-यमुना बहते-बहते, जहां पर जाते मिल
तरह-तरह के बूटे-पौधे, भांति-भांति इंसान
मेरा प्यारा हिन्दुस्तान, प्यारा-प्यारा हिन्दुस्तान।

काशी जैसी सुबह मिले है, अवध के जैसी शाम
हर कोई को लुत्फ मिले है, खास हो चाहे आम
हरियाणा हो या दिल्ली, यू0पी0 चाहे राजस्थान
मेरा प्यारा हिन्दुस्तान, प्यारा-प्यारा हिन्दुस्तान।

इल्म व हुनर का गह्वारा है, प्यार सी प्यारी धरती है
वलियों ऋषियों मुनियों की, बसती यहां पर बस्ती है
मोड़-मोड़ पर भजन-कीर्तन, गली-गली अज़-आन
मेरा प्यारा हिन्दुस्तान, प्यारा-प्यारा हिन्दुस्तान।

कुछ दिन पहले नम थी आंखें, रंज व अलम था छाया
चारों तरफ कोहराम मचा था, दहशत का था साया
मक्कारी से काबिज था गोरा, मलैच्छ शैतान
मेरा प्यारा हिन्दुस्तान, प्यारा-प्यारा हिन्दुस्तान।

टीपू ने फुंकार भरी, तो अहल-ए-वतन ललकारे
शेख अज़ीज भी फतवे से गोरों से धिक्कारे
गरम किया था दिलवालों ने शामली मैदान
मेरा प्यारा हिन्दुस्तान, प्यारा-प्यारा हिन्दुस्तान।

चन्द्रशेखर, बिस्मिल, मदनी और बढ़े आजाद
गली-गली ललकारा उनको, जनता से की फरियाद
मेरठ, दिल्ली, कानपुर, झांसी, मच उठी घमशान
मेरा प्यारा हिन्दुस्तान, प्यारा-प्यारा हिन्दुस्तान।

सबके हक का रखवाला है, सबके दिल का प्यारा
कल्चर इसका मशरिक वाला, बना है चांद-सितारा
अवामी इसका तर्ज-ए-हुकुमत, लोकतंत्र है शान
मेरा प्यारा हिन्दुस्तान, प्यारा-प्यारा हिन्दुस्तान।

- मो0 तारिक कासमी
( मेरे मोवाक्किल मो0 तारिक कासमी ने कारागार से कविता लिख कर भेजी है जिसको प्रकाशित किया जा रहा है )

28.2.10

बुरा मनो या भला क्या कर लोगे होली है :

लो क सं घ र्ष wishingfriends.com


रंगो की होली तो सब खेलते हैं।
खून जिगर भी बहाओं तो जानूँ।।
प्रेम के रंग में मन भी रंग जाए बन्धू।
कोई ऐसी होली मनाओं तो जानूँ।।
दो बदन मिलना केाई जरूरी नहीं।
दिल से दिल को मिलाओं तो जानूँ।।
ठुमरी वो फगुआ तो गाते सभी हैं।
प्रेम का गीत कोई सुनाओ तो जानूँ।।
मुहब्बत बढ़े और मिट जाए नफरत।
कोई रीति ऐसी चला तो जानूँ।।
रूला देना हँसते को है रस्में दुनिया।
रोते हुए की हँसाओ तो जानूँ।।
है आसान गुलशन को वीरान करना।
उजड़े चमन को बसाओ तो जानूँ
अपना चमन प्यारे अपना चमन है।
दिलोजान इस पर लुटाओं तो जानूँ।।
मिट जाए जिससे दिलो का अँधेरा।
कोई शम्मा ऐसी जलाओं तो जानूँ।।
ऐशो इशरत में तो साथ देती है दुनिया।
मुसीबत में भी काम आओ तो जानूँ।।
मुस्कराना तो आता है सबको खुशी में।
अश्कें गम पीके भी मुस्कराओ तो जानूँ।।
अपनों वो गैरों की खुशियों के खातिर।?
जमील अपनी हस्ती मिटाओं तो जानूँ

-मोहम्मद जमील शास्त्री

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। सभी चिट्ठाकार बंधुओं को परिवार सहित होली की हार्दिक शुभकामनाएं ।
-सुमन

बजट नीतियाँ लीक से हटने की दरकार

सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री श्री कमल नयन काबरा की शीघ्र प्रकाशित होने वाली पुस्तक 'आम आदमी - बजट और उदारीकरण' प्रकाशन संस्थान नई दिल्ली से प्रकाशित हो रही है जिसकी कीमत 250 रुपये है उसी पुस्तक के कुछ अंश नेट पर प्रकाशित किये जा रहे हैं
-सुमन


भारत सरकार के सालना बजट के प्रावधान और उनके साथ जुड़ी नीतियाँ प्रत्यक्ष प्रभाव से देश की आबादी में अपेक्षाकृत अल्पांश को प्रभावित कर पाती हैं। इनमें से भी सभी का कुल मिलाकर बजट से भला ही हो, सम्भव नहीं हैं। आज की घड़ी न ही यह सम्भव है कि बजट के लाभों और उसकी लागत का न्यायपूर्ण वितरण हो । प्रगतिशील सार्वजनिक व्यय नीति (अर्थात अपेक्षाकृत निर्बल तबकों पर तुलनात्मक रूप से ज्यादा खर्च हो अपेक्षाकृत सबल लोगों के मुकाबले) की कभी चर्चा तक याद नहीं आती है। प्रगतिशील कर प्रणाली, अर्थात अपेक्षाकृत धनी लोगों के अनुपात से ज्यादा कर-राशि उठाई जाये तथा अपेक्षाकृत कम आय और सम्पत्तिवान तबकों से अनुपात कम, काफी चर्चित रही है। किन्तु मेेरी जानकारी के तहत किसी व्यवस्थित और विश्वस्तरीय अध्ययन ने भारतीय कर प्रणाली को प्रगतिशीलता का रूतवा नहीं दिया है। इन मुद्दो के अलावा किसी भी दीर्घकालीन जनोन्मुखी बजट-विमर्श में एक अन्य मुद्दा काफी ध्यान देने काबिल होता है। बजट में क्या-क्या शामिल हो सकता है, इसकी अनेक सम्भावनाएँ होती हैं। कुछ नुक्तों के शुमार करने का अर्थ है अन्य सम्भावित विकल्पों की अस्वीकृति। इसी साल की बात नहीं, अब तक किसी भी बजट के नामंजूर,नाशुमार तत्वों चलने से जितने बहुलांश भारतीयों को जितनी फौरी और दीर्घकालिन हानि उठानी पड़ी है, वह निस्सन्देह बजट प्रभावों की जद मंे आने वाले लोगों की संख्या और उनके हितार्थो से बेशुमार ज्यादा हैं। भारतीय राष्ट्र-राज्य के शक्ति-सन्तुलन में कोई ऐसा बदलाव नहीं आया है और न ही ऐसे बदलावों की दस्तक सुनाई देने के शुभ संकेत भी हमारी फिजां में हैं कि सन् 2009-10 के बजट से कोई आशा की जा सकती हैं।
किन्तु हमारे परिवेश तथा राष्ट्रीय जीवन में अनेक ऐसे तत्व उभर रहें हैं जो ऐसे बदलाव की बयार के लिए कोई छोटी-बड़ी खिड़की तो खोलें। कम से कम 2007 में जारी विश्व पूँजीवाद के पिछले आठ दशकों के बाद आये संकट को तो हमारे बजटकारों ने भी चीन्हा हैं। कहा जा रहा है धनी पूँजीवादी देशों के कर्तव्यों के कुप्रभाव ’अकारण’ हम पर भी लाद दिए गये है। जिस किस्म के भूमण्डलीकरण का ’स्वेच्छा’ से और डंके की चोट पर उसके गुणगान करते हुए वरण किया गया था, और इस बजट तथा सरकारी आर्थिक सर्वेक्षण में अब भी उसकी शान में कसीदे पढ़े जा रहें हैं, आज उसी के दुष्प्रभावों से निजात पाने की इस साल के बजट की सबसे बड़ी चुनौती, पहला बड़ा काम माना गया है। इस दुष्प्रभाव की मुख्य पहचान नौ प्रतिशत सालाना आर्थिक उत्पादन से घटकर 6 से 7 प्रतिशत तक आना माना जा रहा है। खासकर इसके असर से भगोड़ी पूँजी का ’अपने पनहि’ करना, यानी खतरे के असर क्षितिज पर आते ही नौ दो ग्यारह हो जाना, निर्यातकों की आय घटना, शेयर कीमतों का औंधे मुँह गिरना, विदेशी मुद्रा भण्डार में कमी, कल-कारखानोें की उत्पादन बढ़त दर की गिरावट, भारतीय मुद्रा की अस्थिरता, आयात में कमी, माँग में कमी, व्यापक स्तर पर छँटनी, नयी नौकरियों के लाले पड़ने आदि के रूप में मंदी के बहुमुखी कुप्रभावों की चर्चा की गयी है। किन्तु मंदी से निपटने के सारे उपाय कम्पनियों और निर्यातकों के घटतें मुनाफे या सचमुच की हानि को पाटने से सम्बन्धित रहे है।जिनकी देश और विदेश में नौकरियाँ गयी हैं, जिनके परिवारों के मनी आर्डर कम और हल्के हो गये हैं या बन्द हो गये हैं, जिन कारीगरों, लघु उद्यमियों के रोजगार छिन गये हैं या बन्दी की कगार पर है, उनके लिए प्रत्यक्ष रूप से सहायक सरकारी कदमों के स्थान पर मुख्यतः अप्रत्यक्ष प्रयास बड़े उद्यमियों-निर्यातकों आदि के माध्यम से किए गये हैं। जब माँग का टूटा हो, पुरानी मशीनें अप्रयुक्त या अर्द्ध-प्रयुक्त हों, तो मात्र कम ब्याज दर से आकर्षित होकर कौन निवेश करना चाहेगा? वैसे हमारा ग्रहस्थ क्षेत्र, यानी प्रधान रूप से मध्यम आय तबका ही मुख्य बचतकर्ता है और बैंकों का बचत खाता सर्वाधिक प्रचलित बचत का तरीका। इतनी कम ब्याज दर, कि वह उपभोग की कीमतें बढ़त दर की मात्र एक-तिहाइ के लगभग हो, यानी उनका वास्तविक मोल ऋणात्मक हो, कैन नये उद्यम की ओखली में सिर देना चाहेगा? सामान्य स्थिति में भी असमावेशित-लोग सीमान्त स्तर पर होते हैं, मंदी के दौर में तो तिहरी मार के शिकार होते हैं। मंदी की मार, छूटती-घटती नौकरियों का देश और जले पर नमक के समान हैं। सरकारी राहत पैकेज में भी जगह नहीं मिलना।
-कमलनयन काबरा
(क्रमश:)

27.2.10

कांग्रेस आई महंगाई लाई...!!!

कांग्रेस आई महंगाई लाई...!!!
बजट २०१०-२०११ ने कांग्रेस के आम आदमी की जेब पर डाका डाला है.
आम आदमी ने कांग्रेस को सत्ता सौंपकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारा है.
नरेगा को मनरेगा का नाम दे दिया और ४० हज़ार करोड़ आवंटित कर लुटेरों और दलालों की जेब और भरने का अवसर दे दिया है.
आम आदमी जरूरत की चीज़ों के लिए पहले भी रिरियाता था और आज भी रिरिया रहा है. भारत का आम आदमी इंडिया के खास आदमी के सामने आज भी अपनी मूलभूत जरूरी चीज़ों के लिए हाथ पसारे लाइन में खड़ा है.
लाइन में खड़े आम आदमी को आप भी देखिए. यह फोटो मैंने अपने वीजीए कैमरा से लिया है. विगत १५ सालों से मैं भी उसी लाइन में खड़ा हूं( आपको मैं नज़र नहीं आउंगा क्योंकि मैं फोटो खींच रहा था)...!!!




































  


 


 


 

 

 

 


 


 

 


 

 
एक उम्र गुजर गयी लाइन में 
एक उम्र गुजर जाएगी लाइन में.

प्रबल प्रताप सिंह