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18.2.10

साम्राज्यवाद के लिए आसान शिकार नहीं है ईरान-अंतिम भाग

न आतंकवाद खत्म करने में, न दुनिया को परमाणु हथियारों के खतरों से बचाने में बल्कि उसकी
दिलचस्पी तेल पर कब्जा करने और इस जरिये बाकी दुनिया पर अपना वर्चस्व बढ़ाने में है।
अमेरिका की फौजी मौजूदगी ने उसे दुनिया के करीब 50 फीसदी प्राकृतिक तेल के स्त्रोतों पर प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष कब्जा दिला दिया है और अब उसकी निगाह ईरान के 10 प्रतिशत तेल पर काबिज होने की है।
दरअसल मामला सिर्फ यह नहीं है कि अगर अमेरिका को 50 फीसदी तेल हासिल हो गया है तो वो ईरान
को बख्श क्यों नहीं देता। सवाल ये है कि अगर 10 फीसदी तेल के साथ ईरान अमेरिका के विरोधी खेमे के
साथ खड़ा होता है तो दुनिया में फिर अमेरिका के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत कोई न कोई करेगा।
याद कीजिए कि अमेरिका ने 2003 में इराक पर जंग छेड़ने के पहले ये आरोप लगाये थे कि उसके पास
परमाणु हथियारों व जनसंहारक हथियारों का जखीरा मौजूद है। तब संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्य
अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा कई मर्तबा इराक में सद्दाम हुसैन की स्वीकृति के साथ की गयीं
जाँच-पड़तालों के बावजूद ऐसे किन्हीं हथियारों की मौजूदगी का अस्तित्व प्रमाणित नहीं किया जा सका
था। आज जबकि सद्दाम हुसैन को सूली चढ़ाया जा चुका है और इराक में अब अमेरिकी समर्थन की
सरकार बैठी है, तब भी ऐसे किन्हीं हथियारों की बरामदगी नहीं हो सकी है। अमेरिका के लिए दोनों ही
स्थितियाँ फायदे की थीं। अगर इराक के पास परमाणु हथियार पाये जाते तो वो इराक के खिलाफ व अपने
पक्ष में विश्व में और जनमत बढ़ा लेता और इराक पर हमला करने का नया बहाना ढूँढ़ लेता। और अगर
नहीं निकले तो उसे ये तसल्ली हो जाती कि इराक अमेरिकी फौज या अमेरिका का उतना बड़ा नुकसान
नहीं कर सकता जितना किसी परमाणु बम से हो सकता है। जाँच-पड़तालों से उसे इराक के सामरिक
महत्त्व के ठिकानों की जानकारी तो हो ही गयी थी।
यही रणनीति अमेरिका ईरान के लिए अपना रहा है। ईरान द्वारा परमाणु हथियारों के निर्माण की अमेरिकी
कहानी को अब तक किसी सूत्र ने प्रमाणित नहीं किया है। यहाँ तक कि अंतरराष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी
(आईएईए) के तमाम निरीक्षणों ने भी ईरान की ऐसी किसी कोषिष पर अपनी मुहर नहीं लगायी है। बल्कि
2009 की सितंबर में ईरान ने आईएईए के निरीक्षक दल को अपने परमाणु संवर्धन के ठिकानों का निरीक्षण
भी करवाया जहाँ ईरान अपने यूरेनियम का उस सीमा तक संवर्धन करता है जिससे उसका उपयोग कैंसर
जैसी बीमारियों के इलाज और बिजली बनाने के लिए किया जा सके। परमाणु अप्रसार संधि का
हस्ताक्षरकर्ता देष होने के नाते ईरान को शांतिपूर्ण मकसद से ऐसा करने का अधिकार भी प्राप्त है।
अनेक पष्चिमी परमाणु वैज्ञानिकों का मानना है कि ईरान के पास वो तकनीक है ही नहीं जिससे यूरेनियम
में शामिल माॅलिब्डेनम की अषुद्धि को दूर कर उसे हथियार के तौर पर उपयोग के लायक बनाया जा सके।
कुछ का अनुमान है कि उस तकनीक को पाने में ईरान को करीब 10 वर्ष का समय लग सकता है।
परमाणु बम बनाने के लिए 80 प्रतिषत तक प्रसंस्कारित किये गये यूरेनियम की जरूरत होती है, जबकि
खुद अमेरिकी सूत्रों के मुताबिक ईरान ज्यादा से ज्यादा 20 प्रतिषत तक प्रसंस्करण की क्षमता विकसित कर
सकता है। यह क्षमता वो पहले भी हासिल कर सकता था, लेकिन ईरान के परमाणु कार्यक्रम को अमेरिका
ने अनेक प्रकार से स्थगित करवाये रखा। अक्टूबर 2009 में वियना में हुई बैठक में ईरान इस बात के लिए
भी राजी हो चुका था कि वो अपने पास उपलब्ध अल्प सवंर्धित यूरेनियम (लो एनरिच्ड यूरेनियम) का एक
बड़ा हिस्सा फ्रांस और रूस को भेज देगा जो उसे इतना प्रसंस्कारित कर लौटाएँगे कि उसका इस्तेमाल
परमाणु हथियार बनाने में न किया जा सके। वियना वार्ता में अपने असंवर्धित यूरेनियम का कुछ भाग देने
के लिए ईरान राजी भी हो गया था, लेकिन अमेरिका ने जिद रखी कि ईरान को अपना पूरा ही यूरेनियम
प्रसंस्करण हेतु दे देना चाहिए।
इसके लिए अहमदीनेजाद को देश के भीतर आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा कि वो अमेरिका के
बहकावे में आकर अपने देश के यूरेनियम से भी हाथ धो बैठेंगे। आलोचकों ने, जिनमें ईरान के परमाणु
मामलों के जानकार भी शामिल थे, यह आशंका भी व्यक्त की कि पश्चिमी देश वो यूरेनियम ईरान को
लौटाएँगे ही नहीं जो उन्हें प्रसंस्कारित करने के लिए दिया जाएगा।
अमेरिका का कहना था कि ईरान थोड़ा यूरेनियम प्रसंस्करण के लिए देकर बचे हुए में से बम बना सकता
है। जबकि ईरान का कहना था कि पहले हमारा थोड़ा यूरेनियम प्रसंस्कारित करके वापस करो तब हम और
देंगे। इसी की आड़ लेकर अमेरिका व जर्मनी ने 28 जनवरी 2010 को ईरान पर नये व्यापारिक व आर्थिक
प्रतिबंध लागू कर दिये जिनके तहत कोई भी इकाई यानी कोई व्यक्ति, कंपनी या यहाँ तक कि कोई देश
भी अगर ईरान के साथ रिफाइंड पेट्रोलियम का व्यापार करता है तो उसे कड़े प्रतिबंधों का सामना करना
पड़ेगा पहले से जारी तीन प्रतिबंधों के साथ ये नये प्रतिबंध ईरान को अकेला करने की एक और कोषिष
हैं। इतना ही नहीं, प्रतिबंधों की घोषणा के तत्काल बाद ईरान की सीमाओं पर अमेरिका की सैन्य उपस्थिति
भी बढ़ा दी गयी है।
अमेरिका के इस रवैये पर 9 फरवरी 2010 से ईरान ने अपने यूरेनियम का प्रसंस्करण करने का कार्यक्रम
शुरू कर दिया है और साथ ही अपनी परमाणु हथियार न बनाने की मंषा जाहिर करने के लिए ईरान ने
मई 2010 में परमाणु निरस्त्रीकरण के मसले पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने की घोषणा भी की है।
यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं है कि अगर 1979 की क्रांति न हुई होती और अभी तक ईरान में शाह
पहलवी की ही हुकूमत होती तो खुद अमेरिका के समर्थन से ईरान परमाणु शक्ति संपन्न बन गया होता।
अमेरिका के चहेते शाह पहलवी ने परमाणु हथियार बनाने की मंषा का खुलेआम ऐलान किया था और
उसके लिए परमाणु ईंधन और परमाणु रिएक्टर अमेरिका ने ही मुहैया कराये थे। 1979 की क्रांति के बाद
अयातुल्ला खुमैनी के जमाने से अब तक ईरान परमाणु शक्ति संपन्न देषों की जमात में शामिल होने के
लिए कभी उत्सुक नहीं रहा है। खुद अयातुल्ला अली खामैनी और अहमदीनेजाद अनेक दफा सार्वजनिक
रूप से कह चुके हैं कि परमाणु हथियारों को रखना इस्लामिक क्रांति के मूल्यों के खिलाफ है।
इन तकनीकी सवालों व अनुमानों को और धार्मिक या राजनीतिक बयानों को छोड़ भी दिया जाए तो ये
सवाल पूछना तो लाजिमी है कि वे कौन हैं जो दुनिया की नैतिक पुलिस बनकर परमाणु हथियारों के
मामलों में ईरान के खिलाफ मुष्कें चढ़ा रहे हैं। खुद अमेरिका के पास न केवल दुनिया के परमाणु हथियारों
का सबसे बड़ा जखीरा है बल्कि दुनिया के अब तक के इतिहास में वही एकमात्र देष रहा है जिसने किसी
देष की लाखों की बेकसूर नागरिक आबादी पर परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कर समूचे मानव इतिहास में
नृषंसता की सबसे बड़ी मिसाल कायम की है। और फिर खम ठोक कर परमाणु हथियार बना चुके
पाकिस्तान, भारत, उत्तरी कोरिया और इजरायल पर भी ईरान जैसी सख्ती नहीं की गयी तो ईरान से ही
खलनायक की तरह क्यों व्यवहार किया जा रहा हैं? इजरायल के परमाणु कार्यक्रम की जाँच का प्रस्ताव तो
अमेरिका हर बार अपनी वीटो शक्ति का उपयोग करके गिराता रहा है।
इराक के तजुर्बे से हिचकिचाहट
इराक पर आजमायी तरकीब को अमेरिका ईरान पर भी आजमाना चाहता है। लेकिन परमाणु हथियारों के
निर्माण की कोषिषों का आरोप लगाकर प्रतिबंधों के जरिये ईरान को भीतर से कमजोर कर उसे फौज के
दम पर जीत लेने के मंसूबों में इराक का तजुर्बा ही अमेरिका को अनिर्णय की स्थिति में रखे हुए है।
दरअसल 1 ट्रिलियन (1000000000000) डाॅलर से ज्यादा फूँक डालने के बावजूद, सद्दाम हुसैन को फाँसी
पर चढ़ाने के बावजूद, लाखों मासूम इराकी लोगों, बच्चों, औरतों, बुजुर्गों को लाषों में बदल डालने और
अपने सैकड़ों ‘बहुमूल्य’ सैनिकों की जानें गँवा देने के बावजूद इराक पर पूरी तरह से अमेरिका आज भी
कब्जा नहीं कर सका है। अपनी आजादी के छिनने और अपनी दुनिया के उजड़ने के बाद जो इराकी लोग
जिंदा बचे हैं, वे चुपचाप मातम नहीं मना रहे हैं। वे जैसे भी मुमकिन है, बंदूकों, बमों, या आत्मघाती तरीकों
की हद तक जाकर भी अमेरिकी फौज से बदला ले रहे हैं। और लाखों की तादाद में मारे जाने के बावजूद
अमेरिका के प्रति भयानक गुस्से से भरे ऐसे लोग अगर करोड़ों में न भी हों तो भी लाखों में तो हैं हीं। एक
लिहाज से इराक अमेरिकी और अमेरिका के मित्र देशों के फौजियों के लिए गले की हड्डी बन चुका है।
शायद ऐसे ही किसी मौके के लिए तुर्की के प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि नाजिम हिकमत ने कहा होगा ‘‘
गिरफ्तार हो जाना अलग बात है, खास बात है आत्मसमर्पण न करना।’’
अमेरिकी रणनीतिकार जानते हैं कि ईरान ईराक से तीन गुना बड़ा देश है। ईरान की आबादी ईराक से
दोगुनी से भी ज्यादा है। मौलानाओं की धार्मिक सत्ता की वजह से मजहबपरस्ती भी ज्यादा है और इसलिए
अमेरिकाविरोधी भावनाएँ भी ज्यादा उग्र हैं। ईरान पर सीधा हमला करने जैसा कदम उठाने की हिम्मत
अमेरिका के फौजी रणनीतिज्ञों की नहीं हो पा रही है।
इसीलिए परमाणु हथियारों के निर्माण की कोशिशें का आरोप ईरान पर मढ़कर कुछ और प्रतिबंध लगाकर
अमेरिका ईरान को या तो इतना कमजोर कर देना चाहता है कि जब उसकी फौजें ईरान में दाखिल हों तो
न्यूनतम प्रतिरोध का सामना करना पड़े। या फिर, जैसा कि अनेक अमेरिकी दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी बराक
ओबामा को सलाह दे रहे हैं कि वो ईरान को इराक की तरह तहस-नहस करने के मंसूबों को छोड़ वहाँ
अयातुल्ला अली खामैनी और अहमदीनेजाद की हुकूमत का तख्तापलट करवाकर उसकी जगह किसी
अमेरिकी फर्माबरदार सरकार को गद्दीनषीन करवाने की हिकमत करें।
दोस्त पास के और दोस्त दूर के
यह तो साफ है कि ईरान चैतरफा अमेरिकी दबावों से घिर रहा है और ये दबाव बढ़ते जा रहे हैं। ठीक
मौका मिलते ही ईरान को अपने साम्राज्यवादी आॅक्टोपसी शिकंजे में कसने के लिए वो ताक लगाये बैठा है
और यह भी साफ है कि ईरान पर कब्जा होते ही वो उत्तरी कोरिया पर अपना निषाना साधेगा। ऐसे में
ईरान के लिए अपनी संप्रभुता और आजादी बचाये रखने के लिए ये जरूरी है कि वो अमेरिकी साम्राज्यवाद
विरोधी बिखरी अंतरराष्ट्रीय ताकतों को एकजुट करे। क्यूबा ईरान का पुराना खैरख्वाह रहा है और पिछले
दिनों वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो चावेज के साथ मिलकर अहमदीनेजाद ने जो वैकल्पिक कोष बनाया है
उससे दूसरे छोटे देष भी विष्व बैंक और आईएमएफ के चंगुल से बचते हुए अमेरिकाविरोधी खेमे को
मजबूत कर सकते हैं। वेनेजुएला और ईरान मिलकर पेट्रोलियम व्यापार में डाॅलर की सर्वोच्चता को भी
चुनौती देने की वैसी कशिश मिलकर कर रहे हैं जो सद्दाम हुसैन ने अकेले की थी।
लेकिन इन कोषिषों के असर का दायरा बड़ा होने में वक्त लगेगा। अगर इस बीच ईरान पर अमेरिका या
इजरायल हमला करता है तो सुदूर लैटिन अमेरिका में मौजूद वेनेजुएला या क्यूबा उसे रोक सकने में सक्षम
होंगे-ऐसी उम्मीद करना ज्यादा आषावादी होना होगा। ईरान का सबसे ताकतवर और असरदार सहयोगी
उसके बिल्कुल पड़ोस में मौजूद इराक हो सकता था जिसे ईरान ने अपनी पुरानी दुश्मनी और तंगनजरी की
वजह से आँखों के सामने तहस-नहस होते देखा।
चीन, रूस जैसे देषों से उसे अगर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कोई सहयोग मिलता भी है तो वो भी एक बहुत
सीमित सहयोग ही होगा। चीन ईरान के तेल का बड़ा आयातक देष है। ईरान के साथ चीन का 17 अरब
डाॅलर का प्रत्यक्ष व्यापार है जो बाजरिये दुबई 30 अरब डाॅलर तक पहुँचता है। अपने आर्थिक हितों के लिए
ईरान के साथ व्यापार करने से चीन पर कोई दबाव अमेरिका नहीं बना सकता है। हाँ, अगर ईरान को काबू
में करने में या वहाँ के तेल संसाधनों पर कब्जा करने में अमेरिका कामयाब हो जाता है तो चीन, क्यूबा,
10
भारत जैसे अनेक देषों की निर्भरता अमेरिकी प्रभाव वाले देशों पर बढ़ जाएगी। हालाँकि चीन लगातार
संयुक्त राष्ट्र संघ व अन्य बहुपक्षीय वार्ताओं में ईरान पर प्रतिबंधों के खिलाफ दलीलें रखता रहा है लेकिन
चीन से वैसी किसी भूमिका की उम्मीद करने का कोई आधार नहीं है जैसी सोवियत संघ के अस्तित्व में
रहते सोवियत संघ निभाया करता था।
पड़ोसी मुल्कों में पाकिस्तान और भारत दो अन्य ताकतवर देष हैं और दोनों ही देषों के सामने ईरान ने
गैस पाइपलाइन बिछाने का जो प्रस्ताव रखा है वो अमेरिका की प्रस्तावित पाइपलाइन योजना को खटाई में
डाल सकता है। विषेषज्ञों के मुताबिक ये कहा जाना तो मुष्किल है कि उक्त पाइपलाइन से प्राप्त होने
वाली गैस अमेरिका की प्रस्तावित पाइपलाइन योजना से सस्ती होगी, लेकिन ये जरूर कहा जा सकता है
कि अगर ये योजना आकार लेती है तो भारत, पाकिस्तान और ईरान के संबंधों में ऐतिहासिक रूप से
सकारात्मक बदलाव आएगा। अगर ऐसा होता है तो ये अमेरिकी वर्चस्व को एक चुनौती तो होगी ही साथ
ही ये एषिया के तीन प्रमुख देषों को आपस में जोड़ने और शांति के नये अध्याय को भी शुरू करने की
भूमिका निभाएगी। इस परियोजना का भविष्य भारत और पाकिस्तान की सरकारों के नजरिये पर निर्भर
करता है कि वे अमेरिका की खुषामद करना ठीक समझती हैं या अपने मुल्कों की, इस महाद्वीप की और
आखिरकार पूरी इंसानियत की बेहतरी को तवज्जो देती हैं। बेषक दोनों ही देशों की मौजूदा सरकारों से ये
उम्मीद करना एक दूर की कौड़ी है लेकिन दोनों ही देषों के भीतर मौजूद जनवादी ताकतों से ये भूमिका
निभाने की उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वे देष का जनमत इस पक्ष में मोड़ने की हर मुमकिन
कोषिष करें ताकि हुकूमतें जनता की आवाज को अनसुना न कर सकें। इराक पर अमेरिकी हमले के वक्त
अगर ईरान खामोष न रहा होता और अन्याय के खिलाफ खड़ा हुआ होता तो आज पष्चिम एषिया के
हालात बिलकुल जुदा होते। वर्ना जैसा इराक ने भुगता है और ईरान जिस खतरे के सामने खड़ा है वैसा
ही हाल भारत और पाकिस्तान का भी हो सकता है, कि ‘‘जब वो मुझे मारने आये तब कोई नहीं बचा था।’’
खुद ईरान की हुकूमत को भी ये समझना जरूरी है कि उसे अपने भीतर लोकतंत्र को मजबूत करने के
कदम उठाने होंगे। 1979 से अब तक तीस बरस का पानी बह चुका है और एक वक्त जो क्रांति मजहब के
सहारे हुई, उसका लगातार लोकतांत्रीकरण न किया गया तो उस क्रांति की उपलब्धियाँ भी इतिहास छीन
सकता है। देष के भीतर अल्पसंख्यकों, महिलाओं आदि को अधिक अधिकारसंपन्न करने से देष, हुकूमत
और लोग एकसाथ मजबूत होंगे।


जिम्मा सबका साझा
बात सिर्फ परमाणु हथियारों की नहीं, बात सिर्फ तेल पर कब्जे की नहीं, बात जंग और अमन की नैतिकता
की नहीं, बल्कि इससे कुछ ज्यादा है। बात ये है कि क्या दुनिया के सभी देश अपने आपको मानसिक रूप
से अमेरिका के अधीन महसूस करने के लिए तैयार हैं, क्या आजादी जीवन का कोई मूल्य है या नहीं, क्या
हर किस्म के संसाधन पर कब्जा और फैसले की ताकत हम अमेरिका के पास सुरक्षित रहने देना चाहते हैं
और क्या हमें इस बात से कोई तकलीफ नहीं कि दुनिया की आबादी का एक बहुत ही छोटा हिस्सा, जो
दरअसल पूरी अमेरिकी जनता का भी प्रतिनिधित्व नहीं करता है, सिर्फ शोषण की ताकत और पूँजी की
ताकत का इस्तेमाल करके सारी दुनिया पर निर्बाध अपना राज करता रह सके?
दूसरे विष्व युद्ध के बाद सोवियत संघ और चीन की मौजूदगी ने अमेरिकी साम्राज्यवाद के विष्व विजय के
सपने पर लगाम कसे रखी। न तो अमेरिकी उद्योगों ने अपने आपको दुनिया की उत्पादन व्यवस्था में
सिरमौर साबित किया (हथियार निर्माण को छोड़कर), न ही उनकी आर्थिक नीतियाँ कामयाब हुईं, उल्टे
अमेरिकी अर्थव्यवस्था ने न सिर्फ अमेरिका बल्कि उससे जुड़े अन्य अनेक देषों का भी दीवाला निकाल
दिया। अगर देखा जाए तो कुछ भी ऐसा नहीं है अमेरिका के पास जिसकी वजह से शेष विश्व में उसे वो
इज्जत और रसूख मिलना चाहिए जो उसे मिल रहा है, सिवाय एक फौजी ताकत को छोड़कर। अगर विष्व
बाजार में उसका माल नहीं बिक रहा है तो वो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विष्व बैंक के
जरिये अपना माल दूसरे देषों पर थोपता है। अगर कोई देष इस तरह के दबाव को मानने से इन्कार कर
दे तो अमेरिका फौज के दम पर उसे परास्त करता है। अगर उसका डॉलर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कमजोर
पड़ता है तो उसका रास्ता भी वो फौजी कार्रवाई से निकालता है। एक तरह से अमेरिका दुनिया को उसी
दषा की ओर ले जा रहा है जिसके बारे में रोजा लक्जमबर्ग ने इषारा किया था कि ‘‘अगर पूँजीवाद को
खत्म करके समाजवाद न स्थापित किया जाए तो एक स्थिति के बाद ये दुनिया को एक बर्बर सभ्यता में
पहुँचा देता है।’’ दुनिया को बर्बरता से बचाने का जिम्मा सबका साझा है।


-विनीत तिवारी, 2, चिनार अपार्टमेंट, 172, श्रीनगर एक्सटेंशन,इन्दौर-452018. मोबाइल-09893192740.

17.2.10

साम्राज्यवाद के लिए आसान शिकार नहीं है ईरान-1




1.
ईरान क्यों?
-क्योंकि ईरान परमाणु बम बना रहा है;
-क्योंकि ईरान में इस्लामिक कट्टरपंथ मौजूद है;
-क्योंकि ईरान इजरायल पर हमला कर सकता है;
-क्योंकि खुद जाॅर्ज बुष उसे शैतान की धुरी का हिस्सा घोषित कर चुके हैं, वगैरह....
कुछ इसी तरह के जवाबों से अमेरिकी और अमेरिकापरस्त लोग सच्चाई पर नकाब चढ़ाने की कोषिष करते
हैं। अमेरिका की ईरान पर होने वाली इस खास नज़रे-इनायत को समझने के लिए पष्चिम एषिया की
भौगोलिक, आर्थिक स्थितियों और उससे जुड़ी राजनीति को समझना और वहाँ के हालिया घटनाक्रम पर
एक नजर डालनी जरूरी है।
दुनिया से शैतानियत का खात्मा करने का संकल्प लेने वाले तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जाॅर्ज बुष ने
शैतानियत की धुरी (एक्सिस आॅफ इविल) के तौर पर जिन देषों की पहचान की थी, उनमें से इराक को
उसकी सारी बेगुनाही के सबूतों के बावजूद लाषों से पाट दिया गया। दूसरा है उत्तरी कोरिया, जिसने
अमेरिकी मंषाओं को समझकर अपने आपको एक परमाणु ताकत बना लिया है। आकार और ताकत के
मानकों से देखा जाए तो अमेरिका और उत्तरी कोरिया की तुलना शेर और बिल्ली के रूपक से की जा
सकती है। लेकिन अब शेर को बिल्ली पर हाथ डालने से पहले कई बार सोचना पड़ेगा क्योंकि अब बिल्ली
के पंजों में परमाण्विक ताकत वाले नाखून आ गये हैं। उत्तरी कोरिया से निपटने की रणनीति का ही हिस्सा
है कि पहले बड़े दुष्मन से निपट लिया जाए। और वो बड़ा दुष्मन है ईरान।
यह सच है कि इराक को जमींदोज करने के बावजूद अमेरिका अभी तक अपने मंसूबों में पूरी तरह कामयाब
नहीं हो पाया है, लेकिन ये सच्चाई भी अपनी जगह बहुत अहम है कि इराक पर जंग के बहाने से अमेरिका
ने पश्चिम एशिया में अपनी सैन्य मौजूदगी को कई गुना बढ़ा लिया है। पश्चिम एषिया का मौजूदा सूरते
हाल ये है कि इजराएल, कुवैत, जाॅर्डन और सउदी अरब में पहले से ही अमेरिकापरस्त सरकारें मौजूद थीं,
लेबनान के प्रतिरोध को अमेरिकी शह पर इजराएल ने बारूद के गुबारों से ढाँप दिया है और सीरिया,
ओमान, जाॅर्जिया, यमन, जैसे छोटे देशों की कोई परवाह अमेरिका को है नहीं। भले ही तुर्क जनता में
अमेरिका द्वारा इराक पर छेड़ी गयी जंग का विरोध बढ़ रहा है लेकिन अपनी राजनीतिक, व्यापारिक व
भौगोलिक स्थितियों की वजह से तुर्की की सरकार योरप और अमेरिका के खिलाफ ईरान के साथ खड़ी
होगी, इसमें संदेह ही है। कुवैत में अमेरिकी पैट्रियट मिसाइलें तनी हुई हैं, संयुक्त अरब अमीरात और
2
बहरीन के पानी में अमेरिकी नौसेना का पाँचवाँ बेड़ा डेरा डाले हुए है। कतर ने इराक और अफगानिस्तान
पर हमलों के दौर में अमेरिकी वायु सेना के लिए अपनी जमीन और आसमान मुहैया कराये ही थे।
दरअसल इराक और फिलिस्तीन के भीतर अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ व्यापक विद्रोह को कुचलने के
बाद अब ईरान ही अहम देष है जहाँ से अमेरिकी वर्चस्ववाद के विरोध को जनता के साथ-साथ किसी हद
तक राज्य का भी समर्थन हासिल है।
ईरान की अंदरुनी मुष्किलें
यूँ तो पश्चिम एशिया के लगभग हर देश में बीती सदी में बहुत नाटकीय घटनाक्रम हुए हैं और बेतहाशा
रक्तपात भी। पिछले लगभग 50 बरसों से तो बहुत हद तक अंतरराष्ट्रीय राजनीति भी पश्चिम एशियाई देशों
की करवट के साथ बदलती रही है। और इनमें भी इराक और ईरान, ये दोनों देश अपने इतिहास,
साम्राज्यवादविरोधी राजनीति और भौगोलिक विस्तार की वजह से पश्चिम एषिया के सबसे प्रमुख केन्द्र रहे
हैं। 1980 से 1988 तक चले ईरान-इराक युद्ध ने दोनों देषों की जनता और हुकूमत पर ऐसे जख्म छोड़े हैं
जो पूरी ईमानदार और दषकों की लगातार कोषिषों के बाद भी मुष्किल से ही पाटे जा सकते हैं। सीमाओं
के विवाद, षिया-सुन्नी पंथों के विवादों, अमेरिकी साजिषों और मौकापरस्ती से उपजी इस जंग में दोनों
देषों के कुल पाँच लाख से ज्यादा फौजी और आम नागरिक मारे गये थे।
एक ओर जहाँ ईरान के पड़ोसी मुल्क इराक में राजनीतिक घटनाक्रम 1958 से ही राजषाही और सामंतवाद
के सैकड़ों बरसों के दायरे को तोड़कर आधुनिक दुनिया के निर्माण का हिस्सा बन रहा था, वहीं ये प्रक्रिया
ईरान में 1979 में जड़ें पकड़ सकी जब अयातुल्ला खुमैनी ने शाह मोहम्मद रजा पहलवी की राजषाही को
खत्म करके ईरान को इस्लामिक गणतंत्र का रूप दिया। ये क्रांति इस मायने में बहुत अहम थी कि इसने
कठमुल्लापन को एक ऐतिहासिक प्रगतिषील षक्ल दी लेकिन वहीं इसकी सीमाओं को पार करना जरूरी
था क्योंकि अपने होने में योरपीय व अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरुद्ध जनक्रांति जैसी लगने के बावजूद उस
क्रांति में बहुत से प्रतिगामी तत्व मौजूद थे। मसलन् एक तरफ तो वो क्रांति शाह की गैरबराबरी को बढ़ावा
देने और शोषणकारी नीतियों के विरोध में थी, लेकिन दूसरी तरफ वो औरतों को वोट देने के अधिकार के,
उन्हें शादी में बराबरी के हक दिये जाने, अन्य धर्मावलंबी अल्पसंख्यकों को नौकरियाँ दिये जाने और संपत्ति
के बँटवारे के भी विरोध में थी, और अपने आप में धार्मिक लगने वाली वो क्रांति दरअसल उसी समाज के
निम्न पूँजीपतियों के कंधों पर सवार होकर आयी थी।
इसलिए 1979 की क्रांति के बाद राजषाही से आजाद होकर भी जो शक्ल ईरान ने अख्तियार की, वो एक
कोण से दकियानूस और रूढ़िवादी थी और दूसरे कोण से अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ अपनी संप्रभुता
के गौरव में डूबी दृढ़ता की झलक देती थी। तीस बरस बीतने के बाद भी ईरान की इस दो कोणों से
जुदा-जुदा लगती शक्ल में कोई खास तब्दीली नहीं आयी है। ईरान के संविधान के अनुसार देष की
सर्वोच्च सत्ता अभी भी देष के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्लाह खुमैनी के धार्मिक वारिस अयातुल्ला अली
हुसैनी खामैनी के हाथों में है। यहाँ तक कि मौजूदा राष्ट्रपति अहमदीनेजाद की राजनीतिक दीक्षा भी उसी
1979 के धार्मिक-राजनीतिक आंदोलन के दौरान हुई है।
इस तरह के आंदोलन में यह खतरा होता है कि राजनीति धार्मिक दायरे का अतिक्रमण कर पाने के बजाय
उस घेरे में और ज्यादा उलझती जाती है। ईरान की राजनीति के सामने भी ये जोखिम शुरू से बना हुआ
3
है। रोजमर्रा की जिंदगी से लेकर अंतरराष्ट्रीय महत्त्व के ऐतिहासिक मसलों तक धार्मिक नजरिया अहम
होता है और धर्म के इस्तेमाल से आर्थिक-राजनीतिक संदर्भ बनाये और बिगाड़े जा सकते हैं।

12 जून 2009 में हुए राष्ट्रपति चुनावों में भले ही अहमदीनेजाद फिर चुन कर आ गये हों लेकिन उनके
खिलाफ ईरान में लगातार हुए प्रदर्षनों से और जिस तरह प्रदर्षनकारियों का दमन किया गया, करीब 15
लोग मारे गये और सैकड़ों घायल हुए, 11 प्रदर्षनकारियों को फाँसी की सजा सुनायी गयी, उससे ईरान के
भीतर राजनीतिक असंतोष के बढ़ने का अंदाजा लगाना मुष्किल नहीं है। हालाँकि ईरान सरकार उन
प्रदर्षनों के पीछे अमेरिकी साजिषें होना बता रही है जो काफी हद तक मुमकिन भी हो सकता है, लेकिन
सच ये है कि ईरान के भीतर जो ताकतें क्रांति के साथ राजनीति में मजबूती से उभर कर आयीं, उनमें एक
बड़ा तबका उनका है जो धर्म और स्थानीय आर्थिक हितों की साझेदारी से तीस बरसों में काफी बड़ी पूँजी
की मालिक बन चुकी हैं और अब उनमें से अनेक अमेरिका व पष्चिम के साथ रिश्ते बढ़ाकर वैश्विक पूँजी
की छोटी भागीदार बनना चाहती है।ं ऐसा ही हम भारत में भी देखते हैं कि आजादी के आंदोलन में स्वदेषी
आंदोलन से मुनाफा कमाने वाले अनेक व्यापारिक घरानों की रुचि विदेषी पूँजी के साथ गठबंधन में मुनाफा
कमाने में है। ईरान में ये ताकतें भारत की तरह पृष्ठभूमि में नहीं बल्कि राजनीति में खुलकर सक्रिय रही हैं।
उन्हीं में से मीर हुसैन मौसावी, मोहम्मद खातमी और अकबर हाषमी रफसंजानी देष के सर्वोच्च राजनीतिक
ओहदों तक पहुँचने में कामयाब भी हुए हैं।
बेषक ये धारा ईरान में बहुत गहरी जड़ें पकड़ी हुई धार्मिक मान्यताओं और पष्चिम व अमेरिका विरोध की
भावनाओं को आसानी से बदल नहीं सकती, इसीलिए इस धारा के लोग भी धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल से
ही विरोध को एकजुट कर रहे हैं। वे अपने आपको इस्लाम का सही प्रतिनिधि और ईरान की क्रांति के
असली हकदार बताने की कोषिष कर रहे हैं। भले आखिरी तौर पर वे अपने इस मकसद में कामयाब हो
सकें या नहीं लेकिन जिस तरह से 12 जून 2009 के राष्ट्रपति चुनावों के बाद से हाल में दिसंबर 2009 में
हजारों लोगों के प्रदर्षनों से इन ताकतों ने ईरान को हिलाये रखा है, उससे एक बात तो साफ है कि वे
अहमदीनेजाद सरकार को अस्थिर और कमजोर तो कर ही सकते हैं।
वैष्विक आर्थिक संकट के असर ईरान पर भी पड़े हैं और ईरान की अर्थव्यवस्था भी संकट के दौर से गुजर
रही है। अमेरिका प्रेरित तमाम आर्थिक प्रतिबंध भी ईरान की अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ा रहे हैं। ईरान की
आर्थिक वृद्धि दर 2009 में महज आधा प्रतिषत रही है, तेल से होने वाली आमदनी भी 2008 की 82 अरब
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डाॅलर से घटकर 60 अरब डाॅलर रह गयी। मुद्रास्फीति 15 प्रतिषत से ज्यादा और बेरोजगारी दर 11
प्रतिषत से अधिक थी।
इन सारी परेषानियों से ईरानी जनता के भीतर उभरने वाले असंतोष को अहमदीनेजाद और उन्हें समर्थन
करने वाले खामैनी की तरफ मोड़ने की रणनीति में मौसावी, खातमी और रफसंजानी का गुट कुछ हद तक
तो कामयाब हुआ भी है। अमेरिका की दिलचस्पी भी इसमें अधिक हो सकती है क्योंकि अपनी माफिक सत्ता
आ जाने से युद्ध को टाला जा सकेगा। मोहम्मद खातमी और रफसंजानी ने ईरान की सत्ता में अपने
कार्यकाल के दौरान अमेरिकापरस्त नव उदारवादी नीतियों को बढ़ावा भी दिया था।
तनावयुक्त सीमाएँ
इन राजनीतिक और आर्थिक मुष्किलों के अलावा ईरान में जातीय और अन्य सामाजिक समस्याओं का
अंबार भी कम नहीं है। एक तरफ ईरान की सीमा पाकिस्तान और अफगानिस्तान से मिली हुई है जहाँ न
केवल अमेरिकी फौजें तालिबानी आतंकवादियों से निपटने का बहाना लेकर जमी हुई हैं बल्कि वहाँ रहने
वाले बलूच लोगों के ईरान और अफगानिस्तान में रहने वाले बलूच लोगों के साथ दोस्ती और दुष्मनी, दोनों
के ही गहरे रिष्ते भी हैं।
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दूसरी तरफ इराक और तुर्की के साथ लगी हुई सीमाओं पर कुर्द लोगों की मौजूदगी है। तीनों देषों की
सीमाओं के इलाके में करीब 40 लाख कुर्द लोगों की आबादी ईरान, अजरबैजान, इराक और तुर्की में बँटी
हुई है। कुर्द ईरान की आबादी का करीब 7 फीसदी हिस्सा यानी करीब 70 लाख हैं। सीमा के इलाके में
इनकी आबादी करीब 40 लाख है और उनमें से भी 25 लाख सुन्नी हैं। कुर्द लोगों के साथ ईरानी हुकूमत
का खूनी रिष्ता रहा है। 1979 के वक्त ही अयातुल्ला खुमैनी के जमाने में ईरान में करीब 10 हजार कुर्द
अलगाववाद के इल्जाम में कत्ल किये गये थे। ईरान की करीब 90 फीसदी आबादी षिया मुसलमानों की है
और 8 फीसदी सुन्नी हैं। जबकि उसके पड़ोसी इराक में 40 फीसदी सुन्नी मुसलमान हैं। ईरानी कुर्द लोगों
की राजनीतिक पार्टी केडीपीआई पर मौजूदा सरकार ने प्रतिबंध लगाये हुए हैं और केडीपीआई का राष्ट्रपति
अहमदीनेजाद पर 1989 में उनके नेता डाॅ. कासिमलू की हत्या करवाने का आरोप है।
ये ध्यान रखना भी उतना ही जरूरी है कि ईरान के चारों तरफ अमेरिकी फौजों की मौजूदगी लगातार
बढ़ती गयी है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सउदी अरब और अब इराक में भी अमेरिकी फौज की मौजूदगी
ईरान के लिए लगातार बढ़ते खतरे का संकेत है। अमेरिका व नाटो के सैनिकों की इराक में 1 लाख 40
हजार की मौजूदगी है, जाॅर्डन और इजरायल में विष्वसनीय फौजी बेस है, अफगानिस्तान में 21000 फौजी
और भेजे जा चुके हैं जबकि अमेरिका के फौजी जनरल द्वारा 40000 सैनिकों को और भेजने की माँग की
गयी है। फौज और हथियारों के जमावड़े के साथ-साथ अमेरिकी खुफिया एजेंसियाँ पहले से ईरान के भीतर
के और पड़ोसी देषों के साथ के अंतद्र्वद्वों को ईरान में अस्थिरता बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करने का कोई
मौका नहीं चूकेंगी। देष के भीतर असंतोष को बढ़ने से रोकने में अगर अहमदीनेजाद प्रषासन कामयाब नहीं
रहता है तो देष के बाहर के मोर्चों की मजबूती पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा।
तेल का मामला: परमाणु का मामला
तेल और परमाणु बम का डर, अमेरिकी मानसिकता पर कितना हावी है, इसका अंदाजा इन दो अमेरिकियों
के कम्प्यूटरीकृत लिखित वार्तालाप यानी चैटिंग से लगाया जा सकता है।
एक-ईरान ने ओबामा का कहा नहीं माना, अब क्या होगा?
दो-हो सकता है ईरान से युद्ध छिड़ जाए!
एक-ऐसा हुआ तो पेट्रोल के दाम काफी बढ़ सकते हैं।
दो-ऐसा नहीं हुआ तो ईरान परमाणु बम बना लेगा। और अगर उसने परमाणु बम बना लिया तो वो
अमेरिका पर उसे डालेगा। अगर अमेरिका पर बम गिरा तो पेट्रोल के दाम बढ़ने से तुम्हें कोई फर्क नहीं
पड़ेगा क्योंकि मुर्दे कार नहीं चलाया करते।
जिस तरह यह तथ्य सभी जानते हैं कि सारी दुनिया के ज्ञात प्राकृतिक तेल भंडारों का 60 प्रतिषत पश्चिम
एषिया में मौजूद है; कि अकेले सउदी अरब में 20 प्रतिषत, बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर और संयुक्त अरब
अमीरात में मिलाकर 20 प्रतिषत, और इराक और ईरान में 10-10 प्रतिषत तेल भंडार हैं; कि ईरान के पास
दुनिया की प्राकृतिक गैस का दूसरा सबसे बड़ा भंडार है; उसी तरह लगभग सारी दुनिया में अमेरिका के
कारनामों से परिचित लोग इसे एक तथ्य की तरह स्वीकारते हैं कि अमेरिका की दिलचस्पी न लोकतंत्र में

-विनीत तिवारी, 2, चिनार अपार्टमेंट, 172, श्रीनगर एक्सटेंषन,इन्दौर-452018. मोबाइल-09893192740

16.2.10

देश में नफरत की बात करने वालों के लिए सबक

एक बार फिर देश में अमनपसन्द नागरिकों ने फसाद फैलाने वालों को करारी शिकस्त दे दी और घृणा की राजनीति करने वालों को मुहब्बत का पैगाम देने के इरादे से बनाई गई शाहरूख खान की फिल्म ‘‘माई नेम इंज खान’’ के हक में अपार समर्थन देकर जनता ने करारा जवाब दे दिया है।
देश में भाषा, क्षेत्रवाद व धर्म के नाम पर अलगाववाद का विष घोलने वाले लोगों के लिए यह अवश्य सबक ही कहा जायेगा। पहले देश के अमन पसन्द नागरिक ऐसी शक्तियों के विरूद्ध खुलकर आने से परहेज करते थे इसी कारण मुट्ठीभर उपद्रवियों की बुज़दिलाना हरकतों को बल मिलता था और बेकुसूरों पर जुल्म होता था। सामाजिक प्रदूषण फैलता था परन्तु अब यह अच्छा संकेत माना जाना चाहिए कि अमन पसन्द लोग आतंक फैलाने वालों व देश को बांटने का काम करने वालों के विरूद्ध मोर्चा संभालने निकल रहे हैं।
इसमें मीडिया की भी भूमिका महत्वपूर्ण है। जिस प्रकार मीडिया ने इस बार साथ मिलकर शिवसेना व महाराष्ट्र निर्माण सेना के विरूद्ध मोर्चाबन्दी की है वैसे ही यदि धार्मिक द्वेष फैलाने वालों के विरूद्ध भी मीडिया करती तो शायद बाबरी मस्जिद विध्वंस काण्ड के दोषियों को कोई महत्व ना मिलता और वह हीरो से जीरो बन जाते और ना ही 1993 में मुम्बई या वर्ष 2002 में गुजरात सम्प्रदायिक्ता की आग में इतने दिन जलता।
आज भी मीडिया और विशेष तौर पर हिन्दी व क्षेत्रीय भाषाओं का मीडिया एक धर्म व उसके अनुयाइयों के विरूद्ध दुष्प्रचार का छोटा सा बहाना कैश करना नहीं भूलता। साध्वी प्रज्ञा सिंह लेफ्टिनेन्ट कर्नल पुरोहित, दयानन्द पाण्डेय, समीर कुलकर्णी एवं पूर्व मेजर रमेश उपाध्याय की गतिविधियों पर मीडिया चुप्पी साधते दिखाई देता है और अफजल गुरू, आफताब अंसारी और अब शहजाद इत्यादि की आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त होने वाले पुलिसिया आरोपों की चर्चाएं प्रतिदिन इलेक्ट्रानिक चैनलों समाचार पत्रों के पन्नों पर होती हैं। मीडिया का यह दोहरा स्वरूप हिन्दुत्ववादी शक्तियों को अप्र्रत्याशित रूप से उत्साहवर्धन करता है।
इसी प्रकार दिल्ली की जामा मस्जिद के ईमाम अहमद बुखारी के एक बयान जो उन्होंने सरकारों को दहशतगर्द कहते हुए आजमगढ़ में दिया था पर मुकदमा चलाने की बात की जाती है तो वहीं बाल ठाकरे, प्रवीण तोगड़िया व अशोक सिंघल के देश की एकता को विखण्डित करते और संविधान की धज्जियाँ उड़ाते बयानों के विरूद्ध कानूनी कार्यवाही पर बगले झांकी जाती है।
यदि समाज के चारों स्तम्भ समाज हित, लोकहित व देश हित में काम करें और संकीर्ण विचार धारा के प्रदूषण में लिप्त होकर देश में आम जनमानस को बहकाने का काम न करें तो गिनती के भी समर्थक ऐसी घृणा की राजनीति करने वालों को मिलना मुश्किल हो जायेंगे।
-तारिक खान

15.2.10

लब डूबा हुआ साग़र में है

कुछ दिन पहले एक दैनिक अखबार में अलग-अलग पृष्ठों पर शराब के सम्बन्ध में तीन खबरे छापी गई पहली यह कि शराबी पिता की हरकतों से तंग बेटे ने उसे खुरपी से काट डाला, पिता की लड़के की पत्नी पर गंदी नजर थी वह रोज गांव व घर में झगड़ा करता था तथा जवान पुत्रियों को गाली देता था। दूसरी यह कि एक बैंक के सहायक प्रबन्धंक की बारात समस्तीपुर जिले में गई थी, प्रबन्धक जी नशे में धुत थे अतः दुल्हन ने शादी से इनकार कर दिया और बारात बैरंग वापस हो गई, अब तीसरी खबर विचारणीय है कि शराब पर सरकारी नीति को लेकर एक याचिका की सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ के न्यायमूर्ति देवी प्रसाद सिंह ने पूछा कि क्या गाँधी जी के देश में सरकार द्वारा लोगों को शराब पीने के लिये मजबूर करने का हक है, क्योंकि आबकारी अधिनियम में ठेकेदारों पर यह बाध्यता है कि कम शराब उठाने पर वे अधिक टैक्स दें।
प्रबुद्ध वर्ग जानता है कि शराब उठाने के लक्ष्य निर्धारित होते हैं, दुकानों की संख्या भी बढ़ाई जाती है और मार्च के महीने में दुकानों की नीलामी की बोलियाँ लगवाकर टैक्स में बढ़ोत्तरी के प्रयास किये जाते हैं, यह विरोधाभास भी देखिये कि सरकार शराबियों को अपने मद्य निषेध विभाग के द्वारा यह बताने में लगी रहती है कि शराब स्वास्थ्य और समाज के लिये हानिकारक है। सूचना के अधिकार के द्वारा यह सरकारी आंकड़े प्राप्त किये जा सकते हैं कि एक निर्धारित अवधि में आबकारी विभाग ने कितने शराबी बढ़ायें और मद्यनिषेध विभाग ने कितने घटाये? और यह भी कि क्या मद्य निषेध वालों को कभी प्रतिकूल इन्ट्री दी गई?
वाइज़ो साक़ी में ज़िद है, बादहकश चक्कर में है।
लब पे तौबा और लब डूबा हुआ साग़र में है।

-डॉक्टर एस0एम0 हैदर
-फ़ोन-05248-220866

14.2.10

एक और आतंकी घटना और फिर मुसलमान आतंकी

एक और आतंकी घटना और पिछली घटनाओं की भांति संदेह के घेरे में सर्वप्रथम मुसलमान। नाम मोहसिन चैधरी। मात्र एक घण्टे के अन्दर ए0टी0एस0 मुम्बई ने आतंकी घटना के मोहरे को ढूँढ़ निकाला, जबकि घटना आर0एस0एस0 के गढ़ में हुई, जहाँ मालेगाँव व अन्य विस्फोटों के आरोपी कर्नल पुरोहित ने अभिनव भारत नाम के संगठन का गठन किया था, और जहाँ आचार्य रजनीश का ओशो आश्रम व अन्र्तराष्ट्रीय स्तर पर आतंक के जन्मदाता यहूदी समुदाय का भी प्रार्थना स्थल ‘खबाद’ मौजूद है। अमरीकी खुफिया संगठन सी0आई0ए0 व बाद में आई0एस0आई0 पाकिस्तान से जुड़ा रहा जासूस डेविड कोलीन हेडली का भी इन्हीं स्थानों पर बराबर आना जाना रहा।
पूणे के जर्मन बेकरी रेस्टोरेन्ट में शनिवार की शाम लगभग 7.30 बजे एक धमाका हुआ। पहले पुलिस की ओर से यह समाचार आया कि यह बेकरी के किचन में फटे गैस सिलण्डर के कारण हुआ है, परन्तु बाद में वहाँ पहुँची ए0टी0एस0 व बम निरोधक दस्ते ने जानकारी दी कि एक पीठ पर टाँगने वाले बैग में रखी गई विस्फोटक सामग्री ने इस घटना को अंजाम दिया है, और यह एक आतंकी घटना है। इस घटना में प्रारम्भिक तौर पर जो समाचार प्राप्त हुए हैं, उसके मुताबिक लगभग एक दर्जन व्यक्ति हलाक हो गये और 40 व्यक्ति जख्मी हुए। मरने वालों में एक विदेशी नागरिक भी है जिसकी नागरिकता और उसकी खुद की शिनाख्त होनी अभी बाकी है।
गौरतलब बात यह है कि यह घटना तब घटी जब पूरे महाराष्ट्र में सम्प्रादायिक्ता व अलगाववाद की बात करने वाले संगठनों की थू-थू हो रही थी, और ‘‘माई नेम इज खान’’ के हीरो शाहरूख खान की जय जयकार। यानि धर्म निरपेक्ष ताकतों की फतह और सम्प्रदायिक शक्तियों की शिकस्त। यह घटना पाकिस्तान से होने वाली हमारे देश की वार्ता से मात्र 12 दिन पूर्व हुई है जब पाकिस्तान से वार्ता करने का विरोध हिन्दुवादी संगठन कर रहे थे। वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान अपने एजेण्डे यानि कश्मीर के मुद्दे को भी वार्ता में शामिल करने की बात पर अड़ा हुआ था। उसे आतंकवाद के मुद्दे को भी बातचीत में शामिल करने पर एतराज था। यह घटना उस समय घटी है, जब भले ही राजनीतिक आवश्यकता के कारण ही सही, बाटला हाउस एनकाउण्टर पर कांग्रेस की ओर से ही अंगुलियाँ उठने लगी थीं, और जामा मस्जिद दिल्ली के पेश ईमाम अहमद बुखारी भी एक बयान के साथ बयानबाजी के मैदान में कूद पड़े थे।
घटना के मात्र एक घण्टे उपरान्त ही देश की सुरक्षा व खुफिया एजेन्सियों ने घटना के सूत्रधार व उसके संगठन को ढूंढ़ निकाला। इण्डियन मुजाहिदीन व लश्करे तोएबा नाम के आतंकी संगठनों का नाम सामने आया साथ में मोहसिन चैधरी नाम के एक कथित आतंकवादी का फोटो राष्ट्रीय चैनलों पर उभर कर सामने आ गया उसके शेष साथियों की तलाश, और आजमगढ़ से पकड़े गये तथाकथित आतंकवादी शहजाद से उसके तार जोड़ने की कवायद प्रारम्भ हो गई।
घटनास्थल के पास विश्व प्रसिद्ध ओशो आश्रम है जहाँ विदेशी सैलानियों का सिलसिला कायम रहता है फिर यहूदियों का प्रार्थना स्थल खबाद भी यहाँ से चन्द कदम की दूरी पर है। इसके अतिरिक्त सूर्या होटल भी यहीं है, जहाँ अमरीकी-पाकिस्तानी जासूस डेविड हेडली आकर रुकता था। बावजूद इसके शक के दायरे में किसी विदेशी का नाम पहले ए0टी0एस0 की जुबान पर नही आया। स्मरण रहे कि 26/11 की मुम्बई घटना स्थल के पास भी यहूदियों की काॅलोनी नारीमन हाउस थी और यहाँ भी खबाद के रूप में यहूदियों की उपस्थिति।
महाराष्ट्र प्रान्त का यह नगर
पुणे स्वतंत्रता संग्राम से भी पहले से हिन्दूवादी संगठनों का मुख्यालय रहा है और मालेगाँव बम काण्ड के जनक लेफ्टीनेन्ट कर्नल पुरोहित का अपने संगठन अभिनव भारत के कारसेवकों की ‘‘तरबियतगाह’’ भी इसी नगर में रही है। इनमें से किसी का नाम पहले जुबान पर नहीं आया मुसलमान का नाम पहले आया। शायद इस कारण कि राम मंदिर आन्दोलन के नायक भाजपा के वरिष्ठ लीडर लालकृष्ण आडवाणी के शब्दों में Every muslim is not terrorist but, the terrorist who is being caught is aways Muslim .
-मो0तारिक खान

13.2.10

"ब्रेकिंग न्यूज़"




  • पुणे में आतंकी हमला
  • धमाके में दस की मौत।
  • करीब चालीस ज़ख़मी।
  • पुणे की जर्मन बेकरी में हुआ धमाका।
  • बेकरी के पास एक लावारिस बैग मिला।
  • दिल को दहला देनेवाली रोंगटे ख़डे कर देनेवाली ऐसी बडी ख़बर,,,! हमारे जीवन के साथ-साथ हमारे आस-पास के जीवों को भी हिला कर रख देती है।
  • यहाँ आतंकवाद के सामने एक ज़ुट होकर मुकाबला करने की ज़रूरत है ।
    आपस में उंच-नीच, धर्म-मज़हब,या फ़िर...
    नस्लवाद या राज्यवाद और "वेलेंटाईन डे" के विरोध में फ़िर अपने आप को "महान" बताने की दौड में...

    ...... कहीं हम सब ये तो नहिं भूल गये हैं कि हमारे देश को ज़रुरत है सौहार्द-एकता-अखंडता की।


    विधि व्यवस्था में अधिवक्ता की भूमिका खत्म कर दो

    भारतीय विधि व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को न्याय पाने का अधिकार है और अपने मन पसंद अधिवक्ता से अपने वाद में अपना पक्ष प्रस्तुत करने का भी अधिकार। आए दिन अधिवक्ताओं के ऊपर हमले नियोजित तरीके से हो रहे हैं और उनसे कहा जा रहा है अमुक मुकदमा करो और अमुक मुकदमा न करो। देश भर में आतंकवाद से सम्बंधित मुकदमों का विचारण हो रहा है भारतीय विधि व्यवस्था में उन वादों का विचारण तभी संभव है जब उनकी तरफ से कोई अधिवक्ता उनका पक्ष प्रस्तुत करे अन्यथा अधिवक्ता न मिलने की दशा में वाद का विचारण संभव नहीं है तब एक ही रास्ता होता है कि न्यायलय उस अभियुक्त की इच्छा अनुरूप अधिवक्ता नियुक्त करे और उसका भी खर्चा न्याय विभाग उठता है। विधि के सिधांत के अनुसार फौजदारी वादों में अधिवक्ता की भूमिका न्यायलय की मदद करने के लिए अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत गवाहों से जिरह (cross examination ) करना होता है जिरह में न्यायलय के सामने गवाह से तमाम सारे वाद से सम्बंधित सवाल अधिवक्ता पूंछता है जिनके उत्तर के आधार पर यह साबित होता है कि गवाह झूंठ बोल रहा है या सच। फौजदारी कानून में अभियोजन पक्ष के गवाह जो मौके पर नहीं होते हैं और वाद में उनको फर्जी तरीके से गवाह बनाया जाता है जो घटना के समय नहीं होते हैं और झूंठ बोल रहे होते हैं जिस कारण वाद में अभियुक्त सजा पाने से बच जाता है मुख्य बात यह है कि अब पुलिस नियोजित तरीके से लोगों की भावनाओ को भड़का कर बचाव पक्ष के अधिवक्ताओं के ऊपर हमले करा रही है । विशेष मामलों में बचाव पक्ष के अधिवक्ताओं की सुरक्षा की नैतिक व विधिक जिम्मेदारी राज्य की है जिसमें राज्य इन जिम्मेदारियों में असफल हो रहे हैं जिसका नतीजा संदिग्ध आतंकी फहीम अंसारी के अधिवक्ता शाहिद आजमी की मुंबई में उनके ऑफिस में गोली मार के हत्या है इसके पूर्व मुंबई लखनऊ फैजाबाद समेत काफी जगहों पर अधिवक्ताओं के ऊपर जान लेवा हमले हो चुके हैं राज्य द्वारा आज की तिथि में उनकी सुरक्षा का कोई उपाय नहीं किया गया है यदि राज्य अधिवक्ताओं को सुरक्षा नहीं दे सकता है तो अच्छा होगा की विधि व्यवस्था मेंअधिवक्ताओं की भूमिका ही समाप्त कर दे ।
    -सुमन