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15.2.10

लब डूबा हुआ साग़र में है

कुछ दिन पहले एक दैनिक अखबार में अलग-अलग पृष्ठों पर शराब के सम्बन्ध में तीन खबरे छापी गई पहली यह कि शराबी पिता की हरकतों से तंग बेटे ने उसे खुरपी से काट डाला, पिता की लड़के की पत्नी पर गंदी नजर थी वह रोज गांव व घर में झगड़ा करता था तथा जवान पुत्रियों को गाली देता था। दूसरी यह कि एक बैंक के सहायक प्रबन्धंक की बारात समस्तीपुर जिले में गई थी, प्रबन्धक जी नशे में धुत थे अतः दुल्हन ने शादी से इनकार कर दिया और बारात बैरंग वापस हो गई, अब तीसरी खबर विचारणीय है कि शराब पर सरकारी नीति को लेकर एक याचिका की सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ के न्यायमूर्ति देवी प्रसाद सिंह ने पूछा कि क्या गाँधी जी के देश में सरकार द्वारा लोगों को शराब पीने के लिये मजबूर करने का हक है, क्योंकि आबकारी अधिनियम में ठेकेदारों पर यह बाध्यता है कि कम शराब उठाने पर वे अधिक टैक्स दें।
प्रबुद्ध वर्ग जानता है कि शराब उठाने के लक्ष्य निर्धारित होते हैं, दुकानों की संख्या भी बढ़ाई जाती है और मार्च के महीने में दुकानों की नीलामी की बोलियाँ लगवाकर टैक्स में बढ़ोत्तरी के प्रयास किये जाते हैं, यह विरोधाभास भी देखिये कि सरकार शराबियों को अपने मद्य निषेध विभाग के द्वारा यह बताने में लगी रहती है कि शराब स्वास्थ्य और समाज के लिये हानिकारक है। सूचना के अधिकार के द्वारा यह सरकारी आंकड़े प्राप्त किये जा सकते हैं कि एक निर्धारित अवधि में आबकारी विभाग ने कितने शराबी बढ़ायें और मद्यनिषेध विभाग ने कितने घटाये? और यह भी कि क्या मद्य निषेध वालों को कभी प्रतिकूल इन्ट्री दी गई?
वाइज़ो साक़ी में ज़िद है, बादहकश चक्कर में है।
लब पे तौबा और लब डूबा हुआ साग़र में है।

-डॉक्टर एस0एम0 हैदर
-फ़ोन-05248-220866

14.2.10

एक और आतंकी घटना और फिर मुसलमान आतंकी

एक और आतंकी घटना और पिछली घटनाओं की भांति संदेह के घेरे में सर्वप्रथम मुसलमान। नाम मोहसिन चैधरी। मात्र एक घण्टे के अन्दर ए0टी0एस0 मुम्बई ने आतंकी घटना के मोहरे को ढूँढ़ निकाला, जबकि घटना आर0एस0एस0 के गढ़ में हुई, जहाँ मालेगाँव व अन्य विस्फोटों के आरोपी कर्नल पुरोहित ने अभिनव भारत नाम के संगठन का गठन किया था, और जहाँ आचार्य रजनीश का ओशो आश्रम व अन्र्तराष्ट्रीय स्तर पर आतंक के जन्मदाता यहूदी समुदाय का भी प्रार्थना स्थल ‘खबाद’ मौजूद है। अमरीकी खुफिया संगठन सी0आई0ए0 व बाद में आई0एस0आई0 पाकिस्तान से जुड़ा रहा जासूस डेविड कोलीन हेडली का भी इन्हीं स्थानों पर बराबर आना जाना रहा।
पूणे के जर्मन बेकरी रेस्टोरेन्ट में शनिवार की शाम लगभग 7.30 बजे एक धमाका हुआ। पहले पुलिस की ओर से यह समाचार आया कि यह बेकरी के किचन में फटे गैस सिलण्डर के कारण हुआ है, परन्तु बाद में वहाँ पहुँची ए0टी0एस0 व बम निरोधक दस्ते ने जानकारी दी कि एक पीठ पर टाँगने वाले बैग में रखी गई विस्फोटक सामग्री ने इस घटना को अंजाम दिया है, और यह एक आतंकी घटना है। इस घटना में प्रारम्भिक तौर पर जो समाचार प्राप्त हुए हैं, उसके मुताबिक लगभग एक दर्जन व्यक्ति हलाक हो गये और 40 व्यक्ति जख्मी हुए। मरने वालों में एक विदेशी नागरिक भी है जिसकी नागरिकता और उसकी खुद की शिनाख्त होनी अभी बाकी है।
गौरतलब बात यह है कि यह घटना तब घटी जब पूरे महाराष्ट्र में सम्प्रादायिक्ता व अलगाववाद की बात करने वाले संगठनों की थू-थू हो रही थी, और ‘‘माई नेम इज खान’’ के हीरो शाहरूख खान की जय जयकार। यानि धर्म निरपेक्ष ताकतों की फतह और सम्प्रदायिक शक्तियों की शिकस्त। यह घटना पाकिस्तान से होने वाली हमारे देश की वार्ता से मात्र 12 दिन पूर्व हुई है जब पाकिस्तान से वार्ता करने का विरोध हिन्दुवादी संगठन कर रहे थे। वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान अपने एजेण्डे यानि कश्मीर के मुद्दे को भी वार्ता में शामिल करने की बात पर अड़ा हुआ था। उसे आतंकवाद के मुद्दे को भी बातचीत में शामिल करने पर एतराज था। यह घटना उस समय घटी है, जब भले ही राजनीतिक आवश्यकता के कारण ही सही, बाटला हाउस एनकाउण्टर पर कांग्रेस की ओर से ही अंगुलियाँ उठने लगी थीं, और जामा मस्जिद दिल्ली के पेश ईमाम अहमद बुखारी भी एक बयान के साथ बयानबाजी के मैदान में कूद पड़े थे।
घटना के मात्र एक घण्टे उपरान्त ही देश की सुरक्षा व खुफिया एजेन्सियों ने घटना के सूत्रधार व उसके संगठन को ढूंढ़ निकाला। इण्डियन मुजाहिदीन व लश्करे तोएबा नाम के आतंकी संगठनों का नाम सामने आया साथ में मोहसिन चैधरी नाम के एक कथित आतंकवादी का फोटो राष्ट्रीय चैनलों पर उभर कर सामने आ गया उसके शेष साथियों की तलाश, और आजमगढ़ से पकड़े गये तथाकथित आतंकवादी शहजाद से उसके तार जोड़ने की कवायद प्रारम्भ हो गई।
घटनास्थल के पास विश्व प्रसिद्ध ओशो आश्रम है जहाँ विदेशी सैलानियों का सिलसिला कायम रहता है फिर यहूदियों का प्रार्थना स्थल खबाद भी यहाँ से चन्द कदम की दूरी पर है। इसके अतिरिक्त सूर्या होटल भी यहीं है, जहाँ अमरीकी-पाकिस्तानी जासूस डेविड हेडली आकर रुकता था। बावजूद इसके शक के दायरे में किसी विदेशी का नाम पहले ए0टी0एस0 की जुबान पर नही आया। स्मरण रहे कि 26/11 की मुम्बई घटना स्थल के पास भी यहूदियों की काॅलोनी नारीमन हाउस थी और यहाँ भी खबाद के रूप में यहूदियों की उपस्थिति।
महाराष्ट्र प्रान्त का यह नगर
पुणे स्वतंत्रता संग्राम से भी पहले से हिन्दूवादी संगठनों का मुख्यालय रहा है और मालेगाँव बम काण्ड के जनक लेफ्टीनेन्ट कर्नल पुरोहित का अपने संगठन अभिनव भारत के कारसेवकों की ‘‘तरबियतगाह’’ भी इसी नगर में रही है। इनमें से किसी का नाम पहले जुबान पर नहीं आया मुसलमान का नाम पहले आया। शायद इस कारण कि राम मंदिर आन्दोलन के नायक भाजपा के वरिष्ठ लीडर लालकृष्ण आडवाणी के शब्दों में Every muslim is not terrorist but, the terrorist who is being caught is aways Muslim .
-मो0तारिक खान

13.2.10

"ब्रेकिंग न्यूज़"




  • पुणे में आतंकी हमला
  • धमाके में दस की मौत।
  • करीब चालीस ज़ख़मी।
  • पुणे की जर्मन बेकरी में हुआ धमाका।
  • बेकरी के पास एक लावारिस बैग मिला।
  • दिल को दहला देनेवाली रोंगटे ख़डे कर देनेवाली ऐसी बडी ख़बर,,,! हमारे जीवन के साथ-साथ हमारे आस-पास के जीवों को भी हिला कर रख देती है।
  • यहाँ आतंकवाद के सामने एक ज़ुट होकर मुकाबला करने की ज़रूरत है ।
    आपस में उंच-नीच, धर्म-मज़हब,या फ़िर...
    नस्लवाद या राज्यवाद और "वेलेंटाईन डे" के विरोध में फ़िर अपने आप को "महान" बताने की दौड में...

    ...... कहीं हम सब ये तो नहिं भूल गये हैं कि हमारे देश को ज़रुरत है सौहार्द-एकता-अखंडता की।


    विधि व्यवस्था में अधिवक्ता की भूमिका खत्म कर दो

    भारतीय विधि व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को न्याय पाने का अधिकार है और अपने मन पसंद अधिवक्ता से अपने वाद में अपना पक्ष प्रस्तुत करने का भी अधिकार। आए दिन अधिवक्ताओं के ऊपर हमले नियोजित तरीके से हो रहे हैं और उनसे कहा जा रहा है अमुक मुकदमा करो और अमुक मुकदमा न करो। देश भर में आतंकवाद से सम्बंधित मुकदमों का विचारण हो रहा है भारतीय विधि व्यवस्था में उन वादों का विचारण तभी संभव है जब उनकी तरफ से कोई अधिवक्ता उनका पक्ष प्रस्तुत करे अन्यथा अधिवक्ता न मिलने की दशा में वाद का विचारण संभव नहीं है तब एक ही रास्ता होता है कि न्यायलय उस अभियुक्त की इच्छा अनुरूप अधिवक्ता नियुक्त करे और उसका भी खर्चा न्याय विभाग उठता है। विधि के सिधांत के अनुसार फौजदारी वादों में अधिवक्ता की भूमिका न्यायलय की मदद करने के लिए अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत गवाहों से जिरह (cross examination ) करना होता है जिरह में न्यायलय के सामने गवाह से तमाम सारे वाद से सम्बंधित सवाल अधिवक्ता पूंछता है जिनके उत्तर के आधार पर यह साबित होता है कि गवाह झूंठ बोल रहा है या सच। फौजदारी कानून में अभियोजन पक्ष के गवाह जो मौके पर नहीं होते हैं और वाद में उनको फर्जी तरीके से गवाह बनाया जाता है जो घटना के समय नहीं होते हैं और झूंठ बोल रहे होते हैं जिस कारण वाद में अभियुक्त सजा पाने से बच जाता है मुख्य बात यह है कि अब पुलिस नियोजित तरीके से लोगों की भावनाओ को भड़का कर बचाव पक्ष के अधिवक्ताओं के ऊपर हमले करा रही है । विशेष मामलों में बचाव पक्ष के अधिवक्ताओं की सुरक्षा की नैतिक व विधिक जिम्मेदारी राज्य की है जिसमें राज्य इन जिम्मेदारियों में असफल हो रहे हैं जिसका नतीजा संदिग्ध आतंकी फहीम अंसारी के अधिवक्ता शाहिद आजमी की मुंबई में उनके ऑफिस में गोली मार के हत्या है इसके पूर्व मुंबई लखनऊ फैजाबाद समेत काफी जगहों पर अधिवक्ताओं के ऊपर जान लेवा हमले हो चुके हैं राज्य द्वारा आज की तिथि में उनकी सुरक्षा का कोई उपाय नहीं किया गया है यदि राज्य अधिवक्ताओं को सुरक्षा नहीं दे सकता है तो अच्छा होगा की विधि व्यवस्था मेंअधिवक्ताओं की भूमिका ही समाप्त कर दे ।
    -सुमन

    12.2.10

    खाद्य सुरक्षा, किसान और गणतंत्र

    पिछले दो वर्षों से अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय मंचों पर खाद्य सुरक्षा का मुद्दा गरमाया हुआ है। दुनिया के तमाम बुद्धिजीवी से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक दुनिया की बढ़ती हुई आबादी और खाद्य संकट पर गहरी चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं। आंकड़ों का जमघट लगा हुआ हैं। विकासशील देश हों या विकसित देश, संयुक्त राष्ट्र संघ हो या यूरोपियन यूनियन, सबकी चिंता है खाद्य संकट। इस बात की गहरी और सही चिंता व्यक्त की जा रही है कि आने वाले दिनों में विकसित देश अपनी राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के लिए खाद्य पदार्थों को दुनिया भर में हथियार की तरह प्रयोग न करने लग जायें। हमारा गणतंत्र 60 वर्ष का हो रहा है। हमारा संविधान मानवीय मूल्यों की गारंटी देता है और भारत के प्रत्येक नागरिक को आत्मसम्मान के साथ जीने का अधिकार भी प्रदान करता है। नागरिक के आत्मसम्मान और जीने का अधिकार को दिलाने की गारंटी संघ और राज्य की सरकार पर समान रूप से है। घनघोर दारिद्र की स्थिति में, खाद्यान्न की उत्पादन और उत्पादकता की गिरावट की दौर में संविधान में दिये गये जीने के अधिकार और आत्मसम्मान की हिफाजत कैसे की जाये यह मूल बिन्दु है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत के ग्रामीण क्षेत्र में 27 प्रतिशत तथा शहरी इलाके में लगभग 23.8 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के नीचे जी रहे हैं। हालांकि ये आंकड़े वास्तविकता से कम है। अगर सरकारी आंकड़ों को ही सही माना जाये तो 26 करोड़ लोगों को दो वक्त की रोटी तो दूर एक वक्त के लिए भोजन का जुगाड़ सुनिश्चित करना-कराना आसान काम नहीं है। भारत गांवों का देश है। 72 फीसदी आबादी गांव में ही रहती है। भारत के 80 प्रतिशत से ज्यादा किसान लघु तथा सीमांत किसान हैं। इन लघु और सीमांत किसानों के पास जहां वर्ष 1970-71 में 33.37 मिलियन हैक्टेयर कृषि भूमि थी वहीं 2000-01 में यह घटकर 21.12 मिलियन हैक्टेयर रह गई है। आर्थिक आसमानता, गरीबी, मूल्यवृद्धि, उपभोक्तावाद, बाजारवादी संस्कृति, निम्न मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय मानसिकताओं सहित चतुर्थिक आर्थिक संकट ने ग्रामीण संयुक्त परिवार तोड़ डाले। कृषि जोत के सिकुड़ते आकार में कृषि तकनीक के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ उत्पादकता बढ़ाने के अवसरों के सामने कठिनाइयां पैदा कीं, जो स्वभाविक है। छोटी जोतों के कारण किसान न तो वो अधिक पंूजीनिवेश वाली प्रौद्योगिकी को अपनाने को तैयार होते हैं और न ही फसल-बाद प्रबंधन के लिए अधिक लागत लगा सकते हैं। इन किसानों को उन्नत खेती और पूंजी निवेश के लिए सरकार द्वारा अस्सी फीसदी सहायता और संरक्षण दिये जाने की जरूरत है। तभी ये किसान अपनी पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर खाद्य सुरक्षा सुरक्षित करने में योगदान दे सकेंगे। सरकार के सहायता से ही गांव से शहरों की ओर 9 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रहा पलायन भी रोका जा सकता है।
    विश्व भर में खाद्य संकट पर गहरी चिन्ता के साथ विचार-विमर्श हो रहा है। उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने के लिए नये उपाय सुझाये जा रहे हैं। वहीं ऊर्जा स्रोत के विकल्प के रूप में ऐथनाॅल के उत्पादन के लिए कृषि उत्पादों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अमरीका में वर्ष 2006 में 20 प्रतिशत मक्के का इस्तेमाल एथिनाॅल बनाने के लिए किया गया। 2007-08 में अमरीका में 80 मिलि. टन मक्के का उपयोग ऐथनाॅल उत्पादन में किया। यूरोपियन यूनियन के देशों ने 68 प्रतिशत वनस्पति तेलों का तथा ब्राजील ने 50 प्रतिशत गन्ने की उपज का इस्तेमाल जैव-ईंधन बनाने में प्रयोग किया। क्या यह सब विश्व की खाद्य सुरक्षा को संकट नहीं पहुंचा रहे हैं?विश्व में अनाज के स्टाक घट रहे हैं।
    1950-51 में देश के सकल फसल क्षेत्र केवल 132 मिलि. हेक्टेयर था वह आज बढ़कर लगभग 188 मिलि. हेक्टेयर हो गया है। इसी अवधि में कुल फसल क्षेत्र 119 मिलि. हेक्टेयर से बढ़कर 141 मिलि. हेक्टेयर हो गया। भूभाग की नजर से अभी भी भारत में फसल क्षेत्र तथा सिंचित क्षेत्र बढ़ाये जाने की अपार संभावनाएं हैं। देश में लगभग 13.8 मिलि. हेक्टेयर कृषि योग्य परती भूमि तथा 7.61 मिलि. हेक्टेयर भूमि उसर भूमि है। इन क्षेत्रों को विशेष प्रयास कर फसलों के लिए तैयार किया जा सकता है और भूमिहीन खेत मजदूरों और गरीब किसानों में वितरित करने की आवश्यकता है।
    देश का एक बड़ा हिस्सा असिंचित फसल क्षेत्र के रूप में मौजूद है। 10 पंचवर्षीय योजनाओं के बाद भी इस विशाल भूभाग को सिंचित या अर्धसिंचित नहीं बना पाये। कुल मिलाकर केवल 48.5 मिलि. हेक्टेयर क्षेत्र में 1 से ज्यादा बार फसल बोयी जाती है। योजना दर योजना बेहतर जलप्रबंधन, जलसंरक्षण तथा किसानों को सिंचाई की सुविधा दिये जाने का कार्यक्रम तो बना परन्तु सिंचाई के विस्तार के लिए योजनाओं में धनराशि का आवंटन बहुत नगण्य रहा। आजाद हिन्दुस्तान में लगभग 2000 के आसपास सिंचाई परियेाजनाएं जो केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा शुरू की गयीं आज भी बीच अधर में छोड़ दी गई हैं। हजारों करोड़ सरकारी रूपया बर्बाद हो गया। लघु, सीमांत, गरीब किसान प्राकृतिक वर्षा पर आधारित होकर अपनी खेती करते हैं।
    भारत में आजादी के बाद देश में 1950-51 में कुल खाद्यान्न कृषि का क्षेत्रफल 97.32 मिलि. हेक्टेयर था जो 2006-07 में बढ़कर 123.47 मिलि. हेक्टेयर हो गया। इस अवधि में जहां गेहूं का कृषि क्षेत्र में 9.95 मिलि. हेक्टेयर से बढ़कर 28.04 मिलि. हेक्टेयर हो गया और चावल का कृषि-क्षेत्र 30.81 मिलि. हेक्टेयर से बढ़कर 43.42 मिलि. हेक्टेयर हो गया। आजादी के बाद प्रति हेक्टेयर कृषि उत्पादन तो बढ़ा है परन्तु यह आज भी दुनिया के कई देशों से भारत की विभिन्न फसलों की उत्पादकता की तुलना की जाये तो भारत काफी पीछे नजर आता है। धान के मामल में चीन और अमरीका की उत्पादकता हमसे दोगुना से भी अधिक है। मिस्र और आस्ट्रेलिया की भारत से तीन गुना अधिक है। गेहूं के मामले में भी मिस्र और फ्रांस और जर्मनी की उत्पादकता भारत से दोगुना से अधिक है। जापान और चीन भी गेहूं के मामले में हमसे बहुत आगे हैं। मक्के की उत्पादकता मिस्र, फ्रांस और जर्मनी में भारत से तीन गुना ज्यादा तथा अमरीका में चार गुना से अधिक है। दलहनों की उत्पादकता के मामलों में भी भारत काफी पीछे है। अमरीका और चीन में दलहनों की उत्पादकता भारत से तीन गुना अधिक है। मिस्र और जर्मनी हमसे पांच गुना अधिक पैदा करते हैं और फ्रांस में उत्पादन भारत की तुलना में प्रति हेक्टेयर सात गुना ज्यादा है।
    नेशनल सेम्पल सर्वे के 55वें दौर के सर्वे के अनुसार वर्ष 2011-12 में देश में 102.93 मिलियन टन चावल, 74.84 मिलियन टन गेहूं, 16.99 मिलियन टन दाल तथा कुल 212.89 मिलियन टन खाद्यान्न की आवश्यकता होगी। देश में वर्तमान में दालों और तिलहन की काफी कमी है और हर वर्ष लगभग 5 मिलियन टन खाद्य तेल देश में विदेशों से आयात होता है।
    नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन द्वारा वर्ष 1990, 2000 तथा 2004-05 में किये गये 55वें तथा 61वें राउंड के सर्वे के आंकड़ों पर तुलनात्मक दृष्टि डाली जाये तो पता चलता है कि भारत में ग्रामीण तथा शहरी दोनों क्षेत्रों में खाद्यान्नों की प्रति व्यक्ति मासिक खपत घटी है। दालों की खपत अनाज की खपत से ज्यादा घटी है। अर्थात शरीर में प्रोटीन की मात्रा घटी है। भारत में आबादी का एक अच्छा-खास बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहा है और औसत प्रति व्यक्ति आय भी काफी सीमित है। ऐसी स्थिति में यदि भारत में खाद्यान्न उपलब्ध भी हो तब भी जरूरी नहीं है कि सभी लोग उसे खरीद कर उसका उपभोग कर सकें। जरूरत इस बात की है कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों को केन्द्र और राज्य सरकार सब्सिडी देकर अनिवार्य रूप से खाद्यान्न उपलब्ध कराये ताकि वह जीने के अधिकार से वंचित न होने पायें। सार्वजनिक वितरण प्रणाली प्रभावी ढंग से इस समस्या का हल हो सकती है।
    कुछ अर्थशास्त्री आंकड़े प्रदर्शित कर यह प्रदर्शित करने की कोशिश करते हैं कि खाद्यान्न उत्पादन के मामले में भारत आत्मनिर्भर हो गया है और हमारे सामने खाद्य सुरक्षा का कोई संकट नहीं है। एनडीए और यूपीए की दोनों सरकारें केन्द्र में अपने शासनकाल में खाद्य सुरक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की आत्मप्रशंसा में आकंठ डूबी रहीं। तिलहन उत्पादन के क्षेत्र में रह-रह कर कुछ प्रगति होती है और फिर रूक जाती है। सरसों का उत्पादन वर्ष 2007-08 में 2006-07 की तुलना में 74.38 मिलियन टन से घटकर 58.03 मिलि. टन रह गया। वर्ष 1980-81 के बाद से देश में चावल तथा गेहूं की उत्पादकता तथा उत्पादन दोनों की वृद्धि दर में लगातार गिरावट दर्ज की गयी है। यहां तक कि 2000-06 की अवधि में गेहूं की उत्पादकता नकारात्मक रही है। उत्पादन की वृद्धि दर लगातार घटती दिख रही है। भारत में खाद्यान्न उत्पादन की नजर से उत्तर प्रदेश सबसे आगे है। पंजाब तथा आंध्र प्रदेश दूसरे नंबर है। चावल उत्पादन में पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश क्रमशः आगे बढ़े हुए राज्य हैं। गेहूं की पैदावार में उत्तर प्रदेश, पंजाब तथा हरियाणा पहले, दूसरे और तीसरे पादान पर है। मोटे अनाजों के उत्पादन में नंबर एक पर कर्नाटक दूसरे पर महाराष्ट्र तथा तीसरे पर राजस्थान है। दलहन के उत्पादन में शीर्ष पर मध्य प्रदेश, दूसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश तथा तीसरे नंबर पर महाराष्ट्र है। राजस्थान तिलहन के उत्पादन में सबसे आगे है और फिर मध्य प्रदेश तथा गुजरात के नंबर है।
    एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2020 तक देश की आबादी बढ़कर 130 करोड़ हो जायेगी और हमारे अनाज की कुल वार्षिक आवश्यकता 342 मिलि. टन हो जायेगी। ऐसी स्थिति में यदि आज ही भारत में अनाज की फसलों की उत्पादकता में तथा उत्पादन में सुधार करने के लिए तात्कालिक और दूरगामी कदम नहीं उठाये तो हमारी मांग को देखते हुए हम काफी पिछड़ जायेंगे। देश में गंभीर खाद्य संकट पैदा हो जायेगा। यह खाद्य संकट राजनैतिक संकट का भी रूप लेगा और विकसित देश हमारी खाद्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अपने उत्पादित खाद्य पदार्थ का प्रयोग राजनैतिक हथियार के रूप में करेंगे। यह स्थिति हमारी आजादी और सम्प्रभुता दोनों पर हमला करेगी। ऐसी स्थिति में केन्द्र तथा राज्य सरकारों को कृषि उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने तथा किसानों की खेती से मोह भंग होने की स्थिति से पहले ही कृषि को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की पहल करनी होगी। हमारी योजनाओं का 60 प्रतिशत धन गांव और खेती पर बेवाक आवंटित करने की पहल करनी होगी। शहरों की विकास की सोच ने गांव की बहुत अनदेखी कर दी अब इसे सुधारना होगा। भारतीय गणतंत्र का हाशिये पर पड़ा विशाल साधारण गण गांव में ही रहता है।
    -अतुल कुमार अनजान

    11.2.10

    "बहुमत का जुल्म"

    प्रजातंत्र भी आग के समान है जो अत्यंत उपयोगी है और अत्याधिक खतरनाक भी। लोकतंत्र हो, भीडतंत्र हो, सर्वसम्मति हो, या बहुमत हो, ये सभी उस समय व्यक्ति या समाज के लिये घातक बनते हैं जब इस अस्त्र का इस्तेमाल करने वाले मन में खोट होती है या स्वार्थ भावना के अन्तर्गत फैसले किये जाते हैं। आप देखते ही है कि सुरक्षा परिषद में बेटों और आम राय के बहाने पांच स्थायी सदस्य कैसे कैसे खेल खेलते हैं तथा जनरल असेम्बली मूक दर्शक ही बनी रहती है।
    दिल्ली की संसद हो या यू0पी0 की विधायिका इनमें भी पहले भी स्वार्थवश फैसले लिये गये और अब भी यही हो रहा है जो जनता को कभी पंसद नहीं आता, लेकिन बेचारा आम आदमी कर ही क्या सकता है, मीडिया उसकी आवाज को धार देने की कोशिश करता है लेकिन कुछ ही दिन में वह आवाज भी दब जाती है।
    फरवरी सन 10 में यू0पी0 की बाते देखिये, पहली यह की वार्षिक बजट पेश किया गया, दूसरी यह कि बजट के केवल चार दिन बाद यानी आठ फरवरी को मुख्यमंत्री महोदया ने मंत्रियों, विधायकों के वेतन एवं भत्तों में लगभग 67 प्रतिशत की वृद्धि की घोषणा कर दी। मंत्री जी को प्रतिमाह 32000 से बढ़कर अब 54000 अर्थात 22000 की बढ़ोत्तरी, विधायक महोदय की प्रतिमाह बढ़ोत्तरी 20,000 होगी अब उनका लाभ 30,000 के स्थान पर 50,000 प्रतिमाह होगा, पूर्व विधायकों के भी अनेक लाभ बढ़ाये गये। मजे़ की बात यह है कि पक्ष विपक्ष के सभी विधायक प्रसन्न हुए, केवल एक विधायक श्री मुन्ना सिंह चैहान ने यह जरूर कहा कि वेतन बढ़ाने के बजाय हैण्डपम्प देना चाहिये था ताकि भीषण गर्मी में ग्रामीण जनता की पेयजल समस्या का कुछ समाधान हो जाता।
    ये शाहखर्ची जनता की गाढ़ी कमाई से उस समय हो रही है जब कि प्रदेश आर्थिक संकट से गुजर रहा है। वर्ष 2010-11 के बजट में नौ हजार करोड़ से अधिक का घाटा हो रहा है और कर्ज का बोझ दो लाख करोड़ के करीब है। आपको याद होगा कि चुनाव के समय जब नामांकन पत्र दाखिल होते हैं तब आयोग प्रत्याशियों से जो आम और सम्पत्ति के ब्योरे मांगता है उनसे यह बात पूरी तरह खुल जाती है कि ये प्रत्याशी जो बाद में विधायक बनते हैं कितने अधिक धनी होते हैं, इसके बावजूद इनका स्वार्थ देखिये कि यह जनता को दोनों हाथों से लूटते हैं एक तरफ वेतन, भत्ते, सुख सुविधा हवाई व रेल यात्राओं के कूपन तथा दूसरी तरफ विधायक निधि की लूट खसोट। स्व0 राजीव गांधी ने एक बार यह सच बात कह दी थी कि विकास के लिये नीचे तक केवल रूपये में तेरह पैसे ही पहुंचते हैं, बाकी सब बीच ही में गायब हो जाता है।
    यहां पर यह कहना असंगत न होगा कि हैण्ड टू माउथ राज्यकर्मचारियों को जब वेतन आयोग कोई जायज बढ़ोत्तरी की सिफारिश करती है तब यही सरकारें पैसे बढ़ाने में तरह-तरह के तर्क देकर आना कानी करती है और हाय तौबा मचाती है।
    अतः मंत्रियों विधायकों के वेतन भत्ते बढ़ाने के लिये कोई तंत्र होना चाहिये, इन्हें स्वयं अपने बारे में फैसला लेने से रोकने का कुछ वैधानिक उपाय तलाश करने की जरूरत है।
    यदि यह रीति-नीति बनी रही तो बहुत समय से जो एक वाक्य प्रसिद्ध है, यानी ‘‘बहुमत का जुल्म’’ Tyranny of the Matority इससे हम बच नहीं पाये थे। प्रबुद्ध वर्ग जानता है कि सुक़रात (Socretes) इसी अत्याचार का शिकार बन गया था, उर्दू शायर इक़बाल ने भी इसी प्रकार की जमहूरियत के बारे में यह कहा था-
    जम्हूरियत एक तर्जे़ हुकूमत है कि जिसमें
    बन्दों को गिना करते हैं, तौला नहीं करते।

    -डा0 एस0एम0 हैदर
    फोन: 05248-220866

    10.2.10

    महंगाई पर केन्द्र व राज्य सरकारों की तू-तू, मैं-मैं,

    मंहगाई के मुददे पर केन्द्र व राज्य सरकारों के बीच वाकयुद्व चल रहा है। एक दूसरे पर मंहगाई को नियंत्रित न करने का आरोप लगाया जा रहा है। राज्यों की गेर कांग्रेसी सरकारों केन्द्र में स्थापित मनमोहन सरकार की आर्थिक नीतियों को बढ़ती महंगाई का दोषी बतला रही है तो मनमोहन सरकार की सहयोगी एन0सी0पी0 के मुखिया व भारत सरकार के कृषि मंत्री शरद पवार की बयानबाजी आग में घी का काम कर रही है। महंगाई की चक्की में पिस केवल गरीब रहा है और उसके लिए हालात बद से बदतर होते चले जा रहे हैं।
    कहते हैं कि किसी भी काम की सफलता के पीछे उद्देश्य व नीयत का बहुत योगदान होता है महंगाई के मुद्दे पर फिलहाल ना तो नीयत केन्द्र सरकार की साफ दिखती है ना विपक्षी दलों की और ना प्रान्तों की सरकारों की। हर कोई महंगाई के मुद्दे की गेंद एक दूसरे के पाले में फेंककर राजनीतिक रोटियाँ सेंकने में जुटा है।
    देश की अर्थव्यवस्था कृषि नीति व वाणिज्य व्यापार जिसके तहत आयात एवं निर्यात आता है, पर केन्द्र सरकार का नियंत्रण होता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर भी नियंत्रण केन्द्र सरकार रखती है राज्य सरकारें केवल केन्द्र द्वारा प्रतिपादित नीतियों पर अमल दरामद करती है और निचले स्तर की प्रशासनिक व्यवस्था देखती है।
    वर्ष 1991 में जब से देश में आर्थिक सुधारों की बयार चली तो पहला प्रहार सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर किया गया। उपभोक्ताओं को दो हिस्सों में वोट दिया गया। ए0पी0एल0 एवं बी0पी0एल0 यानि अपर पावर्टी लाइन एवं बेलो पावर्टी लाइन ए0पी0एल0 श्रेणी में देश के सामान्य नागरिकों को रखा गया और उनको मिलने वाला राशन जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत उन्हें राशन दुकानदार व जिला आपूर्ति विभाग के रहमोकरम पर आधा परदा मिला करता था, वह एक के बाद एक कर के बंद कर दिया गया अब स्थिति यह है कि केवल मिट्टी का तेल मिलने के हक़दार सामान्य नागरिक रह गये हैं।
    लोगों के पास का राशन कार्ड अब केवल उनके निवास की पुष्टि या परिचय मात्र के लिये रह गया है। दूसरी ओर नागरिकों को राशन कार्ड पर अनाज, चीनी, मिट्टी का तेल इत्यादि सभी वस्तुएं दिये जाने का प्रावधान बनाया गया साथ ही अति निर्धन व्यक्तियों को इसी व्यवस्था के तहत अन्त्योदय कार्ड (गुलाबी) के माध्यम से काफी सस्ते दामों पर खाद्य पदार्थों की सप्लाई की जाती है।
    परन्तु इन तमाम व्यवस्थाओं पर पूर्ति विभाग का भ्रष्टाचार व राज्य सरकारों की बदनीयती ग्रहण लगाने का काम कर देती है। एक गलती तो केन्द्र सरकार की ओर से पेट्रोल पम्पों व गैस एजेंन्सियों की भांति राशन प्रणाली के कोटेदारों को निर्धारित कम कमीशन और फिर राज्य सरकारों की भ्रष्ट एवं लचर व्यवस्था के चलते खाद्यान्न भण्डारों एवं मिट्टी के तेल डिपों से दुकान तक पहुंचने के बीच के खर्चे व घटतौली से कम होते उनके कमीशन के कारण चोरी व काला बाजारी का धंधा परवान चढ़ता है। पूर्ति विभाग के अधिकारी इसी चोरी व कालाबाजारी का लाभ उठाकर कोटेदारों से प्रतिमाह अपनी हिस्सेदारी लेकर उन्हें बेलगाम बना डालते हैं। जिसका नतीजा यह है कि फर्जी राशन कार्डों की सौगात पूर्ति विभाग की शह पर पाकर कालाबाजारी का धंधा खूब चल निकलता है और आम नागरिकों को वह चाहे ए0पी0एल0 या अन्त्योदय कार्ड धारक राशन की दुकानों को अधिकांश समय बंद पाकर खाली हाथ निराशाजनक हालत में लौटना पड़ता है।
    चूंकि खेल बाजार में महंगाई इतनी अधिक नहीं थी तो जनता का काम बगैर राशन दुकानों के भी चल जाता था परन्तु अब कमर तोड़ महंगाई के इस दौर में लोगों को सस्ते गल्ले की सरकारी दुकानों की याद फिर सता रही है। उधर महंगाई के मुंह उठाते दानव से अपना जनाधार खिसकने की आंशका के मद्देनजर एक बार फिर केन्द्र सरकार को ससस्ते गल्ले की व्यवस्था सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुदृढ़ करने की चिंता लग गई है। यही कारण है कि वह बराबर राज्य सरकारों पर दबाव बना नही है कि वह अपने प्रान्त में सार्वजनिक वितरण प्रणाली व्यवस्था को चुस्त दुरूस्त करें।
    उधर गरीबों के मुंह से निवाला छीनकर ऐश करने वाले अधिकारियों, गल्ला माफियाओं व कोटेदारों को यह गवारा नही है इतने दिनों से वह इस धंधे पर ठाड जमा कर बैठे थे इतनी आसानी से कहां हराम छूटने वाली। राज्य सरकारों व उनके प्रशासनिक अधिकारियों के भी ऐश इसी पूर्ति विभाग की जिम्मेदारी उसकी गाड़ी का तेल भरवाने की। कोई सरकारी आयोजन हो तो उसकी खान पान की व्यवस्था की जिम्मेदारी भी पूर्ति विभाग के कंधों पर किसी अधिकारी या मंत्री या उसके किसी चमचे या बड़े पत्रकार के घर होने वाले किसी समारोह में भी पूर्ति विभाग किसी न किसी रूप में अपनी भागीदारी निभाता है।
    खुले बाजार में जमा खोरी पर नियंत्रण करना राज्य सरकार की जिम्मेदारी में आता है आवश्यक वस्तु अधिनियम नाम का एक हथियार भी राज्य सरकारों के पास जमाखोरों के विरूद्ध कारवाई के लिए मौजूद हैं परन्तु व्यवसईयों के वोट का फ्रिक व चुनावों के दौरान इन्ही व्यापारियों से मिलने वाले फण्ड के चलते सरकारें इनके विरूद्ध कार्यवाई करने से गुरेज करती हैं ऐसे में थोक बाजार व फुटकर बाजार के बीच भी काफी अंतर बना रहता है। कुल मिलाकर राजनीतिक बदनीयती, गलत नीतियों व ऊपर से नीचे तक फैले भ्रष्टाचार के चलते आम जनमानस मंहगाई के बोझ तले दब कर मौत की आगोश में समाया जा रहा है।
    -मोहम्मद तारिक खान