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10.2.10

महंगाई पर केन्द्र व राज्य सरकारों की तू-तू, मैं-मैं,

मंहगाई के मुददे पर केन्द्र व राज्य सरकारों के बीच वाकयुद्व चल रहा है। एक दूसरे पर मंहगाई को नियंत्रित न करने का आरोप लगाया जा रहा है। राज्यों की गेर कांग्रेसी सरकारों केन्द्र में स्थापित मनमोहन सरकार की आर्थिक नीतियों को बढ़ती महंगाई का दोषी बतला रही है तो मनमोहन सरकार की सहयोगी एन0सी0पी0 के मुखिया व भारत सरकार के कृषि मंत्री शरद पवार की बयानबाजी आग में घी का काम कर रही है। महंगाई की चक्की में पिस केवल गरीब रहा है और उसके लिए हालात बद से बदतर होते चले जा रहे हैं।
कहते हैं कि किसी भी काम की सफलता के पीछे उद्देश्य व नीयत का बहुत योगदान होता है महंगाई के मुद्दे पर फिलहाल ना तो नीयत केन्द्र सरकार की साफ दिखती है ना विपक्षी दलों की और ना प्रान्तों की सरकारों की। हर कोई महंगाई के मुद्दे की गेंद एक दूसरे के पाले में फेंककर राजनीतिक रोटियाँ सेंकने में जुटा है।
देश की अर्थव्यवस्था कृषि नीति व वाणिज्य व्यापार जिसके तहत आयात एवं निर्यात आता है, पर केन्द्र सरकार का नियंत्रण होता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर भी नियंत्रण केन्द्र सरकार रखती है राज्य सरकारें केवल केन्द्र द्वारा प्रतिपादित नीतियों पर अमल दरामद करती है और निचले स्तर की प्रशासनिक व्यवस्था देखती है।
वर्ष 1991 में जब से देश में आर्थिक सुधारों की बयार चली तो पहला प्रहार सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर किया गया। उपभोक्ताओं को दो हिस्सों में वोट दिया गया। ए0पी0एल0 एवं बी0पी0एल0 यानि अपर पावर्टी लाइन एवं बेलो पावर्टी लाइन ए0पी0एल0 श्रेणी में देश के सामान्य नागरिकों को रखा गया और उनको मिलने वाला राशन जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत उन्हें राशन दुकानदार व जिला आपूर्ति विभाग के रहमोकरम पर आधा परदा मिला करता था, वह एक के बाद एक कर के बंद कर दिया गया अब स्थिति यह है कि केवल मिट्टी का तेल मिलने के हक़दार सामान्य नागरिक रह गये हैं।
लोगों के पास का राशन कार्ड अब केवल उनके निवास की पुष्टि या परिचय मात्र के लिये रह गया है। दूसरी ओर नागरिकों को राशन कार्ड पर अनाज, चीनी, मिट्टी का तेल इत्यादि सभी वस्तुएं दिये जाने का प्रावधान बनाया गया साथ ही अति निर्धन व्यक्तियों को इसी व्यवस्था के तहत अन्त्योदय कार्ड (गुलाबी) के माध्यम से काफी सस्ते दामों पर खाद्य पदार्थों की सप्लाई की जाती है।
परन्तु इन तमाम व्यवस्थाओं पर पूर्ति विभाग का भ्रष्टाचार व राज्य सरकारों की बदनीयती ग्रहण लगाने का काम कर देती है। एक गलती तो केन्द्र सरकार की ओर से पेट्रोल पम्पों व गैस एजेंन्सियों की भांति राशन प्रणाली के कोटेदारों को निर्धारित कम कमीशन और फिर राज्य सरकारों की भ्रष्ट एवं लचर व्यवस्था के चलते खाद्यान्न भण्डारों एवं मिट्टी के तेल डिपों से दुकान तक पहुंचने के बीच के खर्चे व घटतौली से कम होते उनके कमीशन के कारण चोरी व काला बाजारी का धंधा परवान चढ़ता है। पूर्ति विभाग के अधिकारी इसी चोरी व कालाबाजारी का लाभ उठाकर कोटेदारों से प्रतिमाह अपनी हिस्सेदारी लेकर उन्हें बेलगाम बना डालते हैं। जिसका नतीजा यह है कि फर्जी राशन कार्डों की सौगात पूर्ति विभाग की शह पर पाकर कालाबाजारी का धंधा खूब चल निकलता है और आम नागरिकों को वह चाहे ए0पी0एल0 या अन्त्योदय कार्ड धारक राशन की दुकानों को अधिकांश समय बंद पाकर खाली हाथ निराशाजनक हालत में लौटना पड़ता है।
चूंकि खेल बाजार में महंगाई इतनी अधिक नहीं थी तो जनता का काम बगैर राशन दुकानों के भी चल जाता था परन्तु अब कमर तोड़ महंगाई के इस दौर में लोगों को सस्ते गल्ले की सरकारी दुकानों की याद फिर सता रही है। उधर महंगाई के मुंह उठाते दानव से अपना जनाधार खिसकने की आंशका के मद्देनजर एक बार फिर केन्द्र सरकार को ससस्ते गल्ले की व्यवस्था सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुदृढ़ करने की चिंता लग गई है। यही कारण है कि वह बराबर राज्य सरकारों पर दबाव बना नही है कि वह अपने प्रान्त में सार्वजनिक वितरण प्रणाली व्यवस्था को चुस्त दुरूस्त करें।
उधर गरीबों के मुंह से निवाला छीनकर ऐश करने वाले अधिकारियों, गल्ला माफियाओं व कोटेदारों को यह गवारा नही है इतने दिनों से वह इस धंधे पर ठाड जमा कर बैठे थे इतनी आसानी से कहां हराम छूटने वाली। राज्य सरकारों व उनके प्रशासनिक अधिकारियों के भी ऐश इसी पूर्ति विभाग की जिम्मेदारी उसकी गाड़ी का तेल भरवाने की। कोई सरकारी आयोजन हो तो उसकी खान पान की व्यवस्था की जिम्मेदारी भी पूर्ति विभाग के कंधों पर किसी अधिकारी या मंत्री या उसके किसी चमचे या बड़े पत्रकार के घर होने वाले किसी समारोह में भी पूर्ति विभाग किसी न किसी रूप में अपनी भागीदारी निभाता है।
खुले बाजार में जमा खोरी पर नियंत्रण करना राज्य सरकार की जिम्मेदारी में आता है आवश्यक वस्तु अधिनियम नाम का एक हथियार भी राज्य सरकारों के पास जमाखोरों के विरूद्ध कारवाई के लिए मौजूद हैं परन्तु व्यवसईयों के वोट का फ्रिक व चुनावों के दौरान इन्ही व्यापारियों से मिलने वाले फण्ड के चलते सरकारें इनके विरूद्ध कार्यवाई करने से गुरेज करती हैं ऐसे में थोक बाजार व फुटकर बाजार के बीच भी काफी अंतर बना रहता है। कुल मिलाकर राजनीतिक बदनीयती, गलत नीतियों व ऊपर से नीचे तक फैले भ्रष्टाचार के चलते आम जनमानस मंहगाई के बोझ तले दब कर मौत की आगोश में समाया जा रहा है।
-मोहम्मद तारिक खान

9.2.10

सब ख़ता वालिद की है, बेटे को पैदा क्यों किया

ऑस्ट्रेलिया में नस्लवाद


युवा वेश तो विदेशी आचार-विचार स्टाइल फैशन का क्रेजी होता ही है, हमारे बुजुर्ग जो कभी अंग्रेजी माहौल में पले बढ़े थे अब भी उसी पाश्चात्य संस्कृति के दीवाने नजर आते है, लेकिन हम आखिर कब तक उस खोखली संस्कृति के गुन गाते रहेंगे, हमारे कुछ युवक बड़े अरमान से आस्ट्रेलिया गये थे, शिक्षित होने के लिए तथा अमीर बनने के लिये परन्तु दुखद है कि उन्हे गरीब बनने की घुट्टी पिलाई जा रही है।
भारतीय छात्रों पर वहां जो नस्ली हमले काफी समय से हो रहे है, उसमें लगता है कि वहाँ की सरकार, अधिकारी तथा वहाँ की जनता का एक वर्ग पूरे तौर पर शामिल है, अजब हास्यास्पद है यह समाचार कि विक्टोरिया प्रान्त के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी साइमन आवेरलैंड ने छात्रों को सुरक्षा देने की जिम्मेदारी से बचते हुए यह सलाह दे डाली दी उनको हमलों से बचने के लिये अत्यधिक गरीब दिखना चाहिये, इस से ज्यादा आश्चर्यजनक यह बात है कि विक्टोरिया के प्रीमियर जान ब्रम्बी ने इस सुझाव का सर्मथन किया है। इस मामले पर भारतीय उच्चायुक्त सुजाता सिंह ने प्रीमियर से मिल कर कड़ी आपत्ति जता दी है।
राष्ट्रीयता, अंतर्राष्ट्रीय, देशभक्ति, वतनपरस्ती पर देश-विदेश के चिंतको, लेखकों ने बड़ी-बड़ी बाते कही है, टैगोर, इकबाल, गोल्डस्मिथ सभी के विचार तथा प्राचीन भारतीय विचारो से भी हम अवगत है, भारत के विचारकों ने बसुधैव कुटम्बकम की बात कही थी, गोल्डस्थिम ने कहा था कि मैं सांसारिक नागरिक हॅू। (I am citizen of the world ) इकबाल ने संकुचित विचारधारा के मुकाबले के लिये अपने को ऐसी मछली के समान माना जो पूरे समुद्र में विचरण करती है और मक़ामी क़ैद की तबाही से छुटकारा चाहती है।

हो कै़दे मक़ामी तो नतीजा है तबाही
रह बह में आज़ोर वतन सूरते माही।

परन्तु दुखद यह है कि इस वैज्ञानिक दौर में जब कि हम लौकिक या भौतिक विकास की सीढ़ियो पर चढ़ते चले जा रहे है, मानवीय क्षेत्र में हम पतनोन्मुख है और एक मानव को दूसरा मानव बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है, नस्लवाद हो, भाषावाद हो या क्षेत्रवाद हो, इन सब बातों से हम मानव तो क्या बन पायेंगे हाँ दानव ज़रूर बनते जा रहे है। सरकारों का परम कर्तव्य अपने नागरिकों या विदेशियों के रूप में आये मेहमानो को सुरक्षा प्रदान करना है, उनकी जान माल तथा आबरू को बचाना है मगर यह कैसी सरकारें है जो अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाय तथा उल्टी सीधी सलाहे देने लगें, पुलिस अधिकारी चोर को न पकड़े और जिसके यहाँ चोरी हो उस को इस अपराध में पकड़ कर बन्द कर दें कि वह रात को सोया क्यों जिसके कारण चोर उसके घर का माल लूट ले गये। अब एक किस्सा सुनिये और बात खत्म:-
एक बार चुनाव में एक बेटा अपने बाप के मुकाबले पर खड़ा हो गया, फिर दिलावर फ़िगार ने इसी ऑस्ट्रेलिया अधिकारी के समान अपनी बात इस प्रकार कही थीः-
बाप का बेटा एलेक्शन में मकाबिल गया
इसलिये हर शख्स ने इल्ज़ाम बेटे को दिया
मैं यह कहता हूँ कि बेटे की ख़ता कुछ भी नही
सब ख़ता वालिद की है, बेटे को पैदा क्यों किया
डा0 एस0एम0 हैदर
फोन- 05248-220866

स्वयं को समय दे पाना भी दूभर I

आज की तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी में इंसान इस कद्र लिप्त हो चुका है कि अपने-आपको समय दे पाना भी दूभर हो गया है. ऐसे में वह कह उठता है :-
ज़रा देर में आना ऐ होश I
अभी कहीं मै गया हुआ हूँ II

8.2.10

उत्तर प्रदेश पुलिस सबसे तेज

एक चुटकुला है कि दुनिया के कई देशों के पुलिस प्रमुखों की मीटिंग हो रही थी जिसमें ये था कि कोई अपराध होने पर किसी पुलिस प्रमुख ने कहा की हम 24 घंटे के अन्दर अपराधी को पकड़ लेते हैं किसी पुलिस प्रमुख ने कहा कि हम 48 घंटे में अपराधी को पकड़ लेते हैं तो उस मीटिंग में भारत की तरफ से उत्तर प्रदेश पुलिस प्रमुख ने कहा कि हमारे वहां पुलिस घटना के हफ़्तों पहले अपराधी को गिरफ्तार कर लेती है। हमारी पुलिसिंग सबसे तेज है।
प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने मुख्यमंत्रियों के सम्मलेन में नक्सलवाद, आतंकवाद साम्प्रदायिकता और क्षेत्रियता को देश के सामने मुख्य चुनौती बताई कि उत्तर प्रदेश पुलिस शनिवार को दस्तक मैगज़ीन की संपादक श्रीमती सीमा आजाद उनके पति विश्वविजय व अन्य महिला मानवाधिकार कार्यकर्ती आशा को माओवादी बता कर गिरफ्तार कर लिया उनके ऊपर आरोप है कि यह लोग प्रतिबंधित संगठन माओवादी के सदस्य हैं। श्रीमती सीमा आजाद पर आरोप है कि वह माओवादियों को संरक्षण देती हैं। पुलिस व एस.टी.एफ ने गिरफ्तार कर अपनी तेजी का सबूत दे दिया कि प्रधानमंत्री के मुंह से नक्सलवाद शब्द निकला नहीं की उत्तर प्रदेश पुलिस ने तेजी दिखाते हुए तीन नक्सालियों को गिरफ्तार कर लिया इनकी पीठ इलेक्ट्रोनिक व प्रिंट मीडिया ने ठोकनी शुरू कर दी । जबकि वास्तविकता यह है कि इलाहाबाद व कौशाम्बी के कचारी इलाकों में बालू खनन मजदूरों पर पुलिस-बाहुबली गठजोड़ के खिलाफ यह लोग आन्दोलन चलते थे वस्तुस्तिथि यह है कि उत्तर प्रदेश सरकार के एक मंत्री पूरे प्रदेश में बालू खनन व्यवसाय पर अपने बाहुबलियों के माध्यम से कब्ज़ा किये हुए हैं अब पुलिस का अगला कदम यह होगा कि इन लोगों के परिवार के लोगों का उत्पीडन करेंगे ताकि इन फर्जी मुकदमों में कोई भी आदमी इनकी मदद के लिए न खड़ा हो। आये दिन पुलिस का आतंक सामान्य नागरिको को भुगतना पड़ता है। रविवार को ही इलाहबाद में कोरांव के ओसफारा गाँव में पुलिस ने एक आदमी के घर दबिश दी और दबिश में वृद्ध की पुलिस पिटाई से परिवारवालों के समक्ष ही मृत्यु हो गयी पुलिस लाश लेकर भागने लगी गाँव वालों के व्यापक प्रतिरोध के बाद पुलिस लाश नहीं ले जा पायी और गाँव वालों के दबाव में खानापूरी करने के लिए दो पुलिस वालों पर मुकदमा दर्ज कर लिया गया। उत्तर प्रदेश में आये दिन पुलिस की पिटाई से लोग मर रहे हैं मुक़दमे जनता के दबाव में मुक़दमे दर्ज हो भी जाते हैं तो उनकी विवेचना भी उन्ही के साथी पुलिस वाले कर रहे हैं । पुलिस के दोनों चेहरे साफ़ हैं अगर आप पीड़ितों की शोषितों की मदद आगे आयेंगे तो आपको भी पुलिस उत्पीडन के तहत जेल जाने की नौबत आ जाएगी।
-सुमन

6.2.10

खबरदार! बाजार उदार हो गया है।

सर्वत्र उदारीकरण-उदारीकरण की चिलपों मची हुई है। हर कोई उदारीकरण का राग अलाप रहा है। ऐसे में बाजार भी किसी से पीछे नहीं है। बाजार भी कह रहा है कि वो उदार है। आज अगर कोई नंगा दिखता है तो समझिये वो फैशन परस्त है। आज कोई भूखा है तो समझिये वो डाइटिंग कर रहा है। आज कोई परेशान है तो समझिये परेशान होना उसकी फितरत है। आज कोई घी नहीं पीता तो समझिये घी पीने से उसका पेट खराब हो जाता है। बाजार सारी आम-ओ-खास चीजे उदार हो कर दे रहा है। वह भी जीरो परसेंट इंट्रेस्ट पर। है न गजब की उदारता! बाजार बहुत उदार हो चला है। आज शिकायत वो नहीं रही जो पहले हुआ करती थी। ‘हमें तो कोई पूछता नहीं’ का दर्द अब नहीं रहा। आज परेशानी की वजह तो ‘अरे यार ये तो पीछे पड़ गये’ है। आप क्या सोच रहे है? यही न! क्या कभी बाजार भी उदार हो सकता है? क्या बाजारू शब्द का अर्थ बदल गया है,जो बाजार की विशेषताओं के कारण ही अस्तित्व में आया! वो बाजार जहाँ बड़े से बड़े पल भर में नंगे हो जाते है, क्या अब वो वैसा नहीं रहा! वो बाजार जो किसी को नंगा करने के बाद शर्मता भी नहीं, क्या उसका हृदय परिवर्तन हो गया है! फिलहाल बाजार तो यही कर रहा है कि वो उदार हो गया है।
बाजार खुद पूछ रहा - बच्चे तूझे दौड़ में फस्ट आना है कि नहीं! बिटिया तुझे मिस इंडिया बनना है कि नहीं! भाई साहब आप अपने गिरते बालों को रोकते क्यों नहीं! बहन जी आप को समझदार गृहणी बनती क्यों नहीं! आज बाजार आप को परेशान होता हुआ नहीं देख सकता। वो आप का हाल ले रहा। वो आपकी चाल देख रहा। वो बहुत उत्सुक दिखता है आपकी समस्याओं का समाधान करने के लिये। अब तो उसकी उत्सुकता अधीरता में बदल चुकी है। वो समाधान लिये-लिये इधर से उधर बेसब्र घूम रहा है। आपका दरवाजा खटकटा रहा है। डोर बेल बजा रहा है। एस.एम.एस. भेज रहा है। फोन कर रहा है। रेडियों पर बोल रहा है। टी.वी. से झांक रहा है। इंटरनेट में घुस कर बैठा है। आज बाजार ने घेर लिया है आपको चारों तरफ से। आप अकेले रहना चाहते है तो रह नहीं सकते। जहाँ जाओ वहाँ बाजार पहले से खड़ा है,अपनी बांहे पसारे आपके स्वागत के लिये। बाजार जा कर खरीदारी करें तो अच्छा, घर बैठ कर खरीदारी करें तो अच्छा। अपना मुहँ खोलकर अपनी जरूरतें बतायें तो ठीक, इशारे से बताये तो ठीक। बाजार जेब में नकद रख कर जाते हैं तो बेहतर, अगर क्रेडिट कार्ड रख कर जाते है तो बेहतर। जैसा बाजार आज है वैसा पहले कभी नहीं रहा।
बाजार सिर्फ आपके जरूरतों को ही नहीं पूरा करता, बल्कि आज उसने खुद को इतना आकर्षक बना लिया है, उसको देखकर ही जरूरत खुद-ब-खुद पैदा हो जाती है। बाजार प्रतिदिन किसी न किसी वस्तु की सेल चला रहा है। आये दिन कोई न कोई स्कीम दे रहा है। किसी आइटम पर अप्रत्याशित रूप से छुट दे रहा है। बाजार कहता है कि सारी दुनिया आपके घर में पहंुचा देगा, वो भी महज कुछ मिनटों में, आप बस एक आर्डर करें। घर में बैठे-बैठे पिज्जा खिला दें रहा है। आप से ‘एस्कुयूज मी’ कह कर आपकी वित्तीय जरूरतों को पूछ रहा है। दुनियाभर का सामान एक ही जगह डिपाटमेंटल स्टोर में दे रहा है। डाइनासोर के आकार के शापिंग माॅल दे रहा है। बिना ब्याज के गाड़ी दे रहा है। बाजार की उदारता यहीं नहीं खत्म होती। उसके उदारता की परिधि बहुत व्यापक है। बाजार उदारता के साथ आपके शुभचिंतक होने का रोल भी अदा कर रहा है। जल्द करें मौका छुट न जाये! बाजार आपको चेता रहा है। आपको दूरदृष्टि दे रहा है, यह कह कर कि स्टाक सीमित है। ये छुट बस कुछ दिनों तक, बता कर आपको समय का पाबंद बना रहा है। कंपनी का प्रचार है फायदा आपका, यह गूढ़ रहस्य भी बता रहा है।
बाजार मददगार बन गया है। आपको हेल्पलाइन दे रहा। बाजार आप का केयर भी करना जानता है। वो आपको कस्टमर केयर भी दे रहा है। बाजार की उदारता की परिधि बहुत व्यापक है, जैसा कि पहले भी कहा। मात्र एक रूपये में विश्व भ्रमण करवा दें रहा है। एक कोल्ड ड्रिंक पीने पर क्रिकेट का वल्र्ड कप दिखावा दे रहा है। अण्डर वियर खरीदने पर कार दे रहा है। पच्चीस पैसे की चीज पर करोड़ों इनाम दे रहा है। बस एक एस.एम.एस. करने पर बेशकिमती चीजे दे रहा है। स्कैच कार्ड स्कैच करवा कर किस्मत बदल रहा है।
बाजार, सुविधा, समाधान, सपने दे रहा है। बाजार किस्मत जिदंगी, हालात बदलने की बात कर रहा है। बाजार अब क्रूर नहीं रहा, वो उदार हो गया है। बाजार ने अपना व्यवहार बदल लिया है। बाजार ने अपना रूप बदल लिया है। बाजार ने अपना रंग बदल लिया है। अब आप पूछेंगे, और बाजार का चरित्र! तो सुनिये सर, बाजार कहता है कि वो अपना चरित्र भी बदलने को तैयार है, मगर उसके लिये कंडिशन अप्लाई है यानि कि शर्तें लागू...।

अनूप मणि त्रिपाठी
09956789394

5.2.10

भारत साउथ अफ्रीका सिरीज का आंकलन

कल से आरम्भ होने वाली भारत अफ्रीका क्रिकेट सिरीज का परिणाम देखने जानने की इच्छा हर खेल प्रेमी को हैं जिसके लिए हमारे पास सवेरे से कई फोन भी चुके हैं समय अभाव के चलते अभी तक हम कुछ ज्यादा आंकलन नहीं कर सके हैं पर फिर भी अगर अंको की दृष्टी से देखे तो कल यानी तारीख का दिन भारत हेतु शुभ रहेगा यदि भारत टॉस जीतता हैं तो उसे पहले बल्लेबाजी करनी चाहिए,कल गौतम गंभीर सचिन के सितारे बहुत ही बढ़िया स्थिति दर्शा रहे हैं हो सकता है इन दोनों में से कोई एक कल बड़ा स्कोर बना ले,अगर गेंदबाजों की बात करे तो कल इशांत शर्मा कुछ विशेष कर सकते हैं ऐसा उनके सितारे दर्शा रहे हैं |वैसे सम्पूर्ण आंकलन अभी नहीं हो पाया हैं इसलिए ज्यादा जानकारी नहीं दी जा सकती हैं कुल मिलकर कल का दिन भारत हेतु बढ़िया रहेगा |

साहित्य अकादमी: सगुण विरोध् ही कारगर होगा

दक्षिण कोरिया की बहुराष्ट्रीय कंपनी समसुंग इंडिया और भारत की केंद्रीय साहित्य अकादमी के संयुक्त तत्वावधन में भारतीय भाषाओं के लेखकों को ‘टैगोर साहित्य पुरस्कार’ देने के पफैसले का हिंदी के कई लेखकों ने विरोध् किया। विरोध् का सिलसिला इस योजना का पता लगने के साथ ही शुरू हो गया था। विरोध् में ज्यादातर हिंदी के लेखक सामने आए। कापफी बाद में इक्का-दुक्का दूसरी भाषाओं के कुछ लेखकों के नाम विरोध् करने वालों में सुनने को मिले। पुरस्कार वितरण वाले दिन कुछ लेखकों ने साहित्य अकादमी के बाहर मानव श्रृंखला बना कर सक्रिय विरोध् दर्ज किया। लेकिन कंपनी और अकादमी पर लेखकों के विरोध् का कोई असर नहीं हुआ। अकादमी की तरपफ से कोई स्पष्टीकरण भी नहीं आया। कंपनी पहले ही यह घोषणा कर चुकी है कि वह ये पुरस्कार सामाजिक दायित्व निभाने के उद्देश्य से देने जा रही है। पहली खेप में 25 जनवरी को हिंदी समेत आठ भाषाओं के लेखकों को पुरस्कृत किया गया। 61वें गणतंत्रा दिवस पर मुख्य मेहमान के रूप में भारत आए दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति की पत्नी ने ये पुरस्कार लेखकों को प्रदान किए। पिछले कई सालों से उड़ीसा के आदिवासियों के अस्तित्व का संकट बनी पोस्को कंपनी दक्षिण कोरिया की है। इसी वजह से वहां के राष्ट्राध््यक्ष को मुख्य मेहमान बनाया गया। यह भारत सरकार की आदिवासियों को दुत्कार और पोस्को को चुमकार है।
कहने की जरूरत नहीं कि पुरस्कार की योजना और कार्यक्रम लेखकों के सहयोग से सपफल हुए। अकेले अकादमी अध््यक्ष, उपाध््यक्ष और विभिन्न भाषाओं की समितियों के सदस्य चयन-प्रव्रिफया को अंजाम नहीं दे सकते थे। उसमें पुरस्कृत भाषाओं के बहुत-से लेखकों का सहयोग हुआ है। पुरस्कृत लेखकों का तो हुआ ही है। यानी भारतीय भाषाओं के लेखकों की सहमति से ही कंपनी और अकादमी का यह गठजोड़ संभव हुआ है और आगे भी बना रह सकता है। भविष्य में समर्थक लेखकों की संख्या और ज्यादा बढ़ सकती है। साहित्य अकादमी के पुरस्कारों का सबसे ज्यादा महत्व है। जिन्हें वह नहीं मिल पाता वे कंपनी की स्टैंप वाला पुरस्कार पाकर ही संतोष कर सकते हैं। जाहिर है, उसके लिए उन्हें अपना सहयोग और समर्थन कंपनी-अकादमी गठजोड़ को देना होगा। बाजार की कीच में पिफसलने वाले ही नहीं, गंभीर लेखक भी उनमें शामिल होंगे।
विरोध् करने वाले लेखकों के मत में इस तरह के गठजोड़ से साहित्य अकादमी की स्वायत्ता खंडित होती है। कुछ ने इसे स्वयत्तता का अंत माना है। यह बिल्कुल सही है कि साहित्य अकादमी की स्वायत्तता बरकरार रहनी चाहिए। अतीत में वह कापफी हद तक रही है। साहित्य अकादमी में सरकारों और नेताओं की दखलंदाजी उस तरह से कभी नहीं रही जैसी राज्य-स्तर की अकादमियों में होती है। हालांकि इसका यह अर्थ नहीं है कि सरकारें और पार्टियां लेखकों को आगे करके साहित्य अकादमी सहित अन्य केंद्रीय अकादमियों में अपना हस्तक्षेप नहीं करती रही हैं। उस तरह से नामित हुए लेखक कई बार सुविधओं व पुरस्कारों का बांट-बखरा भी करते हैं। अपने शासनकाल में भाजपा के नेताओं ने उर्दू के लेखक प्रोपफेसर गोपीचंद नारंग को आगे करके अकादमी के अध््यक्ष पद के चुनाव में दखलंदाजी की थी। वह चुनाव कापफी विवादास्पद बन गया था। महाश्वेता देवी से चुनाव जीतने के बाद प्रोपफेसर नारंग ने अकादमी में कापफी मनमानी की। प्रोपफेसर नामवर सिंह ने उनके जीतने पर अकादमी में जाना बंद कर दिया था। उन्हें यह आशा रही होगी कि उनके एहसानमंद लेखक अकादमी न जाने में उनका साथ देंगे। लेकिन प्रोपफेसर नारंग को लेखकों के सहयोग की कमी नहीं रही। कहने का आशय है कि अकादमी तभी स्वायत्त बनी रह सकती है जब लेखक अपनी स्वायत्तता बना कर रख सकें।
नवउदारवादी दौर में पिछले करीब 20 सालों से देश की संप्रभुता पर गहरा संकट है। नवसाम्राज्यवादी गुलामी की चर्चा अक्सर होती है। इस दौर में भारत सरकारों ने ऐसे सौदे और समझौते किए हैं जिनके चलते संवैधनिक और आजादी की विरासत के मूल्यों को गहरी ठेस पहुंची है। देश की लगभग समूची मुख्यधरा राजनीति इस ध्त्कर्म में शामिल है। लेखक गहरी नजर रखने वाले लोग होते हैं। उनसे यह सब व्यापार छिपा नहीं है। लेखकों से यह भी नहीं छिपा है कि विश्व बैंक, अंतरर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन और अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के डिक्टेट पर जो ‘नया भारत’ बनाया जा रहा है, वह पूंजीवादी-उपभोक्तावादी भारत है। वहां हर मनुष्य और मानवीय उद्यम की कसौटी बाजार है। सरोकारध्र्मी लेखक यह भी जानते हैं कि ‘नए भारत’ में देश की विशाल वंचित आबादी के लिए कोई जगह नहीं है। समानता, स्वतंत्राता या सम्मान की बात तो जाने ही दीजिए।
ऐसे परिदृश्य में साहित्य एवं कला की अकादमियां स्वायत्त नहीं बनी रह सकतीं, यह भी लेखकगण जानते हैं। जानते वे यह भी हैं कि अकादमी की स्वायत्तता का अंत करना या बचाना उसके मौजूदा लेखक पदाध्किारियों के वश का काम नहीं है। पुरस्कार वितरण समारोह में अध््यक्ष सुनील गंगोपाध््याय ने बताया है कि कंपनी और अकादमी के बीच का यह समझौता भारत और कोरिया सरकारों के बीच हुआ है। तो साहित्य अकादमी की स्वयत्ता का अपहरण सीध्े केंद्र सरकार ने किया है। केंद्र सरकार कोई निर्गुण सत्ता नहीं है। न ही संस्कृति मंत्रालय जिसके अंतर्गत साहित्य अकादमी आती है। संस्कृति मंत्रालय प्रधनमंत्राी के पास है। यानी साहित्य को साहित्य अकादमी के स्वायत्त क्षेत्रा से निकाल कर पूंजी;वादद्ध के क्षेत्रा में ले आने का काम खुद प्रधनमंत्राी ने किया है। उसी प्रधनमंत्राी ने जिसने पिछली संसद में अमेरिकी ध्न-बल से पूरी निर्लज्जता के साथ परमाणु करार पास कराया था। प्रधनमंत्राी भी कोई निर्गुण सत्ता नहीं है। मनमोहन सिंह देश के दूसरी बार प्रधनमंत्राी हैं। हमने ऊपर जो नवउदारवादी यथार्थ बताया है, वह वाया कांग्रेस और सोनिया गांध्ी मनमोहन सिंह के नेतृत्व का नतीजा है। जिनके लिए देश की संसद की कोई कीमत नहीं रही, उनके लिए साहित्य अकादमी की स्वयत्तता क्या मायने रखती है!
लिहाजा, निर्गुण विरोध् का कोई अर्थ नहीं है। विरोध् सगुण होना वाहिए। अगर आज ही देश के ज्यादातर लेखक अपने पुरस्कार अकादमी को राशि-सहित वापस पफेर देंऋ जो समितियों में नामित हैं, अपने नाम वापस ले लेंऋ और एक कड़ा पत्रा सोनिया गांध्ी, मनमोहन सिंह व उनकी मंडली को लिखें, तो कल ही कंपनी और अकादमी के बीच कायम किया गया यह गठजोड़ निरस्त हो सकता है। बस अपने नाम सहित इतना लिखना है कि ‘आप महानुभावों ने देश लगभग बेच डाला है, कला और साहित्य को हम बाजार में नहीं बेचने देंगे। हमें वैसे पुरस्कार नहीं चाहिए। हम देश और नतीजतन कला व साहित्य बेचने वाले आप लोगों का संपूर्ण विरोध् करते हैं।’ सभी भाषाओं के लेखकों को विरोध् में शामिल करना चाहिए। दूसरे विषयों के बु(िजीवी और नागरिक समाज के लोग भी उसमें आ सकते हैं। अपने अस्तित्व के लिए जूझने वाली मेहनतकश जनता भी उसमें आएगी। अगर ऐसा नहीं होता है, तो माना जाएगा कि यह विरोध् भी हिंदी अकादमी के विरोध् जैसा हो कर रह जाना है।
-प्रेम सिंह