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4.12.09

लोकतंत्र जिसका गुन अमेरिका गाता है

अमेरिका ने अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई को चेताविनी दी है कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ अच्छे काम- काज के नतीजे जाहिर करो अन्यथा उनकी जगह कोई और लेगाअमेरिका जिसके पास पूरी दुनिया में लोकतंत्र कायम करने का ठेका है वह अब लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकारों के नेताओं को यह बताएगा कि तुम्हारा काम काज ठीक नही हैतुम्हारी जगह पर हम दूसरे व्यक्ति को नेता नियुक्त करेंगेजनता द्वारा किसी भी चुनी गई सरकार को हटाने का हक़ जनता को ही होता है लेकिन साम्राज्यवादियों के अगुआ अमेरिका ने पूरी दुनिया के अधिकांश राष्ट्राध्यक्षों को अपना नौकर समझ रखा है और धीरे-धीरे वह जनता को भी गुलाम समझने लगा हैअमेरिकां साम्राज्यवादी दुनिया में लोगों को लोकतंत्र का सपना दिखाते हैं और उसके बहाने वह उस देश को गुलाम बनने कि रणनीति बनाते हैंअफगानिस्तान में हामिद करजई कि सरकार उनकी पिट्ठू सरकार है ही और अब जब अफगान समस्या का समाधान नही कर पा रहे हैं तो हामिद करजई को चेतावनी दे रहे हैंअमेरिकी लोकतंत्र का मतलब यह है कि उस देश को येन-प्रकारेण किसी भी तरह से गुलाम बनाओ और उसकी प्राकृतिक सम्पदा को लूटोजब उनका पिट्ठू गुलाम अमेरिकी गुलामी को और आगे बढ़ा पाने में असमर्थ हो जाता है तब प्रयोग करो और फेंको की नीति अपनाते हैंयही अमेरिकां का लोकतंत्र है, जिसका गुन वह गाता हैं

3.12.09

हिन्दी राष्ट्रीय भाषा नही है ?

महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे ने हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा मानने से इनकार कर दिया है और उन्होंने कहा है की हिन्दी राष्ट्रीय भाषा नही है अपितु सरकारी भाषा हैयह बात शिव सेना, मनसे के अतिरिक्त किसी अन्य ने कही होती तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ , भाजपा सहित उनके तनखैया पत्रकारों का हिन्दी प्रेम जाग्रत होकर एक उन्माद पैदा करने का कार्य कर रहे होते चूँकि, मामला उन्ही लोगों से सम्बंधित है , इसलिए उनका हिन्दी प्रेम नदारद हैहमारा पहले से ही सुस्पष्ट विचार है की ऐसे तत्व विघटनकारी तत्व हैं जो देश की एकता और अखंडता को कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी भाषा के नाम पर, कभी प्रान्त के नाम पर नष्ट करना चाहते हैंआज जरूरत इस बात की है कि ऐसे तत्वों को चिन्हित किया जाना आवश्यक है

जीटी रोड़ पर आड़ी-तिरछी बसों से लगता है जाम

फतेहाबाद . स्थानीय बस स्टेंड के बाहर रोड़वेज बस चालकों द्वारा इधरउधर बसें खड़ी करने से जाम की स्थिति बनी रहती है तथा आने जाने वाले वाहनों को काफी परव्शानी का सामना करना पड़ता है। सिरसा व हिसार की ओर जाने वाली बसें जीटी रोड़ पर खड़ी होती हैं जिसकी वजह से जाम लगता है। बस चालक अपनी मनमानी करते हुए बसों को एक दूसरव् से पहले लगाने की होड़ में बसों को आड़ीतिरछी खड़ी कर लेते हैं। कई बार ट्रेफिक विभाग द्वारा बसों को बस स्टेंड के बाहर खड़ा होने से रोकने का प्रयास भी किया गया लेकिन प्रयास सफल नहीं हो पाया। इस बारव् में रोड़वेज महाप्रबंधक ओपी बिश्नोई से बातचीत की गई तो उन्होंने बताया कि इस समय फतेहाबाद डिपो में 148 बसें हैं, इसके अलावा अन्य डिपो की भी बसें आती रहती हैं जिनके लिए बस अड्‌डे के अंदर पार्किंग का अभाव है। इसके चलते ही बसें बस स्टेंड के बाहर रुकती है।

2.12.09

भारत को कूड़ा घर बनाया

ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने भारत को कूड़ा घर बनाया। साम्राज्यवादी देशों ने सोमालिया में अपने वहां का कूड़ा डालना शुरू कर दिया जिससे पूरे देश में संक्रामक बीमारियाँ फ़ैल गयीं, जिससे काफ़ी लोग मरे। जैव विविधता भी नष्ट हो गई , पूरे देश में भुखमरी की स्तिथि में आज वहां के लोग समुद्री डाकू बन गए हैं।

उसी तरह लन्दन म्यूनिसिपिल कार्पोरेशन का उन्नीस कंटेनर कूड़ा दिल्ली के निकट दादरी में पकड़ा गया है । विकसित देश अपने यहाँ के इलेक्ट्रोनिक कचरे से लेकर अन्य कचरों को भारत में भेजकर इस देश को कूड़ा घर बना देना चाहते हैं और इस देश को सोमालिया जैसा कर देना चाहते हैं।

आज जरूरत इस बात की है कि साम्राज्यवादी शक्तियों का कदम कदम पर अगर मुंहतोड़ जवाब नही दिया जाएगा तो यह लोग अपने शैतानी हरकतों से हमारे देश को बरबाद कर देंगे ।


सुमन
loksangharsha.blogspot.com

1.12.09

हम क्या खायें ?

मैं कोई डाक्टर नहीं कि आपको बताऊं कि आप क्या खायें? खाने के नाम पर शाकाहार या मांसाहार पर भी मैं बहस नहीं छेडूंगा, फिर भी मेरा सवाल यही होगा - हम क्या खायें?

दाल महंगी, आलू महंगा, प्याज महंगी, लहसुन महंगा, तेल का दाम आसमान पर। गेहूं या चावल, आटा हो या मैदा कुछ भी तो सस्ता नहीं है। फिर वही सवाल - हम क्या खायें? यह सवाल केवल इसलिए कि हमारी आमदनी इतनी नहीं कि उस आमदनी में ठीक से खा भी सकें। अगर हम किसान हैं तो हमारे लिए डीजल महंगा, खाद महंगी, खेती के काम में आने वाले औजार महंगे, हमारी जो लागत खेती की पैदावार में आती है वह भी वापस नहीं मिल पाती, हमारी मेहनत का बदला तो बहुत दूर है। फिर नमक महंगा, साबुन महंगा, कपड़ा महंगा, रूई महंगी क्या पहने, क्या ओढ़ें, क्या बिछायें, सफाई के लिए कैसे धोयें, कैसे नहायें, सवाल हर तरफ महंगाई का।

हम मजदूर हैं और खेतिहर मजदूर हैं तो कहना क्या? हमारे लिए खेतों में काम नहीं, काम है तो मजदूरी नहीं के बराबर, सरकार द्वारा काम देने का किया गया वादा, उस काम के बदले दाम की लूट अलग। एक ही सवाल - कैसे जीवित रहें?

कुछ खबरें अखबार की सुर्खियां बनती रही हैं, गोबर से अनाज के दाने छानकर खाने के लिए लोग विवश। जगह-जगह किसान आत्महत्या कर रहे हैं, कारण एक ही है गरीबी और भुखमरी। भुखमरी- भुखमरी-भुखमरी, अखबारों की सुर्खियां बनती रहीं हैं इस तरह की खबरें कि कहीं पर किसान या मजदूर ने भूख से दम तोड़ा। ऐसे में एक उक्ति याद आती है-‘‘जिसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है (सिवाय जान के) और पाने के लिए खुला हुआ है सारा संसार’’ और यह उक्ति कभी-कभी और कहीं-कहीं नक्सलवाद का रूप ले लेती है। नक्सलवाद की उत्पत्ति केवल इतने से नहीं बल्कि इससे अधिक अति से हुई है। भूपति अपनी भूमि पर गरीब मजदूर से बेगार लेते रहे, बेगार से मना करने पर उनके साथ जुर्म और ज्यादती हुई, गरीबों को दबाने के लिए बिहार जैसे प्रदेश में बनबीर सेना का गठन हुआ, यह पहला संगठित अत्याचार का रूप था लेकिन हमारे देश या किसी प्रदेश की सरकार ने इस संगठित अत्याचार को रोकने का प्रयास नहीं किया और इसी तरह से अत्याचार का संगठित रूप देश के हर कोने में फैला। काॅर्पोरेट परिवार को किसानों से खेत छीनकर सस्ते दामों में दे दिया गया। हिस्सा लेकर सरकारी खजाने का मुंह उनके लिए खोल दिया गया और ऐन-केन-प्रकारेण अपनी लालच में राजनेताओं द्वारा भूपति और पूंजीपतियों की सहायता की गई और किसानों मजदूरों को भूख से तड़पकर दम तोड़ने पर मजबूर किया गया, कहीं उनके हाथ-पैर तोड़े गये, कहीं गोलियों से उन्हें भूना गया, कहीं उनकी बहन-बेटियों की अस्मत् लूटी गई-कब तक और कहां तक बर्दाशत करे, ये बेबस और मजबूर, किसान और मजदूर।

गांव का ये हाल शहरों में भी दिन भर जान-तोड़ मेहनत करके गरीब अपने परिवार का लालन-पालन नहीं कर पाता। महंगाई की मार ने उसे भी तोड़कर रख दिया है। जिस वक्त खेत से फसल बाजार में आती है हर अनाज सस्ता होता है और किसानों को उसका सही दाम नहीं मिल पाता, जबकि यही अनाज जिस समय व्यापारी के पास पहुंचता है तो उसका दाम बढ़ जाता है। अरहर का दाम किसान को मिला 20 रूपये प्रति किलो और दाल का दाम पहुंच गया 120 रूपये प्रति किलो और यह दाल इस दाम पर बिकने के लिए बाजार में उपलब्ध भी है। दाल मिल मालिकों को सही मुनाफा कमाने का अवसर देकर सरकार ने जन साधारण को अपने काउन्टर से 65 रूपये प्रति किलो अरहर की दाल बिकवाया फिर भी दोगुने से अधिक लाभ कमाया दाम मिल मालिकों ने और सरकार ने वाह-वाही लूटी। मिल मालिकों को दोगुना लाभ कमवाकर जनता तक कम दामों में दाल पहुंचाने की। यह तो मैंने सिर्फ एक दाल का जिक्र किया है लगभग सभी दालों का यही हाल है। गेहुं, चावल और तिलहन का भी हाल कुछ ऐसा ही है। आखिर क्या कारण है कि अधिक दाम पर हर माल पर्याप्त मात्रा में बाजार में उपलब्ध है लेकिन मुनासिब दाम पर कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं। कारण मात्र इतना है कि व्यापारी वर्ग सरकार चलाने वालों को सुविधा प्रदान कर खुद जनता को लूट रहा है - जमाखोरी करके। यह जमाखोरी ही महंगाई का असली कारण है जिस पर सरकार लगाम नहीं लगा रही है और महंगाई बढ़ाने में व्यापारी वर्ग और उद्योगपतियों की सहायता कर रही है। इस कारण ही सवाल उठता है - हम क्या खायें?

मुहम्मद शुऐब
एडवोकेट

30.11.09

लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता - अन्तिम भाग

सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात में सन् 2002 में अल्पसंख्यक समुदाय की सामूहिक हत्या एवं बलात्कार काण्ड सम्बंधी मुकदमे को गुजरात राज्य से ठीक चुनाव से पहले बाहर हस्तान्तरित कर दिया ताकि वोटरों का धु्रवीकरण हो जाए एवं यह तर्क दिया गया कि अल्पसंख्यक समुदाय को राज्य में न्याय मिलना असंभव है। यहाँ पर यह बात महत्वपूर्ण है कि राजनैतिक रूप से सक्रिय कारपोरेट घरानों एवं धनी वर्ग, जो कि यू0एस0ए0 एवं ब्रिटेन से घनिष्टता से जुड़े हुए हैं के मुख्यालय महाराष्ट्र एवं गुजरात में हैं। यह भी बात महत्वपूर्ण है कि कर्नाटक राज्य जिसमें कि अभी जल्दी ही कारपोरेट घरानों एवं मल्टीनेशनल कम्पनियों का आधिपत्य हुआ है, में फासीवादी राजनैतिक दलों एवं संगठनों का तेजी से उदय हुआ है। कर्नाटक में स्त्रियों, अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों, ईसाई मिशनरियों, एवं मुसलमानों पर आक्रमण में बढ़ोत्तरी हुई है। आश्चर्य की बात यह है कि इन हमलों की कोई गंभीर जाँच नही की गई है। अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा से भरे भाषण भारत में दैनिक चर्चा का विषय बन चुके हैं। न तो ऐसे मामलों की जाँच की जाती है और न ही उन पर मुकदमा चलाया जाता है, अगरचे ऐसा भाषण उच्च पुलिस अधिकारियों जैसे स्व0 हेमन्त करकरे के खिलाफ ही क्यों न हो। हेमन्त करकरे ने, जो मुम्बई के संयुक्त पुलिस आयुक्त थे, ऐसे फासीवादी राजनैतिक दलों एवं संगठनों के खिलाफ धर्मयुद्ध शुरू कर रखा था। उनको 26 नवम्बर 2008 में शिवसेना के प्रमुख अखबार ‘सामना’ के माध्यम से गंभीर परिणाम की धमकी दी गई एवं उसी दिन उनकी हत्या कर दी गई जब मुम्बई पर कुख्यात हमला किया गया। इस हमले में अनेक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एवं विदेशी मारे गए। आज तक इस हमले का उद्देश्य रहस्य में लिपटा हुआ है।
उड़ीसा, झारखण्ड एवं छत्तीसगढ़ में जहाँ कि आदिवासियों की एक बड़ी संख्या मौजूद हैं, ईसाइयों, दलितों, आदिवासियों एवं गरीबों पर हमलों में पिछले दो दशकों मंे काफी वृद्धि हुई है क्योंकि ये लोग अपनी जम़ीन पर अवैध कब्जों का विरोध कर रहे थे जो भारतीय कारपोरेट घरानों एवं मल्टी नेशनल कम्पनियों द्वारा उस क्षेत्र में खनिज खुदाई के नाम पर बिना वैकल्पिक व्यवस्था किए हुए, हड़पी जा रही थी। ये लोग ‘फूट डालो एवं राज्य करो’’ की नीति का अनुसरण कर रहे हैं।
1991 के पश्चात सुप्रीम कोर्ट के द्वारा यह फैसला लिया गया कि ‘जनहित के नाम’ पर याचिकाओं में सरकार की आर्थिक नीति के मामलों में उच्च अदालतें पुनरावलोकन नहीं करंेगी क्योंकि इसका सम्बन्ध कार्यपालिका की नीति निर्धारण से है। जबकि सच्चाई यह है कि भारतीय संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को असीम पुनरावलोकन की शक्तियाँ प्रदान की हैं। काम्पट्रोलर एवं आडीटर जनरल आफ, इण्डिया (कैग) जो एक संवैधानिक संस्था है, ने कार्यपालिका के उन अधिकारियों को दोषी ठहराया है जिन्होंने सरकारी संस्थानों का निजीकरण किया। कैग ने निर्णय दिया कि सरकारी क्षेत्र के उद्यमों के मूल्य का आकलन उचित प्रकार से नहीं किया गया एवं उनका निजीकरण उनकी कीमत से कहीं कम दर पर किया गया जिसके कारण राजकोष को हानि उठानी पड़ी। भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने बालको इम्पलाइज यूनियन बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए0आई0आर0 2002 एस0सी0 350) मुकदमे में पब्लिक सेक्टर कम्पनी के निजीकरण के मामले में हस्तक्षेप करने से इन्कार कर दिया, यद्यपि जिन आधारों पर हस्तक्षेप की माँग की जा रही थी, उनमें एक आधार यह भी था कि पब्लिक सेक्टर कम्पनी की सम्पदा का आकलन निजीकरण करने के लिए गलत ढंग से किया गया एवं आरक्षित मूल्य को मनमाने ढंग से निर्धारित किया गया। सी0आई0टी0यू0 बनाम महाराष्ट्र राज्य मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने एक मुख्य टेªड यूनियन की उस याचिका को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया जिसमें इनरान कम्पनी के प्रोजेक्ट को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह प्रोजेक्ट राज्य बिजली बोर्ड की अर्थ व्यवस्था के लिए अहितकारी है एवं यह प्रोजेक्ट भारतीय बिजली अधिनियम के विपरीत है। सेन्टर फार पब्लिक इन्टरेस्ट लिटीगेशन बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए0आई0आर0 2008 एस0सी0 606) मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने, एक सार्वजनिक उपक्रम आयल एण्ड नेचुरल गैस कमीशन (ओ0एन0जी0सी0) द्वारा एक प्राइवेट कम्पनी रिलायन्स को आफशोर गैस एवं आॅयल कुओं की बिक्री, में जाँच करने से इन्कार कर दिया। इस याचिका में उक्त बिक्री में भ्रष्टाचार की शिकायत की गई थी तथा सबूत पेश किए गए थे जिसमें सी0बी0आई0 के एक अधिकारी की टिप्पणी भी थी कि इस मामले में अपराधिक मुकदमा दायर किया जाए।
नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के फलस्वरूप कार्य के स्थायित्व की कानूनी अवधारणा को नुकसान पहुँचा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस सम्बंध में अपने पहले के कई निर्णयों को बदला है। साथ ही साथ ‘कान्टैªक्ट लेबर एक्ट 1970 (नियमितीकरण एवं उन्मूलन) की भी खिलाफवर्जी की है। इस कानून के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई थी कि कार्य विशेष के लिए समझौते के आधार पर श्रम को समाप्त किया गया है एवं यदि कार्य की प्रकृति स्थाई है तथा कार्य करने वाला इस सम्बन्ध में आवेदन पत्र भी देता है तो कार्य करने वाले को स्थायी आधार पर सेवा दी जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने 2001 में स्टील अर्थारिटी आॅफ इण्डिया लिमिटेड बनाम नेशनल यूनियन वाटर, फ्रन्ट वर्कर्स (ए0आई0आर0 एस0सी0 527) मुकदमे में फैसला दिया कि समझौता पर आधारित श्रम अब समाप्त हो चुका है एवं कार्य की प्रकृति भी स्थायी है तथापि वर्तमान समझौते पर रखे गए मजदूरों को स्थाईं तौर पर नौकरी दिए जाने का कोई कानूनी अधिकार प्राप्त नहीं है। इस फैसले से हजारों मजदूरों के लिए जो सेवा में स्थायित्व चाहते थे, कोर्ट का दरवाजा बन्द हो गया है।
भारतीय सुप्रीम कोर्ट के द्वारा डा0 विनायक सेन को 2007 में जमानत पर रिहा न करने के फैसले की काफी आलोचना की गई है। 22 नोबल पुरस्कार विजेताओं ने उनको रिहा करने की अपील की थी। डा0 विनायक सेन, पीपुल्स यूनियन फाॅर सिविल लिबर्टी के उपाध्यक्ष हैं। साथ ही साथ वह प्रसिद्ध समाजसेवी तथा बच्चों के मशहूर डाक्टर हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़ राज्य में गरीब आदिवासियों के उत्थान के लिए काफी कार्य किया है। वे पिछले 20 महीनों से जेल में सड़ रहे हैं। डा0 विनायक सेन को अनिश्चित काल के लिए इसलिए जेल में डाला गया क्योंकि उन्होंने ‘सलवा’ जुडूम का विरोध किया था। सलवा जुडूम एक राज्य पोषित सशस्त्र संगठन है जिसको छत्तीसगढ़ राज्य में उन राजनैतिक आन्दोलन कारियों एवं लोगों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए सरकार द्वारा खुली छूट दे दी गई हैं जो भारतीय कारपोरेट कम्पनियों एवं मल्टीनेशनल कम्पनियों के द्वारा जमीन एवं संशाधनों पर कब्जे का प्रबल विरोध कर रहे हैं। हजारों आदिवासियों को पैरामिलिट्री सेनाओं के द्वारा छोटे-छोटे गाँवों में बन्दी बना दिया गया है। नागरिकों द्वारा गठित की गई जाँच समितियों ने फैसला दिया है कि डा0 विनायक जेल अधिकारियों की पूर्व अनुमति से जेल के अन्दर वृद्ध माओवादी कैदी को चिकित्सीय सहायता देने के लिए गए थे। इसी कारण उनको छत्तीसगढ़ स्पेशल पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट 2005 एवं अवैध गतिविधियाँ (रोकथाम) एक्ट 1967 के तहत गिरफ्तार किया गया। उन पर यह आरोप लगाया गया कि वे गुप्त दस्तावेज ले जाने का कार्य करते हैं। इस राक्षसी कानून के अन्तर्गत 1000-से ऊपर राजनैतिक कैदी राज्य की विभिन्न जेलोें में विगत कई वर्षों से सड़ रहे हैं। डा0 विनायक सेन जो हृदय रोग के गंभीर मरीज हैं, उनको आवश्यक चिकित्सीय सुविधा नहीं पहुँचाई गई। अदालत ने अभी जल्दी ही ये आदेश दिया है कि कैदी की मेडिकल रिपोर्ट प्राप्त की जाए एवं उन्हें आवश्यक चिकित्सीय सहायता उपलब्ध कराई जाए। (डा0 विनायक सेन को इस लेख के लिखने के दो महीने के बाद मई 2009 में अन्ततोगत्वा रिहा कर दिया गया।)
20 जनवरी 2005 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने पूरे हिन्दुस्तान की टेªड यूनियनों के पदाधिकारियों एवं सदस्यों को आश्चर्य में डाल दिया। सुप्रीम कोर्ट ने, एक विशेष अनुमति याचिका जिसको सी0बी0आई0, मध्य प्रदेश राज्य, एवं छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा आदि ने दायर किया था, पाँच मुख्य षड़यंत्रकारियों को रिहा कर दिया जिन पर टेªड यूनियन लीडर गुहानियोगी की हत्या का आरोप था। इन पाँचों में दो उद्योगपति, ओसवाल आॅयल एण्ड स्टील प्राइवेट लिमिटेड के मालिक चन्द्रकान्त शाह तथा सिम्पलेक्स इण्डस्ट्रीज के मालिक, मूलचन्द भी थे। सुप्रीम कोर्ट ने छठे व्यक्ति अर्थात जिस व्यक्ति को गुहा नियोगी को मारने की सुपारी दी गई थी, को उम्रकैद की सजा सुनाई। इसके पूर्व दुर्ग की सेशन कोर्ट ने पाँच अभियुक्तों जिसमें दो उद्योगपति शामिल थे उम्र कैद की सजा दी थी तथा छठे को जिसने सुपारी ली थी मौत की सजा सुनाई थी। गुहा नियोगी, जो मशहूर ट्रेड यूनियन नेता थे, को 25 सितम्बर 1991 को पत्तन मल्लाह, जो भाड़े का कातिल था, जिसके साथ गुहा की कोई शत्रुता न थी, के द्वारा निर्ममता से हत्या कर दी गई थी। सेशन्स कोर्ट के मुकदमें के दौरान सरकारी वकील ने यह आरोप लगाया था कि भिलाई के दो अग्रणी उद्योगपतियों ने शंकर गुहा नियोगी की हत्या करवाई क्योंकि नियोगी मजदूरों को संगठित कर रहा था और उनसे टेªड यूनियनें बनवा रहा था। जिसके कारण मजदूरों से सम्बंधित बहुत से कानून उस क्षेत्र में लागू करने पड़ रहे थे। इसके पूर्व, हाईकोर्ट ने सेशन्स कोर्ट के फैसले को उलटते हुए सभी 6 अभियुक्तों को रिहा कर दिया था।
उपर्युक्त न्यायिक निर्णयों का अध्ययन करने पर यह बात स्पष्ट रूप से जाहिर हो रही है कि न्यायालय की स्वतंत्रता तो सैद्धांतिक रूप से मौजूद है परन्तु वास्तव में न्यायालय दुनिया के दो बड़े प्रजातंत्रों एवं अन्य में स्वतंत्र नहीं हैं। संसार में बहुत से परिवर्तन हो रहे हैं। पुरानी प्रजातांत्रिक व्यवस्था, अपने सामाजिक एवं आर्थिक महत्व एवं उपयोगिता को खो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव, ‘‘बानकी मून’’ ने वर्तमान राजनैतिक एवं आर्थिक संस्थाओं की निरर्थकता को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित टिप्पणी की है क्योंकि ये संस्थाएँ आर्थिक एवं राजनैतिक संकट का सामना नही कर पा रही हैः-
‘‘हमने परिवर्तन की भयानकता को देखा है, मुझे डर है कि अभी हालात इससे भी खराब आने हैं। एक ऐसा राजनैतिक तूफान आएगा, जिससे समाज में अव्यवस्था बढ़ेगी, सरकारें और निर्बल होंगी एवं जनता और क्रुद्ध होगी-ऐसी जनता जिसने अपने नेताओं और स्वयं अपने भविष्य में विश्वास को खो दिया होगा।’’

लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स

अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854

अन्तिम भाग
( समाप्त )

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29.11.09

लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता-5

संवैधानिक मिथ्या या राजनैतिक सत्य
रैण्डल बनाम विलियम एच साॅरेल 548 यू0एस0 230 (2006) मुकदमें में सुप्रीम कोर्ट ने छः भिन्न विचार व्यक्त किए उनमें से तीन जजों ने बहुमत राय से अभियान खर्चे की सीमाओं को समाप्त कर दिया एवं यह विचार व्यक्त किया कि खर्च पर कोई सीमा निर्धारित करना असंवैधानिक है। इस निर्णय से उन प्राइवेट कम्पनियों को काफी फायदा पहुँचा जो खुले तौर से राजनैतिक पदों की लालसा करती थीं।
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता को बचाने में बुरी तरह से असफल रहा है। जार्ज डब्लू बुश बनाम अलवर्ट गोरे जू0 531 यू0 एस0 98 (2008) के मुकदमें में यह बात साबित हो गईं। 5-4 जजों ने बहुमत से यह निर्णय दिया कि फ्लोरिडा में वोटों की गिनती रोक दी जाय। यह भी निर्णय में कहा गया कि ‘‘व्यक्तिगत वोटर को यू0एस00 के राष्ट्रपति के चुनाव में वोट देने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है, जब तक कि राज्य की विधायिका निर्णय दे।’’ जस्टिस जाॅन पाल स्टीवेन्स ने इस निर्णय से असहमति व्यक्त की एवं फैसला दिया कि ‘‘बहुमत निर्णय ने असंख्य वोटरों को वोट देने के अधिकार से वंचित कर दिया। यद्यपि हमें कभी निश्चित रुप से यह पता नहीं चल सकता है कि इस वर्ष राष्ट्रपति के चुनाव में वास्तविक विजेता कौन है। लेकिन एक बात पूर्णतया स्पष्ट है कि वास्तविक पराजय किसको मिली। वास्तविक हार राष्ट्र के उस विश्वास की हुईं जो जज को कानून के संरक्षक के रूप में देखती थी।’’
भारत वर्ष में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए निर्णयों में, जो 1950 से 1989 के मध्य दिए हैं एवं उन निर्णयों में जो 1990 से 2008 के मध्य दिए गए हैं, स्पष्ट अन्तर हैं क्योंकि राजनैतिक वातावरण आर्थिक नीतियों से काफी प्रभावित हुआ। मल्टी नेशनल कम्पनियाँ वजूद में आईं। प्रबल भारतीय बिजनेस घराने पहले से ही राजनैतिक शक्ति के साथ मौजूद थे। 1950 से 1989 के मध्य सम्पत्ति के अधिकार के क्षेत्र में त्रुटिपूर्ण निर्णय दिए गए जिसके कारण पचास तथा साठ के दशक में भूमि सुधार कानूनों में अवरोध उत्पन्न हुआ तथा सामन्त वादियों एवं पूँजीपतियों को फायदा पहुँचा। सत्तर के दशक के मध्य सुप्रीम कोर्ट ने 1975 में राजनैतिक इमरजेन्सी के दौरान बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं के निलम्बन को उचित ठहराया, जिसके कारण जनता में सुप्रीम कोर्ट की काफी आलोचना हुई एवं बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए माफी भी माँगी। निर्णय के प्रभाव को संसद के द्वारा संविधान में संशोधन करके समाप्त किया गया। बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं का निलंबन अस्थाई रहा क्योंकि 1977 में चुनाव कराए गए। सामान्य तौर से किसी भी शैक्षिक एवं राजनैतिक परिचर्चा में जिस चीज की उपेक्षा की जाती है वह यह कि 1977 के पश्चात, भारत के कई हिस्सों में अधिक तानाशाही की परिास्थतियाँ मौजूद हैं। तथाकथित आतंकवाद विरोधी कानून इसका प्रमाण है। अनके फर्जी इनकाउन्टर इसके आवरण में कराए जाते हैं। न्यायिक-समाज अथवा बुद्धिजीवियों के द्वारा इस पर कोई विचार विमर्श नहीं किया जाता है क्योंकि जो लोग इन कानूनों से प्रभावित हैं वे या तो सामान्य (मज़दूर) लोग हैं या निम्न मध्यम वर्ग के लोग हैं।
1990 के पश्चात, भारत का सर्वोच्च न्यायालय कारपोरेट घरानों के आक्रमण के प्रभाव से अपने आप को नहीं बचा सका। यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया एवं अन्य (0आई0आर0 1990 सुप्रीम कोर्ट 273) भोपाल गैस काण्ड मुकदमे में यह पूर्णतया दृष्टिगोचर है। यूनियन कार्बाइड की लापरवाही के कारण दो-तीन दिसम्बर 1984 को मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का रिसाव हुआ, जो बहुत ही जहरीली गैस है। इस रिसाव के फलस्वरूप औद्योगिक एवं वातावरण सम्बंधी बहुत ही गंभीर दुर्घटना हुई जिसमें हजारों लोग मारे गए। इस मामले में यूनियन कार्बाइड, भारत सरकार से अपनी शर्तों को मनवानी चाहती थी। सुप्रीम कोर्ट ने यूनियन कार्बाइड की शर्तों को जल्दबाजी में स्वीकार कर लिया। इन शर्तों के तहत यूनियन कार्बाइड को, विश्व के सबसे भयानक वातावरण सम्बंधी (गैस) दुर्घटनाओं में से एक में बहुत ही कम क्षति पूर्ति करनी थी। यह क्षतिपूर्ति यू0एस00 में की जाने वाली तुलनात्मक क्षतिपूर्ति के मुकाबले में बहुत कम थी। साथ ही साथ भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार के उस अधिकार का भी सौदा कर दिया जिसके द्वारा यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों पर आपराधिक उपेक्षा एवं हत्या का मुकदमा चलाया जाता। भोपाल गैस काण्ड में लगभग तीन हजार लोग मारे गए, 60 हजार लोग गम्भीर रूप से घायल हुए तथा लगभग 2 लाख लोग स्थायी रूप से प्रभावित हुए। हजारों जानवर मारे गए। फसलंे नष्ट र्हुइं, व्यापार एवं वाणिज्य बाधित हुआ। सुप्रीम कोर्ट के उपर्युक्त निर्णय को पुनरावलोकित किया गया, क्योंकि पुनरावलोकन याचिकाएँ दायर की र्गइं एवं जनता में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की काफी आलोचना की गई। सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इस याचिका का निस्तारण प्रभावित लोगों के संतोष तक कभी नहीं किया गया। यूनियन कार्बाइड ने भारत मंे विभिन्न स्तरों पर अधिकारियों को प्रभावित किया। इसका प्रमुख वारेन एण्डरसन जमानत के दौरान फरार हो गया। 5 जजांे वाली सुप्रीम कोर्ट की बेन्च ने यह फैसला दिया कि शर्तें सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इसलिए निर्धारित की गईं क्योंकि सम्बंधित पक्ष इस पर सहमत हुए एवं भारत में उपचार प्राप्त करने में विलम्ब हुई। इसी घटना के साथ एक अन्य घटना यह हुई कि अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में एक मशहूर भारतीय न्यायाधीश डा0 नगेन्द्र सिंह की मृत्यु के कारण वह सीट रिक्त हो गई थी। उनके स्थान पर एक दूसरे भारतीय के चुनाव के लिए उस देश का वोट आवश्यक था। जहँा पर यूनियन कार्बाइड का मुख्यालय था।
1991 के पश्चात, राजनैतिक रूप से शक्तिशाली भारतीय कम्पनियों के द्वारा फूट डालने वाला एक कार्यक्रम अपनाया गया। इस कार्यक्रम में मल्टी नेशनल कम्पनियों एवं बैंकों ने फासीवादी पार्टियों जैसे भारतीय जनता पार्टी, शिव सेना, महाराष्ट्र नव निर्माण सेना आदि पार्टियों का प्रयोग खुले तौर पर किया। यह कार्य मुम्बई तथा अन्य स्थानों पर भिन्न नामों से इसलिए किया गया ताकि जनता का ध्यान उन हानिप्रद आर्थिक नीतियों से हटाया जा सके जो वे कम्पनियाँ यहाँ सरकार की मदद से लागू कर रही थीं। इन कम्पनियों ने इन फासीवादी पार्टियों की मदद से धर्म की दुहाई शुरू की एवं मुस्लिम एवं अन्य अल्पसंख्यक लोगों को राक्षस बनाकर पेश किया ताकि लोगों के ध्यान को आर्थिक नीतियों से हटाया जा सके। इसी समय सुप्रीम कोर्ट के 3 जजों की बेन्च ने मनोहर जोशी बनाम नितिन भाउराव पाटिल (0आई0आर0 1996 एस0सी0 796) मुकदमे में मुम्बई हाईकोर्ट के उस फैसले को उलट दिया जिसमें शिवसेना प्रत्याशी को लोक प्रतिनिधि अधिनियम 1951 के अन्तर्गत साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने वाला भाषण देने के लिए चुनाव लड़ने हेतु अयोग्य घोषित किया गया था। शिवसेना प्रत्याशी ने आम सभा में घोषणा की थी कि यदि उनकी पार्टी विजयी हुई तो महाराष्ट्र को प्रथम हिन्दू राज्य घोषित किया जाएगा। यही प्रत्याशी जीतने के बाद भारतीय जनता पार्टी एवं शिवसेना के द्वारा मुख्यमंत्री चुना गया। इसके पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने केसवन भारती बनाम स्टेट आफ केरल मुकदमे में सात जजों के बहुमत ने यह फैसला दिया था कि धर्म निरपेक्षता भारतीय संविधान की मूल भावना है। जिसको तो परिवर्तित किया जा सकता है और ही रद्द किया जा सकता है। किसी ऐसे मामले में जिसका सम्बन्ध चुनाव में धर्म के आधार पर अपील करने जैसी भ्रष्ट क्रियाओं से हो।
भारत की न्यायिक एवं कानूनी व्यवस्था निर्दोष नागरिकों की सामूहिक हत्या एवं अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की हत्याओं के सम्बन्ध में पूरी तरह से कार्य करने में सक्षम सिद्ध नहीं हुई है। फासीवादी, राजनैतिक दलों ने, जिनकी पुश्तपनाही कारपोरेट घरानों, एवं धनी वर्ग के द्वारा की जाती है, अनेक जघन्य कार्य अंजाम दिए हैं ताकि वे लोगों के ध्यान को भारत की अर्थव्यवस्था पर कारपोरेट घरानों के कन्ट्रोल से हटा सकंे। यद्यपि इन कारपोरेट घरानों के मुख्य सदस्यों को, जाँच आयोगों द्वारा जिनकी अध्यक्षता हाईकोर्ट के कार्यरत जज करते हैं, दोषी पाया गया है। पहले तो इन मामलों में शिकायत दर्ज नहीं की जाती है और यदि दर्ज कर ली गई तो उसकी जाँच पड़ताल नहीं की जाती है एवं अन्ततोगत्वा फाइल को बन्द कर दिया जाता है। दिसम्बर 1992 एवं जनवरी 1993 में मुम्बई (महाराष्ट्र राज्य) में हुई सामूहिक हत्या के मामलों में किसी को दोषी नहीं ठहराया गया है। इन साम्प्रदायिक हमलों में 2000 से अधिक लोग मारे गए, सैकड़ों लोग लापता हो गए, तथा पुलिस सैकड़ों मामलों में केवल ऊपर के आदेश का पालन करती हुई मूक दर्शक बनी रही। इसके विपरीत, 1993 के मुम्बई विस्फोट घटनाओं के मुकदमों के मामले में, जिसके मुख्य अभियुक्त, अन्डरवल्र्ड के खरीदे हुए सदस्य थे, उनको बचने का मौका दिया गया। इन विस्फोटो में सभी धर्मों के लोग मारे गए थे।



लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स

अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854

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