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26.11.09

भारत में चाय की आखिरी दुकान

कड़कड़ाती सर्दी हो और एक गर्म चाय की प्याली हो तो कहने ही क्या... लेकिन चाय की चुस्कियां रोमांच भरी हों, तो गर्म चाय का मज़ा भी दोगुना हो जाता है... अक्सर आपने भी रज़ाई में दुबककर मूंगफली खाते हुए चाय की चुस्कियां ज़रूर ली होंगी... गुलाबी सर्दी में चाय की ये चुस्कियां सर्दियों की रातों को रूमानी बना देती हैं... ख़ासकर तब जब आप पुरानी यादों में खोये हुए हों.. और कानो में पुराने गाने गूंज रहे हों तो कहने ही क्या... सूरज की पहली किरन के साथ चाय की प्याली से उठती हुई भांप हो और साथ में गर्मागर्म बटर टोस्ट हो, तो उसका लुत्फ़ ही अलग है... लेकिन जिस चाय का जिक्र यहां होने वाला है, वो चाय औरों से ज़रा हटकर है...

वादियों के बीच इस चाय का ज़ायका आपके मुंह को ऐसा लगेगा, कि बस पूछिए मत... दिल से बस यही निकलेगा... वाह चाय..! घर के बाहर आपने होटल या किसी खोमचे पर चाय की चुस्कियां ज़रूर ली होंगी.. लेकिन आप मेरे साथ चलिए समंदर से 3018 मीटर की ऊंचाई पर... हिमालय से सटे बद्रीनाथ... भारत के आखिरी गांव माणा में... जहां चार से पांच डिग्री के टेम्परेचर में चाय पीने का अपना अलग ही मज़ा है... बद्रीनाथ से तीन किलोमीटर आगे एक चाय की दुकान... जहां से बिना इजाज़त आगे जाना गैरकानूनी है... जहां पहुंचने के लिए आपको कठिन चढ़ाई का सामना करना पड़ेगा.. बर्फ़ की हसीन वादियों से घिरे इस इलाके में कई मंदिर भी हैं...

भारत-चीन सीमा पर बर्फीली सड़क के बीचों-बीच बसे इस गांव में है चाय की एक ख़ास दुकान... जहां अगर आपने एक बार चाय पी ली, तो वो ताउम्र याद रखेगी... न सिर्फ ज़ायके के लिए बल्कि अपनी एक और ख़ासियत के लिए... भारत के आखिरी छोर पर मौजूद इस दुकान का नाम ही पड़ गया, "भारत में चाय की आखिरी दुकान" कड़ाके की ठंड और सफ़र की थकान इस दुकान की एक गर्मागर्म चाय की प्याली से पलभर में छूमंतर हो जाएगी...

दरअसल माणा गांव में ही रहने वाले दिलबर सिंह और उसके भाई की माली हालत जब ख़स्ता होने लगी, तो उन्होंने 1981 में इस इलाके में एक चाय की दुकान खोलने का फैसला किया... और दुकान खोलने के लिए उन्होंने चुनाव किया माणा गांव के सबसे ऊपर व्यास गुफा के पास... जिसके आगे है चीन जाने के लिए बर्फीली सड़क... शुरुआत में कामकाज हल्का ही रहा, लेकिन फिर इस दुकान ने ऐसी रफ्तार पकड़ी, कि जिसने भी माणा पहुंचकर इस चाय की चुस्कियां लीं, उसने इसकी तारीफ़ों के कसीदे पड़ना शुरु कर दिये...और फिर दिलबर सिंह का धंधा चोखा हो गया...

खास बात ये है कि यहां दार्जिलिंग और असम की कड़क चाय मिलती है, तो साथ ही खास हर्बल, तुलसी और घी वाली चाय भी मौजूद है... एडवेंचर के शौकीन लोग जब इस इलाके से गुज़रते हैं, तो भारत में चाय की इस आखिरी दुकान पर आना नहीं भूलते...लेकिन इस दुकान के साथ एक और खास बात जुड़ी है, वो ये कि जब बद्रीनाथ के कपाट खुलते हैं, तभी इस दुकान की रौनक होती है, और जब बद्रीनाथ के कपाट बंद होते हैं, तभी इस दुकान के दरवाज़े भी छह महीने के लिए बंद हो जाते हैं... मतलब साफ़ है कि अगर आप इतनी रोमांचक चाय पीना चाहते हैं, तो आपको बद्रीनाथ की यात्रा के दौरान के दौरान ही यहां का रुख करना होगा... ज़िंदगी में जब कभी मौका मिले... और अगर अगली बार आप बद्रीनाथ के दर्शनों का प्रोग्राम बना रहे हैं, तो एक बार इस दुकान के दर्शन भी ज़रूर कीजिए... वरना आपको ताउम्र इसका मलाल रहेगा, कि आपने "भारत में चाय की आखिरी दुकान" पर चाय की चुस्कियां नहीं लीं...

अबयज़ ख़ान
http://abyazk.blogspot.com/

लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता-2

संवैधानिक मिथ्या या राजनैतिक सत्य

अनादिकाल से ही आदर एवं सत्य, न्याय एवं न्याय करने वाले व्यक्तियों के साथ जुड़ा रहा है जिसके कारण न्याय प्रक्रिया की पर्याप्त जाँच नहीं की जा सकी है। मानव समाज के विकास में प्राचीन काल से वर्तमान प्रजातांत्रिक युग तक यह धारणा बनी रही है कि न्यायिक शक्ति की उत्पत्ति दैवीय है। जैसे-जैसे आधुनिक संवैधानिक व्यवस्था नवीन सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक सत्य को ध्यान में रखते हुए अपनायी गई, न्याय पालिका राज्य के एक पृथक अंग के रूप में उभरकर सामने आई। यूरोप में शक्ति पृथक्कीकरण के सिद्धांत को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई। सत्रहवीं सदी में इंग्लैण्ड में व्यापारिक एवं वाणिज्यिक वर्गों ने राजा की निरंकुशता को चुनौती दी। गृह युद्ध के फलस्वरूप राजा को फाँसी दी गई ताकि इंग्लैण्ड में संसद की स्वच्छता को स्थापित किया जा सके। मध्यम वर्ग ने संसद के अन्दर तथा बाहर अपनी उपस्थिति एक प्रभावी वर्ग के रूप में दर्ज की।
1789 की फ्रांसीसी क्रांति के पश्चात फ्रांस में भी सत्ता का हस्तान्तरण राजतंत्र से व्यापारिक वर्ग को किया गया। फ्रांसीसी क्रांति का नेतृत्व मध्यम वर्ग ने किया। इसमें मजदूरों एवं किसानों ने अहम भूमिका अदा की। क्रांतिकारी हिंसा एवं अन्य बहुत सी ज्यादतियाँ जो इस क्रांति के फलस्वरूप लोगों पर हुईं, वे उन सारी हिंसा, अन्याय, कष्ट एवं पीड़ा से कहीं कम थीं जो निरंकुश राजतंत्र एवं कुलीन वर्ग के द्वारा इसके पूर्व की गईं। यही कुछ लोग सम्पूर्ण कृषि एवं व्यावसायिक सुविधाओं का भोग करते रहते थे। यही कुलीन वर्ग के लोग आम लोगों पर अत्याचार करते, उनको जेल में डालते एवं उनकी हत्या कर देते। जवाहर लाल नेहरू ने फ्रांसीसी क्रांति पर टिप्पणी करते हुए जेल में लिखा था:-
‘‘फ्रांसीसी आतंक एक बहुत भयानक चीज थी। यह फ्रांस की क्रांति से पहले की गरीबी एवं बेरोजगारी की बुराइयों की तुलना में एक पिस्सू की दंश की भाँति थी। सामाजिक क्रांति का मूल्य चाहे कितना बड़ा ही क्यों न हो, वह उन बुराइयों एवं युद्ध की कीमत से कम है जिनका सामना हमें वर्तमान सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था में समय-समय पर करना पड़ता है। फ्रांस की क्रांति का भय अभी बना हुआ था क्योंकि कुलीन वर्ग के बहुत से लोग इस क्रांति में भुक्तभोगी थे एवं हमारी परम्परा इस विशिष्ट वर्ग के प्रति सम्मान की रही है। इस वर्ग से हमदर्दी करना गलत नहीं है। एवं हमारी शुभकामनायें उनके साथ है, परन्तु जो लोग अधिक महत्वपूर्ण हैं, वे आम लोग हैं। हम कुछ लोगों के लिए बहुसंख्यक वर्ग (आम लोगों) की बलि नहीं दे सकते है।’’
इन्ही राजनैतिक विकासों के फलस्वरूप, अमेरिकी स्वतंत्रता के 1776 के युद्ध के पश्चात, शक्ति का सन्तुलन बनाए रखने के लिए, शक्ति पृथक्वीकरण के सिद्धांत को प्रतिपादित किया गया एवं एक स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था अमेरिकी संविधान में की गई। यह व्यवस्था फ्रांसीसी राजनैतिक दार्शनिक, मान्टेस्क्यू एवं यूरोप में हुए घटनाक्रम के फलस्वरूप हुई।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता एवं राजनैतिक सत्य में कहाँ तक समानता है, इस बात का फैसला करने के लिए अमेरिका (यू0एस0ए0) एवं भारत के सर्वोच्च न्यायालयों की कार्यप्रणाली का गूढ़ अध्ययन करना होगा। यह आमतौर पर स्वीकार किया जाता है कि अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय का इतिहास वास्तव में अमेरिका का इतिहास है। इसके कथनों एवं निर्णयों में अमेरिकी समाज का गूढ संघर्ष एवं तनाव दृष्टिगोचर होता है। यही बात भारतीय सर्वोच्च न्यायालय पर भी लागू होती है, हालाँकि उस सीमा तक नहीं, क्योंकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँच, न्यायिक सहायता के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले अधिकांश लोगों के लिए संभव नही है। अमेरिकी एवं भारतीय दोनों सर्वोच्च न्यायालयों को न्यायिक पुनरावलोकन की असीम शक्तियाँ प्राप्त है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय सैद्धांतिक रूप से अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय से अधिक शक्तिशाली है।
परन्तु वास्तविकता कहीं इससे परे है। इन देशों की न्यायिक संस्थाएँ, आर्थिक एवं राजनैतिक नीतियों से काफी सीमा तक प्रभावित होती हंै। पिछली दो सदियों में न्यायपालिका यद्यपि एक पृथक संस्था के रूप में उभरकर आई है, तथापि यह आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक अन्याय के प्रति, राजनैतिक संघर्ष का बदल नही हो सकती है। यह संघर्ष ही किसी समाज में शक्तियों के सन्तुलन को परिवर्तित करता है। न्यायपालिका अपने नेक इरादों के बावजूद भी, सामाजिक आर्थिक एवं राजनैतिक क्रांति को जन्म नहीं दे सकती है क्योंकि इसका कार्य वर्तमान कानूनों की व्याख्या करना एवं उसको लागू करना है। वर्तमान कानून केवल वर्तमान स्थिति का प्रतिनिधित्व करते हंै। यदि विधायिका एवं कार्यपालिका स्थिरता की ओर झुकी हुई हंै या अवनति या प्रतिक्रिया के मार्ग पर हंै, तो न्यायपालिका की परेशानियाँ और भी बढ़ जाती हंै। इन सीमाओं के बावजूद भी, यह न्यायपालिका का संवैधानिक उत्तरदायित्व है कि वह मूलभूत अधिकारों की रक्षा करे तथा जीवन के अधिकार एवं राजनैतिक स्वतंत्रता के कानून के समक्ष, समानता के अधिकार की रक्षा करे, सामाजिक आर्थिक अन्यायों एवं भेदभावों के उन मामलों को समाप्त करे जो न्यायपालिका के समक्ष प्रस्तुत किए जाएँ।
अमेरिकी समाज में एक पृथक एवं भिन्न न्याय व्यवस्था की स्थापना मात्र से न्याय की प्राप्ति संभव नहीं हुई। डेªड स्काट बनाम जाॅन एफ0 ए0सैनफोर्ड मुकदमा, 60 यू एस0 393 जिसका फैसला 1857 में हुआ, इसका जीता जागता सबूत है। मुख्य न्यायाधीश ने फैसला दिया कि ‘‘एक गुलाम की हैसियत, सम्पत्ति से अधिक नहीं है। वह व्यापार एवं क्रय की एक वस्तु है। अमेरिकी स्वतंत्रता की उद्घोषणा की तरफ इंगित करते हुए मुख्य न्यायाधीश रोजर बी0 टैने ने इस मामले में टिप्पणी भी की थी कि ‘‘ इस विवाद से पूरी तरह स्पष्ट है कि गुलाम अफ्रीकन प्रजाति को वे लोग अपने में शामिल करना नहीं चाहते थे जो कानून बना रहे थे या उसको लागू कर रहे थे।’’ यह निर्णय उस समय के कपास एवं अन्य बाग़वानी करने वाले मालिकों के हितों की रक्षा करने से प्रेरित था। यही वर्ग उस समय अमेरिका के प्रभावकारी आर्थिक हितों का प्रतिनिधित्व करता था। उस समय के दुराग्रह अब भी विद्यमान हैं। यही कारण है कि अमेरिकी प्रशासन संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा पारित डरबन नस्लवाद (प्रथम) एवं डरबन नस्लवाद (द्वितीय) के विरुद्ध एवं इजराइल के नस्लीय भेदभाव (जहाँ कि चुनी हुई प्रजाति की नीति सरकारी नीति है) के विरुद्ध प्रस्तावों के सम्बन्ध में प्रभावकारिता से सहयोग करने या उनको लागू करने में पूरी तरह अक्षम साबित हुआ है।
यद्यपि अमेरिका में गुलामी प्रथा का अन्त कर दिया गया है फिर भी वर्ग एवं जाति पर आधारित नस्लवाद अमेरिकी न्यायिक व्यवस्था में अब भी मौजूद है। अफ्रीकी नस्ल के काले अमेरिकी, मजदूर एवं खेतिहर मजदूर का एक बड़ा हिस्सा हैं। कुछ दशक पूर्व उन्हें वोट देने का अधिकार न था। इसलिए उनका राजनैतिक प्रभाव नहीं है। आज लगभग तेईस लाख उन्नीस हजार दो सौ अट्ठावन नागरिक व्यक्तिगत (प्राइवेट) अमेरिकी जेलों में बंद हैं।
यह विश्व की सबसे बड़ी जेल संस्था है। अमेरिका के जेल, जो एक प्रकार का उद्योग हैं, प्राइवेट हाथों में हंै। यह एक बढ़ता हुआ उद्योग है। अमेरिका में उच्च शिक्षा की अपेक्षा जेलों पर अधिक पैसा व्यय किया जाता है। यह भी सार्वभौमिक सत्य है कि अफ्रीकी नस्ल के काले अमेरिकी, अमेरिकी जेलों में सर्वाधिक हैं। लगभग 9 लाख काले अमेरिकी जेलों में सड़ रहे हैं। 20 से 35 आयु वर्ग के पुरूषों में 9 में से एक अफ्रीकी अमेरिकन जेल में है एवं 35 से 39 आयु वर्ग की महिलाओं में 100 में से एक अफ्रीकी- अमेरिकन महिला नागरिक जेलों में बन्द है। उनमें से अधिकतर लोग ऐसे हैं जो कि ड्रग सम्बंधी एवं अन्य छोटे-मोटे अभियोगों में जेलों में बन्द हैं। एक काले अमेरिकी व्यक्ति ओबामा का राष्ट्रपति के रूप में चुनाव अतीत से एक भिन्न वस्तु अवश्य है, परन्तु इसने अमेरिकी समाज की, जो कि एक बड़े आर्थिक संकट से त्रस्त है एवं कर्जे में डूबा हुआ है, सामाजिक तथा राजनैतिक सच्चाई को नही बदला है एवं अमेरिकी समाज का मूल ढाँचा वैसे ही मौजूद है। यद्यपि पचास के दशक के अफ्रीकी-अमेरिकनों पर हत्या के नजरिये से आक्रमण अब अतीत का हिस्सा बन गया है फिर भी अमेरिकी पुलिस समय-समय पर अपने कुकृत्यों से श्वेत वर्ग की ओर अपने नस्लीय झुकाव को पूरी तरह से जाहिर करती रहती है। अबू जमाल जो कि एक सम्मानित अफ्रीकी नस्लीय, अमेरिकन पत्रकार एवं प्रसिद्ध राजनैतिक कार्यकर्ता है पिछले 25 वर्षों से अमेरिकी जेल में सड़ रहा है। वह अब मृत्यु की कगार पर है। उसकी पुनः मुकदमा करने की अपील को अमरीकी सुप्रीम कोर्ट ने ठुकरा दिया है। यह मामला सम्पूर्ण अमेरिकी न्याय व्यवस्था एवं अमेरिकी जजों की निष्पक्षता पर एक सवालिया निशान खड़ा करता है।

लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स

अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854

जारी ....

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25.11.09

लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता-1

संवैधानिक मिथ्या या राजनैतिक सत्य


पश्चिमी उदारवादी प्रजातंत्र एवं पश्चिम तुल्य प्रजातांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखने वाले विधिवेत्ता, न्यायाधीश एवं अधिवक्ता न्यायपालिका की स्वतंत्रता का बखान करने से नहीं थकते। परन्तु शायद ही ऐसा कोई हो जो इस संस्था की वाह्य मान्यता एवं आडम्बर के उस पार भी देखने का प्रयास करता हो। शायद ही कोई ऐसा हो जो इस बात का पता लगाने का प्रयास करे कि संवैधानिक व्यवस्था की कार्य प्रणाली की वास्तविकता एवं सिद्धान्त में कितना मेल है? जजों की व्यक्तिगत क्षमता, ईमानदारी एवं उनके द्वारा उच्चतम् कोटि की न्यायिक दक्षता को यदि अलग रख दिया जाये, तो राजनैतिक एवं आर्थिक व्यवस्था की पृष्ठभूमि निर्मित कानूनों की प्रकृति, नौकरशाही एवं पुलिस की कार्यप्रणाली, खुफिया एजेंसियों की कार्यप्रणाली एवं प्रकृति, योग्य वकीलों तक पहुँच, राज्य द्वारा प्रदत्त कानूनी सहायता, मुकदमों का निष्पक्ष एवं त्वरित फैसला ये सभी ऐसे कारक है जो कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता को प्रभावित करते हैं। निस्संदेह रूप से जजों की चयन प्रक्रिया न्यायिक स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता की प्राप्ति में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
यदि न्याय बिना भय एवं पक्षपात के प्राप्त करना है तो उसके लिए आवश्यक है कि उन परिस्थितियों पर नियंत्रण रखा जाये, जो समाज को चरम सीमा तक आर्थिक एवं सामाजिक धु्रवों में विभाजित करती हैं। समाज को ऐसे आर्थिक एवं सामाजिक शोषण से मुक्त रखें जो मानव को धर्म, जाति, वर्ग, नस्ल एवं लिंग के आधार पर विकसित करता हो तथा जो राजनैतिक प्रभाव एवं सामाजिक आलोचना से मुक्त हो।
राजनैतिक यथार्थ को सामने रखकर ही हम इस परिचर्चा को आगे बढ़ा सकते हैं। विशेष रूप से हमारे लिए यह प्रश्न करना महत्वपूर्ण है कि क्या न्यायपालिका वर्तमान समय में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से कार्य कर सकती है! जबकि हमारी राजनैतिक एवं संवैधानिक व्यवस्था का सिर्फ ढाँचा ही शेष रह गया तथा कि कारपोरेट घरानों के द्वारा मुख्य क्षेत्रों को पंगु बना दिया गया है। धन का संचय कुछ ही हाथों में सिमट कर रह गया है, जबकि महत्वपूर्ण आर्थिक एवं वित्तीय नीतियाँ धनी वर्ग के पक्ष में हैं। समाज का अपराधीकरण हो चुका है, जबकि नेटवर्किंग कारपोरेटों के द्वारा मीडिया के माध्यम से कई देशों में युद्ध़़ किया जा रहा है एवं राजनैतिक माध्यमों के द्वारा लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से गुलाम बनाया जा रहा है, ताकि वे समाज पर आर्थिक एवं अन्य तरीकों से नियंत्रण बनाये रखने में सफल हो सकें।
इस युग की वास्तविकताओं में अमेरिका, ब्रिटेन नियंत्रित अधिग्रहीत देशों में बागराम, अबू गरीब एवं ग्वान्टानामों बे की जेले हैं, गुप्त रूप से आर्थिक सहायता देकर विभाजित करने के लिए (दूसरे देशों में) बम विस्फोट करवाया जाता है, जिसमें हजारों बेगुनाह लोग मारे जाते हैं एवं हजारो लोग हमेशा के लिए अपाहिज हो जाते हैं। गुप्तचर एजेन्सियाँ इस बात से पूरी तरह भिज्ञ होती हैं। एक अन्य वास्तविकता-अमेरिका का पैट्रियट एवं होमलैण्ड कानून हैं जो वहाँ के नागरिकों के जीवन को नियंत्रित करता है।
कुछ देशों में मुकदमे जेल की दीवारों के अन्दर चलाए जाते हैं ताकि लोगों की निगाहों से सत्य को छुपाया जा सके। एक राष्ट्र की कानून व्यवस्था के अन्तर्गत सैनिक न्यायालयों का गठन किया जाता है। अनेक गणतन्त्रात्मक क्रांतियों की ऐतिहासिक स्मृतियों के बावजूद, यूरोप में अवैध रूप से लोगों को गिरफ्तार किया जाता है एवं गुप्त जेलों में रखा जाता है। अफ्रीका एवं एशिया के देशों में विशेष रूप से भारत तथा पाकिस्तान के लोगों को गैर कानूनी ढंग से गिरफ्तार किया जाता है। सरकार अधिग्रहीत सेनाओं से मिलकर अपने देश के लोगों पर बमबारी करवाती है जिसके कारण हजारों बेगुनाह लोग लापता हो गए हैं। वकीलों पर भारत में फासीवादी शक्तियों के द्वारा किराये के गुण्डों के द्वारा आक्रमण कराया जाता है। पुलिस मूक दर्शक बनी देखती रहती है। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि फासीवादी शक्तियों पर चलाए गए मुकदमों को रोका जा सके तथा धमाकों एवं सामूहिक हत्याओं के पीछे छिपे सत्य को प्रकट होने से रोका जा सके। मुख्य जाँचकर्ता अधिकारियों की हत्या करवा दी जाती है। फिलीपाइन्स में जन आन्दोलनों के प्रतिनिधियों, जिनमें वकील भी शामिल हैं को मौत के घाट उतार दिया जाता है। इस्राइल के द्वारा, जहाँ कि कानून व्यवस्था नस्ल एवं अन्याय पर आधारित है, पैलिस्टाइन भूमि पर अवैध रुपसे कब्जा कर लिया गया है एवं घरों को तबाह व बरबाद कर दिया गया है। हद तो यह कि इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को प्रजातांत्रिक कहा जा रहा है। इराक में हजारों बेगुनाह जेलों में सड़ रहे हैं। लाखों लोग शरणार्थी बन चुके हैं। उन लोगों के जीवन का कोई महत्व नहीं रह गया है। इराक पर अमेरिका का अनधिकृत कब्जा है एवं सार्वजनिक पदों पर सम्प्रदाय के आधार पर नियुक्तियाँ की जा रहीं है। अफ्रीका महाद्वीप में कांगो में संसाधनों पर कब्जा करने के लिए युद्व चल रहा है। छापा मार सेनाएँ विदेशी कम्पनियों एवं सरकार के साथ साठ गाँठ करके गृह-युद्धभड़का रही हैं । साथ ही साथ व्यक्तिगत सेनाएँ भी सक्रिय हैं । चीन में हजारों फैक्टरियाँ बन्द हो चुकी हैं एवं फैक्ट्रिरियों के मालिक हजारों मजदूरों का बकाया धन लेकर फरार हो चुके हैं। जापान मे बेरोजगारी दिन प्रतिदिन बढ़ रही है जिससे वहाँ आत्महत्या की दर में जो पहले ही बहुत ज्यादा थी अब और बढोत्तरी हो रही है। ये कुछ ऐसे सत्य हैं, जिसकी पृष्ठभूमि में हमारे न्यायिक संस्थान कार्य कर रहे हैं। इन परिस्थितियों में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का पुनरावलोकन करना आवश्यक है ताकि हम सत्य की तह तक पहुँच सकें।

लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स

अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854

जारी ....

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24.11.09

लो क सं घ र्ष !: बाबरी मस्जिद और लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट


बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने के बाद सरकार ने लिब्रहान आयोग की स्थापना की थी। जिसकी रिपोर्ट संसद में पेश नही हुई कि उससे पूर्व मीडिया ने उसको प्रसारित कर दिया जिसको लेकर संसद में जबरदस्त हो हल्ला हंगामा हुआ। सरकार जब महंगाई के मोर्चे पर जबरदस्त तरीके से असफल है तो लोगो का ध्यान हटाने के लिए लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट की लीकेज़ का ड्रामा शुरू कर दिया है । जिससे जनता का ध्यान मूल समस्याओं का ध्यान हटा रहे। लिब्रहान आयोग की आयोग भी स्पष्ट तरीके यह कहती है की राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उनके अनुशांगिक संगठनों ने योजनाबद्ध तरीके से बाबरी मस्जिद को तोडा था । केन्द्र सरकार में यदि जरा सा भी नैतिक साहस है तो ऐसे संगठनों के ऊपर प्रतिबन्ध लगा दे जो देश की एकता और अखंडता को क्षति पहुंचाते है ।
कांग्रेस की धर्म निरपेक्ष सोच बदल चुकी है जिसके चलते फांसीवादी संगठन बढ़ते हैं और देश के अन्दर दंगे फसाद शुरू होते हैं । महाराष्ट्र के अन्दर भी शिव सेना की गतिविधियाँ जारी रखने में समय-समय पर कांग्रेस सरकार का भी संरक्षण रहता है अन्यथा राज ठाकरे बाल ठाकरे जैसे लोग पनप ही नही सकते हैं । लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट में कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिम्हा राव की भूमिका को स्पष्ट नही किया है। श्री नरसिम्हा राव साहब ने अगर चाहा होता तो बाबरी मस्जिद को आराजक व फांसीवादी तत्व गिरा नही सकते थे । आज भी इन तत्वों का प्रचार अभियान जारी है समय रहते हुए यदि उचित कार्यवाही नही की गई तो यह देश की एकता और अखंडता के लिए गंभीर खतरा होंगे व एक नया आयोग बनेगा और उसकी भी रिपोर्ट लीक होगी ।

सुमन
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23.11.09

लो क सं घ र्ष !: पुलिस ठगी गयी अपने जाल साजों से

उत्तर प्रदेश पुलिस आये दिन आतंकवाद से लेकर भ्रष्टाचार से लड़ने तक का दावा करती रहती हैविभाग में कार्यरत जालसाजों ने 1986 में एक शासनादेश में परिवर्तन कर उसको पूरे विभाग के ऊपर लागू करा दियापुलिस विभाग में नियम यह है कोई पुलिस कर्मचारी पुलिस अफसर अपने गृह जनपद या गृह के नजदीक तैनात नही रह सकता है , किंतु जालसाजों ने 11 जुलाई 1986 में एक फर्जी शासनादेश जारी कर उस नियम में परिवर्तन कर लिया और उनके अपने गृह जनपद में भी तैनाती होने लगी । अपराधियों से साँठ-गाँठ करना तथा अपराधों में भी लिप्त होना लगा रहेगा । उत्तर प्रदेश गृह विभाग के भोले-भाले अधिकारी पुलिस के उच्च अधिकारी फर्जी शासनादेश को लागू करते रहे है । अब जाकर इस खुलासा हुआ है कि उक्त शासनादेश फर्जी हैइससे पहले पुलिस विभाग की भर्तियाँ फर्जीवाड़ा का एक उत्कृष्ट नमूना हैऐसे भोले भाले अधिकारियों से कानून व्यवस्था बचाए और बनाये रखने की उम्मीद रखना बेईमानी है
आज जरूरत इस बात की है कि पूरे पुलिस विभाग की ईमानदारी से समीक्षा की जाए और अपराधी और भ्रष्टाचारी तत्वों से उसको साफ़ किया जाएवर्तमान में पुलिस के क्रियाकलापों को देखकर माननीय न्यायमूर्ति आनंद नारायण मुल्ला की टिपण्णी याद जाती है कि पुलिस अपराधियों का एक संगठित गिरोह है, इसके अतिरिक्त कुछ नही हैआये दिन पुलिस अपने जालसाजों से ठगी जायेगी और जनता तबाह होती रहेगी और सबसे बड़े आश्चर्य कि बात यह है कि जिस तरीके से अपराधियों का अपराधिक इतिहास होता है उसी तरीके से थाने से लेकर पुलिस प्रमुख तक का भी अपराधिक इतिहास होता है , सिर्फ़ उसको प्रकाशित करने कि जरूरत है ।

सुमन
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22.11.09

लो क सं घ र्ष !: भू लोक से लोगो को बिना टिकट स्वर्ग लोक भेजने का कार्य

प्रधानमंत्री जी ,
रेल मंत्री पद पर सुश्री ममता बनर्जी आसीन हैं । रेल विभाग की हालत यह हो गई है कि प्रतिदिन अखबार के मुख्य पृष्ट से ज्ञात होता है कि कोई कोई दुर्घटना हो गई हैJustify Fullआज के अखबार में छपा है कि गोरखधाम एक्सप्रेस ट्रक से टकराया या आए दिन ट्रेन टे्क्टर भिडंत में 4 मरे", "ओवर स्पीडिंग से मंडोर एक्सप्रेस पलटी, 7 मरे ", "मालगाड़ी पलटी रेल मार्ग ठप " के शीर्षक से समाचार प्रकाशित होते रहते हैं । मुझे भी अम्बाला से लखनऊ तक की यात्रा का अच्छा अनुभव इस बीच में हुआस्लीपर क्लास के डिब्बे में चार शौचालय होते हैं चारो टूटे-फूटे थेउनके दरवाजे टूटे थे, पानी नदारद था यात्री सुविधाएं शून्य थीहाँ हर बड़े स्टेशन पर चेकिंग स्टाफ आकर यात्रियों से वसूली जरूर कर रहा था , जुर्माने कर रहे थेरेलवे के अधिकारीयों से बात करने पर यह भी पता चला कि टै्फिक स्टाफ बहुत कम है जो स्टाफ है उससे 18-18 घंटे कार्य लिया जा रहा है जिससे उनकी कार्यकुशलता में कमी रही है एक स्टेशन मास्टर ने बताया कि उनकी ड्यूटी पीरीयड़ में 200 ट्रेनों को पास कराना होता हैसाँस लेने की फुर्सत नही होती है ऐसे समय में मानवीय चूक तो होगी ही
रेल मंत्री सुश्री ममता बनर्जी के पास रेल मंत्रालय के लिए वक्त नही हैममता बनर्जी की इच्छा है कि बंगाल की वाम मोर्चा सरकार को किसी भी तरीके से हटा कर स्वयं मुख्य मंत्री बने । उनकी इच्छा पूर्ति के लिए उन्हें वाम मोर्चा सरकार हटाओ मंत्री बना दें । किसी दूसरे व्यक्ति को रेल मंत्रालय देखने की लिए दे दीजियेरेल में सफर करने का यह मतलब यह नही है कि आप भू लोक से लोगो को बिना टिकट स्वर्ग लोक भेजने का कार्य करें

सुमन
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21.11.09

लो क सं घ र्ष !: इन्साफ की खातिर

उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन ( मंत्री पद प्राप्त ) वरिष्ट अधिवक्ता पूर्व एडवोकेट ज़नरल श्री एस.एम काजमी ने एस.टी.एफ द्वारा खालिद मुजाहिद को 16 दिसम्बर 2007 को मडियाहूँ, जिला जौनपुर से पकड़ कर २२ दिसम्बर 2007 को बाराबंकी रेलवे स्टेशन पर आर.डी.एक्स ड़िकोनेटर की बरामदगी दिखाकर जेल भेज दिया था , के मामले में अपने पद की परवाह करते हुए दिनांक 20 नवम्बर 2009 लो माननीय उच्च न्यायलय इलहाबाद खंडपीठ लखनऊ में खालिद मुजाहिद की तरफ़ से जमानत प्रार्थना पत्र पर बहस कीआज की दौर में पद पाने के लिए लोग सब कुछ करने के लिए तैयार रहते हैंवहीं श्री काजमी उत्तर प्रदेश के न्यायिक इतिहास में (जहाँ तक मुझे ज्ञात है ) पहली बार सरकार के ग़लत कार्यो के विरोध करने के लिए किसी मंत्री पद प्राप्त व्यक्ति ने किसी अभियुक्त की तरफ़ से वकालत की होज्ञातव्य है कि एस.टी.एफ पुलिस के अधिकारियो ने कचहरी सीरियल बम ब्लास्ट (लखनऊ, फैजाबाद, वाराणसी ) में खालिद मुजाहिद तारिक काजमी को घरो से पकड़ कर उक्त वाद में अभियुक्त बना दिया था । ऐसा कार्य एक सोची समझी रणनीति के तहत उत्तर प्रदेश में हुआ था ।
माननीय उच्च न्यायालय के न्यायधीश न्याय मूर्ति श्री अश्वनी कुमार सिंह ने एस.टी.एफ के वरिष्ट अधिकारी वाद के विवेचक तथा क्षेत्र अधिकारी पुलिस मडियाहूँ, जिला जौनपुर को 26 नवम्बर 2009 को न्यायलय में समस्त अभिलेखों की साथ तलब किया है
खालिद मुजाहिद के चाचा मोहम्मद जहीर आलम फलाही द्वारा क्षेत्र अधिकारी मडियाहूँ से सूचना अधिकार अधिनियम के तहत सूचना मांगी थी कि एस.टी.एफ ने किस तारीख को खालिद मुजाहिद को गिरफ्तार किया थाजिस पर क्षेत्र अधिकारी मडियाहूँ ने लिखकर दिया था कि 16 दिसम्बर 2007 खालिद मुजाहिद को एस.टी.एफ पकड़ कर ले गई थी
श्री एस.एम काजमी द्वारा माननीय उच्च न्यायलय में निर्दोष युवक खालिद मुजाहिद की तरफ़ से जमानत प्रार्थना पत्र की बहस करने से ये महसूस होने लगा है की इन्साफ दिलाने की लिए लोगो में जज्बा हैकाजमी साहब बधाई की पात्र हैं

सुमन
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