19.11.09
अब काले आलू का मज़ा लीजिये
यह भी पाया गया हैं की साधारण आलू के मुकाबले काले आलू में दोगुना आयरन और सात गुणा कैल्सियम पाया गया|संस्थान के अनुसार प्रति १०० ग्राम काले आलू में १०६.२ किलो कैलोरी उर्जा मिलती हैं जबकि साधारण आलू से इतनी ही मात्रा से ९७ किलो कैलोरी प्राप्त होती हैं |इस आलू में ७.७% स्टार्च,२३.५३% कार्बोहाईड्रेट के साथ ही प्रचुर मात्रा में विटामिन सी भी पाया जाता हैं |यह आलू "एन्थोसाइनिन" नामक एंटीओक्सीडेंट के कारण अन्दर से बैंगनी दिखता हैं जो बुढ़ापे के लिए ज़िम्मेदार फ्री रेडिकल्स को मारने के साथ ही कैंसर की संभावनाओ को भी कम कर देता हैं |इस आलू की अन्य खूबियो को जानने के लिए इसे बंगलोर स्थित आई आई एच आर भेजा गया हैं |
18.11.09
कांग्रेस घास पर हितेषी कीट हाफलो
लो क सं घ र्ष !: राजनीति में विश्वासघात
समाजवाद के दार्शनिकों का यह मूलमंत्र समाप्त हो गया और समाजवादी आन्दोलन सुविधा और भोग की राजनीति में खो गया और समाजवादी नेता और कार्यकर्ता जो सुविधा और भोग की राजनीति में अपना स्थान बना सके, जीवित हैं, अन्यथा खो गये।
समाजवादी आन्दोलन तो नहीं रहा, लेकिन समाजवाद के नाम पर डा0 राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण और आचार्य नरेन्द्र देव के नाम पर शोषण की राजनीति शुरू हो गई और समाजवादी पार्टी ने जन्म लिया। इस पार्टी में सुविधा भोगी जातिवादी और सम्प्रदायवादी लोगों ने गठजोड़ किया और जिसके विरूद्ध समाजवादी नेता लड़ते रहे वही इस पार्टी में परवान चढ़ा और वह है वंशवाद। मुलायम सिंह यादव, शिवपाल सिंह यादव, राम नारायण यादव और अखिलेश यादव। भाई-भतीजावाद पर उठार-प्रहार करने वाली राजनीति पर भाई-भतीजावाद हावी हो गया। साम्प्रदायिकता और जातिवाद का बोलबाला रहा। मुझे याद है कि जब हम समाजवादी योजन सभा संसोपा और सोपा के लोग जाति तोड़ो सम्मेलन किया करते थे, आर्थिक और सामाजिक रूप से दबे कुचले दलितों को विशेष अवसर दिलवाने के लिए संघर्ष करते थे, आये दिन जगह-जगह सहभोज का आयोजन करते थे, भाई-भतीजावाद को मानना एक गाली समझते थे, आज हम उन्हीं मूल्यों को जीति रखकर अपने को समाजवादी घोषित करने में गर्व महसूस करते हैं। अब अगर मुलायम सिंह यादव भाई-भतीजावाद और वंशवाद को अग्रसर करने के लिए अपने ही जैसे चरित्र के व्यक्ति से दोस्ती करता है और दोस्ती करने के नतीजे में अपनी नींव खिसकती हुई देखकर दोस्ती समाप्त करता है तो इसमें कैसा विश्वासघात?
कल्याण सिंह जो एक समय में बावरी मस्जिद गिराने के दोषी रहे, भारत के संविधान की धज्जियां उड़ायी, अपने ही देश के कानून को जूतों की नोंक पर रखा, भारतीय जनता पार्टी से अलग होने के बाद उन्हें भी सहारे की जरूरत थी और अपनी इसी जरूरत को पूरा करने के लिए मुलायम सिंह का हाथ थामा। आवश्यकता के अनुसार हिन्दू राष्ट्र की स्थापना और मन्दिर आन्दोलन से जोड़ कर सत्ता में भागीदार बनाने के उद्देश्य से जब उन्हें मुलायम का साथ अच्छा लगा साथ हो लिए और जब यह साथ दोनों के लिए नुकसानदेह लगा तो दोनों ही अलग हो गये। ये थी स्वार्थ की राजनीति, फिर यह कहा जाय कि मुलायम ने कल्याण सिंह के साथ विश्वासघात किया या कल्याण सिंह ने मुलायम सिंह के साथ विश्वासघात किया, कोई मायने नहीं रखता और सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि जब दोनों को एक-दूसरे के साथ की जरूरत थी साथ रहे और जब जरूरत समाप्त हुई तो अलग हो गये।
सिर्फ इन्हीं दोनों नेताओं को नहीं बल्कि देश के किसी दल या दल के किसी नेता को देश की चिन्ता नहीं है और अगर चिन्ता है तो सिर्फ अपने स्वार्थ की। जिस नेता का स्वार्थ जिस दल से सिद्ध होता है, वह उसके लिए उस समय तक वफादार रहता है जब तक कि उसका स्वार्थ सिद्ध होता रहे, स्वार्थ टकराने के बाद वह जिस दल के प्रति वफादार रहा है उसका साथ छोड़कर उस दल के साथ हो लेता है जहां पर उसके स्वार्थ सिद्धि की गुंजाइश हो।
यही कारण है मुलायम सिंह और कल्याण सिंह का एक-दूसरे के साथ विश्वासघात का। अगर दोनों को अपने स्वार्थ की चिन्ता न होकर देश की चिन्ता होती तो दोनों को यह कभी न लगता कि दोनों ने एक दूसरे के साथ विश्वासघात किया। सच तो यह है दोनों ने एक दूसरे के साथ विश्वासघात न करके हमेशा देश के साथ विश्वासघात किया है, कर रहे हैं और करते रहेंगें, इसलिए आवश्यक है कि अपना भला छोड़कर देश का भला चाहने वाले एक साथ उठें और जन-जागरण चलाकर देश के कल्याण के लिए स्वार्थ त्यागकर आगे बढ़ें, इसी में हमारी भलाई है।
मुहम्मद शुऐब एडवोकेट
मोबाइल - 9415012666
loksangharsha.blogspot.com
17.11.09
लो क सं घ र्ष !: समय की सबसे बड़ी गाली-2
ट्रेन में सफर करते हुए अगर कुछ सैनिक मिल जाएँ तो सम्मान से अपनी रिजर्व सीट छोड़ दें, अन्यथा आपको जबरदस्ती उठा दिया जाएगा, गुस्सा आने पर चलती ट्रेन से धक्का भी दिया जा सकता है। आज-कल सेना के जवानों द्वारा सिवीलियन्स की पिटाई, हत्या और बलात्कार जैसी घटनाएँ अक्सर सुनने में मिलती हैं। पता नहीं उन्होंने यह सब करना अपना अधिकार समझ लिया है या यह कुण्ठा है जो कहती है ‘‘इन्हीं लोगों की सुरक्षा के नाम पर हमें अमानवीय परिस्थितियों में रहना पड़ता है।‘‘
सच है-वे बहुत काम करते हैं, वे इतने व्यस्त हैं कि सी.आर.पी.एफ. भी अब रिजर्व नहीं रहा। इसके 87 फीसदी जवान किसी न किसी मुहिम से जुड़े हैं। जम्मू-कश्मीर में 39 प्रतिशत पूर्वोत्तर राज्य में 29 प्रतिशत और 19 फीसदी जवान देश के अन्दरूनी इलाकों में नक्सलियों से लड़ रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में कठिन और लम्बे संघर्ष तथा पाकिस्तान की नकारात्मक भूमिका के बावजूद क्या भारत कश्मीर की समस्याओं में अपना हाथ होने से खुद को पूरी तरह निर्दोष करार दे सकता है। पूर्वोत्तर राज्यों की हम बात भी कैसे कर सकते हैं जहाँ की जनता इन जवानों की तैनाती से इतनी व्यथित हो चुकी है कि इसके विरोध में आए दिन प्रदर्शन होते रहते हैं। अन्दरूनी इलाकों में नक्सलियों से लड़ने के नाम पर, आदिवासियों और किसानों को गोलियों से भूना जा रहा है। इससे बढ़ कर ‘सलवा जूडूम‘ जैसी गालियाँ विकसित की जा रही हैं। दिल्ली में ‘सिटीजन फाॅर पीस एण्ड जस्टिस इन छत्तीसगढ़’ की बैठक में एक आदिवासी का यह बयान अगर आपका दिल नहीं दहला सकता तो कुछ भी ऐसा नहीं जो आपको विचलित कर सके-‘‘एक दिन अप्रैल महीने में मैं महुआ बीनने गया हुआ था कि अचानक सलवा जुडूम के लोग वहाँ आ पहुँचे। मैं पेड़ के पीछे छुप गया पर उन्होंने महुआ बीनती चार महिलाओं को पकड़ लिया। उन्होंने मेरे सामने सन्नू ओयामी की 16 साल की बेटी कुमारी और बन्डे की 27 साल की पत्नी कमली का बलात्कार किया। 2 बुर्जुग महिलाओं को उन्होंने छोड़ दिया और जवान लड़कियों को नक्सलियों के रूप में ढ़ालकर अपने साथ ले गए। ये दोनों लड़कियाँ आज भी जगदलपुर की जेल में नक्सली होने के आरोप में बन्द हैं। वकील को अब तक हम लोग 12 हजार रुपये दंे चुके हैं पर वह कहता है कि 20 हजार देंगे तभी वह लड़कियों को छुड़वा सकेगा।’’ 13 मार्च 2007 को नागा बटालियन और सलवा जुडुम के लोगों ने गगनपल्ली पंचायत के नेन्दरा गाँव में कुछ नक्सलियों को मार गिराया था। उनके नाम उनकी उम्र के साथ इस प्रकार है - सोयम राजू (2साल), माडवी गंगा (5 साल), मिडियम नगैया (5साल), पोडियम अडमा (7 साल), वेट्टी राजू (9साल) वंजम रामा (11 साल), सोयम राजू (12 साल), सोडी अडमा (12 साल), मडकम आइत (13 साल) मडकम बुदरैया (14 साल), सोयम रामा (16 साल) सोयम नरवां (20 साल)।
आखिर इन निहत्थे किसानों और आदिवासियों से हमें क्या खतरा है, क्या यही नहीं कि देश की ज्यादातर खनिज सम्पदा इन्हीं इलाकों में है और अब पूँजीपतियों के विस्तार के लिए इन इलाकों पर कब्जा जरूरी है। गृह मन्त्री परेशान हैं क्योंकि पहले वे वित्त मन्त्री भी थे विकास! विकास! विकास! किसानों, आदिवासियों और सेना के अत्याचार झेल रहे दूसरे राज्यों के लोगों तुम मूर्ख हो। हम विकास की बात कर रहे हैं जो तुम समझ ही नहीं सकते और जरूरत भी क्या है कि तुम समझो, हम कौन सा तुम्हें उस विकास में हिस्सेदारी देने वाले हैं। लेकिन इसके बावजूद इतना तो तुमको समझना ही चाहिए कि देश एक है और कानून जरूरी, तुम्हें इसमें यकीन करना चाहिए। पिछले 65 सालों में हमने एक वर्ग की तिजोरियों को इतना भर दिया कि दुनिया के सौ अमीरों में उनके नाम हैं, और तुम मूर्ख! कपटी! देशद्रोही! देश की तरक्की में तुम्हारा यकीन ही नहीं। हाँ सच है इन 65 सालों में हम तुम्हारा भरोसा अब तक नहीं जीत पाये और इसकी तुम्हें सजा मिलेगी।
सेना को कौन बताता है कि ये लोग दुश्मन हैं। यही क्यों, लगे हाथ पाकिस्तान और दूसरे देशों पर भी विचार कर लिया जाए। या फिर पाकिस्तान की सेना को कैसे पता चलता है कि उन्हें भारतीय सैनिकों पर हमला बोलना है। जाहिर सी बात है यह तय करती हैं मुखौटा बदलती और नए साँचे में ढ़लती वे सरकारें, जो शोषण पर टिकी व्यवस्था को कायम रखती हैं। आत्महत्या करने या गोली खाने पर मजबूर किसान को देश शब्द से क्या फर्क पड़ता है, फिर वह चाहे आदिवासी क्षेत्र का हो, विदर्भ का या फिर पाकिस्तान के किसी पिछड़े इलाके का।
असल में हमारे जवान रोबोट भर हैं जिनकी उँगलियाँ ट्रिगर पर हैं और उनके पीछे उनके संचालक (इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे अंग्रेज नहीं।) दुश्मनों को चिन्हित करने में व्यस्त हैं। मन दहल जाता है कि अन्दरूनी समस्याओं से निपटने के नाम पर शस्त्रों से लैस हमारी सेना के कसरती जवान, दिन रात अभ्यास करते हैं - निहत्थे किसान, मजदूर और आदिवासियों को कुचलने के लिए। ऐसा नहीं वे चैन से बैठे हैं इस हेतु वे दिन-रात मेहनत करते हैं। बिना छुट्टी लिए अपने परिवार से दूर अकल्पनीय अमानवीय हालात (हालाँकि देश की बड़ी आबादी भी उसी हालत में रहती है। ) का सामना करते हुए, वे हत्याएँ एवं बलात्कार कर रहे हैं और घर जला रहे हैं, क्योंकि उन्हें आदेश मिला है ये शोषित लोग दुश्मन हैं। इस तरह वे वाकई नए दुश्मन पैदा करते हुए लड़ रहे हैं, मर रहे हैं।
पिछले 37 सालों में हमने बेशक कोई यु़द्ध न लड़ा हो पर हमारी सीमाओं के अन्दर यह रोज जारी है। इन परिस्थितियों में लड़ते हुए हमारे जवान वहाँ की जनता से देश भक्तों सा गौरव भी नहीं प्राप्त कर पाते जो वेतन के अतिरिक्त एक आवश्यक ऊर्जा स्रोत है। अतः सेना के जवान तनावग्रस्त हो कर आत्महत्या की राह पर चल पड़े हैं। दो साल पहले सेना के जनरल जे.जे. सिंह ने खुद स्वीकार किया था कि पिछले चार-पाँंच सालों से हर साल कम से कम 100 जवान आत्महत्या के शिकार हो रहे हैं। इसका अर्थ यह है हर हफ्ते कम से कम दो जवान आत्महत्या करते हैं। इसमें सबसे बड़ी संख्या सी.आर.पी.एफ. की है जिसे अन्दरूनी हिस्सों में लगाया जाता है। 2004-06 में 283 जवान मिलिटेन्ट हमलों में मारे गए। जबकि इसी दौरान खुद अपनी या अपने साथियों की जान लेने वाले सैनिकों की संख्या 408 थी जिसमें से 333 जवान आत्महत्या के शिकार हुए थे।
लेकिन इस सब से क्या फर्क पड़ता है, व्यवस्था में सब कलपुर्जे हैं, फिर वे किसान हों या जवान। इन सबका संचालन वास्तव में वे लोग करते हैं जिन्हें अपनी पूँजी बढ़ानी है। टेक्नोलाॅजी और दूसरे हितों के लिए बाहरी कम्पनियों से हाथ मिलाना है। बेचना है-खरीदना है। किसानों, आदिवासियों से उनकी जमीन छीननी है। इसके लिए उनके पास मुखौटा बदलती सरकार है, जो हमें समझा सके-‘राष्ट्रीय हित‘ में यह सब होना कितना जरूरी है। विरोध को कुचलने के लिए सेना है ओर उसमें भरती होने के लिए बेरोजगारों की फौज, जो भरती हो कर यदि दुश्मन (जिसे चिन्हित किया गया है। ) का सामना करते हुए मरे तो शहीद, किन्तु भर्ती के दौरान यदि भगदड़ मचने से मरे या सेप्टिक टैंक टूटने से उसमें डूब कर मरें तो कुत्ते की मौत मरेंगे यकीन मानिए आक़ाओं को देश शब्द से कोई फर्क नहीं पड़ता।
अन्तिम सत्य यह है कि सम्मानजनक जीवन की माँग शान्तिपूर्ण ढ़ंग से करना आत्महत्या है और हताशा में हथियार उठा लेना देशद्रोह। सबसे सच्चा वह ‘मैं’ है जो ‘धारक’ को एक के नोट पर एक रू. अदा करने का वचन देता है यह बात और है उसकी कीमत कभी भी एक रू. नहीं थी।
-पवन मेराज
मो0 09179371433
लोकसंघर्ष पत्रिका के दिसम्बर अंक में प्रकाशित
16.11.09
लो क सं घ र्ष !: समय की सबसे बड़ी गाली-1
मनोरमा, याद है ना आपको, जुलाई 2004 में उनकी लाश झाड़ियों में पड़ी मिली। सात दिनों पहले सेना के जवानों ने उन्हें आतंकियों का सहयोगी होने के संदेह में, बिना किसी लिखा-पढ़ी या वारन्ट के घर से अगवा कर लिया था। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के अनुसार उनके शरीर पर भयंकर शारीरिक यातनाओं और सामूहिक बलात्कार के चिन्ह थे वैसे जम्मू कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों में मनोरमाओं की संख्या गिनता ही कौन है। यहाँ सेना द्वारा किसी को अगवा करने के लिए शक का बहाना भी नहीं चाहिए। इसी साल सोपिया (जम्मू कश्मीर) में दो लड़कियाँ (आसिया जान और उनकी रिश्तेदार निलोफर जान) सेना कैम्प के पास से गायब हो गईं, एक लड़की की उम्र महज 17 साल थी। लोग जब सड़कों पर उतर आए और जाँच का घेरा तंग होने लगा तो उनकी लाशें अचानक एक नाले में प्रकट हो गईं, हैरानी की बात थी इस जगह की छानबीन पहले भी की जा चुकी थी। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के अनुसार दोनों के साथ अमानवीय तरीके से बलात्कार किया गया था। जाँच की हर दिशा सेना कैम्प की ओर इशारा करती रही। सूत्र बताते हैं कि जिस दिन दोनों गायब हुई थीं सेना कैम्प में किसी पार्टी का आयोजन था। कहने की जरूरत नहीं दोनों वाक़िअ़ात मंे किसी को सजा नहीं हुई। यह तथ्य दिल दहला देता है कि ये घटनाएँ अपवाद नहीं। छेड़छाड़ और बलात्कार सेना की आदत में शामिल होता जा रहा है। अधिकतर मामले प्रकाश में ही नहीं आ पाते क्योंकि अधिकांश पीड़ित जिस वर्ग के होते हैं, उनके लिए सेना जैसे संगठित गिरोह के सामने खड़े होने का साहस जुटा पाना ही असम्भव है। उपर्युक्त वाक़िअ़ात भी तब प्रकाश में आ सके जब स्थानीय लोगों ने इसके खिलाफ जबरदस्त विरोध प्रकट किया। मणिपुर में ऐसे अनेक वाक़िअ़ात को झेलती आ रहीं महिलाओं का धैर्य मनोरमा प्रकरण में चुक गया। उन्होंने मणिपुर सेना मुख्यालय के सामने निर्वस्त्र हो कर प्रदर्शन किया और नारे लगाए ‘‘हम सब मनोरमा की माएँ हैं हमारा बलात्कार करो।’’ शायद यह पहला वाक़िआ था जब प्रचलित मीडिया ने मणिपुर की हालत का जायजा लेने की कोशिश की। खैर दोषियों को तो सजा नहीं मिली लेकिन प्रदर्शनकारी महिलाओं को अश्लील व्यवहार करने के जुर्म में तीन माह की सजा हुई। क्या हमने वाकई कभी उस दर्द तक पहुँचने की कोशिश की है जो उन्हें कहने पर मजबूर करता है ‘‘वी आर इन्डियन बाई कर्स‘‘।
3 जून 2008 को श्रीनगर में शेख नाम का एक दिहाड़ी मजदूर अचानक हमेशा-हमेशा के लिए गायब हो गया। इसके कुछ दिनों बाद ही सेना के एक जवान की बेटी के अपहरणकर्ता का पीछा करते-करते बड़गम पुलिस ने चीची नामक एक व्यक्ति को वहाँ की एस.डी. कालोनी से गिरफ्तार किया। चीची के पास जो दस्तावेज प्राप्त हुए, वे उसे बन्दीपुर में सेना का सूत्र बताते थे। थोड़ी ही छान-बीन के बाद बड़गम पुलिस सक़्ते में आ गई क्यांेकि सूत्र बता रहे थे कि चीची को कुछ दिनों पहले मार गिराए गए एक आतंकवादी के साथ भी देखा गया था। चीची ने टूटने के बाद जो कहानी बताई वह एक दुःस्वप्न है। मार गिराया गया आतंकवादी ‘शेख’, वास्तव में श्रीनगर का दिहाड़ी मजदूर था जिसे चीची 200 रू प्रतिदिन की दिहाड़ी पर बन्दीपुर लाया था। बाद की कहानी साफ थी एक एनकाउण्टर और लाश के पास बन्दूक वगैरह-वगैरह। यह सब इसलिए क्योंकि एक मेजर ने चीची को आतंकवादी मुहैया करवाने के बदले एक लाख रूपये देने का वादा किया था। इस पर रक्षा प्रवक्ता एन.सी.विज का बयान था ‘‘वी विल इन्वेस्टिगेट व्हाट लेड टू दीज ऐलीगेशन अगेन्स्ट आर्मी यूनिट’’। स्थान- मेण्डेवाल, साल-2006, एक ऐसा ही एनकाउण्टर हुआ बाद में झूठा पाया गया। पाँच सैनिक गिरफ्तार किए गए जिसमें कमाण्ंिडग आफिसर भी शामिल था। मारे गए शौकत अहमद, जदिवाल जिले की मस्जिद के मौलवी थे। यह मामला भी तब प्रकाश में आया जब एक अन्य झूठे एनकाउण्टर की जाँच चल रही थी जिसमें अब्दुल रहमान नामक एक बेगुनाह व्यक्ति को विदेशी आतंकवादी बता कर मार गिराया गया था।
सितम्बर 11, कुपवाड़ा जिले में तो खुद सेना में भर्ती होने गए चार लोगों को मेडल की लालच में आतंकवादी बता कर मार ड़ाला गया। 22 सितम्बर 2003 को कोराझार जिले के चार बोडो युवकांे की सेना द्वारा हत्या। ये फेहरिस्त इतनी लम्बी है कि शायद कभी खत्म ही न हो। अभी पिछले महीने-अक्टूबर की 28 तारीख को जम्मू-कश्मीर की निवासी मुगनली अपने बेटे की राह तकते-तकते मर गईं। वह जम्मू कश्मीर के उन 10000 लोगों के परिजनों में से एक थी जो 1990 के बाद से गायब होते रहे। यही वह समय है जब जम्मू कश्मीर में सेना ने अपनी कवायदें तेज कीं थीं।
आखिर सेना के जवान ऐसा कैसे कर पाते हैं। साफ है इन जगहों पर उन्हें विशेषाधिकार दिए गए हैं। मणिपुर की बात करें तो वहाँ सैन्य विशेषाधिकार अधिनियम 1958 लागू है, इसके अनुसार सैनिक मात्र शक होने पर न कि सिर्फ किसी को गिरफ्तार कर सकते हैं बल्कि गोली भी मार सकते हैं। मारे जाने वाले निर्दोष लोगों की संख्या भयावह है लेकिन उससे भी भयावह -हमारे देश में कुछ जगहें ऐसी भी हैं जहाँ के लोगों की जिन्दगी किसी सैनिक के संदेह की मोहताज है। यही नहीं पीड़ित व्यक्ति न्याय के लिए अदालत का दरवाजा भी तब तक नहीं खटखटा सकता जब तक सेना इसकी इजाजत न दे दे।
सन् 2000 में पैरामिलिट्री असम राइफल ने मालोम बस स्टैण्ड पर 10 निर्दाेष नागरिकों को मार गिराया। इरोम शर्मिला (जो बतौर मानवाधिकार कार्यकर्ता ऐसे मामलों को पिछले कई सालों से देखती आ रहीं थीं ) 2 नवम्बर 2000 को आमरण अनशन पर बैठीं। माँग स्पष्ट थी। सैन्यबलों की तैनाती को मणिपुर से हटाया जाए और सैन्य विशेषाधिकार अधिनियम 1958 निरस्त किया जाए। उनका यह संघर्ष आज एक मिसाल बन चुका है और वे मानवाधिकारों की सुरक्षा चाहने वालों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। अपने इतिहास की किताबों में हम बेशक ‘रोलट एक्ट’ का विरोध करने वाले स्वतन्त्रता सेनानियों पर गर्व करते आ रहे हों पर आमरण अनशन के 9 साल पूरे कर चुकीं इरोम शर्मिला आज भी हिरासत में हैं। उन पर आत्महत्या के प्रयास का दोष लगाया गया है। ऐसे मामले में किसी व्यक्ति को 2 साल से अधिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता इसलिए हर 2 साल बाद उन्हें रिहा कर फिर से हिरासत में ले लिया जाता है, जहाँ उन्हें नाक के सहारे भोजन दे कर ज़िन्दा रखा जाता है।
लेकिन भूल जाइए सब। बस याद रखिए देश और देश की सेना पर गर्व करना, सुकून देता है खास तौर पर तब, जब पल्ले कुछ भी न हो और हमारी सरकार हमसे वह भी छीन लेना चाहती हो। कितना अच्छा होता है खाली जेबों और विपन्न लोगों द्वारा, पड़ोसी देशों के आक्रमण का खतरा बुन लेना और उसका सामना करती हमारी फौजों पर गर्व करना। जबकी हमारी फौजों का संचालन करने वाली सरकारें और भरी जेबें, जनता के अधिकारों पर अपना शिकंजा रोज-ब-रोज तंग करती जा रही हों। आइए वास्तविक खतरों को भुला दें और दूसरे डर पाल लें। मसलन - पाकिस्तान, चीन ही नहीं श्रीलंका से लेकर नेपाल यहाँ तक कि बंगला जैसे देश हम पर आक्रमण करके हमें अपना गुलाम बना लेंगे। इस तरह हमें अपने अधिकारों को खोने की प्रक्रिया में कम कष्ट का सामना करना पड़ेगा।
-पवन मेराज
मो0 09179371433
लोकसंघर्ष पत्रिका के दिसम्बर अंक में प्रकाशित
14.11.09
लो क सं घ र्ष !: जेलों में सड़ने को अभिषप्त हैं मुस्लिम युवा-2
आतंकी घटनाओं के संबंध में विभिन्न जगहों से गिरफ्तार आरोपियों पर दर्ज मुकदमे
नाम | अहमदाबाद | ै सूरत | दिल्ली | मुबंई | जयपुर | अन्य | योग |
सदिक षेख | 20 | 15 | 5 | 1 | | हैदराबाद कोलकाता | 54 |
आरिफ बदर | 20 | 15 | 5 | 1 | | | 41 |
मंसूर असगर | 20 | 15 | 5 | 1 | | | 41 |
मो सैफ | 20 | 15 | 5 | | 5 | | 45 |
मुफ्ती अबुल बषर | 21 | 15 | | | | बेलगाम, हैदराबाद | 40 |
ैं सैफुर रहमान | 20 | 15 | | | 6 | | 40 |
कयामुद्दीन कपाड़िया | 21 | 15 | 5 | | | इंदौर | 40 |
जावेद अहमद सागीर अहमद | 21 | 15 | | | | | 36 |
गयासुद्दीन | 21 | 15 | | | | | 36 |
र् | 20 | 15 | | 1 | | | 36 |
ैुंसाकिब निसार | 20 | 15 | 5 | | | | 40 |
र् | 20 | 15 | 5 | | | | 40 |
पुलिस ने उनकी चार्जषीट को भी तोड़मरोड़ कर पेष किया। अहमदाबाद व सूरत के 35 मामलों में पुलिस ने 60 हजार पेजों की आरोप पत्र पेष किया। मुबंई अपराध ब्यूरो ने 18 हजार पेजों का आरोप पत्र पेष किया। इसी प्रकार जयपुर विस्फोट के मामले में 12 हजार पेजों का आरोप पत्र पेष किया गया। सभी आरोप पत्र हिंदी, मराठी व गुजराती में हैं यदि यह मामले सुप्रीम कोर्ट तक जाते हैं तो आरोप पत्रों को अंग्रेजी में अनुवाद करने में और ज्यादा परिश्रम व समय की जरूरत होगी।
विभिन्न मामलों में दर्ज मुकदमे व आरोप पत्र षहर | केसों की संख्या | आरोपी | गिरफ्तार | आरोप पत्र के पेज |
अहमदाबाद व सूरत | 36 | 102 | 52 | 60ए000 |
मुंबई | 1 | 26 | 21 | 18009 |
जयपुर | 8 | 11 | 4 | 12ए000 |
दिल्ली | 7 | 28 | 16 | 10ए000 |
अभियोजन पक्ष इन सभी मामलों में चष्मदीदों की भीड़ भी जुटा चुका है। हर केस में 50-250 चष्मदीद गवाह हैं। अहमदाबाद व सूरत केस में तो कई दोशी विस्फोट के पहले से ही जेलों में हैं। उदाहरण के लिए सफदर नागौरी, षिब्ली, हाफिज, आमील परवेज सहित 13 अन्य को 27 मार्च 2008 को ही मध्य प्रदेष से गिरफ्तार किया गया था, लेकिन उन्हें अहमदाबाद व सूरत मामले का मुख्य आरोपी बताया गया। इसी तरह राजुद्दीन नासिर, अल्ला बक्ष और मिर्जा अहमद जून 2008 से कर्नाटक पुलिस की हिरासत में थे, लेकिन उन्हें भी अहमदाबाद व सूरत मामलों का दोशी बताया गया।
एडवोकेट षाहिद आजमी कहते हैं कि साजिष रचने का आरोप एक हथियार की तरह है जिसे पुलिस कभी भी किसी भी मामले में प्रयोग कर सकती है। आफकार-ए-मिल्ली से बातचीत में वह कहते हैं कि अफजल मुतालिब उस्मानी जिसे 24 सितम्बर को मुंबई से गिरफ्तार दिखाया गया, उसे वास्तव में 27 अगस्त को लोकमान्य टर्मिनल से पकड़ा गया था। वह अपने घर वह अपने घर से गोदान एक्सप्रेस पकड़ मुंबई पहुंचा था। हमने संबंधित अधिकारियों को तुरंत टेलीग्राम से इसकी सूचना दी लेकिन उन्होंने नजरअंदाज कर दिया। 28 अगस्त को उसे मेट्ोपोलिटीन मजिस्टे्ट के सामने पेष किया गया। लेकिन मुंबई अपराध ब्यूरो के अनुरोध पर मजिस्टे्ट ने उसकी गिरफ्तारी और रिमांड को रजिस्ट्र में दर्ज नहीं किया। इसी तरह सादिक षेख को 17 अगस्त को गिरफ्तार किया गया, लेकिन उसे 24 अगस्त को विस्फोटक, हथियारों व पांच अन्य के साथ गिरफ्तार दिखाया गया। विषेशों के अनुसार पकड़े गए आरोपियों के किसी भी मुकदमें का निस्तारण दो साल से कम समय में नहीं होगा। अलग-अलग मामलों में अलग-अलग जगहों से पकड़े गए आरोपियों के केस और लंबे खिचेंगे।
सवाल उठता है कि एक बूढ़ा पिता अपने बेटे को छुड़ाने के लिए कब तक लड़ेगा। गिरफ्तारी के एक साल बाद भी न तो आरोपियों पर आरोप तय हो सके हैं न ही मुकदमे षुरू हो सके हैं। उन्हें खुद को निर्दोश्ज्ञ साबित करने में और कितना समय लगेगा? न्याय की धीमी गति को देखकर लगता है कि वह केस का अंत देख सकेंगे? यह सादिक षेख, अबुल बषर, मंसूर असगर, आरिफ बद्र या सैफुर रहमान के ही सवाल नहीं बल्कि उन 200 युवकों के सवाल भी हैं जो पिछले एक साल से जेलों में सड़ रहे हैं।
अनुवाद व प्रस्तुति- विजय प्रताप