वैश्विक स्तर पर मंदी के काले बादलों के छँटने के शुरूआती जश्न के साथ-साथ भारत के आर्थिक प्रबन्धक भी दावा करने लगे हैं कि शेयर बाजार, औद्योगिक उत्पादन, कारों की बिक्री आदि संकेतक यह दिखा रहे हैं कि मंदी का जिन्न फिर अपनी बोतल में लौट गया है। इसी दौरान विश्व बैंक के अनुसार 10 अरब लोग गरीबी के गर्त में ढकेल दिये गए हैं। विश्व खाद्य और कृषि संगठन का आकलन है कि 1.2 खरब लोग इस मंदी के चलते भूख और कुपोषण के शिकार बन गए हैं। भारत के बारे में भी ऐसी चिन्तनीय सूचनाएँ आधिकारिक स्रोतों से आ रही हैं। किन्तु वित्तीय और कम्पनी क्षेत्र, खासकर शेयर और वायदा बाजार सेंसेक्स के 17 हजारी स्तर के उस पार पहुँचने पर अपने पुराने तेजी के रूख पर बार-बार मुनाफा वसूली में जुट गए हैं। किन्तु यू0डी0फी0 के मानव विकास सूचकंाक के क्रम में पिछले बीस सालों में भारत का दर्जा 126 से घटकर 134वाँ हो गया है। क्यों है यह हालत जब समावेशी विकास, नरेगा तथा प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून आदि के द्वारा आम आदमी के सरोकारों को सहेजने के प्रयास भी चलाये जा रहे हंै।
सीधा सवाल है क्या ये प्रस्ताव और कार्य देश के गरीबों कोे पर्याप्त और पुख्ता गारन्टी देने में सक्षम है? इन सवालों के उत्तर विभिन्न कार्यक्रमों के अपने स्वतंत्र तथा उन पर खर्चे जाने वाली कुल निरपेक्ष राशि के आधार पर नहीं मिल सकते हैं। सवाल सारी अर्थव्यवस्था के विभिन्न अंगों की तुलनात्मक स्थिति तथा उनसे प्रभावित लोगों की संख्या और मसलों की गंभीरता का है। उदाहरण के लिए देश के हवाई यात्रियों को एयर इण्डिया के इस साल के घाटे के बतौर 7200 हजार करोड़ रूपये की अप्रत्यक्ष सब्सिडी दी जा सकती है। परन्तु प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के तहत अन्त्योदय को सस्ते बेचे जाने वाले अनाज की मात्रा वर्तमान 35 किलो से घटाकर 25 किलो करने की बात चल रही है।
वास्तव में राजनैतिक, आर्थिक तथा वर्गगत प्रतिबद्धताओं के साथ और काफी कुछ उनके प्रभाव के कारण गरीबी के सवाल पर समझ भी दोषभरी बन चुकी है इसलिए निर्धनता विषयक नीति-निर्णयों का आधार यह हो गया है कि गरीबी मात्र व्यक्ति केन्द्रित, उनके कार्य तथा अन्य क्षमताओं की कमी तथा अपर्याप्तता का है। वस्तुतः ये अभाव तो गरीबी और असमावेश का ही दूसरा नाम और खुलासा है। कुछ निश्चित लक्षित संख्या में गरीब व्यक्तियों और परिवारों को कुछ सहायता, कुछ भागीदारी, कुछ आमदनी का स्रोत प्रदान करके निश्चित तौर पर इस तरह सचमुच लाभांवित लोगों को फौरी तौर पर पहले से बेहतर स्थिति में पहुँचाया जा सकता है। किन्तु इस प्रकार यह निश्चित नही हो पाता है कि ये लाभांवित लोग स्वावलम्बी आधार पर दीर्घकालिक परिप्रेक्ष में गरीबी के जाल से आजाद हो गए हैं। और ज्यादा गंभीर नुक्ता यह है कि ऐसे कार्यक्रमों आदि के आधार पर कब वह सुदिन आ जाएगा कि गरीबी एक इतिहस की नाखुश यादगार बन जायेगी और सामान्य सामजिक आर्थिक प्रक्रियाओं में सुनिश्चित भागीदारी हर नागरिक का उसी तरह अधिकार बन जाएगी जैसा कि आज उसका मताधिकार है।
यदि गरीबी निवारण नीतियों का लक्ष्य उपरोक्त स्थिति है तो देश में व्याप्त गरीबी के बारे में कुछ मूलभूत तथ्यों को मानना होगा। पहली बात तो यह कि गरीबी देश की एक चिरकाल से चली आ रही व्यापक राष्ट्रीय स्तर पर फैली व्यवस्थागत कमजोरी है। फलतः करोड़ो लोग जन्मजात रूप से गरीब हैं, जीवन पर्यन्त गरीब रहते हैं और गरीबी में ही अपनी इहलीला समाप्त करके अपनी अगली पीढ़ी को भी गरीबी के दामन में छोड़ जाते हैं। जब तक एक किस्म के एकेश्वर वादी दुशग्रह की तर्ज पर सकल राष्ट्रीय उत्पादन के विद्यमान बाजार की माँग के अनुसार निर्धारित रूप को विकास माना जाता रहेगा, करोड़ों गरीबों को उसमें भागीदारी नहीं मिल सकती है। उल्टे उनके लिए उपलब्ध अवसरों, संसाधनों और क्षमताओं का अनुपात गिरता रहेगा। कितने ही लोक-दिखाऊ, थोक-लुभाऊ गरीब हितैषी कार्यक्रम शुरू कीजिए, चिर कालिक सामाजिक, राष्ट्रीय सामाजिक स्तर पर और गदरी जड़ों वाली विशालकाय तथा निरन्तर वृद्धिमान निर्धनता तथा सीमान्तीकरण दोनों जारी रहेंगे। सिद्धांत और इतिहास दोनों का यह स्पष्ट संदेश है।
हाँ यह बात अलग है कि एक मानवीय स्तर से नीची गरीबी रेखा तय करके ये दावे किए जा सकते हैं कि एकांगी, यथास्थिति वर्द्धक आर्थिक बढ़ोत्तरी के साथ-साथ कृत्रिम तथा अमानवीय रूप से परिभाषित गरीबी घट रही है। इस नजरिये से बढ़ती गहराती असमानताएँ और बेरोजगारी को, घटती गरीबी के साथ संगत मानने का दुस्साहस भी शामिल है। वास्तव में गरीबी निवारण के ऐसे कदम वर्तमान वर्चस्ववान लघु समुदायों के राजनैतिक प्रबंधन तथा छवि निर्माण अभियानों के ही एक अंग हैं। इस तरह के कार्यक्रमों का नामकरण नेताओं या सत्तासीन लोगों पर करना एक शुरूआती कदम था अब सक्रिय राजनैतिक दलों और गिरोहों की आपसी प्रतिस्पद्र्धा ने गरीबों के साथ हमदर्दी, उनके साथ जुड़ाव के कुछ नये प्रयोगों को प्रचलित करा दिया है।
गरीबों से नजदीकी दिखाने बढ़ाने के लिए उनके घरों पर अचानक पहुँचे मेहमानों की तरह दस्तक देकर उन्हें ‘बड़े लोगों’ की मेहमान नवाजी करने के अवसर परोसे जा रहे हैं। जो लोग जातिगत पहचान को भुनाकर अति विलासिता पूर्ण जीवन पद्धति के बावजूद साझी विरासत को भुना रहे हैं उसका तोड़, एक करारा जवाब उनके साथ रोटी तोड़ने तथा उनकी कुटिया में रातवास करना बनाया जा रहा है। दोनों ही तरह के प्रयास गरीब को कोई लाभ नहीं पहुँचा सकते हैं और किसी नीतिगत, सामाजिक, आर्थिक विकास की रणनीति की नींव नहीं डाल सकते हैं। ये प्रयास तो अपने आप में गरीबी के चरित्र और समाधान की खोज में भी मददगार नही हो सकते हैं। यदि पूरी की पूरी पार्टी कार्यकर्ताओं की फौज भी इस तरह के ‘पोवर्टी टूरिज्म’ का लुत्फ और राजनैतिक लाभ उठाने लगे तो भी गरीबों के लिए ये सकारात्मक नतीजे नहीं दे सकते। किन्तु जिस तरह जातिगत पहचान के आधार पर नेताओं ने मलाई खाने के रास्ते बनाए यदि निर्धनता पर्यटन इस प्रयास में एक बारगी काठ की हण्डिया की तरह कामयाब होता है तो इस अभियान को टूरिज्म नहीं कह कर पुण्य बटोरने की यात्रा अर्थात ‘पोवर्टी’ पिलग्रिमेज कहना ज्यादा सही होगा। है न, एक राजनैतिक नवाचार।
इस राजनैतिक नवाचार की जड़े अर्थव्यवस्था खास तौर पर वर्तमान आर्थिक नीतियों तक पहुंचती है। हमारा राजनैतिक तबका बखूबी जानता है कि उदारीकरण बाजारीकरण के तत्वावधान में फलते फूलते एकाधिकारी तबकों, निजी कम्पनियों सट्टोरियों, काले धन के विशाल साम्राज्य के कर्ता-धर्ताओं (मात्र एक ऐसे व्यक्ति के स्विस बैंकों में जमा काले धन का आँकड़ा 8 अरब डाॅलर, यानी 375 अरब रूपये से ज्यादा होना और वर्षों से सरकार द्वारा इस मसले का निपटारा नहीं होना साफ संकेत है ऐसे धन की मात्रा और ताकत की) आदि की बढ़ती समृद्धि के साथ गरीबी का बढ़ना लाजिमी है। किन्तु इस शक्तिशाली वर्ग के पास चुनावों में जीत दिलाने वाले वोटों की ताकत नहीं है क्या इस कमी या कमजोरी को धनबल और उससे जुड़े तिकड़मों के जरिये पूरा नहीं किया जा सकता। इसी सवाल के जवाब में सामाजिक न्याय, समावेशी वृद्धि, नरेगा, गरीब हितैषी कार्यक्रम, पंचायती राज, आरक्षण,सर्व शिक्षा अभियान तथा शिक्षा का अधिकार और खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम आदि उपायों को नये नये रूपों में अपनाया जाता है। बिना आय, सम्पत्ति क्षमता और ताकत के कुछ हाथों में तेजी से केन्द्रित होने की प्रक्रिया पर कोई गति अवरोधक तक लगाये आम आदमी को कैसे भरोसा दिलाया जाये कि शासक दल वे चाहे किसी भी नाम से सत्तारूढ़ हों इसी प्रबल अधिसंख्य तबके के साथ हैं? खास कर राज्य के साथ-साथ राजनैतिक दल और उनकेे जन्मजात नेताओं की साख भी जनपक्षीय किस्म की बनाना जरूरी है। पूरी तरह सरकारी और अर्द्ध सरकारी (जो निजी होने पर भी विज्ञापनों तथा अन्य कई रूपों में सरकारी कृपा अनुदानों, सुविधाओं आदि का आदी हो चुका है) प्रचार तथा संचार तंत्र और अनेक अकेडेमिक दिग्गज इस भ्रामक छवि निर्माण प्रक्रिया में बढ़-चढ़कर भाग ले रहे हैं।
राजस्थान में प्रथम आम चुनाव में एक वक्त पाकिस्तान में शामिल होने के प्रयास में निरत महाराजा ने गाँव-गाँव गली-गली जाकर हुंकार लगाई थी ’’हूँ था सू दूर नहीं।’’ उनकी झोली में भोली जनता ने एक को छोड़ सारी सीटे उस इलाके की डाल दीं। कुछ इसी तर्ज पर गरीबी दर्शन, गरीब के साथ उसकी कुटिया में रहकर एक नये राज पद प्राप्ति अभियान की शुरूआत हुई है।
यह अभियान पूरी तरह उदारीकरण बाजारीकरण प्रक्रिया का सहोदर है। यदि पूरी पार्टी को ऐसे अभियानों में झौका जाता है। थोड़ी सी तकलीफ न कर भी त्याग-तप तक संवेदना का ऐसा प्रदर्शन होने लगता है और कांग्रेस की धुर जन्मेन विरोधी ताकतें भी इस अभियान की प्रशंसा करती हैं तो साफ नजर आता है कि देश में एक नये उद्योग ‘‘निर्धनता पर्यटन’’ की शुरूआत होने ही वाली है। मेडिकल टूरिज्म, हेरिटेज टूरिज्म, वीक एण्ड टूरिज्म आदि की तरह ही एक नया गरीबी पर्यटन उद्योग भी चल निकल सकता है। वैसे गरीबी के प्रति संवेदना जगाने, उसे समझने-समझाने लोगों के सामने आने और उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति पहले ही गरीब लोगों को बहुत रूचि गया काम है। इस तरह उनको भी मिलने की आस जगती है और विसाले यार के बतौर धन, मान, शोहरत भी मिलते हैं।
गरीब को क्या कितना लाभ मिल सकता है और कब खासकर ऐसा लाभ जो प्रत्येक निर्धन सीमान्त व्यक्तियों को इस अभिशाप से मुक्त कर सके ये प्रश्न तो कभी पूछे ही नहीं जाते हैं। क्या गरीबी किसी एक व्यक्ति या परिवार को लगी कोई बीमारी है जो डाॅक्टर द्वारा घर जाकर जाँच करने और दवा देने से दूर हो जाएगी? निश्चित है गरीब के घर पर्यटक पर्यवेक्षक या नाॅन पेयिंग गेस्ट बनकर मीडिया की चकाचैध रोशनी में आ जाने से पर्यटक का एक बहुत बड़ा परिवर्तन से वास्ता पड़ता है मानों वह सदियों पीछे चला गया हो। शायद उसके ज्ञान चक्षु खुले, संवेदना की चेतना जगे और जिनके पैर बिवाई फटती हैं उनकी पीड़ा का भी कुछ आभास हो।
कई कलावतियाँ भी इस तरह कुछ अरसे के लिए नामी गिरामी हस्ती बन सकती हैं। किन्तु कोई तो बताये कि इस गरीबी पर्यटन से क्या लाभ होगा। शेष 83 करोड़ लोगों को जिन्हें 20 रूपये प्रतिदिन से कम खर्च पर यह कोशिश करनी पड़ती है कि उनके पेट और पीठ मिल कर एक नहीं हो जायंे, अथवा मुट्ठी भर दाने को भूख मिटाने को जिन्हें मुँह फटी पुरानी झोली लेकर अन्त्योदय स्कीम अथवा खाने के अधिकार केे तहत एक लम्बी ‘क्यू’ में खड़ा होना पड़ता है। अथवा जिन्हें गर्मी, सर्दी, बाढ़ और सूखे आदि जैसी हर स्थिति में मरने वालों की संख्या में शुमार होने को मजबूर रहना पड़ता है। यदि वोट बटोरने, जातिगत पहचान के आधार पर सत्ता हथियाने वालों को परास्त करने आदि की यह गरीब के घर दस्तक देने का कार्यक्रम सफल हो जाता है तो फिर यह गरीबी पर्यटन नहीं रहकर गरीबी दर्शन से तीर्थयात्रा के समान पाप धोने और राजकाज रूपी पुण्य प्राप्ति का अभियान साबित हो जायेगा।
-कमल नयन काबरा
मो0:
09868204457
लोकसंघर्ष में शीघ्र प्रकाशित
loksangharsha.blogspot.com