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14.11.09

कितना जिम्मेदार विपक्ष है हमारे पास !


हमेशा से सत्ता आरूढ़ पार्टी अथवा जन प्रतिनिधि को ही देश मैं चल रही विभिन्न गतिविधियों हेतु जिम्मेदार माना जाता है एवं उसे ही जनता के आक्रोश और आलोचनाओं का शिकार होना पड़ता है । क्या सत्ता से बाहर बैठे विपक्षी जन प्रतिनिधि और पार्टियाँ की भी जिम्मेदारी तय करने भी जहमत उठायी जाती है । क्या हमारे देश की सरकार के गुणदोष बत्ताने और विफलताओं की और ध्यान दिलाने और जनहित के मुद्दों शसक्त और जिम्मेदार तरीके से उठाने वाला विपक्ष मोजूद है ।इस बात की अनदेखी की जाती है की जितनी जिम्मेदारी और विश्वाश के साथ जनता राजनीतिक पार्टी और जन प्रतिनिधियों को बहुमत से चुनकर सरकार चलाने हेतु भेजती है उतनी जिम्मेदारी और सक्रिय भूमिका की अपेक्षा विपक्ष मैं बैठने वाली पार्टी अथवा जनप्रतिनिधियों से भी की जाती है ।
आमतौर पर विपक्ष हमेशा सत्तापक्ष की किसी भी गतिविधियाँ अथवा नीतियों की आलोचनाओ अवं विरोध कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझता है । फ़िर वह चाहे वह सही हो या ग़लत । संसद मैं हंगामा खड़ा कर संसद की कार्यवाहियों की को बाधित करते हैं और संसद के संचालन मैं होने वाले करोडो रूपये की व्यय को जाया होने देते हैं । देश के राजनीतिक गलियारे मैं मची हलचले और गतिविधियों से तो ऐसा ही जाहिर होता है की सत्ता हासिल किए बिना अथवा मलाईदार और रुतबेदार पदों के अभाव मैं जन सेवा और देश सेवा हो ही नही सकती है । और ऐसी लालसा मैं जनप्रतिनिधि और पार्टियाँ जोड़तोड़ की राजनीति कर जनादेश की उपेक्षा करती नजर आती है ।
वैसे भी सत्ता से दूर और विपक्ष मैं बैठी पार्टी अथवा जनप्रतिनिधि जनसेवा और देश सेवा के नाम पर कार्य करते तो शिफर ही नजर आते है सिवाये खोखले भाषण और आलोचनाओं के । अपने किसी बड़े नेता आगमन पर स्वागत सत्कार हेतु बेनरो , पोस्टरों और प्रचार प्रसारों की सामग्रियों मैं करोड़ों रूपये करते जरूर नजर आयेंगे बजाय यही पैसा जनहित मैं खर्च करने के । कितनी राजनीतिक पार्टी प्राकृतिक आपदाओं अथवा किसी दुर्घट नाओं मैं हताहतों लोगों की आर्थिक सहायता करते नजर आती हैं ।
जन्हा सरकार और सत्तापक्ष के जनप्रतिनिधियों और राजनीतिक पार्टियों की प्राथ मिक्ताओं मैं भूख , भ्रष्टाचार और बेरोजगारी , बढती मंहगाई , जमाखोरी , कालाबाजारी अवं जनसुरक्षा और सुशासन जैसे मुद्दे ओझल नजर आते हैं वन्ही भी चुप्पी साधकर इन मुद्दों से जी चुराकर किनारा करते नजर आते हैं । और यह परिद्रश्य यह संसय पैदा करता है की कंही न कंही पक्ष अवं विपक्ष मैं मौन सहमती और स्वीकृति तो नही है ।
क्या हम एक जनहित और देशहित के प्रति रचनात्मक और सकारात्मक जिम्मेदार विपक्ष की उम्मीद कर सकते हैं । क्या इनके कार्यों के आकलन और निगरानी हेतु कोई युक्ति और व्यवस्था बनायी जा सकती है । क्योंकि इनके चुनाव और सुख सुबिधाओं पर भी तो जनता की खून पसीने की कमाई का पैसा खर्चा किया जाता है ।

बस एक एहसास की ज़रूरत है.

आदरणीया माता स्वरूपणी निर्मला जी से मुलाक़ात और उनके लेख पर ...
क्या नाम दूँ उस पाकीजा रिश्ते को, जो हमारे बीच कायम हुआ है? मै और मेरी पत्नी जब आपसे मिले, उस दौरान का एक-एक क्षण हमारी स्मृतियों में हमेशा बसा रहेगा।
मुझे उस पल का एहसास नही भूल सकता, जब आप दरवाज़े पर खड़ी होकर हमारे आने इंतज़ार कर रहीं थी बचपन में जब मै स्कूल से पढ़कर आता था तो मेरी बड़ी बहन ऐसे ही मेरी राह देखा करती थी।

आपकी हर बात में मातृत्व का मुलायम स्पर्श था। मै सोच रहा हूँ कि आखिर वह रब यें रिश्ते कैसे बना देता है....किसी से हर रोज़ की मुलाक़ात भी औपचारिक रहती है और किसी से पल भर का मिलना सदा के लिए दिल में जगह घेर लेता है।

आपसे विदा लेते हुए जो आर्शीवाद आपने दिया, उस समय मानो ये लगा कि सभी सांसारिक तथा अध्यात्मिक माताएं हमें दुआएं दे रही हैं।

नेटप्रेस पर छपा आपका लेख "एक कतरा बचपन चाहिये" पढ़कर आपका यह बेटा आपको एक सलाह देने की गुस्ताखी कर रहा है कि बराहे मेहरबानी उन बेशकीमती नेमतों से वंचित न रहिये, जो खुदा ने आपको बख्शी हैं। माताश्री ! मैंने उस दिन "आपकी" जी हाँ, इस शब्द पर फिर से गौर कीजिये कि "आपकी" तीन पुश्ते देखी. आपकी नाती के रूप में आपका बचपन आपके पास है.

आपको तो "एक कतरा बचपन चाहिये" था. जबकि आपके पास जीने के लिए पूरा बचपन है.....बस एक एहसास की ज़रूरत है.

एक कतरा बचपन चाहिये

एक कतरा बचपन चाहिये
मेरा बचपन बहुत सुखमय रहा किसी राज कुमारी कि तरह घर मे किसी चीज़ की कमी नहीं थी ।सब की लाडली थी। मगर बचपन कितनी जल्दी बीत जाता है ।जवानी मे तो इन्सन के पास फुर्सत ही नहीं होती कि अपने बारे मे कुछ सोच सके। ये सफर तो हर इन्सान के लिये कठिनाईयों से भरा रहता और जब होश आता है तो बारबार बचपन याद आता है बचपन से जुडी यादें फिर से अपनी ओर खींचने लगती हैं--- लगता है बहुत थक गयी हूँ । क्यों ना कुछ बचपना कर लिया जाये---- क्यों ना कुछ पल फिर से जी लिया जाये ----- जब इस तरह सोचती हूं तो----- उदास हो जाती हूँ------- बात बात पर परेशान होना ---- जीवन से निराश होना ----- उससे तो अच्छा है बच्ची ही बन जाऊँ------- मगर ----- सब ने मिल कर मुझे इतनी बडी बना दिया है कि अब कभी बच्ची नहीं बन पाऊँगी----- नहीं जी पाऊँगी उन गलियों मे जहाँ कोई चिन्ता दुख नहीं था ---- नहीं मिल पाऊँगी उन सखियों सहेलियों से जो मेरी जान हुया करती थी------ नहीं बना पाऊँगी रेत के घर] नहीं खेल पाऊँगी लुकन मीटी----- नहीं तोड पाऊँगे जामुन अमरूद बेर और शह्तूत ----कैसे हो गयी बडी ----- मैने तो कभी नहीं चाहा था---- मुझे तो बच्ची सी बने रहना अच्छा लगता था---- जहाँ ना कोई रोक ना टोक------ ना बन्धन------ बस एक निश्छल प्यार---- प्रेम---- खेल--- हंसी----- मुक्त आकाश की उडान ।----- मै कभी बडी होना नहीं चाहती थी ------
अब समझ आता है कि अपने आप नहीं हुई मुझे बडा बनाया गया है। पहले मेरे पिता जी ने फिर पति ने फिर मेरे बच्चों ने ------उन लोगों ने मै जिन के दिल के बहुत करीब थी------ खुद बडा कहलाने के लिये मुझे मोहरा बनाया गया शायद----- जिसके नाम के साथ मेरा नाम जुडा था । पल पल मुझे ये एहसास करवाया गया कि अब मैं बच्ची नहीं हूँ।-- मगर शायद अंदर से वो मेरे दिल को बदल नहीं पाये अब तक भी बच्ची बनी रहने की एक छोटी सी अभिलाशा कहीं जिन्दा है।
जीवन मे हर आदमी के सामने चुनौतियाँ तो आती ही रहती हैं मगर हर कोई उनका सामना अपने ही बलबूते पर करे ये हर किसी के लिये शायद सँभव नहीं होता।कुछ जीवन के किरदार दिल के इतने करीब होते हैं कि चाहे वो दुनिया मे ना भी हों तो भी हर पल दिल मे रहते हैं। मगर उनका नाम लेते इस लिये डरती हूँ कि कहीं नाम लेते ही वो जुबान के रास्ते बाहर ना निकल जायें।
बचपन से एक आदत सी पड गयी थी कि कोई ना कोई मेरे सवाल के जवाब के लिये मौज़ूद रहता। और मै बडी होने तक भी बच्ची ही बनी रही। उसके बाद जीवन शुरू हुया तो अचानक मुसीबतों ने घेर लिया। मगर तब भी मेरी हर मुसीबत मे जो मेरे प्रेरणा स्त्रोत और मुझे चुनौतियों से जूझना सिखाया वो मेरे पिता जी थे।जब तक जिन्दा रहे मैं कभी जीवन से घबराई नहीं। बाकी सब रिश्ते तो आपेक्षाओं से ही जुडे होते हैं।और फिर उन रिश्तों से मिली परेशानियों का समाधान तो कोई और ही कर सकता है।
मैं जब भी परेशान होती या किसी मुसीबत मे होती तो झट से उनके पास चली जाती। और जाते ही उनके कन्धे पर अपना सिर रख देती । उन्हों ने कभी मुझ से ये नहीं पूछा था कि मेरी लाडाली बेटी किस बात से परेशान है। शायद मेरा आँसू जब उनके कन्धे पर गिरता तो वो उसकी जलन से मेरे दुख का अंदाज़ लगा लेते---- हकीम थे ---मर्ज ढूँढना उन्हें अच्छी तरह आता था। बस वो मेरे सिर पर हाथ फेरते अगर उन्हें लगता कि समस्या बडी है तो मेरे सिर को उठा कर ध्यान से मेरा चेहरा देखते और मुस्करा देते तो ~--- तो आज मेरी मेरी बेटी फिर से छोटी सी बच्ची बन गयी है\------- अच्छा तो चलो अब बडी बन जाओ------ ।और फिर कोई ना कोई बोध कथा या जीवन दर्शन से कुछ बातें बताने लगते । और इतना ही कहते कि मैं तुम्हें कमज़ोर नहीं देखना चाहता । तुम्हें पता है कि तुम्हारे दोनो भाईयों की मौत के बाद तुम ही मेरा बेटा हो और तुम्हें देख कर ही मै जी रहा हूँ । क्या मेरा सहारा नहीं बनोगी\-- और मै झट से बडी हो जाती \ मुझे लगता कि क्या इस इन्सान के दुख से भी बडा है मेरा दुख \ जीवन मे दुख सुख तो आते ही रहते हैं फिर वो मुझे याद दिलाते कि अपना सब से बडा दुख याद करो जब वो नहीं रहा तो ये भी नहीं रहेगा ! और उनकी बात गाँठ बान्ध लेती । सच मे जब कोई परेशानी आती है तो हमे वही बडी लगती है जैसे जीवन इसके बाद रुक जायेगा । आज लगता है कि उन्होंने ही मुझे बडा बना दिया। मै तो बचपन मे ही रहना चाहती थी।
उनकी मौत के बाद भी उन्हीं के सूत्र गाँठ बान्ध कर चलती रही हूँ । वो बडी बना गये थे सो बडी बनी रही मगर अब भी कहीं एक इच्छा जरूर थी कि कभी एक बार बच्ची जरूर बनुंम्गी जिमेदारियों से मुक्त हो कर अपना बचपन एक बार वापिस लाऊँगी शरीर से क्या होता है-----बूढा है तो--- रहे दिल मे तो बचपन बचा के रखा है ना------ इस उम्र मे श्रीर से यूँ भी मोह नहीं रहता बस आत्मा से दिल से जीने की तमन्ना रहती है।
पिता के बाद पति --- फिर तो दिल जिस्म दिमाग कुछ भी मेरा नहीं रहा------ सब पर उनका ही हक था ---- क्यों कि वो भी मेरे दिल के करीब थे इस लिये उन्हों ने भी सदा यही एहसास करवाया कि तुम अब बच्ची नहीं हो उनकी मर्यादा अनुसार----- उनकी जरूरत मुताबिक बडी बनो---और तब तो पिता की तरह कोई सिर पर हाथ फेरने वाला भी नहीं होता। उनके बाद बच्चे बच्चों के लिये तो तब तक बडे बने रहना पडता है जब तक वो जवान नहीं हो जाते----- उनके जवान होते ही वो अपने अपने जीवन मे व्यस्त हो गये ----- अब जब भी अकेली होती तो बचपन फिर याद आता मन होता बचपन मे लौट जाऊँ------ बिलकुल अब बच्चों की तरह व्यव्हार करने लग जाती------- फिर कभी परेशान होती तो पिता की जगह बेटे का कन्धा तलाश करने लगती------।कुछ दिन से पता नहीं क्यों मन परेशान सा रहता था । अपने किसी बच्चे से कहा तो उसने जवाब दिया कि----- माँ तुम्हें क्या हो गया है क्यों बच्चों जैसी बातें करने लगी हो\ वो भी सही था अब बच्चे तो माँ को सदा महान या बडी ही देखना चाहते हैं न। वो कैसे समझ सकते हैं कि इस उम्र मे अक्सर बूढे बच्चे बन जाते हैं। शायद बच्चों मे रह कर---- और उस दिन मुझे लगा कि आज सच मुच मेरे पिता जी चले गये हैं।सदा के लिये बडी बना कर् । क्या बच्चे अपने माँ बाप को थोडा सा बचपन भी उधार नहीं दे सकते\ आज मन फिर से बचपन मे लौट जाने को है ---- मगर जा नहीं सकती पहले पिता जी ने नहीं जाने दिया अब बच्चे भी मेरे पिता का किरदार निभा रहे हैं । काश कि जीवन के कुछ क्षण उस बचपन के लिये मिल जायें ------ तो शायद जीवन संध्या शाँति से निकल जाये। बस कुछ दिन बचपन के उधार चाहिये------ मैं बडी नहीं बनी रहना चाहती अब --- शायद इसका जवाब भी पिता जी के पास था मगर अब वो लौट कर नहीं आयेंगे ------- तब उनके पास जाने की जल्दी लग जाती है । क्यों कि अब मुझे फिर से बचपन चाहिये--------

13.11.09

लो क सं घ र्ष !: जेलों में सड़ने को अभिषप्त हैं मुस्लिम युवा-1

जेलों में सड़ने को अभिषप्त हैं मुस्लिम युवा

आतंक के नाम पर व्यवस्था एक समुदाय विषेश्ज्ञ को प्रताड़ित करने के लिए कौन-कौन से तौर-तरीके अपना सकती है, वह हाल की कुछ घटनाओं से समझा जा सकता है। आतंकी घटनाओं के नाम पर पुलिस ने थोक के भाव मुस्लिम युवको की गिरफ्तारी की। पुलिस सत्ता का यह उत्पीड़न यहीं नहीं रूका बल्कि एक सोची-समझी साजिष के तहत उन पर इतने केस लाद दिए गए ताकि वह जीवन भर जेल में सड़ने पर मजबूर हों। अगस्त 2009 में उर्दू मासिक पत्रिका अफकार--मिल्ली में अबु जफर आदिल आजमी का एक महत्वपूर्ण लेख प्रकाषित हुआ। इसका अंग्रेजी अनुवाद मुमताज आलम फलाही ने किया। प्रस्तुत है उसका हिंदी रूपान्तरण-

यह सच है कि अन्याय दुहारे मापदंडों के साथ कोई भी समाज बहुत दिन तक नहीं चल सकता। दुर्भाग्य से भारत तेजी से इन्हीं मापदंडों की ओर बढ़ रहा है। आंतकवाद के मामले में मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी न्याय में पुलिस, प्रषासन न्यायापालिका का दुहरा मापदंड साफ नजर आता है।
2008 में देष में कई विध्वंसकारी धमाकों में सैकड़ों लोग मारे गए और घायल हुए। फलस्वरू, सैकड़ों मुस्लिम युवाओं को आतंकी गतिविधियों के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। आतंकवाद के नाम पर मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी का आंकड़ा हर साल बढ़ रहा है। 2007 में उत्तर प्रदेष की अदालतों में हुए धमाके के बाद गिरफ्तारी की प्रक्रिया में तेजी आई है। मुस्लिम युवकों के खिलाफ चल रहे मामलों को देखे तो ऐसा लगता है कि पुलिस प्रषासन जानबूझ कर इन केस पर केस थोप रही हैं। इन मामलों के सुनवाई की जो गति है उससे यह तय है कि ये सभी कभी भी बाहर नहीं सकेगें।
आतंकवाद के मामले में पुलिस की जांच प्रक्रिया पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं, लेकिन हाल में मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी के बाद उन पर जैसे 40-40, 50-50 केस थोपे गए हैं यह एक बड़े शडयंत्र का हिस्सा लगता है। आतंक के मामले में बहुत से मुस्लिम युवकों पर पुलिस आरोप साबित नहीं कर सकी और अदालतों ने उन्हें मुक्त भी कर दिया। लेकिन शडयंत्र के तहत उन्हें हाल के विस्फोटों में फिर से फंसाया गया।
जुलाई 2008 में अहमदाबाद श्रृंखलाबध्द विस्फोट सूरत से दर्जनों जिंदा बमों की बरामदगी के मामले में सूरत पुलिस ने 35 मामलों में 102 लोगों को दोशी माना। इसमें से 52 को गिरफ्तार किया गया और लगभग सभी मामलों में दोशी बताया गया। मई 2008 में जयपुर धमाकों के बाद 8 मामलों में 11 लोगों को दोशी बताया गया। चार की गिरफ्तारी र्हुई। सितम्बर 2008 में दिल्ली श्रृंखलाबध्द विस्फेट के बाद 8 मामले में 28 लोगों को दोशी बताया गया। इसमें 16 लोगों को गिरफ्तार किया गया। मुबंई पुलिस ने इंडियन मुजाहिद्दीन के सदस्य के नाम पर 21 लोगों को गिरफ्तार किया।
मुंबई पुलिस की अपराध षाखा ने सादिक षेख को देष के हालिया सभी विस्फोटों का मुख्य शडयंत्रकारी बताया। पुलिस ने मैकेनिकल इंजीयर 38र् वश्ज्ञीय सादिक षेख इंडियन मुजाहिदीन का संस्थापक सदस्य बताया। उसने अपने पाकिस्तानी मित्र आमीर रजा की मदद से देष में विस्फेटों का शडयंत्र रचा। पुलिस के अनुसार षेख 2005 के बाद देष में हुए सभी धमाकों में संलिप्त था। उसने 2001 में पाकिस्तान जाकर हथियार चलाने का प्रषिक्षण लिया तथा मुबंई आजमगढ़ के कई युवाओं को इस प्रषिक्षण के लिए पाकिस्तान भेजा। उस पर अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली, हैदराबाद, कोलकाता मुबंई धमाकों के मामले में 52 मुकदमें कायम किए गए। उसे 11 अन्य के साथ 11 जुलाई को मुबंई की लोकल ट्नों में हुए धमाकों के मामले में भी दोशी माना गया। उसे मकोका में गिरफ्तार किया गया। उसने टीवी चैनलों के सामने इन सभी मामलों में अपनी संलिप्तता कबूल की। जिसके बाद मुंबई अपराध षाखा ने इस केस को एटीएस के हवाले कर दिया। एटीएस ने मामले को हाथ में लेते ही कोर्ट से टीवी चैनलों पर दिखाए जा रहे उसके कबूलनामे पर तुरंत रोक लगाने की मांग की। अदालत ने एटीएस की अपील कबूल कर ली। अपनी जांच में एटीएस ने सादिक षेख को क्लीनचिट दे दी और मकोका कोर्ट में उसके 11 जुलाई को मुबंई की लोकल टे्न धमकों के मामले में किसी भी तरह की संलिप्तता से इंकार किया। एटीएस के अनुसार षेख ने इस मामले में षेख ने बाटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए अतीफ अमीन के दबाव में आकर इस ब्लास्ट में खुद को षामिल होना बताया था। हालांकि एटीएस इस बात का जवाब नहीं दे सकी कि अतीफ ने कब और क्यों उस पर दबाव दिया जबकि इंडियन मुजाहिदी में वह षेख से जूनियर था।
इस धमाकों में मुहम्मद सैफ को भी मुख्य दोशी बताया गया। आजमगढ़ के संजरपुर गांव के सैफ ने दिल्ली से इतिहास में एमए किया था। वह अंग्रेजी कम्प्यूटर साफ्टवेयर का भी कोर्स कर रहा था। बाटला हाउस मुठभेड़ के बाद पुलिस ने सैफ को उसके फ्लैट से गिरफ्तार किया था। 23 वर्शीय सैफ पर दिल्ली, जयपुर, अहमदाबाद और सूरत विस्फोट के मामलें में 45 केस लगाए। उस पर आरोप था कि उसने इन षहरों में बम रखे। उधर, उत्तर प्रदेष पुलिस ने उसे अदालतों में विस्फोट मामले में भी संलिप्त बताया। पुलिस ने उसे संकट मोचन मंदिर बनारस रेलवे स्टेषन पर हुए विस्फोट मामलों में पूछताछ के लिए कई दिनों तक पुलिस अभिरक्षा में रखा लेकिन अभी तक इस मामले में कोई चार्जषीट नहीं दे सकी।
मंसूर असगर को इंडियन मुजाहिद्दीन के नाम से मेल भेजने के आरोप में पुणे से गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी से केवल एक माह पहले मंसूर ने 19 लाख रूपए सलाना पैकेज पर याहू में मुख्य इंजीनियर के पद पर ज्वाइन किया था। उस पर मुंबई, अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली हैदराबाद विस्फोटों के शडयंत्र रचने साइबर अपराध के मामले में 40 से ज्यादा केस दर्ज किए गए।
मुफ्ती अबुल बषर को गुजरात पुलिस यूपी एटीएस ने संयुक्त रूप से उसके गांव बीनापारा से 14 अगस्त, 2008 को गिरफ्तार किया। लेकिन उसकी गिरफ्तारी चारबाग रेलवे स्टेषन से दिखाई गई। उसे इंडियन मुजाहिद्दीन के मुखिया और अहमदाबाद विस्फोटों का मास्टरमाइंड बताया गया। आज उस पर अहमदाबाद, सूरत, हैदराबाद और बलगाम विस्फोट के मामले में 40 से अधिक केस चल रहे हैं।
कयामुद्दीन कपाड़िया को जनवरी 2009 में मध्यप्रदेष से गिरफ्तार किया गया। लेकिन उसके परिजनों का कहना है कि वह गिरफ्तारी के पांच माह पहले से ही लापता था। उस पर सिमी का वरिश्ठ सदस्य होने, गुजरात और केरल के जंगलों में प्रषिक्षण षिविर लगाने और अहमदाबाद, सूरत, और दिल्ली विस्फोटों में षामिल होने का आरोप लगाया गया। उस पर भी अलग-अलग राज्यों में 40 से अधिक केस चल रहे हैं।
आजमगढ. के असरोली गांव निवासी 38 वर्शीय आरिफ बदरूद्दीन षेख को मुबंई पुलिस ने बम बनाने का विषेशज्ञ बताया। उसे 2005 के बाद देष में हुए सभी धमाकों से जोड़ा गया। आरिफ के पिता मानसिक रूप से कमजोर थे। उसकी गिरफ्तारी के दो माह बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। आरिफ की अंधी मां अपनी बेटी की ससुराल में टूटी-फूटी झोपड़ी में दिन गुजार रही है। आरिफ पर भी मुबंई, दिल्ली, अहमदाबाद सूरत धमाके के मामले में 41 केस चल रहे हैं।
सैफुर रहमान को मध्य प्रदेष एटीएस ने जबलपुर से अप्रैल 2009 में तब गिरफ्तार किया गया जब वह अपनी बहन को आजमगढ़ से उसकी ससुराल मुबंई लेकर जा रहा था। दोनों गोदान एक्सप्रेस में सफर कर रहे थे। एटीएस ने उसकी बहन को भी 12 घंटे हिरासत में अवैध तरीके से बिठाए रखा। सैफुर रहमान को अहमदाबाद और जयपुर विस्फोटों का दोशी बताया गया। उसने भोपाल में अदालत के सामने इन विस्फोटों में षामिल होना स्वीकार भी कर लिया, लेकिन जयपुर में मजिस्ट्ेट के सामने उसने इन विस्फोटों में षामिल होने से इंकार कर दिया। मजिस्टे्ट के सामने उसने कहा कि प्र एटीएस ने उसे प्रताड़ित किया और उसकी बहन से बलात्कार करने की धमकी दी। एटीएस के दबाव में उसने अदालत में विस्फोटो में अपनी संलिप्तता की बात कही थी। जयपुर एटीएस ने अदालत से उसके नार्को टेस्ट की अनुमति भी मांगी जिसे अदालत ने खारिज कर दिया।
इसके विपरित एक नाटकीय घटनाक्रम में जयपुर विस्फोटों के कथित आरोपी षाहबाज हुसैन ने अदालत में खुद को निर्दोश साबित करने के लिए नार्को अन्य टेस्ट कराने की गुजारिष की। यह देष में अपनी तरह का पहला ऐसा मामला था जब एक कथित दोश्ज्ञी ने खुद ही नार्को टेस्ट की मांग की। अभियोजन पक्ष ने उसकी मांग का विरोध किया, जिसके आधार पर मजिस्ट्ेट ने उसकी मांग अस्वीकार कर दी।
ये हाल के बम विस्फोटों में गिरफ्तार 200 लोगों में से कुछ प्रमुख नाम हैं। इन केसों में अभी गिरफ्तार लोगों से कहीं ज्यादा फरार है। पुलिस और सरकार इन मामलों में जगह-जगह मानवाधिकार का हनन किया। मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी के बाद उन पर केस लाए गए। यह देष के इतिहास में अपनी तरह का दुर्लभ उदाहरण है। सादिक षेख पर 54 केस चल रहे हैं। इसमें अभी कई मामलों में उसे पुलिस ने रिमांड पर नहीं लिया है। अगर पुलिस उसे हर केस के लिए 14 दिन की रिमांड पर भी ले तो 2 वर्श उसे पुलिस रिमांड में ही गुजारने होंगे। दोशियों को एक से दूसरे राज्य ले जाने में जो समय लगेगा वो अलग है। अब कल्पना की जा सकती है, कि सुनवाई से पहले आरोप पत्र भरने में कितना समय लगेगा जो कि भारतीय कानून के मुताबिक किसी भी अपराधी की सुनवाई से पहले भरना जरूरी होता है।
कई ऐसी भी खबरें हैं जिसमें इन कथित दोशियों को पुलिस हिरासत के अलावा जेल में भी प्रताड़ित किया गया और उन पर केस लादे गए। गुजरात में साबरमती जेल में बंद आरोपियों पर चल रहे केसों में एक केस जेल में रहते हुए दर्ज किया गया। एक के बाद एक केस लगाए जा रहे हैं मुकदमों के संबंध में जामिया सॉलिडेरिटी गु्रप की नेता मनीशा सेठी कहती हैं कि सरकार केसों को जटिल बनाकर अपना पीछा छुड़ना चाहती है। आतंक के खिलाफ युध्द जैसी आयातित अवधारणा को कांग्रेस बढ़ावा दे रही है और मुस्लिमों के खिलाफ उसे हथियार की तरह प्रयोग कर रही है। संजरपुर संघर्श समिति के अध्यक्ष मसीहुद्दीन कहते हैं कि अब इन लोगों को खुद को बेकसूर साबित करने के लिए यह जीवन भी कम पड़ेगा।
जमाते-उलेमा--हिंद की तरफ से सादिक षेख का मुकदमा लड़ रहे वकील षाहीद आजमी के अनुसार यह षिक्षित मुस्लिम युवकों की जिंदगी जेलों में सड़ाने की साजिष है। यही तरीका नक्सलवादियों के खिलाफ भी अख्तियार किया जा चुका है। नक्सलवादियों में कई आज भी 30 सालों से जेलों में है और उन पर 70-80 से केस हैं। पीयूसीएल के उत्तर प्रदेष के संयुक्त सचिव राजीव यादव कहते हैं कि पुलिस सरकार का यह तरीका अमरिका से आयातित है। वहां यही तरीका काले नीग्रो लोगों के खिलाफ अपनाया गया। वे या तो इतना केस लाद देना चाहते हैं जिसमें छुटना मष्किल हो या 200-250 सालों के जेल में डाल देना चाहते हैं।
गिरफ्तार युवकों के परिजन और संबंधी गूंगे बहरे की तरह केस की संख्या और जटिलता देखने पर मजबूर हैं।

अनुवाद व प्रस्तुति- विजय प्रताप

12.11.09

लो क सं घ र्ष !: पत्नी पीड़ित चिट्ठाकार क्षमा करें

घरेलू हिंसा का मुख्य कारण पुरूषवादी सोच होना है और स्त्री को भोग की विषय वस्तु बनाना हैसामंती युग में राजा-महाराजाओं के हरण या रानीवाश होते थे जिसमें हजारो-हजारो स्त्रियाँ रखी जाती थीपुरूषवादी मानसिकता में स्त्री को पैर की जूती समझा जाता है इसीलिए मौके बे मौके उनकी पिटाई और बात-बात पर प्रताड़ना होती रहती है . समाज में बातचीत में स्त्री को दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती की संज्ञा दी जाती है किंतु व्यव्हार में दोयम दर्जे का व्यव्हार किया जाता है कुछ देशों की राष्ट्रीय आय का श्रोत्र देह व्यापार ही हैमानसिकता बदलने की जरूरत है भारतीय कानून में 498 आई पी सी में दंड की व्यवस्था की गई है किंतु सरकार ने पुरुषवादी मानसिकता के तहत एक नया कानून घरेलु हिंसा अधिनियम बनाया है जिसका सीधा-सीधा मतलब है पुरुषों द्वारा की गई घरेलू हिंसा से बचाव करना है इस कानून के प्राविधान पुरुषों को ही संरक्षण देते हैं समाज व्यवस्था में स्त्रियों को पुरुषों के ऊपर आर्थिक रूप से निर्भर रहना पड़ता है जिसके कारण घरेलू हिंसा का विरोध भी नही हो पाता है आज के समाज में बहुसंख्यक स्त्रियों की हत्या घरों में कर दी जाती है और अधिकांश मामलों में सक्षम कानून पुरुषवादी मानसिकता के कारण कोई कार्यवाही नही हो पाती हैस्त्रियों को संरक्षण के लिए जितने भी कानून बने हैं वह कहीं कहीं स्त्रियों को ही प्रताडित करते हैं , जब तक 50% आबादी वाली स्त्री जाति को आर्थिक स्तर पर सुदृण नही किया जाता है तबतक लचर कानूनों से उनका भला नही होने वाला है
किसी भी देश का तभी भला हो सकता है जब उस देश की बहुसंख्यक स्त्रियाँ भी आर्थिक रूप से सुदृण होहमारे देश को बहुत सारे प्रान्तों में स्त्रियाँ 18-18 घंटे तक कार्य करती हैं और पुरूष कच्ची या पक्की दारू पिए हुए पड़े रहते हैं उसके बाद भी वो कामचोर पुरूष पुरुषवादी मानसिकता के तहत उन मेहनतकश स्त्रियों की पिटाई करता रहता हैघरेलु हिंसा से तभी निपटा जा सकता है जब सामाजिक रूप से स्त्रियाँ मजबूत हों

यह पोस्ट उल्टा तीर पर चल रही बहस घरेलू हिंसा के लिए लिखी गई है और इसका शीर्षक यह इसलिए रखा गया है की मुझे इन्टरनेट पर पत्नी पीड़ित ब्लागरों की यूनियन बनाने की बात की पोस्ट दिखाई दी थी इसलिए पत्नी पीड़ित चिट्ठाकारों से क्षमा मांग ली गई है

सुमन
loksangharsha.blogspot.com

11.11.09

लो क सं घ र्ष !: गरीबी पर्यटन अथवा ‘पुण्य’ प्राप्ति यात्रा ?

वैश्विक स्तर पर मंदी के काले बादलों के छँटने के शुरूआती जश्न के साथ-साथ भारत के आर्थिक प्रबन्धक भी दावा करने लगे हैं कि शेयर बाजार, औद्योगिक उत्पादन, कारों की बिक्री आदि संकेतक यह दिखा रहे हैं कि मंदी का जिन्न फिर अपनी बोतल में लौट गया है। इसी दौरान विश्व बैंक के अनुसार 10 अरब लोग गरीबी के गर्त में ढकेल दिये गए हैं। विश्व खाद्य और कृषि संगठन का आकलन है कि 1.2 खरब लोग इस मंदी के चलते भूख और कुपोषण के शिकार बन गए हैं। भारत के बारे में भी ऐसी चिन्तनीय सूचनाएँ आधिकारिक स्रोतों से आ रही हैं। किन्तु वित्तीय और कम्पनी क्षेत्र, खासकर शेयर और वायदा बाजार सेंसेक्स के 17 हजारी स्तर के उस पार पहुँचने पर अपने पुराने तेजी के रूख पर बार-बार मुनाफा वसूली में जुट गए हैं। किन्तु यू0डी0फी0 के मानव विकास सूचकंाक के क्रम में पिछले बीस सालों में भारत का दर्जा 126 से घटकर 134वाँ हो गया है। क्यों है यह हालत जब समावेशी विकास, नरेगा तथा प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून आदि के द्वारा आम आदमी के सरोकारों को सहेजने के प्रयास भी चलाये जा रहे हंै।
सीधा सवाल है क्या ये प्रस्ताव और कार्य देश के गरीबों कोे पर्याप्त और पुख्ता गारन्टी देने में सक्षम है? इन सवालों के उत्तर विभिन्न कार्यक्रमों के अपने स्वतंत्र तथा उन पर खर्चे जाने वाली कुल निरपेक्ष राशि के आधार पर नहीं मिल सकते हैं। सवाल सारी अर्थव्यवस्था के विभिन्न अंगों की तुलनात्मक स्थिति तथा उनसे प्रभावित लोगों की संख्या और मसलों की गंभीरता का है। उदाहरण के लिए देश के हवाई यात्रियों को एयर इण्डिया के इस साल के घाटे के बतौर 7200 हजार करोड़ रूपये की अप्रत्यक्ष सब्सिडी दी जा सकती है। परन्तु प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के तहत अन्त्योदय को सस्ते बेचे जाने वाले अनाज की मात्रा वर्तमान 35 किलो से घटाकर 25 किलो करने की बात चल रही है।
वास्तव में राजनैतिक, आर्थिक तथा वर्गगत प्रतिबद्धताओं के साथ और काफी कुछ उनके प्रभाव के कारण गरीबी के सवाल पर समझ भी दोषभरी बन चुकी है इसलिए निर्धनता विषयक नीति-निर्णयों का आधार यह हो गया है कि गरीबी मात्र व्यक्ति केन्द्रित, उनके कार्य तथा अन्य क्षमताओं की कमी तथा अपर्याप्तता का है। वस्तुतः ये अभाव तो गरीबी और असमावेश का ही दूसरा नाम और खुलासा है। कुछ निश्चित लक्षित संख्या में गरीब व्यक्तियों और परिवारों को कुछ सहायता, कुछ भागीदारी, कुछ आमदनी का स्रोत प्रदान करके निश्चित तौर पर इस तरह सचमुच लाभांवित लोगों को फौरी तौर पर पहले से बेहतर स्थिति में पहुँचाया जा सकता है। किन्तु इस प्रकार यह निश्चित नही हो पाता है कि ये लाभांवित लोग स्वावलम्बी आधार पर दीर्घकालिक परिप्रेक्ष में गरीबी के जाल से आजाद हो गए हैं। और ज्यादा गंभीर नुक्ता यह है कि ऐसे कार्यक्रमों आदि के आधार पर कब वह सुदिन आ जाएगा कि गरीबी एक इतिहस की नाखुश यादगार बन जायेगी और सामान्य सामजिक आर्थिक प्रक्रियाओं में सुनिश्चित भागीदारी हर नागरिक का उसी तरह अधिकार बन जाएगी जैसा कि आज उसका मताधिकार है।
यदि गरीबी निवारण नीतियों का लक्ष्य उपरोक्त स्थिति है तो देश में व्याप्त गरीबी के बारे में कुछ मूलभूत तथ्यों को मानना होगा। पहली बात तो यह कि गरीबी देश की एक चिरकाल से चली आ रही व्यापक राष्ट्रीय स्तर पर फैली व्यवस्थागत कमजोरी है। फलतः करोड़ो लोग जन्मजात रूप से गरीब हैं, जीवन पर्यन्त गरीब रहते हैं और गरीबी में ही अपनी इहलीला समाप्त करके अपनी अगली पीढ़ी को भी गरीबी के दामन में छोड़ जाते हैं। जब तक एक किस्म के एकेश्वर वादी दुशग्रह की तर्ज पर सकल राष्ट्रीय उत्पादन के विद्यमान बाजार की माँग के अनुसार निर्धारित रूप को विकास माना जाता रहेगा, करोड़ों गरीबों को उसमें भागीदारी नहीं मिल सकती है। उल्टे उनके लिए उपलब्ध अवसरों, संसाधनों और क्षमताओं का अनुपात गिरता रहेगा। कितने ही लोक-दिखाऊ, थोक-लुभाऊ गरीब हितैषी कार्यक्रम शुरू कीजिए, चिर कालिक सामाजिक, राष्ट्रीय सामाजिक स्तर पर और गदरी जड़ों वाली विशालकाय तथा निरन्तर वृद्धिमान निर्धनता तथा सीमान्तीकरण दोनों जारी रहेंगे। सिद्धांत और इतिहास दोनों का यह स्पष्ट संदेश है।
हाँ यह बात अलग है कि एक मानवीय स्तर से नीची गरीबी रेखा तय करके ये दावे किए जा सकते हैं कि एकांगी, यथास्थिति वर्द्धक आर्थिक बढ़ोत्तरी के साथ-साथ कृत्रिम तथा अमानवीय रूप से परिभाषित गरीबी घट रही है। इस नजरिये से बढ़ती गहराती असमानताएँ और बेरोजगारी को, घटती गरीबी के साथ संगत मानने का दुस्साहस भी शामिल है। वास्तव में गरीबी निवारण के ऐसे कदम वर्तमान वर्चस्ववान लघु समुदायों के राजनैतिक प्रबंधन तथा छवि निर्माण अभियानों के ही एक अंग हैं। इस तरह के कार्यक्रमों का नामकरण नेताओं या सत्तासीन लोगों पर करना एक शुरूआती कदम था अब सक्रिय राजनैतिक दलों और गिरोहों की आपसी प्रतिस्पद्र्धा ने गरीबों के साथ हमदर्दी, उनके साथ जुड़ाव के कुछ नये प्रयोगों को प्रचलित करा दिया है।
गरीबों से नजदीकी दिखाने बढ़ाने के लिए उनके घरों पर अचानक पहुँचे मेहमानों की तरह दस्तक देकर उन्हें ‘बड़े लोगों’ की मेहमान नवाजी करने के अवसर परोसे जा रहे हैं। जो लोग जातिगत पहचान को भुनाकर अति विलासिता पूर्ण जीवन पद्धति के बावजूद साझी विरासत को भुना रहे हैं उसका तोड़, एक करारा जवाब उनके साथ रोटी तोड़ने तथा उनकी कुटिया में रातवास करना बनाया जा रहा है। दोनों ही तरह के प्रयास गरीब को कोई लाभ नहीं पहुँचा सकते हैं और किसी नीतिगत, सामाजिक, आर्थिक विकास की रणनीति की नींव नहीं डाल सकते हैं। ये प्रयास तो अपने आप में गरीबी के चरित्र और समाधान की खोज में भी मददगार नही हो सकते हैं। यदि पूरी की पूरी पार्टी कार्यकर्ताओं की फौज भी इस तरह के ‘पोवर्टी टूरिज्म’ का लुत्फ और राजनैतिक लाभ उठाने लगे तो भी गरीबों के लिए ये सकारात्मक नतीजे नहीं दे सकते। किन्तु जिस तरह जातिगत पहचान के आधार पर नेताओं ने मलाई खाने के रास्ते बनाए यदि निर्धनता पर्यटन इस प्रयास में एक बारगी काठ की हण्डिया की तरह कामयाब होता है तो इस अभियान को टूरिज्म नहीं कह कर पुण्य बटोरने की यात्रा अर्थात ‘पोवर्टी’ पिलग्रिमेज कहना ज्यादा सही होगा। है न, एक राजनैतिक नवाचार।
इस राजनैतिक नवाचार की जड़े अर्थव्यवस्था खास तौर पर वर्तमान आर्थिक नीतियों तक पहुंचती है। हमारा राजनैतिक तबका बखूबी जानता है कि उदारीकरण बाजारीकरण के तत्वावधान में फलते फूलते एकाधिकारी तबकों, निजी कम्पनियों सट्टोरियों, काले धन के विशाल साम्राज्य के कर्ता-धर्ताओं (मात्र एक ऐसे व्यक्ति के स्विस बैंकों में जमा काले धन का आँकड़ा 8 अरब डाॅलर, यानी 375 अरब रूपये से ज्यादा होना और वर्षों से सरकार द्वारा इस मसले का निपटारा नहीं होना साफ संकेत है ऐसे धन की मात्रा और ताकत की) आदि की बढ़ती समृद्धि के साथ गरीबी का बढ़ना लाजिमी है। किन्तु इस शक्तिशाली वर्ग के पास चुनावों में जीत दिलाने वाले वोटों की ताकत नहीं है क्या इस कमी या कमजोरी को धनबल और उससे जुड़े तिकड़मों के जरिये पूरा नहीं किया जा सकता। इसी सवाल के जवाब में सामाजिक न्याय, समावेशी वृद्धि, नरेगा, गरीब हितैषी कार्यक्रम, पंचायती राज, आरक्षण,सर्व शिक्षा अभियान तथा शिक्षा का अधिकार और खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम आदि उपायों को नये नये रूपों में अपनाया जाता है। बिना आय, सम्पत्ति क्षमता और ताकत के कुछ हाथों में तेजी से केन्द्रित होने की प्रक्रिया पर कोई गति अवरोधक तक लगाये आम आदमी को कैसे भरोसा दिलाया जाये कि शासक दल वे चाहे किसी भी नाम से सत्तारूढ़ हों इसी प्रबल अधिसंख्य तबके के साथ हैं? खास कर राज्य के साथ-साथ राजनैतिक दल और उनकेे जन्मजात नेताओं की साख भी जनपक्षीय किस्म की बनाना जरूरी है। पूरी तरह सरकारी और अर्द्ध सरकारी (जो निजी होने पर भी विज्ञापनों तथा अन्य कई रूपों में सरकारी कृपा अनुदानों, सुविधाओं आदि का आदी हो चुका है) प्रचार तथा संचार तंत्र और अनेक अकेडेमिक दिग्गज इस भ्रामक छवि निर्माण प्रक्रिया में बढ़-चढ़कर भाग ले रहे हैं।
राजस्थान में प्रथम आम चुनाव में एक वक्त पाकिस्तान में शामिल होने के प्रयास में निरत महाराजा ने गाँव-गाँव गली-गली जाकर हुंकार लगाई थी ’’हूँ था सू दूर नहीं।’’ उनकी झोली में भोली जनता ने एक को छोड़ सारी सीटे उस इलाके की डाल दीं। कुछ इसी तर्ज पर गरीबी दर्शन, गरीब के साथ उसकी कुटिया में रहकर एक नये राज पद प्राप्ति अभियान की शुरूआत हुई है।
यह अभियान पूरी तरह उदारीकरण बाजारीकरण प्रक्रिया का सहोदर है। यदि पूरी पार्टी को ऐसे अभियानों में झौका जाता है। थोड़ी सी तकलीफ न कर भी त्याग-तप तक संवेदना का ऐसा प्रदर्शन होने लगता है और कांग्रेस की धुर जन्मेन विरोधी ताकतें भी इस अभियान की प्रशंसा करती हैं तो साफ नजर आता है कि देश में एक नये उद्योग ‘‘निर्धनता पर्यटन’’ की शुरूआत होने ही वाली है। मेडिकल टूरिज्म, हेरिटेज टूरिज्म, वीक एण्ड टूरिज्म आदि की तरह ही एक नया गरीबी पर्यटन उद्योग भी चल निकल सकता है। वैसे गरीबी के प्रति संवेदना जगाने, उसे समझने-समझाने लोगों के सामने आने और उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति पहले ही गरीब लोगों को बहुत रूचि गया काम है। इस तरह उनको भी मिलने की आस जगती है और विसाले यार के बतौर धन, मान, शोहरत भी मिलते हैं।
गरीब को क्या कितना लाभ मिल सकता है और कब खासकर ऐसा लाभ जो प्रत्येक निर्धन सीमान्त व्यक्तियों को इस अभिशाप से मुक्त कर सके ये प्रश्न तो कभी पूछे ही नहीं जाते हैं। क्या गरीबी किसी एक व्यक्ति या परिवार को लगी कोई बीमारी है जो डाॅक्टर द्वारा घर जाकर जाँच करने और दवा देने से दूर हो जाएगी? निश्चित है गरीब के घर पर्यटक पर्यवेक्षक या नाॅन पेयिंग गेस्ट बनकर मीडिया की चकाचैध रोशनी में आ जाने से पर्यटक का एक बहुत बड़ा परिवर्तन से वास्ता पड़ता है मानों वह सदियों पीछे चला गया हो। शायद उसके ज्ञान चक्षु खुले, संवेदना की चेतना जगे और जिनके पैर बिवाई फटती हैं उनकी पीड़ा का भी कुछ आभास हो।
कई कलावतियाँ भी इस तरह कुछ अरसे के लिए नामी गिरामी हस्ती बन सकती हैं। किन्तु कोई तो बताये कि इस गरीबी पर्यटन से क्या लाभ होगा। शेष 83 करोड़ लोगों को जिन्हें 20 रूपये प्रतिदिन से कम खर्च पर यह कोशिश करनी पड़ती है कि उनके पेट और पीठ मिल कर एक नहीं हो जायंे, अथवा मुट्ठी भर दाने को भूख मिटाने को जिन्हें मुँह फटी पुरानी झोली लेकर अन्त्योदय स्कीम अथवा खाने के अधिकार केे तहत एक लम्बी ‘क्यू’ में खड़ा होना पड़ता है। अथवा जिन्हें गर्मी, सर्दी, बाढ़ और सूखे आदि जैसी हर स्थिति में मरने वालों की संख्या में शुमार होने को मजबूर रहना पड़ता है। यदि वोट बटोरने, जातिगत पहचान के आधार पर सत्ता हथियाने वालों को परास्त करने आदि की यह गरीब के घर दस्तक देने का कार्यक्रम सफल हो जाता है तो फिर यह गरीबी पर्यटन नहीं रहकर गरीबी दर्शन से तीर्थयात्रा के समान पाप धोने और राजकाज रूपी पुण्य प्राप्ति का अभियान साबित हो जायेगा।

-कमल नयन काबरा
मो0: 09868204457

लोकसंघर्ष में शीघ्र प्रकाशित

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10.11.09

लो क सं घ र्ष !: हिन्दी के मुंह पर हिंदुत्व का तमाचा

महाराष्ट्र विधानसभा में सपथ ग्रहण के समय अबू आजमी ने हिन्दी में सपथ ली तो मनसे विधायक ने थप्पड़ माराभारतीय जनता पार्टी और उसके पिता तुल्य आर.एस.एस ने जो जहर बोया है उसका परिणाम भी रहा हैमध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी धमकी दी कि मध्य प्रदेश में दूसरे प्रदेशों के लोग कार्य नही कर सकते हैंमहाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी शिवसेना के साथ चुनाव लड़ती है और शिव सेना और उसके घटक मनसे हिन्दी का विरोध करती हैभारतीय जनता पार्टी , आर.एस.एस और उसके अनुसांगिक संगठन गला फाड़-फाड़ कर पूरे देश में नफरत का जहर फैलतें हैं और कहते हैं हिन्दी-हिंदू और हिन्दुस्तानभारतीय जनता पार्टी चुप है आर.एस.एस चुप है अगर यही हरकत किसी और ने की होती तो तुंरत यह लोग राष्ट्रद्रोह का प्रमाणपत्र जारी करने लगतेराष्ट्रभक्त-राष्ट्रद्रोह का प्रमाणपत्र जारी करने का ठेका भाजपा आर.एस.एस के पास है जबकि इनका इतिहास रहा है कि वह स्वयं में कभी भी राष्ट्र भक्ति का कोई कार्य नही किया है कभी यह ब्रिटिश साम्राज्यवाद जर्मन के हिटलर से प्रेरणा लेकर कार्य करते थे और आज अमेरिकन साम्राज्यवाद से प्रेरणा लेकर कार्य करते हैंइस तरह की हरकतों से देश की एकता और अखंडता कमजोर होती है भारत सरकार महारष्ट्र सरकार ऐसे तत्वों के ख़िलाफ़ समुचित कार्यवाही नही कर रही है जिससे इनके हौसले बढे हुए हैं यदि एक बार सरकार ईमानदारी से ऐसे तत्वों के ख़िलाफ़ कार्यवाही कर दे तो बाल ठाकरे, राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे जैसे लोग पैदा ही नही होंगे क्योंकि ऐसे तत्वों का यह इतिहास रहा है की जब भी सिकंजे में फंसें है तो माफ़ी मांग कर जेल से बाहर आए हैं जिसका पहला उदाहरण सावरकर हैं यदि ऐसे तत्वों की सरकारी सुरक्षा व्यवस्था हटा ली जाए तो यह लोग कोई भी चीज बोल ही नही सकते हैंयह सब सारी हरकतें सरकारी सुरक्षा में रहकर होती हैं राज ठाकरे, बाल ठाकरे, उद्धव ठाकरे से लेकर किसी में कोई दम नही हैजब सरकारी संरक्षण प्राप्त होता है तो यह लोग देश तोड़ने की हरकतें करते हैंयह तमाचा मनसे का नही है तमाचा हिंदुत्व की विचारधारा का है

सुमन
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