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12.11.09

लो क सं घ र्ष !: पत्नी पीड़ित चिट्ठाकार क्षमा करें

घरेलू हिंसा का मुख्य कारण पुरूषवादी सोच होना है और स्त्री को भोग की विषय वस्तु बनाना हैसामंती युग में राजा-महाराजाओं के हरण या रानीवाश होते थे जिसमें हजारो-हजारो स्त्रियाँ रखी जाती थीपुरूषवादी मानसिकता में स्त्री को पैर की जूती समझा जाता है इसीलिए मौके बे मौके उनकी पिटाई और बात-बात पर प्रताड़ना होती रहती है . समाज में बातचीत में स्त्री को दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती की संज्ञा दी जाती है किंतु व्यव्हार में दोयम दर्जे का व्यव्हार किया जाता है कुछ देशों की राष्ट्रीय आय का श्रोत्र देह व्यापार ही हैमानसिकता बदलने की जरूरत है भारतीय कानून में 498 आई पी सी में दंड की व्यवस्था की गई है किंतु सरकार ने पुरुषवादी मानसिकता के तहत एक नया कानून घरेलु हिंसा अधिनियम बनाया है जिसका सीधा-सीधा मतलब है पुरुषों द्वारा की गई घरेलू हिंसा से बचाव करना है इस कानून के प्राविधान पुरुषों को ही संरक्षण देते हैं समाज व्यवस्था में स्त्रियों को पुरुषों के ऊपर आर्थिक रूप से निर्भर रहना पड़ता है जिसके कारण घरेलू हिंसा का विरोध भी नही हो पाता है आज के समाज में बहुसंख्यक स्त्रियों की हत्या घरों में कर दी जाती है और अधिकांश मामलों में सक्षम कानून पुरुषवादी मानसिकता के कारण कोई कार्यवाही नही हो पाती हैस्त्रियों को संरक्षण के लिए जितने भी कानून बने हैं वह कहीं कहीं स्त्रियों को ही प्रताडित करते हैं , जब तक 50% आबादी वाली स्त्री जाति को आर्थिक स्तर पर सुदृण नही किया जाता है तबतक लचर कानूनों से उनका भला नही होने वाला है
किसी भी देश का तभी भला हो सकता है जब उस देश की बहुसंख्यक स्त्रियाँ भी आर्थिक रूप से सुदृण होहमारे देश को बहुत सारे प्रान्तों में स्त्रियाँ 18-18 घंटे तक कार्य करती हैं और पुरूष कच्ची या पक्की दारू पिए हुए पड़े रहते हैं उसके बाद भी वो कामचोर पुरूष पुरुषवादी मानसिकता के तहत उन मेहनतकश स्त्रियों की पिटाई करता रहता हैघरेलु हिंसा से तभी निपटा जा सकता है जब सामाजिक रूप से स्त्रियाँ मजबूत हों

यह पोस्ट उल्टा तीर पर चल रही बहस घरेलू हिंसा के लिए लिखी गई है और इसका शीर्षक यह इसलिए रखा गया है की मुझे इन्टरनेट पर पत्नी पीड़ित ब्लागरों की यूनियन बनाने की बात की पोस्ट दिखाई दी थी इसलिए पत्नी पीड़ित चिट्ठाकारों से क्षमा मांग ली गई है

सुमन
loksangharsha.blogspot.com

11.11.09

लो क सं घ र्ष !: गरीबी पर्यटन अथवा ‘पुण्य’ प्राप्ति यात्रा ?

वैश्विक स्तर पर मंदी के काले बादलों के छँटने के शुरूआती जश्न के साथ-साथ भारत के आर्थिक प्रबन्धक भी दावा करने लगे हैं कि शेयर बाजार, औद्योगिक उत्पादन, कारों की बिक्री आदि संकेतक यह दिखा रहे हैं कि मंदी का जिन्न फिर अपनी बोतल में लौट गया है। इसी दौरान विश्व बैंक के अनुसार 10 अरब लोग गरीबी के गर्त में ढकेल दिये गए हैं। विश्व खाद्य और कृषि संगठन का आकलन है कि 1.2 खरब लोग इस मंदी के चलते भूख और कुपोषण के शिकार बन गए हैं। भारत के बारे में भी ऐसी चिन्तनीय सूचनाएँ आधिकारिक स्रोतों से आ रही हैं। किन्तु वित्तीय और कम्पनी क्षेत्र, खासकर शेयर और वायदा बाजार सेंसेक्स के 17 हजारी स्तर के उस पार पहुँचने पर अपने पुराने तेजी के रूख पर बार-बार मुनाफा वसूली में जुट गए हैं। किन्तु यू0डी0फी0 के मानव विकास सूचकंाक के क्रम में पिछले बीस सालों में भारत का दर्जा 126 से घटकर 134वाँ हो गया है। क्यों है यह हालत जब समावेशी विकास, नरेगा तथा प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून आदि के द्वारा आम आदमी के सरोकारों को सहेजने के प्रयास भी चलाये जा रहे हंै।
सीधा सवाल है क्या ये प्रस्ताव और कार्य देश के गरीबों कोे पर्याप्त और पुख्ता गारन्टी देने में सक्षम है? इन सवालों के उत्तर विभिन्न कार्यक्रमों के अपने स्वतंत्र तथा उन पर खर्चे जाने वाली कुल निरपेक्ष राशि के आधार पर नहीं मिल सकते हैं। सवाल सारी अर्थव्यवस्था के विभिन्न अंगों की तुलनात्मक स्थिति तथा उनसे प्रभावित लोगों की संख्या और मसलों की गंभीरता का है। उदाहरण के लिए देश के हवाई यात्रियों को एयर इण्डिया के इस साल के घाटे के बतौर 7200 हजार करोड़ रूपये की अप्रत्यक्ष सब्सिडी दी जा सकती है। परन्तु प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के तहत अन्त्योदय को सस्ते बेचे जाने वाले अनाज की मात्रा वर्तमान 35 किलो से घटाकर 25 किलो करने की बात चल रही है।
वास्तव में राजनैतिक, आर्थिक तथा वर्गगत प्रतिबद्धताओं के साथ और काफी कुछ उनके प्रभाव के कारण गरीबी के सवाल पर समझ भी दोषभरी बन चुकी है इसलिए निर्धनता विषयक नीति-निर्णयों का आधार यह हो गया है कि गरीबी मात्र व्यक्ति केन्द्रित, उनके कार्य तथा अन्य क्षमताओं की कमी तथा अपर्याप्तता का है। वस्तुतः ये अभाव तो गरीबी और असमावेश का ही दूसरा नाम और खुलासा है। कुछ निश्चित लक्षित संख्या में गरीब व्यक्तियों और परिवारों को कुछ सहायता, कुछ भागीदारी, कुछ आमदनी का स्रोत प्रदान करके निश्चित तौर पर इस तरह सचमुच लाभांवित लोगों को फौरी तौर पर पहले से बेहतर स्थिति में पहुँचाया जा सकता है। किन्तु इस प्रकार यह निश्चित नही हो पाता है कि ये लाभांवित लोग स्वावलम्बी आधार पर दीर्घकालिक परिप्रेक्ष में गरीबी के जाल से आजाद हो गए हैं। और ज्यादा गंभीर नुक्ता यह है कि ऐसे कार्यक्रमों आदि के आधार पर कब वह सुदिन आ जाएगा कि गरीबी एक इतिहस की नाखुश यादगार बन जायेगी और सामान्य सामजिक आर्थिक प्रक्रियाओं में सुनिश्चित भागीदारी हर नागरिक का उसी तरह अधिकार बन जाएगी जैसा कि आज उसका मताधिकार है।
यदि गरीबी निवारण नीतियों का लक्ष्य उपरोक्त स्थिति है तो देश में व्याप्त गरीबी के बारे में कुछ मूलभूत तथ्यों को मानना होगा। पहली बात तो यह कि गरीबी देश की एक चिरकाल से चली आ रही व्यापक राष्ट्रीय स्तर पर फैली व्यवस्थागत कमजोरी है। फलतः करोड़ो लोग जन्मजात रूप से गरीब हैं, जीवन पर्यन्त गरीब रहते हैं और गरीबी में ही अपनी इहलीला समाप्त करके अपनी अगली पीढ़ी को भी गरीबी के दामन में छोड़ जाते हैं। जब तक एक किस्म के एकेश्वर वादी दुशग्रह की तर्ज पर सकल राष्ट्रीय उत्पादन के विद्यमान बाजार की माँग के अनुसार निर्धारित रूप को विकास माना जाता रहेगा, करोड़ों गरीबों को उसमें भागीदारी नहीं मिल सकती है। उल्टे उनके लिए उपलब्ध अवसरों, संसाधनों और क्षमताओं का अनुपात गिरता रहेगा। कितने ही लोक-दिखाऊ, थोक-लुभाऊ गरीब हितैषी कार्यक्रम शुरू कीजिए, चिर कालिक सामाजिक, राष्ट्रीय सामाजिक स्तर पर और गदरी जड़ों वाली विशालकाय तथा निरन्तर वृद्धिमान निर्धनता तथा सीमान्तीकरण दोनों जारी रहेंगे। सिद्धांत और इतिहास दोनों का यह स्पष्ट संदेश है।
हाँ यह बात अलग है कि एक मानवीय स्तर से नीची गरीबी रेखा तय करके ये दावे किए जा सकते हैं कि एकांगी, यथास्थिति वर्द्धक आर्थिक बढ़ोत्तरी के साथ-साथ कृत्रिम तथा अमानवीय रूप से परिभाषित गरीबी घट रही है। इस नजरिये से बढ़ती गहराती असमानताएँ और बेरोजगारी को, घटती गरीबी के साथ संगत मानने का दुस्साहस भी शामिल है। वास्तव में गरीबी निवारण के ऐसे कदम वर्तमान वर्चस्ववान लघु समुदायों के राजनैतिक प्रबंधन तथा छवि निर्माण अभियानों के ही एक अंग हैं। इस तरह के कार्यक्रमों का नामकरण नेताओं या सत्तासीन लोगों पर करना एक शुरूआती कदम था अब सक्रिय राजनैतिक दलों और गिरोहों की आपसी प्रतिस्पद्र्धा ने गरीबों के साथ हमदर्दी, उनके साथ जुड़ाव के कुछ नये प्रयोगों को प्रचलित करा दिया है।
गरीबों से नजदीकी दिखाने बढ़ाने के लिए उनके घरों पर अचानक पहुँचे मेहमानों की तरह दस्तक देकर उन्हें ‘बड़े लोगों’ की मेहमान नवाजी करने के अवसर परोसे जा रहे हैं। जो लोग जातिगत पहचान को भुनाकर अति विलासिता पूर्ण जीवन पद्धति के बावजूद साझी विरासत को भुना रहे हैं उसका तोड़, एक करारा जवाब उनके साथ रोटी तोड़ने तथा उनकी कुटिया में रातवास करना बनाया जा रहा है। दोनों ही तरह के प्रयास गरीब को कोई लाभ नहीं पहुँचा सकते हैं और किसी नीतिगत, सामाजिक, आर्थिक विकास की रणनीति की नींव नहीं डाल सकते हैं। ये प्रयास तो अपने आप में गरीबी के चरित्र और समाधान की खोज में भी मददगार नही हो सकते हैं। यदि पूरी की पूरी पार्टी कार्यकर्ताओं की फौज भी इस तरह के ‘पोवर्टी टूरिज्म’ का लुत्फ और राजनैतिक लाभ उठाने लगे तो भी गरीबों के लिए ये सकारात्मक नतीजे नहीं दे सकते। किन्तु जिस तरह जातिगत पहचान के आधार पर नेताओं ने मलाई खाने के रास्ते बनाए यदि निर्धनता पर्यटन इस प्रयास में एक बारगी काठ की हण्डिया की तरह कामयाब होता है तो इस अभियान को टूरिज्म नहीं कह कर पुण्य बटोरने की यात्रा अर्थात ‘पोवर्टी’ पिलग्रिमेज कहना ज्यादा सही होगा। है न, एक राजनैतिक नवाचार।
इस राजनैतिक नवाचार की जड़े अर्थव्यवस्था खास तौर पर वर्तमान आर्थिक नीतियों तक पहुंचती है। हमारा राजनैतिक तबका बखूबी जानता है कि उदारीकरण बाजारीकरण के तत्वावधान में फलते फूलते एकाधिकारी तबकों, निजी कम्पनियों सट्टोरियों, काले धन के विशाल साम्राज्य के कर्ता-धर्ताओं (मात्र एक ऐसे व्यक्ति के स्विस बैंकों में जमा काले धन का आँकड़ा 8 अरब डाॅलर, यानी 375 अरब रूपये से ज्यादा होना और वर्षों से सरकार द्वारा इस मसले का निपटारा नहीं होना साफ संकेत है ऐसे धन की मात्रा और ताकत की) आदि की बढ़ती समृद्धि के साथ गरीबी का बढ़ना लाजिमी है। किन्तु इस शक्तिशाली वर्ग के पास चुनावों में जीत दिलाने वाले वोटों की ताकत नहीं है क्या इस कमी या कमजोरी को धनबल और उससे जुड़े तिकड़मों के जरिये पूरा नहीं किया जा सकता। इसी सवाल के जवाब में सामाजिक न्याय, समावेशी वृद्धि, नरेगा, गरीब हितैषी कार्यक्रम, पंचायती राज, आरक्षण,सर्व शिक्षा अभियान तथा शिक्षा का अधिकार और खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम आदि उपायों को नये नये रूपों में अपनाया जाता है। बिना आय, सम्पत्ति क्षमता और ताकत के कुछ हाथों में तेजी से केन्द्रित होने की प्रक्रिया पर कोई गति अवरोधक तक लगाये आम आदमी को कैसे भरोसा दिलाया जाये कि शासक दल वे चाहे किसी भी नाम से सत्तारूढ़ हों इसी प्रबल अधिसंख्य तबके के साथ हैं? खास कर राज्य के साथ-साथ राजनैतिक दल और उनकेे जन्मजात नेताओं की साख भी जनपक्षीय किस्म की बनाना जरूरी है। पूरी तरह सरकारी और अर्द्ध सरकारी (जो निजी होने पर भी विज्ञापनों तथा अन्य कई रूपों में सरकारी कृपा अनुदानों, सुविधाओं आदि का आदी हो चुका है) प्रचार तथा संचार तंत्र और अनेक अकेडेमिक दिग्गज इस भ्रामक छवि निर्माण प्रक्रिया में बढ़-चढ़कर भाग ले रहे हैं।
राजस्थान में प्रथम आम चुनाव में एक वक्त पाकिस्तान में शामिल होने के प्रयास में निरत महाराजा ने गाँव-गाँव गली-गली जाकर हुंकार लगाई थी ’’हूँ था सू दूर नहीं।’’ उनकी झोली में भोली जनता ने एक को छोड़ सारी सीटे उस इलाके की डाल दीं। कुछ इसी तर्ज पर गरीबी दर्शन, गरीब के साथ उसकी कुटिया में रहकर एक नये राज पद प्राप्ति अभियान की शुरूआत हुई है।
यह अभियान पूरी तरह उदारीकरण बाजारीकरण प्रक्रिया का सहोदर है। यदि पूरी पार्टी को ऐसे अभियानों में झौका जाता है। थोड़ी सी तकलीफ न कर भी त्याग-तप तक संवेदना का ऐसा प्रदर्शन होने लगता है और कांग्रेस की धुर जन्मेन विरोधी ताकतें भी इस अभियान की प्रशंसा करती हैं तो साफ नजर आता है कि देश में एक नये उद्योग ‘‘निर्धनता पर्यटन’’ की शुरूआत होने ही वाली है। मेडिकल टूरिज्म, हेरिटेज टूरिज्म, वीक एण्ड टूरिज्म आदि की तरह ही एक नया गरीबी पर्यटन उद्योग भी चल निकल सकता है। वैसे गरीबी के प्रति संवेदना जगाने, उसे समझने-समझाने लोगों के सामने आने और उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति पहले ही गरीब लोगों को बहुत रूचि गया काम है। इस तरह उनको भी मिलने की आस जगती है और विसाले यार के बतौर धन, मान, शोहरत भी मिलते हैं।
गरीब को क्या कितना लाभ मिल सकता है और कब खासकर ऐसा लाभ जो प्रत्येक निर्धन सीमान्त व्यक्तियों को इस अभिशाप से मुक्त कर सके ये प्रश्न तो कभी पूछे ही नहीं जाते हैं। क्या गरीबी किसी एक व्यक्ति या परिवार को लगी कोई बीमारी है जो डाॅक्टर द्वारा घर जाकर जाँच करने और दवा देने से दूर हो जाएगी? निश्चित है गरीब के घर पर्यटक पर्यवेक्षक या नाॅन पेयिंग गेस्ट बनकर मीडिया की चकाचैध रोशनी में आ जाने से पर्यटक का एक बहुत बड़ा परिवर्तन से वास्ता पड़ता है मानों वह सदियों पीछे चला गया हो। शायद उसके ज्ञान चक्षु खुले, संवेदना की चेतना जगे और जिनके पैर बिवाई फटती हैं उनकी पीड़ा का भी कुछ आभास हो।
कई कलावतियाँ भी इस तरह कुछ अरसे के लिए नामी गिरामी हस्ती बन सकती हैं। किन्तु कोई तो बताये कि इस गरीबी पर्यटन से क्या लाभ होगा। शेष 83 करोड़ लोगों को जिन्हें 20 रूपये प्रतिदिन से कम खर्च पर यह कोशिश करनी पड़ती है कि उनके पेट और पीठ मिल कर एक नहीं हो जायंे, अथवा मुट्ठी भर दाने को भूख मिटाने को जिन्हें मुँह फटी पुरानी झोली लेकर अन्त्योदय स्कीम अथवा खाने के अधिकार केे तहत एक लम्बी ‘क्यू’ में खड़ा होना पड़ता है। अथवा जिन्हें गर्मी, सर्दी, बाढ़ और सूखे आदि जैसी हर स्थिति में मरने वालों की संख्या में शुमार होने को मजबूर रहना पड़ता है। यदि वोट बटोरने, जातिगत पहचान के आधार पर सत्ता हथियाने वालों को परास्त करने आदि की यह गरीब के घर दस्तक देने का कार्यक्रम सफल हो जाता है तो फिर यह गरीबी पर्यटन नहीं रहकर गरीबी दर्शन से तीर्थयात्रा के समान पाप धोने और राजकाज रूपी पुण्य प्राप्ति का अभियान साबित हो जायेगा।

-कमल नयन काबरा
मो0: 09868204457

लोकसंघर्ष में शीघ्र प्रकाशित

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10.11.09

लो क सं घ र्ष !: हिन्दी के मुंह पर हिंदुत्व का तमाचा

महाराष्ट्र विधानसभा में सपथ ग्रहण के समय अबू आजमी ने हिन्दी में सपथ ली तो मनसे विधायक ने थप्पड़ माराभारतीय जनता पार्टी और उसके पिता तुल्य आर.एस.एस ने जो जहर बोया है उसका परिणाम भी रहा हैमध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी धमकी दी कि मध्य प्रदेश में दूसरे प्रदेशों के लोग कार्य नही कर सकते हैंमहाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी शिवसेना के साथ चुनाव लड़ती है और शिव सेना और उसके घटक मनसे हिन्दी का विरोध करती हैभारतीय जनता पार्टी , आर.एस.एस और उसके अनुसांगिक संगठन गला फाड़-फाड़ कर पूरे देश में नफरत का जहर फैलतें हैं और कहते हैं हिन्दी-हिंदू और हिन्दुस्तानभारतीय जनता पार्टी चुप है आर.एस.एस चुप है अगर यही हरकत किसी और ने की होती तो तुंरत यह लोग राष्ट्रद्रोह का प्रमाणपत्र जारी करने लगतेराष्ट्रभक्त-राष्ट्रद्रोह का प्रमाणपत्र जारी करने का ठेका भाजपा आर.एस.एस के पास है जबकि इनका इतिहास रहा है कि वह स्वयं में कभी भी राष्ट्र भक्ति का कोई कार्य नही किया है कभी यह ब्रिटिश साम्राज्यवाद जर्मन के हिटलर से प्रेरणा लेकर कार्य करते थे और आज अमेरिकन साम्राज्यवाद से प्रेरणा लेकर कार्य करते हैंइस तरह की हरकतों से देश की एकता और अखंडता कमजोर होती है भारत सरकार महारष्ट्र सरकार ऐसे तत्वों के ख़िलाफ़ समुचित कार्यवाही नही कर रही है जिससे इनके हौसले बढे हुए हैं यदि एक बार सरकार ईमानदारी से ऐसे तत्वों के ख़िलाफ़ कार्यवाही कर दे तो बाल ठाकरे, राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे जैसे लोग पैदा ही नही होंगे क्योंकि ऐसे तत्वों का यह इतिहास रहा है की जब भी सिकंजे में फंसें है तो माफ़ी मांग कर जेल से बाहर आए हैं जिसका पहला उदाहरण सावरकर हैं यदि ऐसे तत्वों की सरकारी सुरक्षा व्यवस्था हटा ली जाए तो यह लोग कोई भी चीज बोल ही नही सकते हैंयह सब सारी हरकतें सरकारी सुरक्षा में रहकर होती हैं राज ठाकरे, बाल ठाकरे, उद्धव ठाकरे से लेकर किसी में कोई दम नही हैजब सरकारी संरक्षण प्राप्त होता है तो यह लोग देश तोड़ने की हरकतें करते हैंयह तमाचा मनसे का नही है तमाचा हिंदुत्व की विचारधारा का है

सुमन
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9.11.09

लो क सं घ र्ष !: वंदे मातरम् विवाद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ

वंदे मातरम् के विवाद पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने तरह-तरह के बयान पूरे देश में जारी किए है और अपने को राष्ट्र भक्त साबित करने का प्रयास किया है और शब्दों की बाजीगरी के अलावा कुछ नही हैराष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का राष्ट्रीय झंडे में ही विश्वाश नही है4 जुलाई 1946 को आर एस एस प्रमुख अस गोलवलकर ने कहा कि "हमारी महान संस्कृति का परिपूर्ण परिचय देने वाला प्रतीक स्वरूप हमारा भगवा ध्वज है जो हमारे लिए परमेश्वर स्वरूप हैइसीलिए परम वन्दनीय ध्वज को हमने अपने गुरु स्थान में रखना उचित समझा है यह हमारा द्रण विश्वाश है कि अंत में इसी ध्वज के समक्ष हमारा सारा नतमस्तक होगा "
14 अगस्त 1947 को आर.एस.एस के मुख पत्र आरगेनाइजर ने लिखा कि "वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिन्दुओं द्वारा इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा अपनाया जा सकेगा3 का आंकडा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झंडा जिसमें तीन रंग हों, बेहद ख़राब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदेय होगा ।" राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का राष्ट्रीय झंडे में विश्वाश नही है और ही वह राष्ट्र भक्त ही हैलेकिन वह जब कोई बात शुरू करते हैं तो अपने को सबसे बड़ा राष्ट्र भक्त साबित करते हैं
स्वर्गीय बंकिम चन्द्र के उपन्यास आनंद मठ में वंदे मातरम् गीत आया है राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में बहुत सारे नवजवानों ने वंदे मातरम् कहते हुए फांसी के फंदे पर झूल गए थेआजादी की लडाई में इस गीत का अपना महत्त्व है
लेकिन यह भी सच है कि अनद मठ उपन्यास ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लिखा गया था किंतु बाद में अंग्रेजों ने बंकिम चन्द्र को प्रताडित कर आनंद मठ का पुनः प्रकाशन कराया थाजहाँ-जहाँ अंग्रेज शब्द लिखा गया था वहां-वहां मुसलमान कर दिया गया था
आर.एस.एस कि राष्ट्र भक्ति अजीबो-गरीब है जिसका कोई पैमाना नही है उनका पैमाना सिर्फ़ यह है कि भारतीय मुसलमानों को किस तरह से बदनाम किया जाए यही उनकी हर कोशिश रहती है
गुजरात का नरसंहार इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है ।।


सुमन
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8.11.09

लो क सं घ र्ष !: माओवादियों के संबंध में कुछ मुद्दे


लालगढ़ में माओवादी नेता ने स्वयं ही बताया है कि नंदीग्राम मामले में उन्होंने किस तरह तृणमूल कांग्रेस की मदद की थी और किस तरह तृणमूल कांग्रेस ने लालगढ़ में उनके साथ मिलकर काम किया। इस बीच तृणमूल के नेता केन्द्र में यूपीए सरकार के मंत्री बन चुके थे। अतः उस माओवादी नेता को अपेक्षा थी कि एवज में तृणमूल का नेतृत्व केन्द्र पर दबाव बनाए कि वह लालगढ़ के आपरेशन में पश्चिम बंगाल सरकार के साथ सहयोग न करे। यह माओवादियों और तृणमूल कांग्रेस के बीच साँठगाँठ का आँखों देखा विवरण है जिसमें कांग्रेस भी शामिल हो गई। यह साँठगाँठ किन दीर्घकालिक या अल्पकालिक लक्ष्यों के लिए है?
अल्पकालिक लक्ष्य सामने नजर आते हैं। लक्ष्य-है आम अराजकता एवं अव्यवस्था के हालात पैदा कर, वाममोर्चा सरकार को अस्थिर बनाया जाए। स्थिति को और अधिक उकसाने-भड़काने के लिए तृणमूल मंत्री उस इलाके में जाते हैं और इस तरह वे लालगढ़ में माओवादियों की मदद करते हैं।
पर उनके दीर्घकालिक उद्देश्य क्या हैं? पश्चिम बंगाल में तृणमूल और कांग्रेस को सत्ता में लाना क्या माओवादियों की व्यापक कार्यनीति का एक हिस्सा है? ऐसा नहीं कि माओवादी इस समस्या को न जानते हों। असल में, चुनाव बाद की स्थिति पर, उनकी रिपोर्ट में माओवादियों ने इस बात का नोट लिया है कि ‘‘विडम्बना है कि ममता की तृणमूल कांग्रेस, वाममोर्चा सरकार द्वारा शुरू किए गए आर्थिक सुधारों का अपने स्वयं के कारणों से तीव्र विरोध कर रही थी।’’ इन्होंने पश्चिम बंगाल में अराजकता और हत्या का जो अभियान छेड़ रखा है उसमें दोनों पार्टियाँ जिस तरह घनिष्ठ रूप से मिलकर काम कर रही हैं उसके बारे में इन पार्टियों को काफी सफाई देनी होगी। इसी तरह कांग्रेस को भी सफाई देनी होगी जो अपने संकीर्ण हित साधने के लिए उन्हें पश्चिम बंगाल में बढ़ावा दे रही हैं।
अब ‘‘हत्याओं और व्यक्तियों की राजनैतिक मकसद से हत्या और किसी झगड़े में न शामिल लोगों के खिलाफ हिंसा के व्यवहार के मुद्दे पर आते हैं। इस सम्बंध में विश्व के एक महानतम क्रांतिकारी, एक जीवित महानायक फिडेल कास्ट्रो ने इन विषयों पर अत्यंत प्रबोधक राय जाहिर की है। उन्हें स्वयं भी विश्व की सबसे ताकतवर सैन्य शक्ति-अमरीकी साम्राज्यवाद के हमलों का मुकाबला करना पड़ा और वह भी कोई एक या दो बार नहीं, अमरीका पिछले 50 वर्षों से अधिक समय से लगातार हमले करता आ रहा है। इस एवं अन्य विषयों पर कास्ट्रों के विचारों का एक सार-संग्रह एक पुस्तक के रूप में छपा है-‘‘फिडेल के साथ बातचीत’’। इस लेख में स्थान की कमी के कारण हम उनके कुछ ही उद्धरण दे रहे हैं जो इसी पुस्तक से लिए गए हैंः-
प्रश्न-क्या आपने, उदाहरणार्थ, बाटिस्टा की फौजी टुकड़ियों के विरूद्ध आतंकवाद का सहारा लिया या राजनैतिक मकसद से हत्याओं की साजिशों का रास्ता अपनाया?
उत्तर-न तो आतंकवाद और न ही राजनैतिक मकसद से हत्या। आप जानते हैं, हम बाटिस्टा का विरोध करते थे पर हमनें उन्हें जान से मारने की कोशिश कभी नहीं की, हालाँकि हम इसमें कामयाब हो सकते थे क्योंकि उनकी स्थिति ऐसी थी कि उन पर ऐसे हमले किए जा सकते थे। पहाड़ों में उनकी सेना के विरूद्ध संघर्ष करना या एक ऐसे किले पर फतह पाना, जिसकी रक्षा एक पूरी की पूरी रेजीमेंट करती हो, कहीं अधिक कठिन काम था।
प्रश्नः कार्रवाई के उस सिद्धांत के बारे में, जिसमें निर्दोष लोग शिकार बन सकते हैं, आपका क्या विचार है?
उत्तर-इसके बजाय युद्ध के बारे में बोलते हुए मेरा कहना है कि हमें इस तरह की समस्या से निपटने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि हमारा युद्ध 25 महीने चला और मुझे एक भी मामला याद नहीं कि हमारे पहले दस्ते ने जो लड़ाइयाँ लड़ीं उनमें कोई असैनिक व्यक्ति मारा गया हो, मुझे अन्य सेना प्रमुखों से पूछना होगा कि क्या उन्हें सैनिक कार्रवाइयों के दौरान ऐसी किसी घटना की याद है।
हमारा सिद्धांत यह था कि निर्दोष लोगों को खतरे में न डाला जाए, यह हमारा दर्शन था। यह एक सिद्धांत था जिसका हमने हमेशा पालन किया, एक कट्टर सिद्धांत की तरह। ऐसे मामले हुए थे जिनमें गुप्त लड़ाकों ने, जो आंदोलन से सम्बंध रखते थे, बम चलाए, वह भी क्यूबा में क्रांतिकारी संघर्षों की परम्परा का एक हिस्सा था। पर हम वैसा नहीं करना चाहते थे, हम उस तरीके से सहमत नहीं थे। जहाँ कभी लड़ाई के दौरान असैनिक लोगों को जोखिम होता हम उनका सचमुच ख्याल रखते थे।
प्रश्नः आज विश्व में अन्यत्र ऐसे हिंसक ग्रुप हैं जो राजनैतिक उद्देश्यों पर आगे बढ़ने के लिए अंधाधुंध राजनैतिक हत्याओं और आतंकवाद का सहारा लेते हैं। क्या आप ऐसे तरीकों को अस्वीकार करते हैं?
उत्तर-मैं आपको बता रहा हूँ कि आप आतंकवाद पर चलते हुए किसी युद्ध को जीत ही नहीं सकते, क्योंकि युद्ध को जीतने के लिए आप को जिस जनता को अपने पक्ष में रखने की जरूरत हैं आप उससे उस जनता का विरोध, उससे दुश्मनी और उसकी अस्वीकृति मोल लेंगे।
मैंने आपसे जो कुछ कहा है उसे मत भूलेंः हम पहले ही माक्र्सवादी लेनिनवादी शिक्षा पा चुके थे, और मैंने आपको बताया था हमारे क्या विचार थे। उस शिक्षा ने हमारी कार्यनीतियों को प्रभावित किया। जब आप जानते हैं इसमें कोई समझदारी नहीं है तो राजनैतिक हत्याओं का सहारा लेने की जरूरत नहीं।
न तो हमारी स्वतंत्रता के सिद्धांतकारों ने और न ही उन लोगों ने, जिन्होंने हमें माक्र्सवादी लेनिनवादी विचारधारा की सीख दी, राजनैतिक हत्याओं की या ऐसी कार्रवाइयों की, जिनमें निर्दोष लोग मारे जा सकते हैं, वकालत की। क्रांतिकारी सिद्धांत जिन तरीकों की अपेक्षा करते हैं उनमें ये तरीके शामिल ही नहीं थे।
उस नीति और सैनिक कार्रवाई सम्बंधी अवधारणाओं के बिना हमने उस युद्ध को नहीं जीता होता।
प्रश्नः तथापि, सिएरा माऐस्ट्रा में आपको ‘‘क्रांतिकारी अदालत’’ स्थापित करनी पड़ी थी जो आपको मौत की सजा लागू करने की दिशा में ले गई, क्या ऐसा नहीं है?
उत्तर-हमने यह सिर्फ देशद्रोह के मामलों में किया। मौत की सजा दिए गए लोगों की संख्या अत्यंत कम थी। एक ऐसे समय जब हमारी सेना अत्यंत सीमित थी, हम मुश्किल से 200 लोग ही थे, मुझे विद्रोही सेना के शत्रु के साथ सहयोग करने वाले समूह के कुछ लोगों द्वारा लूट और डकैती के मामले अचानक सामने आने की बात याद आती है।
हमारे लिए लूट एवं डकैती की बातें अत्यंत विनाशकारी हो सकती थीं, और हमें उनमें से कुछ को एकदम फाँसी ही देनी पड़ी। उनमें से जिन लोगों ने घरों को या दुकानों को लूटा था उन पर मुकदमा चलाया गया और उस मौके पर युद्ध के बीच में हमने उन्हें फाँसी की सजा दी। वह अपरिहार्य था, और असरदार था, क्योंकि उसके बाद विद्रोही सेना के किसी सदस्य ने कोई दुकान नहीं लूटी। एक परम्परा बन गई। क्रांतिकारी नैतिकता एवं जनता के प्रति चरम सम्मान की बातें प्रचलित एवं प्रबल रहीं।
का. फिडेल कास्ट्रो ने अपनी विशिष्ट विनम्रता के साथ आगे कहा कि उन्होंने जो गुरिल्ला युद्ध लड़ा वह नैतिकता के सिद्धांतों को ध्यान में रखने वाला कोई एकमात्र युद्ध नहीं था। उससे पहले वियमतनाम के देशभक्तों और ऐसे अन्य क्रांतिकारियों ने भी इन्हीं नैतिक सिद्धांतों को अपनाया था। नैतिकता का आचार महज एक नैतिकता का प्रश्न नहीं है। उन्होंने कहा कि नैतिकता, यदि निष्कपट एवं सच्ची हो तो उससे कुछ अच्छा फल मिल सकता है।
‘‘हमने यदि उस सिद्धांत पर अमल न किया होता तो लड़ाके संभवतः यहाँ-वहाँ कुछ कैदियों को गोली मार देते और तमाम किस्म के निंदनीय काम किए होते। अन्याय एवं अपराध के विरूद्ध इतनी अधिक घृणा थी।’’
मैं अच्छी तरह समझता हूँ कि कोई भी व्यक्ति यह नहीं समझ सकता कि कास्ट्रो भावुक उदारवादी थे। वह एक क्रांतिकारी हैं और उन्होंने एक सिद्धांत, एक दर्शन के रूप में और क्रांतिकारी युद्ध के दौरान एक कार्यनीति के रूप में क्रान्तिकारी नैतिकता की चर्चा की है। क्रांतिकारियों को हमेशा ही अपने स्वयं के अनुभवों एवं व्यवहार से और अन्य क्रांतिकारियों के अनुभवों एवं व्यवहार से सीखना चाहिए। फिडेल कास्ट्रों के इन विचारों के बारे में माओवादियों का क्या कहना है?
प्रतिबंध पर गृह मंत्रालय के सुझाव
भारत सरकार का गृह मंत्रालय पश्चिम बंगाल में सी0पी0आई0 (माओवादी) पर प्रतिबंध लगने के लिए दबाव डालता रहा है, जैसा कि कई राज्यों में किया गया है और केन्द्र ने भी किया है।
सी0पी0आई0 ने प्रतिबंध के सुझाव का विरोध किया है। सी0पी0आई0 (एम) और अन्य वामपंथी पार्टियों ने भी वैसा ही किया है। अतः पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार ने प्रतिबंध की घोषणा नहीं की है। यह बिल्कुल अलग बात है कि केन्द्र का प्रतिबंध कुल भारत पर लागू होता है और इस कारण पश्चिम बंगाल पर भी लागू होता है। क्या इसका अर्थ यह है कि प्रतिबंध के सम्बंध में वाममोर्चा की अनिच्छा या इंकार महज एक आडम्बर है?
पहली बात तो यह है कि माओवादियों पर प्रतिबंध का उल्टा नतीजा निकलता है, और यह एक निरर्थक कोशिश है। भारतीय राजनैतिक मैदान में वे खुलेआम काम नहीं करते हैं। सशस्त्र संघर्ष, लम्बे युद्ध की उनकी कार्यनीति देश के खुले कानूनी ढाँचे में नहीं चलायी जाती है। जब बात इस तरह की है तो उनकी गतिविधियों पर प्रतिबंध से उनकी कार्यवाइयों पर कोई अंकुश कैसे लगता है, उनकी कार्रवाइयां कैसे रुकती हैं?
दूसरी बात यह है कि किसी राजनैतिक पार्टी पर प्रतिबंध की घोषणा का अर्थ है समस्या के राजनैतिक समाधान की और सम्बंधित पार्टी के साथ राजनैतिक वार्ता की तमाम कोशिशों को छोड़ना, उसे कोई राजनैतिक जगह देने से इंकार करना और उस स्थिति को न देखना या स्वीकार न करना जिसने इस समस्या के पैदा होने और बढ़ाने का काम किया है।
यदि कोई पार्टी या संगठन प्रतिबंध से पहले खुलेआम काम करता है तो प्रतिबंध उसे भूमिगत काम करने की तरफ धकेल देता है। इससे समस्या हल नहीं होती, और न ही वह पार्टी या संगठन प्रतिबंध के कारण गायब हो जाता है।
अन्य बातों के अलावा इन कारणों से हम नहीं समझते कि प्रतिबंध माओवादी कार्रवाइयों से पैदा होने वाली समस्या का कोई जवाब है। अधिक से अधिक प्रतिबंध भविष्य में बनने वाले कुछ समर्थक या हिमायती लोगों को प्रतिबंधित पार्टी से दूर रहने के लिए असर डाल सकता है या डरा सकता है।
‘‘आतंकवाद’’ को और ’’वामपंथ उग्रवाद’’ (वर्तमान मामले में माओवाद का दूसरा नाम) को एक तराजू से तौलना, जैसा कि सरकार करती है, पूरी तरह गलत और अनुचित है। इससे पता चलता है कि सरकार इन दोनों बातों के चरित्र और मूल कारणों को नहीं जानती, समझती। ये दोनों बातें हथियारों की मदद से हिंसा में अभिव्यक्ति पाती हैं। जिससे सुरक्षा बलों के कर्मियों के अलावा मासूम लोगों की जानें जाती हैं-यह पहलुओं को सतही एवं ऊपरी तौर से देखने की बात है।
माओवादी समस्या के कुछ सामाजिक आर्थिक आयाम हैं। यह समस्या अधिकांश उन क्षेत्रों में हैं, जो दूर दराज के और पिछड़े और उपेक्षित क्षेत्र हैं और जहँा सामन्ती एवं अर्ध-सामन्ती शोषण चरम सीमा तक एवं व्यापक पैमाने पर जारी है। ऐसे क्षेत्रों में माओवादियों को अपनी गतिविधियाँ चलाने और अपने असर के दायरे को बढ़ाने के लिए अनुकूल जमीन मिलती है। यह मुख्य धारा की कम्युनिस्ट पार्टियों की विफलता है कि यह मैदान उनके लिए खुला पड़ा है। पर माओवादियों पर यह इल्जाम लगाना कि वे विकास का विरोध करते हैं इस हकीकत को छिपाने की बात है कि माओवादी ठीक उन्हीं सर्वाधिक पिछड़े इलाकों में अपनी गतिविधियाँ चला रहे हैं, जो सरकार एवं प्रशासन द्वारा कई दशकों से उपेक्षित पड़े हैं। निश्चय ही, इन इलाकों को अपना आधार बनाकर माओवादी अब अपनी गतिविधियों को अन्य इलाकों तक फैलाने में कामयाब हैं।
अतः चाहे वह केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार, उसे उन सामाजिक आर्थिक समस्याओं का समाधान करना होगा, जिन्होंने माओवादियों को पैदा करने और बढ़ाने का काम किया है। इससे केवल कानून एवं व्यवस्था की समस्या के रूप में निपटने से काम नहीं चलेगा। जब कभी और जहाँ कहीं अराजकता और लोगों की हत्याओं से निपटने के लिए पुलिस कार्रवाइयाँ करनी हों और इस तरह जनता को सुरक्षा प्रदान करनी हो तब भी इस समस्या के सामाजिक, आर्थिक पहलू को भुलाया नहीं जा सकता है। सी0पी0आई0 (माओवादी) और तृणमूल कांग्रेस का एक दूसरे के साथ हो जाना और लालगढ़ में कांग्रेस का उनको मौन समर्थन-यह बहस का मुद्दा रहेगा। कौन किसके मकसद पूरे कर रहा है और इसका अंतिम लक्ष्य क्या है?
अपने इस तरह के दृष्टिकोण और कार्रवाइयों से माओवादी क्रांति के उद्देश्य के लिए भारत की जनता के अत्यधिक विशाल संख्या को अपने समर्थन में नहीं खींच सकते। वास्तव में इससे उस उद्देश्य एवं लक्ष्य को नुकसान पहुँच रहा है जिसके लिए कम्युनिस्टों ने अपने जीवन को समर्पित कर रखा है।

-का. ए. बी. बर्धन

समाप्त

7.11.09

लो क सं घ र्ष !: माओवादियों के संबंध में कुछ मुद्दे - 2


यह याद किया जा सकता है कि जैसे ही कांगे्रस एवं विपक्ष के नेता महेन्द्र कर्मा ने ‘सलवा जुडुम‘ नाम से समाज में अपराध एवं अव्यवस्था को रोकने की कोशिश में स्वयं-नियुक्त समूह का गठन किया तो सीपीआई ने रायपुर में एक प्रेस कांफ्रेंस की, और यह कहते हुए इसकी निंदा की कि यह माओवादियों को आदिवासियों के विरूद्ध लड़ाने की और उनके बीच गृहयुद्ध पैदा करने की कोशिश है। उसके बाद सलवा जुडुम के विरूद्ध होने वाली सबसे बड़ी रैली भी सीपीआई ने जगदलपुर में, लोहांडीगुडा और दांतेवाडा में आयोजित की थी और सीपीआई के सर्वोच्च नेताओं ने उन रैलियों को सम्बोधित किया था। इस घृणित मुद्दे के मामले में कांग्रेस और भाजपा हाथ मेें हाथ मिलाकर काम कर रहे थे। ये सब सुपरिचित तथ्य हैं।
मुम्बई का उदाहरण, जहाँ केवल 43.52 प्रतिशत लोग मतदान के लिए आए और जिसका जिक्र माओवादियों ने बड़ी खुशी जाहिर करते हुए किया है, सर्वथा गलत है। न ही यह इस कारण है कि उस शहर के आधिकांश लोगों की नजर में संसदीय व्यवस्था ने अपनी तमाम विश्वसनीयता खो दी थी। यह माओवादियों की साफ-साफ आत्मपरकता है। मुम्बई में कम मतदान के लिए अन्य कारक जिम्मेदार हैं।
किसी खास मामले में, किसी खास समय पर, विशेष परिस्थितियों के कारण बहिष्कार को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की बात को तो समझा जा सकता है, पर ‘‘एक उल्लेखनीय रूझान के उभरने’’ के रूप में और संघर्ष के एक सर्वाधिक प्रभावशाली तरीके के रूप में इसे बताना, इसे एक सबसे अच्छी नीति, आंदोलन की एक आम कार्यनीति की हैसियत देना है। बहिष्कार संघर्ष का एक विशेष तरीका हो सकता है जो किसी विशेष परिस्थिति के लिए ठीक हो। यह संस्था (यानी संसद) के चरित्र से पैदा नहीं होता। यह एक ऐसा तरीका है जिसे संसदीय चुनाव कराए जाने को रोकने के लिए किया जा सकता है, उदाहरण के लिए ऐसे में जबकि कोई क्रांतिकारी उभार हो रहा हो और शासक वर्ग उस उभार को किसी इस या उस तरीके से डाइवर्ट करने की कोशिश करें।
संसद और उसकी प्रासंगिकता
हम कम्युनिस्ट वर्तमान व्यवस्था की कमियों-खामियों को पूरी तरह से जानते हैं। इसके सम्बंध में अनुभव हमारे सामने हैं। 543 में से 145 संसद सदस्य अपने निर्वाचक गणों में से 20 प्रतिशत से भी कम मतदाताओं के मत प्राप्त कर जीते हैं। अतः वे दावा नहीं कर सकते कि वे वास्तव में अपने चुनाव क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। विभिन्न पार्टियों के अनेक उम्मीदवार होते हैं और निर्दलीय उम्मीदवार भी बीच में होते हैं-तो इतने सारे उम्मीवादरों के बीच मुकाबला इस तरह का हो जाता है कि इन उम्मीदवारों के बीच मत बँट जाने के कारण कोई उम्मीदवार 10 प्रतिशत से कम वोट हासिल कर, भी चुनाव जीत सकता है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए कुछ देशों में ऐसे प्रावधान हैं कि यदि किसी उम्मीदवार को 50 प्रतिशत से अधिक (50 प्रतिशत जमा एक) वोट न मिले तो फिर पहले और दूसरे स्थानों पर आए उम्मीदवारों के बीच में चुनाव कराया जाता है। पर भारत ने निष्ठापूर्वक ब्रिटिश प्रणाली को अपनाया है जिसमें इस तरह का प्रावधान नहीं है।
आज जो पूँजीवादी व्यवस्था मौजूद है, उसमें पैसा ही प्रधान है, अनेक स्थानों पर वोट पूर्णतया खरीदे जाते हैं और धन-बल की एक बड़ी भूमिका रहती है। इस तरह चुनाव लड़ना गरीब और आम आदमी की पहुँच से दूर होता जा रहा है। अतः इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि वर्तमान लोकसभा में 300 सदस्य ऐसे चुनकर आए हैं जिन्होंने स्वयं ही माना है कि वे करोड़पति हैं। अन्य अनेक संसद-सदस्य पैसे वालों के समर्थन से आए हैं और वे वस्तुतः पैसे वालों की जेब में हैं। अनेक अपराधी भी संसद के दोनों सदनों की शोभा बढ़ा रहे हैं।
वर्तमान संसदीय प्रणाली के इन एवं अन्य पहलुओं की अनदेखी नहीं की जा सकती। पर क्या इससे यह नतीजा निकाला जा सकता है कि संसद एक ‘‘गली-सड़ी, सड़ांध मारती संस्था’’ है, ‘‘बक-झक करने की जगह’’ है और इसके अलावा अन्य कुछ नहीं? विधायिका के चुनाव में भारत की जनता नियमित रूप से भारी संख्या में हिस्सा लेती है। भारत के लोग सरकारों को बदलना जानते हैं, जिस पार्टी को पसंद नहीं करते उसे सत्ता से हटाना जानते हैं और शासक वर्ग के गलती करने वाले संसद सदस्यों को उनकी जनविरोधी नीतियों के लिए सजा देना जानते हैं। अनेक ‘‘जनता के सदस्य’’ भी विभिन्न कारणों से दुर्भाग्यतः चुनाव हार जाते हैं। पर कुल मिलाकर लोग आंदोलन करने में और महत्वपूर्ण मुद्दों को समाधान के लिए उठाने में और सरकारों पर लगाम लगाने आदि में कामयाब हुए हैं, खासकर जब कभी संसदीय संघर्ष के साथ ही साथ जनसंघर्ष भी चल रहा होता है। पर निश्चय ही तमाम मामलों में जनगण की कार्यवाइयाँ ही निर्णायक कारक होती हंै। यद्यपि यह बात हर बार संसद में सही-सही नहीं झलक पाती है। इसके लिए संघर्ष को जारी रखना होगा।
जैसा कि हम देखते हैं कि संसदीय प्रणाली की कुछ सीमाएँ, कुछ कमजोरियाँ हैं, पर लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसकी प्रासंगिकता है।
भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन ने शुरू से ही समानुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली के लिए जोर दिया है। इससेे ‘‘जिसे सबसे अधिक वोट मिले वही जीता’’ की प्रणाली खत्म हो जाएगी क्योंकि इस प्रणाली से आमतौर पर ऐसी सरकार बनती है जिसे अल्पमत वोट मिले होते हैं। वर्तमान सरकार समेत हमारी अधिकांश सरकारें इसी तरह बनी हैं।
कम्युनिस्ट अंादोलन किसी निर्वाचित सदस्य को, जिसने जनता का विश्वास खो दिया है, ‘‘वापस बुलाने’’ के प्रावधान के पक्ष में रहा है।
हमने उपर्युक्त कुछ बातंे यह दिखाने के लिए कहीं हैं कि चुनाव प्रणाली एक ऐसा मुद्दा नहीं है कि उसे यों ही आसानी से खारिज किया जा सके, बल्कि इसके लिए राजनैतिक चेतना को बढ़ाने, वर्ग संघर्ष को विकसित करने के साथ ही साथ हरेक महत्वपूर्ण एवं ठोस मुद्दे पर जन कार्यवाई को चलाने की जरूरत है।
अन्य पार्टियों के कार्यकर्ताओं को मारने, कत्ल करने के सम्बन्ध मंे
स्थानीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर अनेक कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं, यहाँ तक कि पार्टी के उन सामान्य कामरेडों की हत्या, जो लालगढ़ इलाके में पंचायतों के सदस्य हैं, से माओवादियों के स्टैण्ड और दृष्टिकोण के सम्बंध में कुछ सवाल उठे हैं। इन कार्यकर्ताओं के घरों को जला दिया गया, सी0पी0आई0 (एम) और सी0पी0आई0 के दफ्तरों में तोड़फोड़ की गई है। यहाँ तक कि पार्टी दफ्तरों पर लहराने वाले लाल झण्डों को भी जलाया गया है। कहने की जरूरत नहीं कि इससे न केवल इन पार्टियों के पीछे चलने वाले लोग बल्कि अन्य लोकतांत्रिक तबके भी नाराज हुए हैं। संचार माध्यमों के कुछ हिस्सों द्वारा इन घटनाओं को ‘‘प्रतिशोध हत्या’’ के रूप में पेश करने की कोशिश को सही नहीं माना जा सकता है। यदि इसे सही मान लें तो यह श्रृंखला कहाँ जाकर खत्म होगी?
यदि सशस्त्र झगड़े के दौरान कोई व्यक्ति मारा जाता है तो बात समझ में आ सकती है। पर यदि किसी व्यक्ति को उसके घर से बाहर खींच कर या घात लगाकर या रास्ते में पकड़कर उसे गोलियों से छलनी कर दिया जाए तो इस बात को माओवादी किस तरह ठीक ठहराते हैं? क्या यह सोचे-समझे तरीके से हत्या से किसी तरह से कोई अलग चीज है? क्या निर्दोष नागरिकों की हत्या को वे ‘‘दुर्घटना’’ या ‘‘आनुषंगिक नुकसान’’ कहकर खारिज कर सकते हैं? अमरीकी साम्राज्यवादी प्रायः इस तरह के बहाने पेश करते हैं।
माओवादी इस आरोप से बच नहीं सकते, और वे इस बात को जानते हैं। यही कारण है गणपति से इण्टरव्यू के दौरान एक प्रश्न पूछा गया और महासचिव ने 2007 के एक मामले का, यानी झारखण्ड मुक्तिमोर्चा के नेता और जमशेदपुर के संसद सदस्य सुनील महतों की हत्या का जिक्र कर जवाब दिया।
अपने उत्तर में गणपति कहते हैं, ‘‘हम एक बात स्पष्ट करना चाहते हैं, हम राजनैतिक पार्टियों के नेताओं या साधारण सदस्यों की अंधाधुंध हत्याओं के पक्ष में नहीं है। हम विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की जनविरोधी नीतियों और समाज में अपराध एवं अव्यवस्था को रोकने के लिए, स्वयं-नियुक्त ‘गैंगों के हमलों’ के विरूद्ध संघर्ष करने के लिए, उनका पर्दाफाश करने के लिए, उन्हें अलग- थलग करने के लिए बुनियादी तौर पर जनगण की लामबंदी पर भरोसा करते हैं, हम अपनेे पी0एल0जी0ए0 दस्तों और एक्शन टीमों को जहँा जरूरत हो, लगाते हैं। सुनील महतों की हत्या का, पूरे झारखण्ड मुक्तिमोर्चा के प्रति हमारे विरोध के रूप में अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए। जब तक वह जनविरोधी गतिविधियों में लिप्त होने से और क्रांतिकारी आंदोलन के विरूद्व हमला करने से विरत रहता है तब तक हम झारखंड मुक्तिमोर्चा के विरूद्व नहीं। निश्चय ही माओवादी ही अकेले ऐसे हैं जो अभियोक्ता (आरोप लगाने वाले) भी होंगे, जज भी होंगे और सजा पर अमल करने वाले भी।
इतना कहने के बाद गणपति ने हत्या को यह कहते हुए ठीक ठहराया कि ‘‘सुनील महतो के मामले में, हमें उसे केवल इस कारण ठिकाने लगाना पड़ा क्योंकि वह झारखंड में क्रांतिकारी आंदोलन का नृशंस दमन शुरू करने में सक्रिय रूप से शामिल था।‘‘
क्या इस स्पष्टीकरण को क्रंातिकारी स्वीकार कर सकते हैं, और क्या क्रांतिकारियों के इस स्पष्टीकरण को स्वीकार किया जा सकता है? अनेक स्थानों पर अनेक कम्युनिस्टों को क्यों मार डाला गया? लालगढ़ एवं अन्यत्र स्थानों पर सीपीआई (एम) के कार्यकर्ताओं को उनके घर से उठाकर या रास्ते में पकड़ कर क्यों मार डाला गया? क्या वे वर्ग शत्रु थे; क्या वे समाज से अपराध एवं अव्यवस्था को ठीक करने के लिए स्वयं-नियुक्त समूहों के लोग थे, पुलिस के मुखबिर थे या क्या थे? माओवादी उन्हें किस केटेगरी में रखते हैं? वे लड़ने वाले लोग थे या महज सीधे-सीधे राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी थे जिन्हें किसी इलाके पर कब्जा करने या प्रभुत्व जमाने के लिए खत्म करना जरूरी था? ऐसा कैसे है कि इस मामले मंे लालगढ़ में माओवादी, तृणमूल कांग्रेस और तथाकथित ‘‘पुलिस अत्याचार के विरूद्ध जनसमिति’’ जो माओवादियों का स्वयं का मोर्चा संगठन है- के कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर काम करते हंै?


-का. ए. बी. बर्धन

जारी

6.11.09

नौकरी पेशा परिवारों का सच

आज बैंगलोर में हुई एक घटना ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया की भारतीय मध्य वर्गीय समाज पैसा कमाने के लिए किस हद्द तक जाने को तैयार बैठा हैं |एक "परिवार" अपने सात महीने के बच्चे को घर पर "आया" के भरोसे छोड़कर पैसा कमाने के लिए नौकरी करने जाता हैं व उन्हें पता चलता हैं की वह तथाकथित "आया" इस दूधमुहे बच्चे को भिखारियो को दिनभर के लिए १०० रुपये प्रतिदिन के हिसाब से दे देती हैं तथा शाम को उनके आने से पहले उसे वापस घर ले आती हैं ऐसा पिछले तीन सप्ताह से चल रहा था | यहाँ देखे तो इस सारे प्रकरण में दोष सिर्फ़ उस "आया" का नज़र नही आता बल्कि दोष ख़ुद उस परिवार का दिखता हैं जो इतने छोटे बच्चे को सिर्फ़ चंद पैसे के लिए किसी गैर के भरोसे छोड़ के नौकरी करने जाता हैं माना की पैसा बहुत ज़रूरी हैं परन्तु किस कीमत पर ? अगर बात पैसे की ही हैं तो फ़िर बच्चा पैदा करने की ज़रूरत क्या हैं, पहले कमाओ फ़िर परिवार बढाओ अगर आप किसी बच्चे की देखभाल भी नही कर सकते तो उसे जनम क्यों देते हैं एक साथ सभी सुख तो प्राप्त नही किए जा सकते शायद यह इस परिवार का अपराध बोध ही हैं की वह इस सारे घटनाक्रम की रिपोर्ट तक लिखवाना नही चाहता |

ऐसे में संयुक्त परिवारों की ज़रूरत महसूस की जाती हैं यदि इस परिवार के साथ भी कोई अपना होता तो शायद आज उन्हें ये दिन देखना नही पड़ता, इस घटना ने ऐसे कई सवालो को जन्म दे दिया हैं | हम अपनी दुनियादारी में अपनों के लिए ही अपनों से ही कितने दूर हो गए हैं भूतकाल को छोड़कर भविष्य सँवारने की यह फितरत हमें कितनी बड़ी कीमत देकर चुकानी पड़ रही हैं इस घटना से यह देखा जा सकता हैं |

यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य हैं की भिखारी उस बच्चे को नशे का सेवन भीख मांगने के लिए करवाते थे जिससे वह हमेशा सोया रहे....... क्या इस बच्चे का इतना कसूर काफी नही था की उसके माँ बाप उसे इतनी छोटी उम्र में भी उसे घर पर किसी गैर के भरोसे छोड़कर स्वयं नौकरी करने जाते थे |