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9.11.09

लो क सं घ र्ष !: वंदे मातरम् विवाद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ

वंदे मातरम् के विवाद पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने तरह-तरह के बयान पूरे देश में जारी किए है और अपने को राष्ट्र भक्त साबित करने का प्रयास किया है और शब्दों की बाजीगरी के अलावा कुछ नही हैराष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का राष्ट्रीय झंडे में ही विश्वाश नही है4 जुलाई 1946 को आर एस एस प्रमुख अस गोलवलकर ने कहा कि "हमारी महान संस्कृति का परिपूर्ण परिचय देने वाला प्रतीक स्वरूप हमारा भगवा ध्वज है जो हमारे लिए परमेश्वर स्वरूप हैइसीलिए परम वन्दनीय ध्वज को हमने अपने गुरु स्थान में रखना उचित समझा है यह हमारा द्रण विश्वाश है कि अंत में इसी ध्वज के समक्ष हमारा सारा नतमस्तक होगा "
14 अगस्त 1947 को आर.एस.एस के मुख पत्र आरगेनाइजर ने लिखा कि "वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिन्दुओं द्वारा इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा अपनाया जा सकेगा3 का आंकडा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झंडा जिसमें तीन रंग हों, बेहद ख़राब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदेय होगा ।" राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का राष्ट्रीय झंडे में विश्वाश नही है और ही वह राष्ट्र भक्त ही हैलेकिन वह जब कोई बात शुरू करते हैं तो अपने को सबसे बड़ा राष्ट्र भक्त साबित करते हैं
स्वर्गीय बंकिम चन्द्र के उपन्यास आनंद मठ में वंदे मातरम् गीत आया है राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में बहुत सारे नवजवानों ने वंदे मातरम् कहते हुए फांसी के फंदे पर झूल गए थेआजादी की लडाई में इस गीत का अपना महत्त्व है
लेकिन यह भी सच है कि अनद मठ उपन्यास ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लिखा गया था किंतु बाद में अंग्रेजों ने बंकिम चन्द्र को प्रताडित कर आनंद मठ का पुनः प्रकाशन कराया थाजहाँ-जहाँ अंग्रेज शब्द लिखा गया था वहां-वहां मुसलमान कर दिया गया था
आर.एस.एस कि राष्ट्र भक्ति अजीबो-गरीब है जिसका कोई पैमाना नही है उनका पैमाना सिर्फ़ यह है कि भारतीय मुसलमानों को किस तरह से बदनाम किया जाए यही उनकी हर कोशिश रहती है
गुजरात का नरसंहार इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है ।।


सुमन
loksangharsha.blogspot.com

8.11.09

लो क सं घ र्ष !: माओवादियों के संबंध में कुछ मुद्दे


लालगढ़ में माओवादी नेता ने स्वयं ही बताया है कि नंदीग्राम मामले में उन्होंने किस तरह तृणमूल कांग्रेस की मदद की थी और किस तरह तृणमूल कांग्रेस ने लालगढ़ में उनके साथ मिलकर काम किया। इस बीच तृणमूल के नेता केन्द्र में यूपीए सरकार के मंत्री बन चुके थे। अतः उस माओवादी नेता को अपेक्षा थी कि एवज में तृणमूल का नेतृत्व केन्द्र पर दबाव बनाए कि वह लालगढ़ के आपरेशन में पश्चिम बंगाल सरकार के साथ सहयोग न करे। यह माओवादियों और तृणमूल कांग्रेस के बीच साँठगाँठ का आँखों देखा विवरण है जिसमें कांग्रेस भी शामिल हो गई। यह साँठगाँठ किन दीर्घकालिक या अल्पकालिक लक्ष्यों के लिए है?
अल्पकालिक लक्ष्य सामने नजर आते हैं। लक्ष्य-है आम अराजकता एवं अव्यवस्था के हालात पैदा कर, वाममोर्चा सरकार को अस्थिर बनाया जाए। स्थिति को और अधिक उकसाने-भड़काने के लिए तृणमूल मंत्री उस इलाके में जाते हैं और इस तरह वे लालगढ़ में माओवादियों की मदद करते हैं।
पर उनके दीर्घकालिक उद्देश्य क्या हैं? पश्चिम बंगाल में तृणमूल और कांग्रेस को सत्ता में लाना क्या माओवादियों की व्यापक कार्यनीति का एक हिस्सा है? ऐसा नहीं कि माओवादी इस समस्या को न जानते हों। असल में, चुनाव बाद की स्थिति पर, उनकी रिपोर्ट में माओवादियों ने इस बात का नोट लिया है कि ‘‘विडम्बना है कि ममता की तृणमूल कांग्रेस, वाममोर्चा सरकार द्वारा शुरू किए गए आर्थिक सुधारों का अपने स्वयं के कारणों से तीव्र विरोध कर रही थी।’’ इन्होंने पश्चिम बंगाल में अराजकता और हत्या का जो अभियान छेड़ रखा है उसमें दोनों पार्टियाँ जिस तरह घनिष्ठ रूप से मिलकर काम कर रही हैं उसके बारे में इन पार्टियों को काफी सफाई देनी होगी। इसी तरह कांग्रेस को भी सफाई देनी होगी जो अपने संकीर्ण हित साधने के लिए उन्हें पश्चिम बंगाल में बढ़ावा दे रही हैं।
अब ‘‘हत्याओं और व्यक्तियों की राजनैतिक मकसद से हत्या और किसी झगड़े में न शामिल लोगों के खिलाफ हिंसा के व्यवहार के मुद्दे पर आते हैं। इस सम्बंध में विश्व के एक महानतम क्रांतिकारी, एक जीवित महानायक फिडेल कास्ट्रो ने इन विषयों पर अत्यंत प्रबोधक राय जाहिर की है। उन्हें स्वयं भी विश्व की सबसे ताकतवर सैन्य शक्ति-अमरीकी साम्राज्यवाद के हमलों का मुकाबला करना पड़ा और वह भी कोई एक या दो बार नहीं, अमरीका पिछले 50 वर्षों से अधिक समय से लगातार हमले करता आ रहा है। इस एवं अन्य विषयों पर कास्ट्रों के विचारों का एक सार-संग्रह एक पुस्तक के रूप में छपा है-‘‘फिडेल के साथ बातचीत’’। इस लेख में स्थान की कमी के कारण हम उनके कुछ ही उद्धरण दे रहे हैं जो इसी पुस्तक से लिए गए हैंः-
प्रश्न-क्या आपने, उदाहरणार्थ, बाटिस्टा की फौजी टुकड़ियों के विरूद्ध आतंकवाद का सहारा लिया या राजनैतिक मकसद से हत्याओं की साजिशों का रास्ता अपनाया?
उत्तर-न तो आतंकवाद और न ही राजनैतिक मकसद से हत्या। आप जानते हैं, हम बाटिस्टा का विरोध करते थे पर हमनें उन्हें जान से मारने की कोशिश कभी नहीं की, हालाँकि हम इसमें कामयाब हो सकते थे क्योंकि उनकी स्थिति ऐसी थी कि उन पर ऐसे हमले किए जा सकते थे। पहाड़ों में उनकी सेना के विरूद्ध संघर्ष करना या एक ऐसे किले पर फतह पाना, जिसकी रक्षा एक पूरी की पूरी रेजीमेंट करती हो, कहीं अधिक कठिन काम था।
प्रश्नः कार्रवाई के उस सिद्धांत के बारे में, जिसमें निर्दोष लोग शिकार बन सकते हैं, आपका क्या विचार है?
उत्तर-इसके बजाय युद्ध के बारे में बोलते हुए मेरा कहना है कि हमें इस तरह की समस्या से निपटने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि हमारा युद्ध 25 महीने चला और मुझे एक भी मामला याद नहीं कि हमारे पहले दस्ते ने जो लड़ाइयाँ लड़ीं उनमें कोई असैनिक व्यक्ति मारा गया हो, मुझे अन्य सेना प्रमुखों से पूछना होगा कि क्या उन्हें सैनिक कार्रवाइयों के दौरान ऐसी किसी घटना की याद है।
हमारा सिद्धांत यह था कि निर्दोष लोगों को खतरे में न डाला जाए, यह हमारा दर्शन था। यह एक सिद्धांत था जिसका हमने हमेशा पालन किया, एक कट्टर सिद्धांत की तरह। ऐसे मामले हुए थे जिनमें गुप्त लड़ाकों ने, जो आंदोलन से सम्बंध रखते थे, बम चलाए, वह भी क्यूबा में क्रांतिकारी संघर्षों की परम्परा का एक हिस्सा था। पर हम वैसा नहीं करना चाहते थे, हम उस तरीके से सहमत नहीं थे। जहाँ कभी लड़ाई के दौरान असैनिक लोगों को जोखिम होता हम उनका सचमुच ख्याल रखते थे।
प्रश्नः आज विश्व में अन्यत्र ऐसे हिंसक ग्रुप हैं जो राजनैतिक उद्देश्यों पर आगे बढ़ने के लिए अंधाधुंध राजनैतिक हत्याओं और आतंकवाद का सहारा लेते हैं। क्या आप ऐसे तरीकों को अस्वीकार करते हैं?
उत्तर-मैं आपको बता रहा हूँ कि आप आतंकवाद पर चलते हुए किसी युद्ध को जीत ही नहीं सकते, क्योंकि युद्ध को जीतने के लिए आप को जिस जनता को अपने पक्ष में रखने की जरूरत हैं आप उससे उस जनता का विरोध, उससे दुश्मनी और उसकी अस्वीकृति मोल लेंगे।
मैंने आपसे जो कुछ कहा है उसे मत भूलेंः हम पहले ही माक्र्सवादी लेनिनवादी शिक्षा पा चुके थे, और मैंने आपको बताया था हमारे क्या विचार थे। उस शिक्षा ने हमारी कार्यनीतियों को प्रभावित किया। जब आप जानते हैं इसमें कोई समझदारी नहीं है तो राजनैतिक हत्याओं का सहारा लेने की जरूरत नहीं।
न तो हमारी स्वतंत्रता के सिद्धांतकारों ने और न ही उन लोगों ने, जिन्होंने हमें माक्र्सवादी लेनिनवादी विचारधारा की सीख दी, राजनैतिक हत्याओं की या ऐसी कार्रवाइयों की, जिनमें निर्दोष लोग मारे जा सकते हैं, वकालत की। क्रांतिकारी सिद्धांत जिन तरीकों की अपेक्षा करते हैं उनमें ये तरीके शामिल ही नहीं थे।
उस नीति और सैनिक कार्रवाई सम्बंधी अवधारणाओं के बिना हमने उस युद्ध को नहीं जीता होता।
प्रश्नः तथापि, सिएरा माऐस्ट्रा में आपको ‘‘क्रांतिकारी अदालत’’ स्थापित करनी पड़ी थी जो आपको मौत की सजा लागू करने की दिशा में ले गई, क्या ऐसा नहीं है?
उत्तर-हमने यह सिर्फ देशद्रोह के मामलों में किया। मौत की सजा दिए गए लोगों की संख्या अत्यंत कम थी। एक ऐसे समय जब हमारी सेना अत्यंत सीमित थी, हम मुश्किल से 200 लोग ही थे, मुझे विद्रोही सेना के शत्रु के साथ सहयोग करने वाले समूह के कुछ लोगों द्वारा लूट और डकैती के मामले अचानक सामने आने की बात याद आती है।
हमारे लिए लूट एवं डकैती की बातें अत्यंत विनाशकारी हो सकती थीं, और हमें उनमें से कुछ को एकदम फाँसी ही देनी पड़ी। उनमें से जिन लोगों ने घरों को या दुकानों को लूटा था उन पर मुकदमा चलाया गया और उस मौके पर युद्ध के बीच में हमने उन्हें फाँसी की सजा दी। वह अपरिहार्य था, और असरदार था, क्योंकि उसके बाद विद्रोही सेना के किसी सदस्य ने कोई दुकान नहीं लूटी। एक परम्परा बन गई। क्रांतिकारी नैतिकता एवं जनता के प्रति चरम सम्मान की बातें प्रचलित एवं प्रबल रहीं।
का. फिडेल कास्ट्रो ने अपनी विशिष्ट विनम्रता के साथ आगे कहा कि उन्होंने जो गुरिल्ला युद्ध लड़ा वह नैतिकता के सिद्धांतों को ध्यान में रखने वाला कोई एकमात्र युद्ध नहीं था। उससे पहले वियमतनाम के देशभक्तों और ऐसे अन्य क्रांतिकारियों ने भी इन्हीं नैतिक सिद्धांतों को अपनाया था। नैतिकता का आचार महज एक नैतिकता का प्रश्न नहीं है। उन्होंने कहा कि नैतिकता, यदि निष्कपट एवं सच्ची हो तो उससे कुछ अच्छा फल मिल सकता है।
‘‘हमने यदि उस सिद्धांत पर अमल न किया होता तो लड़ाके संभवतः यहाँ-वहाँ कुछ कैदियों को गोली मार देते और तमाम किस्म के निंदनीय काम किए होते। अन्याय एवं अपराध के विरूद्ध इतनी अधिक घृणा थी।’’
मैं अच्छी तरह समझता हूँ कि कोई भी व्यक्ति यह नहीं समझ सकता कि कास्ट्रो भावुक उदारवादी थे। वह एक क्रांतिकारी हैं और उन्होंने एक सिद्धांत, एक दर्शन के रूप में और क्रांतिकारी युद्ध के दौरान एक कार्यनीति के रूप में क्रान्तिकारी नैतिकता की चर्चा की है। क्रांतिकारियों को हमेशा ही अपने स्वयं के अनुभवों एवं व्यवहार से और अन्य क्रांतिकारियों के अनुभवों एवं व्यवहार से सीखना चाहिए। फिडेल कास्ट्रों के इन विचारों के बारे में माओवादियों का क्या कहना है?
प्रतिबंध पर गृह मंत्रालय के सुझाव
भारत सरकार का गृह मंत्रालय पश्चिम बंगाल में सी0पी0आई0 (माओवादी) पर प्रतिबंध लगने के लिए दबाव डालता रहा है, जैसा कि कई राज्यों में किया गया है और केन्द्र ने भी किया है।
सी0पी0आई0 ने प्रतिबंध के सुझाव का विरोध किया है। सी0पी0आई0 (एम) और अन्य वामपंथी पार्टियों ने भी वैसा ही किया है। अतः पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार ने प्रतिबंध की घोषणा नहीं की है। यह बिल्कुल अलग बात है कि केन्द्र का प्रतिबंध कुल भारत पर लागू होता है और इस कारण पश्चिम बंगाल पर भी लागू होता है। क्या इसका अर्थ यह है कि प्रतिबंध के सम्बंध में वाममोर्चा की अनिच्छा या इंकार महज एक आडम्बर है?
पहली बात तो यह है कि माओवादियों पर प्रतिबंध का उल्टा नतीजा निकलता है, और यह एक निरर्थक कोशिश है। भारतीय राजनैतिक मैदान में वे खुलेआम काम नहीं करते हैं। सशस्त्र संघर्ष, लम्बे युद्ध की उनकी कार्यनीति देश के खुले कानूनी ढाँचे में नहीं चलायी जाती है। जब बात इस तरह की है तो उनकी गतिविधियों पर प्रतिबंध से उनकी कार्यवाइयों पर कोई अंकुश कैसे लगता है, उनकी कार्रवाइयां कैसे रुकती हैं?
दूसरी बात यह है कि किसी राजनैतिक पार्टी पर प्रतिबंध की घोषणा का अर्थ है समस्या के राजनैतिक समाधान की और सम्बंधित पार्टी के साथ राजनैतिक वार्ता की तमाम कोशिशों को छोड़ना, उसे कोई राजनैतिक जगह देने से इंकार करना और उस स्थिति को न देखना या स्वीकार न करना जिसने इस समस्या के पैदा होने और बढ़ाने का काम किया है।
यदि कोई पार्टी या संगठन प्रतिबंध से पहले खुलेआम काम करता है तो प्रतिबंध उसे भूमिगत काम करने की तरफ धकेल देता है। इससे समस्या हल नहीं होती, और न ही वह पार्टी या संगठन प्रतिबंध के कारण गायब हो जाता है।
अन्य बातों के अलावा इन कारणों से हम नहीं समझते कि प्रतिबंध माओवादी कार्रवाइयों से पैदा होने वाली समस्या का कोई जवाब है। अधिक से अधिक प्रतिबंध भविष्य में बनने वाले कुछ समर्थक या हिमायती लोगों को प्रतिबंधित पार्टी से दूर रहने के लिए असर डाल सकता है या डरा सकता है।
‘‘आतंकवाद’’ को और ’’वामपंथ उग्रवाद’’ (वर्तमान मामले में माओवाद का दूसरा नाम) को एक तराजू से तौलना, जैसा कि सरकार करती है, पूरी तरह गलत और अनुचित है। इससे पता चलता है कि सरकार इन दोनों बातों के चरित्र और मूल कारणों को नहीं जानती, समझती। ये दोनों बातें हथियारों की मदद से हिंसा में अभिव्यक्ति पाती हैं। जिससे सुरक्षा बलों के कर्मियों के अलावा मासूम लोगों की जानें जाती हैं-यह पहलुओं को सतही एवं ऊपरी तौर से देखने की बात है।
माओवादी समस्या के कुछ सामाजिक आर्थिक आयाम हैं। यह समस्या अधिकांश उन क्षेत्रों में हैं, जो दूर दराज के और पिछड़े और उपेक्षित क्षेत्र हैं और जहँा सामन्ती एवं अर्ध-सामन्ती शोषण चरम सीमा तक एवं व्यापक पैमाने पर जारी है। ऐसे क्षेत्रों में माओवादियों को अपनी गतिविधियाँ चलाने और अपने असर के दायरे को बढ़ाने के लिए अनुकूल जमीन मिलती है। यह मुख्य धारा की कम्युनिस्ट पार्टियों की विफलता है कि यह मैदान उनके लिए खुला पड़ा है। पर माओवादियों पर यह इल्जाम लगाना कि वे विकास का विरोध करते हैं इस हकीकत को छिपाने की बात है कि माओवादी ठीक उन्हीं सर्वाधिक पिछड़े इलाकों में अपनी गतिविधियाँ चला रहे हैं, जो सरकार एवं प्रशासन द्वारा कई दशकों से उपेक्षित पड़े हैं। निश्चय ही, इन इलाकों को अपना आधार बनाकर माओवादी अब अपनी गतिविधियों को अन्य इलाकों तक फैलाने में कामयाब हैं।
अतः चाहे वह केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार, उसे उन सामाजिक आर्थिक समस्याओं का समाधान करना होगा, जिन्होंने माओवादियों को पैदा करने और बढ़ाने का काम किया है। इससे केवल कानून एवं व्यवस्था की समस्या के रूप में निपटने से काम नहीं चलेगा। जब कभी और जहाँ कहीं अराजकता और लोगों की हत्याओं से निपटने के लिए पुलिस कार्रवाइयाँ करनी हों और इस तरह जनता को सुरक्षा प्रदान करनी हो तब भी इस समस्या के सामाजिक, आर्थिक पहलू को भुलाया नहीं जा सकता है। सी0पी0आई0 (माओवादी) और तृणमूल कांग्रेस का एक दूसरे के साथ हो जाना और लालगढ़ में कांग्रेस का उनको मौन समर्थन-यह बहस का मुद्दा रहेगा। कौन किसके मकसद पूरे कर रहा है और इसका अंतिम लक्ष्य क्या है?
अपने इस तरह के दृष्टिकोण और कार्रवाइयों से माओवादी क्रांति के उद्देश्य के लिए भारत की जनता के अत्यधिक विशाल संख्या को अपने समर्थन में नहीं खींच सकते। वास्तव में इससे उस उद्देश्य एवं लक्ष्य को नुकसान पहुँच रहा है जिसके लिए कम्युनिस्टों ने अपने जीवन को समर्पित कर रखा है।

-का. ए. बी. बर्धन

समाप्त

7.11.09

लो क सं घ र्ष !: माओवादियों के संबंध में कुछ मुद्दे - 2


यह याद किया जा सकता है कि जैसे ही कांगे्रस एवं विपक्ष के नेता महेन्द्र कर्मा ने ‘सलवा जुडुम‘ नाम से समाज में अपराध एवं अव्यवस्था को रोकने की कोशिश में स्वयं-नियुक्त समूह का गठन किया तो सीपीआई ने रायपुर में एक प्रेस कांफ्रेंस की, और यह कहते हुए इसकी निंदा की कि यह माओवादियों को आदिवासियों के विरूद्ध लड़ाने की और उनके बीच गृहयुद्ध पैदा करने की कोशिश है। उसके बाद सलवा जुडुम के विरूद्ध होने वाली सबसे बड़ी रैली भी सीपीआई ने जगदलपुर में, लोहांडीगुडा और दांतेवाडा में आयोजित की थी और सीपीआई के सर्वोच्च नेताओं ने उन रैलियों को सम्बोधित किया था। इस घृणित मुद्दे के मामले में कांग्रेस और भाजपा हाथ मेें हाथ मिलाकर काम कर रहे थे। ये सब सुपरिचित तथ्य हैं।
मुम्बई का उदाहरण, जहाँ केवल 43.52 प्रतिशत लोग मतदान के लिए आए और जिसका जिक्र माओवादियों ने बड़ी खुशी जाहिर करते हुए किया है, सर्वथा गलत है। न ही यह इस कारण है कि उस शहर के आधिकांश लोगों की नजर में संसदीय व्यवस्था ने अपनी तमाम विश्वसनीयता खो दी थी। यह माओवादियों की साफ-साफ आत्मपरकता है। मुम्बई में कम मतदान के लिए अन्य कारक जिम्मेदार हैं।
किसी खास मामले में, किसी खास समय पर, विशेष परिस्थितियों के कारण बहिष्कार को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की बात को तो समझा जा सकता है, पर ‘‘एक उल्लेखनीय रूझान के उभरने’’ के रूप में और संघर्ष के एक सर्वाधिक प्रभावशाली तरीके के रूप में इसे बताना, इसे एक सबसे अच्छी नीति, आंदोलन की एक आम कार्यनीति की हैसियत देना है। बहिष्कार संघर्ष का एक विशेष तरीका हो सकता है जो किसी विशेष परिस्थिति के लिए ठीक हो। यह संस्था (यानी संसद) के चरित्र से पैदा नहीं होता। यह एक ऐसा तरीका है जिसे संसदीय चुनाव कराए जाने को रोकने के लिए किया जा सकता है, उदाहरण के लिए ऐसे में जबकि कोई क्रांतिकारी उभार हो रहा हो और शासक वर्ग उस उभार को किसी इस या उस तरीके से डाइवर्ट करने की कोशिश करें।
संसद और उसकी प्रासंगिकता
हम कम्युनिस्ट वर्तमान व्यवस्था की कमियों-खामियों को पूरी तरह से जानते हैं। इसके सम्बंध में अनुभव हमारे सामने हैं। 543 में से 145 संसद सदस्य अपने निर्वाचक गणों में से 20 प्रतिशत से भी कम मतदाताओं के मत प्राप्त कर जीते हैं। अतः वे दावा नहीं कर सकते कि वे वास्तव में अपने चुनाव क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। विभिन्न पार्टियों के अनेक उम्मीदवार होते हैं और निर्दलीय उम्मीदवार भी बीच में होते हैं-तो इतने सारे उम्मीवादरों के बीच मुकाबला इस तरह का हो जाता है कि इन उम्मीदवारों के बीच मत बँट जाने के कारण कोई उम्मीदवार 10 प्रतिशत से कम वोट हासिल कर, भी चुनाव जीत सकता है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए कुछ देशों में ऐसे प्रावधान हैं कि यदि किसी उम्मीदवार को 50 प्रतिशत से अधिक (50 प्रतिशत जमा एक) वोट न मिले तो फिर पहले और दूसरे स्थानों पर आए उम्मीदवारों के बीच में चुनाव कराया जाता है। पर भारत ने निष्ठापूर्वक ब्रिटिश प्रणाली को अपनाया है जिसमें इस तरह का प्रावधान नहीं है।
आज जो पूँजीवादी व्यवस्था मौजूद है, उसमें पैसा ही प्रधान है, अनेक स्थानों पर वोट पूर्णतया खरीदे जाते हैं और धन-बल की एक बड़ी भूमिका रहती है। इस तरह चुनाव लड़ना गरीब और आम आदमी की पहुँच से दूर होता जा रहा है। अतः इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि वर्तमान लोकसभा में 300 सदस्य ऐसे चुनकर आए हैं जिन्होंने स्वयं ही माना है कि वे करोड़पति हैं। अन्य अनेक संसद-सदस्य पैसे वालों के समर्थन से आए हैं और वे वस्तुतः पैसे वालों की जेब में हैं। अनेक अपराधी भी संसद के दोनों सदनों की शोभा बढ़ा रहे हैं।
वर्तमान संसदीय प्रणाली के इन एवं अन्य पहलुओं की अनदेखी नहीं की जा सकती। पर क्या इससे यह नतीजा निकाला जा सकता है कि संसद एक ‘‘गली-सड़ी, सड़ांध मारती संस्था’’ है, ‘‘बक-झक करने की जगह’’ है और इसके अलावा अन्य कुछ नहीं? विधायिका के चुनाव में भारत की जनता नियमित रूप से भारी संख्या में हिस्सा लेती है। भारत के लोग सरकारों को बदलना जानते हैं, जिस पार्टी को पसंद नहीं करते उसे सत्ता से हटाना जानते हैं और शासक वर्ग के गलती करने वाले संसद सदस्यों को उनकी जनविरोधी नीतियों के लिए सजा देना जानते हैं। अनेक ‘‘जनता के सदस्य’’ भी विभिन्न कारणों से दुर्भाग्यतः चुनाव हार जाते हैं। पर कुल मिलाकर लोग आंदोलन करने में और महत्वपूर्ण मुद्दों को समाधान के लिए उठाने में और सरकारों पर लगाम लगाने आदि में कामयाब हुए हैं, खासकर जब कभी संसदीय संघर्ष के साथ ही साथ जनसंघर्ष भी चल रहा होता है। पर निश्चय ही तमाम मामलों में जनगण की कार्यवाइयाँ ही निर्णायक कारक होती हंै। यद्यपि यह बात हर बार संसद में सही-सही नहीं झलक पाती है। इसके लिए संघर्ष को जारी रखना होगा।
जैसा कि हम देखते हैं कि संसदीय प्रणाली की कुछ सीमाएँ, कुछ कमजोरियाँ हैं, पर लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसकी प्रासंगिकता है।
भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन ने शुरू से ही समानुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली के लिए जोर दिया है। इससेे ‘‘जिसे सबसे अधिक वोट मिले वही जीता’’ की प्रणाली खत्म हो जाएगी क्योंकि इस प्रणाली से आमतौर पर ऐसी सरकार बनती है जिसे अल्पमत वोट मिले होते हैं। वर्तमान सरकार समेत हमारी अधिकांश सरकारें इसी तरह बनी हैं।
कम्युनिस्ट अंादोलन किसी निर्वाचित सदस्य को, जिसने जनता का विश्वास खो दिया है, ‘‘वापस बुलाने’’ के प्रावधान के पक्ष में रहा है।
हमने उपर्युक्त कुछ बातंे यह दिखाने के लिए कहीं हैं कि चुनाव प्रणाली एक ऐसा मुद्दा नहीं है कि उसे यों ही आसानी से खारिज किया जा सके, बल्कि इसके लिए राजनैतिक चेतना को बढ़ाने, वर्ग संघर्ष को विकसित करने के साथ ही साथ हरेक महत्वपूर्ण एवं ठोस मुद्दे पर जन कार्यवाई को चलाने की जरूरत है।
अन्य पार्टियों के कार्यकर्ताओं को मारने, कत्ल करने के सम्बन्ध मंे
स्थानीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर अनेक कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं, यहाँ तक कि पार्टी के उन सामान्य कामरेडों की हत्या, जो लालगढ़ इलाके में पंचायतों के सदस्य हैं, से माओवादियों के स्टैण्ड और दृष्टिकोण के सम्बंध में कुछ सवाल उठे हैं। इन कार्यकर्ताओं के घरों को जला दिया गया, सी0पी0आई0 (एम) और सी0पी0आई0 के दफ्तरों में तोड़फोड़ की गई है। यहाँ तक कि पार्टी दफ्तरों पर लहराने वाले लाल झण्डों को भी जलाया गया है। कहने की जरूरत नहीं कि इससे न केवल इन पार्टियों के पीछे चलने वाले लोग बल्कि अन्य लोकतांत्रिक तबके भी नाराज हुए हैं। संचार माध्यमों के कुछ हिस्सों द्वारा इन घटनाओं को ‘‘प्रतिशोध हत्या’’ के रूप में पेश करने की कोशिश को सही नहीं माना जा सकता है। यदि इसे सही मान लें तो यह श्रृंखला कहाँ जाकर खत्म होगी?
यदि सशस्त्र झगड़े के दौरान कोई व्यक्ति मारा जाता है तो बात समझ में आ सकती है। पर यदि किसी व्यक्ति को उसके घर से बाहर खींच कर या घात लगाकर या रास्ते में पकड़कर उसे गोलियों से छलनी कर दिया जाए तो इस बात को माओवादी किस तरह ठीक ठहराते हैं? क्या यह सोचे-समझे तरीके से हत्या से किसी तरह से कोई अलग चीज है? क्या निर्दोष नागरिकों की हत्या को वे ‘‘दुर्घटना’’ या ‘‘आनुषंगिक नुकसान’’ कहकर खारिज कर सकते हैं? अमरीकी साम्राज्यवादी प्रायः इस तरह के बहाने पेश करते हैं।
माओवादी इस आरोप से बच नहीं सकते, और वे इस बात को जानते हैं। यही कारण है गणपति से इण्टरव्यू के दौरान एक प्रश्न पूछा गया और महासचिव ने 2007 के एक मामले का, यानी झारखण्ड मुक्तिमोर्चा के नेता और जमशेदपुर के संसद सदस्य सुनील महतों की हत्या का जिक्र कर जवाब दिया।
अपने उत्तर में गणपति कहते हैं, ‘‘हम एक बात स्पष्ट करना चाहते हैं, हम राजनैतिक पार्टियों के नेताओं या साधारण सदस्यों की अंधाधुंध हत्याओं के पक्ष में नहीं है। हम विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की जनविरोधी नीतियों और समाज में अपराध एवं अव्यवस्था को रोकने के लिए, स्वयं-नियुक्त ‘गैंगों के हमलों’ के विरूद्ध संघर्ष करने के लिए, उनका पर्दाफाश करने के लिए, उन्हें अलग- थलग करने के लिए बुनियादी तौर पर जनगण की लामबंदी पर भरोसा करते हैं, हम अपनेे पी0एल0जी0ए0 दस्तों और एक्शन टीमों को जहँा जरूरत हो, लगाते हैं। सुनील महतों की हत्या का, पूरे झारखण्ड मुक्तिमोर्चा के प्रति हमारे विरोध के रूप में अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए। जब तक वह जनविरोधी गतिविधियों में लिप्त होने से और क्रांतिकारी आंदोलन के विरूद्व हमला करने से विरत रहता है तब तक हम झारखंड मुक्तिमोर्चा के विरूद्व नहीं। निश्चय ही माओवादी ही अकेले ऐसे हैं जो अभियोक्ता (आरोप लगाने वाले) भी होंगे, जज भी होंगे और सजा पर अमल करने वाले भी।
इतना कहने के बाद गणपति ने हत्या को यह कहते हुए ठीक ठहराया कि ‘‘सुनील महतो के मामले में, हमें उसे केवल इस कारण ठिकाने लगाना पड़ा क्योंकि वह झारखंड में क्रांतिकारी आंदोलन का नृशंस दमन शुरू करने में सक्रिय रूप से शामिल था।‘‘
क्या इस स्पष्टीकरण को क्रंातिकारी स्वीकार कर सकते हैं, और क्या क्रांतिकारियों के इस स्पष्टीकरण को स्वीकार किया जा सकता है? अनेक स्थानों पर अनेक कम्युनिस्टों को क्यों मार डाला गया? लालगढ़ एवं अन्यत्र स्थानों पर सीपीआई (एम) के कार्यकर्ताओं को उनके घर से उठाकर या रास्ते में पकड़ कर क्यों मार डाला गया? क्या वे वर्ग शत्रु थे; क्या वे समाज से अपराध एवं अव्यवस्था को ठीक करने के लिए स्वयं-नियुक्त समूहों के लोग थे, पुलिस के मुखबिर थे या क्या थे? माओवादी उन्हें किस केटेगरी में रखते हैं? वे लड़ने वाले लोग थे या महज सीधे-सीधे राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी थे जिन्हें किसी इलाके पर कब्जा करने या प्रभुत्व जमाने के लिए खत्म करना जरूरी था? ऐसा कैसे है कि इस मामले मंे लालगढ़ में माओवादी, तृणमूल कांग्रेस और तथाकथित ‘‘पुलिस अत्याचार के विरूद्ध जनसमिति’’ जो माओवादियों का स्वयं का मोर्चा संगठन है- के कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर काम करते हंै?


-का. ए. बी. बर्धन

जारी

6.11.09

नौकरी पेशा परिवारों का सच

आज बैंगलोर में हुई एक घटना ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया की भारतीय मध्य वर्गीय समाज पैसा कमाने के लिए किस हद्द तक जाने को तैयार बैठा हैं |एक "परिवार" अपने सात महीने के बच्चे को घर पर "आया" के भरोसे छोड़कर पैसा कमाने के लिए नौकरी करने जाता हैं व उन्हें पता चलता हैं की वह तथाकथित "आया" इस दूधमुहे बच्चे को भिखारियो को दिनभर के लिए १०० रुपये प्रतिदिन के हिसाब से दे देती हैं तथा शाम को उनके आने से पहले उसे वापस घर ले आती हैं ऐसा पिछले तीन सप्ताह से चल रहा था | यहाँ देखे तो इस सारे प्रकरण में दोष सिर्फ़ उस "आया" का नज़र नही आता बल्कि दोष ख़ुद उस परिवार का दिखता हैं जो इतने छोटे बच्चे को सिर्फ़ चंद पैसे के लिए किसी गैर के भरोसे छोड़ के नौकरी करने जाता हैं माना की पैसा बहुत ज़रूरी हैं परन्तु किस कीमत पर ? अगर बात पैसे की ही हैं तो फ़िर बच्चा पैदा करने की ज़रूरत क्या हैं, पहले कमाओ फ़िर परिवार बढाओ अगर आप किसी बच्चे की देखभाल भी नही कर सकते तो उसे जनम क्यों देते हैं एक साथ सभी सुख तो प्राप्त नही किए जा सकते शायद यह इस परिवार का अपराध बोध ही हैं की वह इस सारे घटनाक्रम की रिपोर्ट तक लिखवाना नही चाहता |

ऐसे में संयुक्त परिवारों की ज़रूरत महसूस की जाती हैं यदि इस परिवार के साथ भी कोई अपना होता तो शायद आज उन्हें ये दिन देखना नही पड़ता, इस घटना ने ऐसे कई सवालो को जन्म दे दिया हैं | हम अपनी दुनियादारी में अपनों के लिए ही अपनों से ही कितने दूर हो गए हैं भूतकाल को छोड़कर भविष्य सँवारने की यह फितरत हमें कितनी बड़ी कीमत देकर चुकानी पड़ रही हैं इस घटना से यह देखा जा सकता हैं |

यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य हैं की भिखारी उस बच्चे को नशे का सेवन भीख मांगने के लिए करवाते थे जिससे वह हमेशा सोया रहे....... क्या इस बच्चे का इतना कसूर काफी नही था की उसके माँ बाप उसे इतनी छोटी उम्र में भी उसे घर पर किसी गैर के भरोसे छोड़कर स्वयं नौकरी करने जाते थे |

लो क सं घ र्ष !: माओवादियों के संबंध में कुछ मुद्दे -1

हाल के दिनों में भारत में माओवादी काफी चर्चा में रहें हैं। लालगढ़ और झारखंड की सीमा से लगे पश्चिमी बंगाल के मिदनापुर जिले में माओवादियों की सक्रियता पिछले कुछ महीनों से संचार माध्यमों की सुर्खियों में स्थान पाती रही है।
लालगढ़ के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है और लिखना जारी रहेगा। उन माओवादियों में हमारी गंभीर दिलचस्पी है जिन्होंने गहरे शोषण के विरुद्ध संघर्ष करते हुए और राज्य पुलिस के अत्याचारों के विरुद्ध आदिवासी जनों के आन्दोलन की पीठ पर सवार होकर लालगढ़, छत्तीसगढ़ के दंडाकारण्य में और कुछ अन्य क्षेत्रों में अपनी जडंे़ जमा ली हैं।
लालगढ़ से पहले माओवादी गुरिल्लों ने गढ़चिरौली (महाराष्ट्र,) दांतेवाड़ा (छत्तीसगढ़), खुंटी (बिहार), कोरापुट (उड़ीसा), लतेहर, धामतारी (छत्तीसगढ़) आदि स्थानों पर पुलिस बल, केन्द्रीय रिजर्व पुलिस (सी आरटीएफ) ,सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ), केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सी आरपीएफ) कर्मियों और कमांडों पर हमलों का एक सिलसिला चलाया, जिसमें इन बलों के 112 कर्मी मारे गए और अनेक जख्मी हुए। कोरापुट जिले के दामनजोडी़ में, जहाँ सीआईएसएफ के 8 कर्मी मारे गये थे, उनका हमला एक प्रतिष्ठित सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम- नालको की पंचपटमाली बाक्साइट-खदान और एनएमडीसी के खदान-पर हुआ था। हमले का उद्देश्य वहाँ बारूद खाने में जमा अच्छी किस्म के विस्फोटकों पर धावा बोलना था। उस धावे से इन सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के कामकाज में बाधा पहुँची और वहाँ काम करने वाले हजारों मजदूरों में डर की भावना पैदा हो गई। सबसे गंभीर मामला था बीजापुर जिले (छत्तीसगढ़) में पुलिस के बेस कैम्प पर दहला देने वाला हमला, जिसमें 65 पुलिसकर्मी मारे गए। ये सारी कार्रवाइयाँ चुनाव से ठीक पहले या चुनाव के दौरान की गईं। ज़ाहिर है उनको चुनाव पर नजर रखते हुए अंजाम दिया गया था। यही कारण है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पदभार सँभालते ही यह घोषणा करनी पड़ी कि आतंकवाद और वामपंथी उग्रवाद से निपटना यूपीए-2के लिए एक सर्वप्रमुख प्राथमिकता का कार्य होगा। लालकिले की प्राचीर से अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में भी प्रधानमंत्री माओवादियों को यह चेतावनी देना नहीं भूले कि ‘‘जो लोग सोचते हैं कि वे हथियारों का सहारा लेकर सत्ता पर कब्जा कर सकते हैं वे हमारे लोकतंत्र की ताकत को नहीं समझते। केन्द्र सरकार नक्सली गतिविधियों से निपटने की अपनी कोशिश को तेज करेगी।’’
17 अगस्त को आयोजित मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में वामपंथी उग्रवाद से लड़ने का मुद्दा एजेंडे में सबसे बड़े मुद्दों में से था और इसकी प्राथमिकता सूखे की आपदा के बराबर हो गई जिससे देश का आधा हिस्सा प्रभावित है। तमाम आवश्यक वस्तुओं की महंगाई, जिससे हमारे देश के लोगों को ज़बरदस्त चोट पहुँच रही है, उसका तो उसमें थोड़ा बहुत ही जिक्र हुआ।
प्रधानमंत्री ने पहले कहा था कि 160 जिले माओवादियों के नियंत्रण में हैं या इतने जिलों में वे घुसपैठ कर चुके हैं। जब एक इन्टरव्यू लेने वाले ने सी0पी0आई0 (माओवादी) के महासचिव गणपति से पूछा कि कितना भूक्षेत्र उनके वास्तविक निंयंत्रण में है तो उन्होंने शालीनता एवं संकोच प्रदर्शित करते हुए कहा कि वे इस तरह के आँकड़ों पर यकीन नहीं करते हैं। इससे यही पता चलता है कि ‘‘भारत के प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग के लिए वे (माओवादी) कितना बड़ा दुःस्वप्न बन गए हैं।’’ उन्होंने कहा कि ‘‘ये अधिकांश आँकड़े’’ महज काल्पनिक हैं और इन्हें जानबूझकर बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है ताकि क्रांतिकारी आंदोलन को दबाने के लिए और अधिक पुलिस बल तैनात किया जा सके और ज्यादा पैसा आवंटित किया जा सके। पर साथ ही गणपति यह बखान करना नहीं भूले कि ‘जहाँँ तक हमारे असर की बात है वह इससे भी ज्यादा हैं।’’
आजकल, माओवादी राजनैतिक और संचार माध्यमों, दोनों ही क्षेत्रों में चर्चा का विषय हैं। अतः किसी को भी उनके बारे में और अधिक जानना चाहिए। ऐसे मामलों में जानकारी का पहला साधन जिसमें क्रांति के लिए संघर्ष करने वाली एक पार्टी जैसा वे दावा करते हैं- के रूप में उन्होंने अपनी नीतियों, अपने उद्देश्यों एवं लक्ष्यों, अपनी कार्यनीति और रणनीति को पेश किया है। उनके वास्तविक व्यवहार से भी तुलना कर उसे देखा जाना चाहिए।
उनके सबसे अधिक महत्वपूर्ण दस्तावेजों में से बहुत से हमारे पास हैं। यहाँ हम उनमें से तीन का हवाला दे रहे हैं:
(1) उनका पार्टी कार्यक्रम, जिसे अनुमानतः उनकी 9वीं कांग्रेस में पारित किया गया। यह सी0पी0आई0 (एम0एल0), पीपुल्स वार, एम0सी0सी0आई0 और सी0पी0आई (एम0एल0) पार्टी यूनिटी के परस्पर विलीनीकरण और स्वयं का सी0पी0आई0 (माओवादी) का नाम रखने के बाद आयोजित एकता कांग्रेस (यूनिटी कांग्रेस) थी। यह 9वीं कांग्रेस, सी0पी0आई0 (एम0एल0) पीपुल्स वार की आठवीं कांग्रेस के 37 वर्ष बाद, 2007 में गुप्त रूप से आयोजित की गई थी।
(2) सी0पी0आई0 (माओवादी) के महासचिव गणपति के साथ इन्टरव्यू। यह एक लम्बा और विशद इंटरव्यू है जिसमें उनके कार्यक्रम, उनकी वर्तमान गतिविधियों आदि के वस्तुतः तमाम पहलू शामिल हैं। इसे सी0पी0आई0 (माओवादी) के प्रवक्ता, किसी आजाद नाम के व्यक्ति ने अप्रैल 2007 में जारी किया था, और
(3) सी0पी0आई0 (माओवादी) पोलित ब्यूरो द्वारा 12 जून 2009 को जारी ‘‘चुनाव बाद की स्थिति पर एक रिपोर्ट-हमारे कार्य।’’
ये सब काफी विस्तृत एवं विशद दस्तावेज हैं। कुछ समय बाद एक राजनैतिक पेम्फलेट में उनके सम्बंध में विश्लेषण और चर्चा की जानी चाहिए। फिलहाल हम कुछ पहलुओं पर विचार करना चाहते हैं जो आंदोलन के तात्कालिक महत्व के हैं।
पार्टी कार्यक्रम इस बात पर जोर देते हुए शुरू होता है कि दो धाराएँ, जो सी0पी0आई (माओवादी) बनाने के लिए एक साथ मिलीं, ये ‘‘माक्र्सवाद-लेनिनवाद -माओवाद को भारत के मौजूदा वास्तविक हालात में लागू करने की प्रक्रिया में और सी0पी0आई0 और सी0पी0आई0 (एम) के पुराने चले आ रहे संशोधनवाद के विरूद्ध संघर्ष कर उसका पर्दाफाश कर सामने आईं।’’ वर्षों पहले सी0पी0आई0 से टूटकर अलग होते समय सी0पी0आई (एम) ने सी0पी0आई0 पर ‘‘संशोधनवादी’’ का आरोप लगाया था। अब वही आरोप लगने की बारी सी0पी0आई0 (एम) की है। इसके परिणाम स्वरूप सी0पी0आई0 (एम0एल0) बना। का0 गणपति सी0पी0आई0 (एम0एल0) को यह कहते हुए निपटाते हैं कि विनोद मिश्रा के नेतृत्व वाले ‘लिबरेशन’ ग्रुप का 1970 के गौरवपूर्ण संघर्षों के इतिहास के बाद 1980 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में अधः पतन शुरू हो गया...’’।
अन्य कुछ ग्रुपों को भी इसी तरह निपटाते हुए वह कहते हैं कि ‘‘वे राज्य के विरूद्ध सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत को भविष्य में किसी शुभ मुहूर्त के लिए टालते रहे।’’ अब सी0पी0आई0 (माओवादी) ही एक ऐसी अकेली पार्टी है जो लम्बे जनयुद्ध को चलाएगी और जनवादी क्रांति एवं समाजवादी क्रांति दोनों ही चरणों के दौरान देश की तमाम ताकतों की अगुवाई एवं पथ प्रदर्शन करेगी। हर कोई जानने को उत्सुक होगा कि इस तरह भारतीय क्रांति का नेतृत्व पहले से मजबूत हो गया है या कमजोर।
अपने आप को, हर किस्म के दमन और सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरूद्ध ‘‘संघर्षरत जनगण’’ का सच्चा एवं एकमात्र रक्षक के रूप में पेश करते हुए, सी0पी0आई0 (माओवादी) मुख्यधारा की कम्युनिस्ट पार्टियों और तमाम अन्य कम्युनिस्ट ग्रुपों की अवमानना करने की हद तक चली गई है। ऐसा नहीं है कि वह मनमोहन सिंह सरकार द्वारा अपने ऊपर लगाम लगाने की भूमिका से अनजान है। चुनाव बाद की स्थिति के सम्बंध में वह अपनी रिपोर्ट में कहते हैं:
‘‘इस तथ्य ने, कि कांग्रेस नेतृत्व वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) फिर से निर्वाचित हो गया हैऔर कांग्रेस की लोकसभा में सीटें बढ़ गई हैं और वह पिछली बार के मुकाबले कहीं अधिक निर्णायक भूमिका अदा करने की स्थिति में है यूपीए को और इसके बड़े घटक कांग्रेस को हमारी पार्टी और आंदोलन के विरुद्ध पहले से कहीं अधिक नृशंस और पहले से कहीं अधिक बड़े सैन्य हमले शुरु करने के लिए कहीं अधिक संभावनाएँ प्रदान कर दी हैं। पिछली सरकार में, जहाँ इसके पास अपेक्षाकृत कम सीटें थीं, सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस को अपने विभिन्न सहयोगियों पर पूरी तरह निर्भर रहना पड़ता था और वामपंथ ने भी लगभग चार वर्ष तक मनमोहन सिंह सरकार पर कुछ दबाव बनाए रखा। हमें ध्यान रखना होगा कि चुनाव परिणाम से यूपीए सरकार को कहीं अधिक क्रूर किस्म के कानून बनाने और कहीं अधिक फासिस्ट कदमों पर अमल करने और जन संघर्षों को कुचलने की अधिक गुंजाइश मिल गई है।‘‘
माओवादी और बहिष्कार का
उनका आह्वान
चुनाव के संबंध मेें माओवादियों की रिपोर्ट, चुनाव के बहिष्कार के अपने अभियान पर विस्तार से चर्चा करती है। वह कहती है कि अपने शासन के लिए वैधता प्राप्त करने के लिए और संसदीय व्यवस्था की छवि को फिर से चमकाने के लिए शासक वर्गाें ने अपने पास उपलब्ध सभी तौर तरीकों का इस्तेमाल किया। यहाँ तक कि बंदूक की छाँह में मतदान कराया (शंातिपूर्ण मतदान सुनिश्चित करने के लिए बहुत बड़ी संख्या में सुरक्षा बल इस काम में जुटाए गए)। उद्देश्य था मतदान का और अधिक प्रतिशत और भारत में लोकतंत्र के लिए और अधिक अंक सुनिश्चित किया जाए।
माओवादी कहते हैं कि ’’हमारी पार्टी द्वारा चुनाव के बहिष्कार को विफल करने के लिए प्रतिक्रियावादी शासकों ने अपने पास उपलब्ध तमाम तौर तरीकों का इस्तेमाल किया था और वह आगे दावा करते हैं कि ’’कुल मिलाकर, चुनाव से दूर रहकर मतदाताओं के बहुमत ने अपेक्षाकृत अधिक जागरुकता का परिचय दिया। हमारा प्रचार अभियान इतना प्रभावी था कि दंडकारण्य (दांतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर, बस्तर और कांकेर जिले और राजनांदगांव के कुछ हिस्से) के अधिकांश देहाती इलाकों में, बिहार और झारखण्ड के अनेक जिलों में जहाँ मतदान प्रतिशत 2004 के मुकाबले अत्यधिक कम हो गया, पश्चिम बंगाल में पश्चिम मिदनापुर, बांकुड़ा और पुरूलिया में राजनैतिक पार्टियों का चुनाव मुश्किल से ही कहीं था और पश्चिम बंगाल के लालगढ़ क्षेत्र में पूरी तरह बहिष्कार हुआ।
सर्वप्रथम, तथ्य क्या हैं?
पिछले तीन दशकों से मतदान प्रतिशत में कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं आया है। 1977 में मतदान 60.5 प्रतिशत था और इस बार मतदान 58.2 प्रतिशत था। थोड़ा सा ही कम। यह सोचना कि माओवादियों के बहिष्कार अभियान का कोई महत्वपूर्ण असर पड़ा महज अपने आप को भुलावे में रखना होगा।
जहाँ तक बंदूक उठाए उन सुरक्षा बलों की बात है जिन्हें और अधिक प्रतिशत के लिए जुटाया गया था तो यह भी उतना ही सही है कि माओवादियों ने जिन कुछ इलाकों का नाम लिया है वहाँ बहिष्कार भी बंदूक की छाँह में ही लागू किया गया था। जो कोई भी मतदान करने जाएगा उसे बुरा नतीजा भुगतने की धमकियाँ दी गईं थीं। अपने अनुभव से हम कह सकते हैं कि बहिष्कार को लागू करने से भाजपा/कांग्रेस को ही विधानसभा और संसदीय चुनाव जीतने में मदद मिली और सीपीआई के उम्मीदवारों को, जो शुरु से ही ‘‘सलवा जुडुम‘‘ की लूटपाट और विध्वंस के विरुद्ध संघर्ष की कतारों में खुलेआम सबसे आगे थे, नुकसान पहँुचा।

-का. ए. बी. बर्धन

जारी

5.11.09

लो क सं घ र्ष !: संप्रभुता से समझौता नहीं - उत्तरी कोरिया - अन्तिम भाग


अमेरिका को धीरे-धीरे ईरान की ओर बढ़ता देख, उत्तरी कोरिया को यह समझने में मुष्किल नहीं हुई होगी कि बुष की बनायी शैतान त्रयी में ईरान के बाद अगला क्रम किसका है। और जब बचाव का कोई रास्ता न समझ में आये तो आक्रामकता ही बचाव का अंतिम संभव हथियार बचती है। बेषक उत्तरी कोरिया के इस कृत्य से कोरियाई खाड़ी और पूर्वी एषिया में तनाव बढ़ा है और अमेरिका को अपनी पूर्वी एषिया में मौजूदगी बढ़ाने का बहाना भी मिला है, लेकिन उत्तरी कोरिया अगर परमाणु परीक्षण नहीं करता तो कौन सा अमेरिका उसे बख़्ष रहा था। 21वीं सदी की भीषणतम बाढ़ और उसके बाद आने वाली भुखमरी और अकाल जैसी परेषानियों से जूझते देष को 1985 से हाल-हाल तक सिर्फ़ मदद के वादे से बहलाया ही तो है अमेरिका ने।

उधर सीआईए और अमेरिकी राजनीतिकों का ये कहना जारी रहा है कि उत्तरी कोरिया एक बदमाष देष (रोग स्टेट) है। अमेरिका उत्तरी कोरिया पर यह दबाव डालता रहा कि वो अपना मिसाइल कार्यक्रम बंद कर दे ताकि उस पर से प्रतिबंध हटाये जा सकें और उत्तरी कोरिया का कहना था कि प्रतिबंध हटाना 1994 के एग्रीड फ्रेमवर्क समझौते में निहित है फिर ये नयी शर्त क्यों। उधर उत्तरी कोरिया को जिस 5 लाख टन मीट्रिक टन भारी तेल की आपूर्ति का वादा किया गया था और उसे सुनिष्चित करने के लिए केडो (केईडीओ) नामक एजेंसी बनायी गयी थी, वो लगातार फण्ड की कमी का षिकार बनी रही और इस कारण वक्त पर तेल आपूर्ति की अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा सकी। नतीजतन 10 जनवरी 2003 को उत्तरी कोरिया ने परमाणु अप्रसार संधि से अपने हटने का ऐलान कर दिया। तब से अनेक अनेक द्विपक्षीय व बहुपक्षीय वार्ताएँ चलती रहीं लेकिन उनसे उत्तरी कोरिया को न कोई मदद हासिल हुई और न अमेरिका की मंषाओं पर भरोसा हुआ। एक तरफ़ जाॅर्ज बुष ने उत्तरी कोरिया को 2008 में उस सूची से बाहर कर दिया जो अमेरिका ने आतंकवादी देषों की बनायी हुई थी लेकिन दूसरी तरफ़ उसे शैतानियत की त्रयी की सूची में दर्ज कर दिया। सन् 2003 के बाद से लगातार उत्तरी कोरिया के अनेक जहाज रोके गये, अनेक कंपनियों के व्यापार को प्रतिबंधित किया गया और दूसरे देषों में जमा उत्तरी कोरिया के करोड़ों डाॅलर ये इल्जाम लगाकर जब्त कर लिये गये कि इन पैसों से वो परमाणु हथियार बनाने की कोषिषें कर रहा है। एक तरह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसे हर तरह की संभव मदद से दूर करके और फिर उसके आर्थिक, सामरिक व व्यापारिक रिष्तों को काटने की कोषिष अमेरिका कर रहा है ताकि उसे हर तरह से कमज़ोर किया जा सके।

नयी शक़्ल में पुराना निजाम

बराक ओबामा के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने से अनेक विष्लेषकों को लगा था कि अमेरिकी सरकार युद्ध की विभीषिकाओं को जान समझ गयी है और ओबामा विष्व शांति कायम करने की दिषा में वाकई कुछ ठोस कदम उठाएँगे। लेकिन सिर्फ़ शक़्लें बदल जाने से व्यवस्था नहीं बदलती। इसीलिए सब कुछ थोड़ी-बहुत फेरबदल के साथ वैसा ही चल रहा है जैसे वो क्लिंटन या बुश के ज़माने में चलता था।

अमेरिकी टी वी चैनलों पर अमेरिकी विदेष विभाग व रक्षा विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों ने उत्तरी कोरिया को किसी अन्य ग्रह का देष बताया है जिसे कुछ पागल चला रहे हैं। जून 2009 में बराक ओबामा ने फ्रांस में बयान दिया कि ‘उकसावे की घटनाओं को पुरस्कृत करने की नीति जारी नहीं रखेंगे।’ इसके बाद 23 सितंबर 2009 को संयुक्त राष्ट्र संघ में दिये गये अपने पहले संबोधन में भी ओबामा ने उत्तरी कोरिया तथा ईरान का नाम साथ-साथ लेते हुए चेतावनी दी कि वे अंतरराष्ट्रीय समुदाय के नियम-कानूनों के मुताबिक बर्ताव करें वर्ना उन्हें परिणाम भुगतने होंगे। अंतरराष्ट्रीय शांति के इन छद्म पैरोकारों को इज़रायल या पाकिस्तान की शांति भंग करने की कोषिषें नहीं दिखायी देतीं क्योंकि वहाँ के हिंसक व अमानवीय अभियान अमेरिका के समर्थन व शह पर चलते हैं।

समय के परदे से झाँकतीं आषंकाएँ और संभावनाएँ


आधुनिक दौर में लड़ाइयाँ सिर्फ़ हौसलों और सैनिकों की गिनती से नहीं लड़ीं और जीती जातीं। इराक़ की मिसाल हमारे सामने है। ऐसे में एक छोटा सा देष उत्तरी कोरिया चाहे तो भी वो अमेरिका जैसी ताक़त का मुक़ाबला नहीं कर सकता। ज़ाहिर है कि उसके सामने बचाव का रास्ता यही है कि वो अपने आपको दुष्मन के सामने अधिक खतरनाक बना कर पेष करे। संभवतः यही रणनीति उत्तरी कोरिया को इस मंज़िल तक लायी है जहाँ उसने परमाणु हथियार बना लिये हैं या बनाने की क्षमता व तकनीक विकसित कर ली है। जिस मिसाइल कार्यक्रम को बुष के ज़माने में चीन और रूस के इसरार पर व अमेरिका से हल्के जल वाले रिएक्टर प्राप्त करने की उम्मीद में उत्तरी कोरिया ने एकतरफा स्थगित कर दिया था, मौजूदा अमेरिकी असहयोगात्मक रवैये से पूरी तरह नाउम्मीद होकर उसे फिर से शुरू कर दिया गया। अप्रैल 2009 में उत्तरी कोरिया ने राॅकेट से एक उपग्रह का सफल प्रक्षेपण करने का दावा किया। उत्तरी कोरिया के मुताबिक यह उपग्रह कार्यक्रम उनके शांतिपूर्ण वैज्ञानिक अभियान का हिस्सा था लेकिन उधर जापान, अमेरिका व दक्षिण कोरिया के रक्षा विषेषज्ञों का मानना है कि शांति के घोषित उद्देष्य की आड़ में उत्तरी कोरिया ने दरअसल लंबी दूरी की मार करने वाली मिसाइल तेपोंदोंग-2 का परीक्षण किया है जिसकी मारक जद में अलास्का और हवाई जैसे सुदूर अमेरिकी ठिकाने भी आते हैं। अनेक रक्षा विषेषज्ञ 4 जुलाई 2009 को किये गये उत्तरी कोरिया के बैलिस्टिक मिसाइल परीक्षणों को कम दूरी की मार करने वाले व दक्षिणी कोरिया व जापान के लिए सीधा खतरा मानते हैं।

दरअसल चीन व रूस, दोनों ही से सीमाएँ जुड़ने के कारण तथा जापान व दक्षिण कोरिया जैसे अमेरिका के घनिष्ठ सहयोगियों के दुष्मन होने के कारण और परमाणु शक्ति संपन्न देष होने के कारण उत्तरी कोरिया की भौगोलिक व सामरिक अहमियत अमेरिका के लिए काफी ज़्यादा हो जाती है। उत्तर कोरिया की अधिकांष ऊपरी सीमा चीन से लगी हुई है, केवल एक बहुत छोटा सा हिस्सा रूस के साथ भी सटा हुआ है। नीचे दक्षिण कोरिया है। गर्दन की शक़्ल वाले इस देष के एक तरफ पीला सागर है और दूसरी तरफ जापान सागर।

उत्तरी कोरिया व दक्षिणी कोरिया, दोनों ही देषों के पास विष्व की सबसे बड़ी तैनात और मुस्तैद सेनाएँ हैं। उत्तरी कोरिया की फौज दुनिया में चैथे क्रम की सबसे बड़ी तैनात फौज है जिसमें 12 लाख फौजी किसी भी युद्ध की आकस्मिक स्थिति के लिए तैयार हैं। दक्षिण कोरिया भी अमेरिकी फौजों के सहयोग से पीछे नहीं है। दोनों ही देषों में हर नागरिक को एक निष्चित अवधि तक फौज में काम करना अनिवार्य है।

दूसरे विष्वयुद्ध के बाद भी कोरियाई खाड़ी में जंग के हालात बने रहे और 1948 से शुरू हुई उत्तरी कोरिया व दक्षिण कोरिया की लड़ाई 1953 में जाकर रुकी लेकिन तब तक 35 लाख कोरियाई लोग अपनी जान खो चुके थे। उत्तरी कोरिया में सिर्फ़ चंद इमारतें ही साबुत बची थीं। समाजवाद के रास्ते पर चलने का निष्चय करने के बाद उत्तरी कोरिया को लगातार रूस और चीन का सहयोग मिलता रहा था। उधर दक्षिणी कोरिया को अमेरिका ने बड़े जतन से अपने खेमे में बनाये रखा, क्योंकि तत्कालीन सोवियत संघ और चीन जैसे दो ताक़तवर प्रतिद्वंद्वियों के बीच दक्षिणी कोरिया के रूप में उसे पूर्वी एषिया के भीतर वैसा ही सहयोगी हासिल हो रहा था जैसे मध्य एषिया के भीतर इज़राएल। अमेरिका के प्रति निष्ठा का फल दक्षिणी कोरिया को तमाम किस्म की माली और फौजी इमदाद के रूप में आज तक हासिल होता रहा है। दक्षिणी कोरिया की विस्मयकारी तरक्की में बहुत बड़ी भूमिका अमेरिका की रही है, यह सर्वज्ञाात तथ्य है। लेकिन बर्लिन की दीवार टूटने और सोवियत संघ के बिखरने से उत्तरी कोरिया के हालात बेहद नाजुक स्थिति में पहुँच गये।

मानवाधिकारवादी संगठन व एनजीओ उत्तरी कोरिया के हालातों की भयंकर तस्वीर खींचते हैं जहाँ लोग लोग तानाषाही में पिस रहे हैं, बच्चे भूख से मर रहे हैं और पूरा निजाम भ्रष्ट है और वो सिर्फ़ शासक के प्रति जवाबदेह है, न कि जनता के। जहाँ समाजवाद के नाम पर किस तरह की व्यवस्था उन्होंने बनायी है कि एक तरफ़ तो सारी खेती की ज़मीन राज्य की है व सहकारिता के आधार पर खेती होती है लेकिन जहाँ लोगों का जीवन स्तर बेहद खराब है, जहाँ उद्योग-धंधे लगाने और चलाने के लिए भले उर्जा की कमी है लेकिन मिसाइलें बनाने में वो इतना बड़ा विषेषज्ञ है कि उससे अमेरिका भी खौफ खाता है, जहाँ एक व्यक्ति को संविधान ने शाष्वत राष्ट्रपति का दर्जा देते हुए सामंतवाद की वंष परम्परा को भी स्वीकारा गया है।

दूसरे विष्वयुद्ध के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद व सोवियत समाजवाद के खेमों में बँटी दुनिया के बीच की अदृष्य रेखा को लौह परदे का नाम दिया गया था। तत्कालीन समाजवादी देषों की अंदरुनी खामियों, साम्राज्यवादी साज़िषों और सम्मोहक उपभोक्तावाद की वजह से लोहे का परदा भी तार-तार होता गया और बर्लिन की दीवार गिरने के साथ ही वो इतिहास में गर्क हो गया।

लेकिन पूरी तरह नहीं। क्यूबा और उत्तरी कोरिया के भीतर लाल रंग काबिज रहा। एक ओर क्यूबा ने जहाँ अपने छोटे से भौगोलिक वजूद के बावजूदअंतरराष्ट्रीय साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन को लगातार शक़्ल देने की कोषिष की, वहीं उत्तरी कोरिया ने अपने दरवाजे एक तरह से बाहरी दुनिया के लिए बंद कर लिए। रास्ता कौन सा सही है, ये तो सिर्फ़ इतिहास ही तय करता है लेकिन यह तो तय है कि आज भले ही क्यूबा और उत्तरी कोरिया अपने भौगोलिक विस्तार में बड़े देषों की तुलना में बहुत छोटे मुल्क हों, लेकिन वे उस छोटे से तिनके की तरह हैं जो साम्राज्यवादी देषों की आँखों में घुपकर उन्हें तिलमिलाने में सक्षम हैं।

मौजूदा परिस्थितियों में न तो चीन और न ही रूस उस तरह उत्तरी कोरिया के साथ आ सकते हैं जिस तरह कभी हुआ करते थे, लेकिन फिर भी उत्तरी कोरिया के पड़ोसी होने के नाते वे अच्छे से जानते हैं कि अगर उत्तरी कोरिया पर अमेरिका ने किसी तरह कब्जा कर लिया तो पूर्वी एषिया में अमेरिका की जड़ें और गहरी पकड़ बना लेंगी। इसलिए, जैसे भी हो सके, वे भी अमेरिका को इस क्षेत्र में और अधिक हस्तक्षेप के बहाने नहीं देना चाहते।

उत्तरी कोरिया के लौह परदे से हवा भी शासकों की मर्जी के बिना नहीं आती-जाती, इसलिए वो क्या सोचते हैं, पता नहीं चलता। लेकिन फिर भी जब चारों तरफ साम्राज्यवाद के आॅक्टोपसी पंजों की जकड़बंदी महसूस हो रही हो तो सोचा जा सकता है कि अपने आप में बंद रहने की रणनीति आत्मरक्षा के लिए अपनायी गयी होगी। साथ ही उत्तरी कोरिया के मई में किये गये परमाणु परीक्षणों ने विष्व के परमाणु सत्ता समीेरणों को भी प्रभावित किया है। ऐसे में, जब भारत जैसे बड़े देषों की राजनीतिक सत्ताएँ अमेरिकी वर्चस्ववाद के सामने घुटने टेक रही हों तो उत्तरी कोरिया जैसे छोटे से देष का यह निर्भीक कदम भारत सहित बहुत से अन्य देषों को भी उनकी गौरवषाली, उपनिवेषवाद विरोधी संघर्ष की परंपरा को याद दिलाता है।

बेषक उत्तरी कोरिया के परमाणु परीक्षणों ने पूर्वी एषिया ही नहीं, पूरी दुनिया में जंग के तनाव को बढ़ा दिया है; बेषक परमाणु हथियारों को किसी भी स्थिति में शांति के उपकरण नहीं कहा जा सकता और बेषक जंग सभ्य दुनिया में विवादों को हल करने का रास्ता नहीं होना चाहिए, लेकिन उत्तरी कोरिया के मामले में ये याद रखना ज़रूरी है कि एसके सामने जंग के हालात या परमाणु हथियार बनाने की परिस्थितियाँ पैदा करने की बड़ी जिम्मेदारी अमेरिका की है।


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विनीत तिवारी
2, चिनार अपार्टमेंट,
172, श्रीनगर एक्सटेंषन,
इन्दौर-452018 (म.प्र.)
मोबाइल-09893192740

4.11.09

लो क सं घ र्ष !: संप्रभुता से समझौता नहीं - उत्तरी कोरिया - 3

साम्राज्यवाद के घड़ियाली आँसू


दोनों पक्ष एक-दूसरे पर भरोसा नहीं जता रहे थे। नतीजतन, उत्तरी कोरिया ने अपने आपको आईएईए से अलग करने का इरादा ज़ाहिर किया। इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग तरह की समस्याओं के उभरने का खतरा था। तब तक बड़े बुष जा चुके थे और क्लिंटन महोदय राष्ट्रपति बन चुके थे। इराक पर किये गये पहले हमले की आलोचनाएँ थमी नहीं थीं और क्लिंटन सर्बिया में फौजी कार्रवाई करने की तैयारी में थे। उधर दक्षिण कोरिया व उत्तरी कोरिया की सीमा पर तनाव बढ़ रहा था। अमेरिकी फौजें तो दक्षिण कोरिया में 1950 से ही डेरा डाले हुए हैं। क़रीब 30 हजार अमेरिकी फौजी समुंदर, ज़मीन और आसमान में दक्षिण कोरिया की सुरक्षा के लिए हर वक्त उसी ज़मीन पर मौजूद रहते हैं। उत्तर कोरिया की परमाणु हथियार बनाने की सरगर्म ख़बरों की वजह से कोरियाई खाड़ी में युद्ध जैसे हालात बन गये थे। क्लिंटन के विषेषज्ञ सलाहकारों ने युद्ध छिड़ने की स्थिति में भीषण नरसंहार की चेतावनियाँ दी थीं।

इन परिस्थितियों में उत्तरी कोरिया के साथ टकराव की स्थिति अमेरिका के लिए अनुकूल न लगती देख तत्कालीन राष्ट्रपति क्लिंटन ने शांति का कोई रास्ता निकालने के लिए पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर को जून 1994 में उत्तरी कोरिया भेजा था। क्लिंटन की हालिया यात्रा की तरह ही वो यात्रा भी आधिकारिक और सरकारी नहीं थी, लेकिन उस गैर आधिकारिक यात्रा में ही उस संधि के बीज छिपे थे जिसे एग्रीड फ्रेमवर्क ;।हतममक थ्तंउमूवताद्ध समझौते के नाम से जाना जाता है। प्रमुख रूप से उस संधि के मुताबिक उत्तर कोरिया ने अपने कुछ परमाणु अनुसंधानों को रोकने और योंगब्योन स्थित प्लूटोनियम आधारित रिएक्टर को बंद करने की सहमति दी थी। उत्तरी कोरिया के मुताबिक उसके वैज्ञानिकों ने ग्रेफाइट आधारित रिएक्टर बनाने की तकनीक विकसित कर ली थी और हालाँकि वो तकनीक हल्के जल वाले रिएक्टरों की तुलना में कम दक्ष भले ही थी लेकिन ग्रेफाइट की उपलब्धता उत्तरी कोरिया में पर्याप्त मात्रा में होने से वे उसी पर आगे अनुसंधान कर रहे थे। समझौता यह भी था कि यदि उहें हल्के जल वाले रिएक्टर हासिल होते हैं तो वे ग्रेफाइट वाले रिएक्टर बंद कर देंगे। अमेरिका ने इसी समझौते में यह वादा किया कि वो उत्तर कोरिया को दो हल्के जल वाले रिएक्टर देगा, पिछले 50 वर्षों से उत्तर कोरिया पर लगे तमाम आर्थिक व राजनीतिक प्रतिबंधों को भी हटा लिया जाएगा, और साथ ही नये रिएक्टरों के निर्माण के दौरान उत्तरी कोरिया की उर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अमेरिका ने पहले रिएक्टर के बनने तक उत्तरी कोरिया को 5 लाख मीट्रिक टन भारी तेल की सालाना आपूर्ति का वादा भी किया था। उत्तरी कोरिया ने समझौते के मुताबिक अपने ग्रेफाइट से चलने वाले रिएक्टर को नष्ट कर दिया। आईएईए ने भी निरीक्षण कर उत्तरी कोरिया के इस कदम पर संतोष ज़ाहिर कर दिया लेकिन अमेरिका ने उत्तरी कोरिया से किये हुए अपने किसी वादे पर अमल नहीं किया-न आधी सदी से चले आ रहे आर्थिक प्रतिबंध हटाये गये और न ही भारी तेल की पूरी आपूर्ति की गयी। उल्टे 1996 में अमेरिका ने उत्तरी कोरिया पर नये मिसाइल प्रतिबंध लगा डाले। इसके चलते उत्तरी कोरिया ने अपनी मिसाइल परीक्षण की योजना को रद्द कर दिया। पूरे चार साल इसी तरह खींचतान में गुजर गये। फिर 1998 में दक्षिण कोरिया में किम दे जुंग के राष्ट्रपति काल में कोरियाई भूभाग पर शांति प्रक्रिया को फिर गति मिली और दोनों देषों के बीच जमी बर्फ पिघली। कई मौकों पर जुंग ने अपने अमेरिकी सहयोगियों को उत्तरी कोरिया पर अपने फर्क ज़ाहिर कर नाराज़ भी किया। लेकिन अमेरिकी उपस्थिति से न तो उत्तरी कोरिया पूरी तरह दक्षिण कोरिया की मंषाओं पर यकीन कर सकता था और पूँजीवादी रास्ते से ही तरक्की हासिल कर सके दक्षिण कोरिया को भी उत्तरी कोरिया के लाल झण्डे पर पूरा ऐतबार होना मुष्किल ही था। हालाँकि वो प्रक्रिया किसी नतीजे पर तो नहीं पहुँच सकी लेकिन उसके निर्माता किम दे जुंग को शांति का नोबल ज़रूर दिया गया।

बाद में 2001 में बिल क्लिंटन के पद से हटने व जूनियर बुष के सत्ता में आने और 2003 में किम दे जुंग के राष्ट्रपति काल की समाप्ति से ये प्रक्रियाएँ धीरे-धीरे षिथिल पड़ती गयीं। जाॅर्ज डब्ल्यू. बुष ने सत्ता में आते ही उत्तरी कोरिया के बारे में नरम रवैया छोड़ कर वही पारंपरिक नज़रिया अपनाया जो उनके पिता जाॅर्ज एच. बुष और उनके भी पहले से चला आ रहा था। उत्तरी कोरिया द्वारा मई में किये गये परमाणु परीक्षणों के बाद फिर से सीमाओं पर मिसाइलें और बंदूकें तनी हुई हैं।

जूनियर बुष के सत्ता में आने के आठ महीने के भीतर ही 11 सितंबर 2001 का वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमला हुआ और उसकी आड़ लेकर बुष प्रषासन ने उन सभी को ठिकाने लगाने की योजनाओं पर सुनियोजित ढंग से अमल शुरू कर दिया जो किसी भी तरह अमेरिकी साम्राज्यवाद के वर्चस्व को चुनौती दे रहे थे और झुकने से इन्कार कर रहे थे। दुनिया से आतंकवाद के सफाये का नाम देकर साम्राज्यवादी आतंक का जो कहर सारी दुनिया के कमज़ोर देषों पर उस दौरान बरपाया गया, उसके सामने हिरोषिमा और नागासाकी की अमेरिकी बर्बरताएँ भी पीछे रह गयीं। यूँ तो बुष प्रषासन के सामने अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, इराक, सीरिया, लीबिया, क्यूबा, वेनेजुएला, नेपाल, पेरू, मेक्सिको, ब्राजील, फ़िलिस्तीन, लेबनान, सूडान सहित 50-60 देषों को सबक सिखाने का लक्ष्य था लेकिन 29 जनवरी 2003 को दिये गये अपने भाषण में बुष ने ‘‘शैतान की धुरी’’ कहते हुए तीन देषों पर ख़ास नज़रे इनायत बख़्षी। ये तीन देष थे - उत्तरी कोरिया, ईरान और इराक़।

यूँ इन तीनों देषों में कोई समानता नहीं थी सिवाय इसके कि ये तीनों ही देष अमेरिका की दादागिरी मानकर अपने घुटने टेकने को तैयार नहीं थे और तीनों ही सामरिक दृष्टि से अमेरिका की सर्वषक्तिमान बनने की राह में बाधा बन सकते थे।

इराक़ को सबसे पहले निषाना बनाया गया। बहाना बनाया गया उसके पास जनसंहारक हथियारों की संभावित मौजूदगी का, जबकि अंतरराष्ट्रीय निरीक्षण दल भी इराक़ के निरीक्षण के बाद वहाँ ऐसे किन्हीं हथियारों की मौजूदगी की संभावना से इन्कार कर चुका था। फिर भी बुष महोदय ने वहाँ हमला किया, राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को फाँसी पर लटकाया गया, लाखों निर्दोषों का क़त्लेआम किया गया जो अब तक जारी है।

मध्य एषिया में इराक़ को बारूद के ढेर में बदल देने के बाद फ़िलिस्तीन और ईरान ही अमेरिका की ‘‘तेल लूट परियोजना’’ की रुकावट हो सकते हैं। फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध की कमर तोड़ने के लिए अमेरिका का वफ़ादार इज़राएल वहाँ मौजूद है ही। ईरान के मामले में हालात थोड़े जुदा हैं। एक बड़ा मुल्क होने और वहाँ राष्ट्रपति अहमदीनेजाद की लोकप्रिय अमेरिका विरोधी सरकार के होने से अमेरिका सही मौके की ताक में है। वो इराक़ जैसा लंबा प्रतिरोध झेलने के लिए तैयार नहीं है। इल्जाम ईरान पर भी यही लगाया गया है कि उसके पास जनसंहारक क्षमता वाले हथियार मौजूद हैं और वो परमाणु हथियार बनाने की साज़िष कर रहा है। हालाँकि इराक़ की ही तरह अब तक इसका कोई सबूत नहीं पेष किया जा सका है फिर भी इन अमेरिकी बहानों की असलियत सभी जानते हैं।

इन तीनों देषों में से एक उत्तरी कोरिया ही ऐसा देष है जिसने अपने पास परमाणु हथियार होने की न केवल ठोक-बजाकर घोषणा की है बल्कि साथ ही यह भी कहा है कि वो अपना हथियार पहले नहीं इस्तेमाल करेगा, लेकिन अगर अमेरिका देष की सुरक्षा पर हमला करता है तो वो चुप नहीं रहेगा। उत्तरी कोरिया जैसे छोटे से देष का यह रवैया ‘आ बैल, मुझे मार’ जैसा भले नज़र आता हो, लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विष्लेषकों के इस संकेत को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता कि अब तक जितने भी देषों पर अमेरिका ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हमले किये या करवाये हैं उनमें से एक भी देष परमाणु शक्ति संपन्न देष नहीं था। दूसरे शब्दों में, अमेरिका किसी परमाणु शक्ति संपन्न देष से भिड़ने का खतरा नहीं उठाना चाहेगा।

विनीत तिवारी