साम्राज्यवाद के घड़ियाली आँसू
दोनों पक्ष एक-दूसरे पर भरोसा नहीं जता रहे थे। नतीजतन, उत्तरी कोरिया ने अपने आपको आईएईए से अलग करने का इरादा ज़ाहिर किया। इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग तरह की समस्याओं के उभरने का खतरा था। तब तक बड़े बुष जा चुके थे और क्लिंटन महोदय राष्ट्रपति बन चुके थे। इराक पर किये गये पहले हमले की आलोचनाएँ थमी नहीं थीं और क्लिंटन सर्बिया में फौजी कार्रवाई करने की तैयारी में थे। उधर दक्षिण कोरिया व उत्तरी कोरिया की सीमा पर तनाव बढ़ रहा था। अमेरिकी फौजें तो दक्षिण कोरिया में 1950 से ही डेरा डाले हुए हैं। क़रीब 30 हजार अमेरिकी फौजी समुंदर, ज़मीन और आसमान में दक्षिण कोरिया की सुरक्षा के लिए हर वक्त उसी ज़मीन पर मौजूद रहते हैं। उत्तर कोरिया की परमाणु हथियार बनाने की सरगर्म ख़बरों की वजह से कोरियाई खाड़ी में युद्ध जैसे हालात बन गये थे। क्लिंटन के विषेषज्ञ सलाहकारों ने युद्ध छिड़ने की स्थिति में भीषण नरसंहार की चेतावनियाँ दी थीं।
इन परिस्थितियों में उत्तरी कोरिया के साथ टकराव की स्थिति अमेरिका के लिए अनुकूल न लगती देख तत्कालीन राष्ट्रपति क्लिंटन ने शांति का कोई रास्ता निकालने के लिए पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर को जून 1994 में उत्तरी कोरिया भेजा था। क्लिंटन की हालिया यात्रा की तरह ही वो यात्रा भी आधिकारिक और सरकारी नहीं थी, लेकिन उस गैर आधिकारिक यात्रा में ही उस संधि के बीज छिपे थे जिसे एग्रीड फ्रेमवर्क ;।हतममक थ्तंउमूवताद्ध समझौते के नाम से जाना जाता है। प्रमुख रूप से उस संधि के मुताबिक उत्तर कोरिया ने अपने कुछ परमाणु अनुसंधानों को रोकने और योंगब्योन स्थित प्लूटोनियम आधारित रिएक्टर को बंद करने की सहमति दी थी। उत्तरी कोरिया के मुताबिक उसके वैज्ञानिकों ने ग्रेफाइट आधारित रिएक्टर बनाने की तकनीक विकसित कर ली थी और हालाँकि वो तकनीक हल्के जल वाले रिएक्टरों की तुलना में कम दक्ष भले ही थी लेकिन ग्रेफाइट की उपलब्धता उत्तरी कोरिया में पर्याप्त मात्रा में होने से वे उसी पर आगे अनुसंधान कर रहे थे। समझौता यह भी था कि यदि उहें हल्के जल वाले रिएक्टर हासिल होते हैं तो वे ग्रेफाइट वाले रिएक्टर बंद कर देंगे। अमेरिका ने इसी समझौते में यह वादा किया कि वो उत्तर कोरिया को दो हल्के जल वाले रिएक्टर देगा, पिछले 50 वर्षों से उत्तर कोरिया पर लगे तमाम आर्थिक व राजनीतिक प्रतिबंधों को भी हटा लिया जाएगा, और साथ ही नये रिएक्टरों के निर्माण के दौरान उत्तरी कोरिया की उर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अमेरिका ने पहले रिएक्टर के बनने तक उत्तरी कोरिया को 5 लाख मीट्रिक टन भारी तेल की सालाना आपूर्ति का वादा भी किया था। उत्तरी कोरिया ने समझौते के मुताबिक अपने ग्रेफाइट से चलने वाले रिएक्टर को नष्ट कर दिया। आईएईए ने भी निरीक्षण कर उत्तरी कोरिया के इस कदम पर संतोष ज़ाहिर कर दिया लेकिन अमेरिका ने उत्तरी कोरिया से किये हुए अपने किसी वादे पर अमल नहीं किया-न आधी सदी से चले आ रहे आर्थिक प्रतिबंध हटाये गये और न ही भारी तेल की पूरी आपूर्ति की गयी। उल्टे 1996 में अमेरिका ने उत्तरी कोरिया पर नये मिसाइल प्रतिबंध लगा डाले। इसके चलते उत्तरी कोरिया ने अपनी मिसाइल परीक्षण की योजना को रद्द कर दिया। पूरे चार साल इसी तरह खींचतान में गुजर गये। फिर 1998 में दक्षिण कोरिया में किम दे जुंग के राष्ट्रपति काल में कोरियाई भूभाग पर शांति प्रक्रिया को फिर गति मिली और दोनों देषों के बीच जमी बर्फ पिघली। कई मौकों पर जुंग ने अपने अमेरिकी सहयोगियों को उत्तरी कोरिया पर अपने फर्क ज़ाहिर कर नाराज़ भी किया। लेकिन अमेरिकी उपस्थिति से न तो उत्तरी कोरिया पूरी तरह दक्षिण कोरिया की मंषाओं पर यकीन कर सकता था और पूँजीवादी रास्ते से ही तरक्की हासिल कर सके दक्षिण कोरिया को भी उत्तरी कोरिया के लाल झण्डे पर पूरा ऐतबार होना मुष्किल ही था। हालाँकि वो प्रक्रिया किसी नतीजे पर तो नहीं पहुँच सकी लेकिन उसके निर्माता किम दे जुंग को शांति का नोबल ज़रूर दिया गया।
बाद में 2001 में बिल क्लिंटन के पद से हटने व जूनियर बुष के सत्ता में आने और 2003 में किम दे जुंग के राष्ट्रपति काल की समाप्ति से ये प्रक्रियाएँ धीरे-धीरे षिथिल पड़ती गयीं। जाॅर्ज डब्ल्यू. बुष ने सत्ता में आते ही उत्तरी कोरिया के बारे में नरम रवैया छोड़ कर वही पारंपरिक नज़रिया अपनाया जो उनके पिता जाॅर्ज एच. बुष और उनके भी पहले से चला आ रहा था। उत्तरी कोरिया द्वारा मई में किये गये परमाणु परीक्षणों के बाद फिर से सीमाओं पर मिसाइलें और बंदूकें तनी हुई हैं।
जूनियर बुष के सत्ता में आने के आठ महीने के भीतर ही 11 सितंबर 2001 का वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमला हुआ और उसकी आड़ लेकर बुष प्रषासन ने उन सभी को ठिकाने लगाने की योजनाओं पर सुनियोजित ढंग से अमल शुरू कर दिया जो किसी भी तरह अमेरिकी साम्राज्यवाद के वर्चस्व को चुनौती दे रहे थे और झुकने से इन्कार कर रहे थे। दुनिया से आतंकवाद के सफाये का नाम देकर साम्राज्यवादी आतंक का जो कहर सारी दुनिया के कमज़ोर देषों पर उस दौरान बरपाया गया, उसके सामने हिरोषिमा और नागासाकी की अमेरिकी बर्बरताएँ भी पीछे रह गयीं। यूँ तो बुष प्रषासन के सामने अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, इराक, सीरिया, लीबिया, क्यूबा, वेनेजुएला, नेपाल, पेरू, मेक्सिको, ब्राजील, फ़िलिस्तीन, लेबनान, सूडान सहित 50-60 देषों को सबक सिखाने का लक्ष्य था लेकिन 29 जनवरी 2003 को दिये गये अपने भाषण में बुष ने ‘‘शैतान की धुरी’’ कहते हुए तीन देषों पर ख़ास नज़रे इनायत बख़्षी। ये तीन देष थे - उत्तरी कोरिया, ईरान और इराक़।
यूँ इन तीनों देषों में कोई समानता नहीं थी सिवाय इसके कि ये तीनों ही देष अमेरिका की दादागिरी मानकर अपने घुटने टेकने को तैयार नहीं थे और तीनों ही सामरिक दृष्टि से अमेरिका की सर्वषक्तिमान बनने की राह में बाधा बन सकते थे।
इराक़ को सबसे पहले निषाना बनाया गया। बहाना बनाया गया उसके पास जनसंहारक हथियारों की संभावित मौजूदगी का, जबकि अंतरराष्ट्रीय निरीक्षण दल भी इराक़ के निरीक्षण के बाद वहाँ ऐसे किन्हीं हथियारों की मौजूदगी की संभावना से इन्कार कर चुका था। फिर भी बुष महोदय ने वहाँ हमला किया, राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को फाँसी पर लटकाया गया, लाखों निर्दोषों का क़त्लेआम किया गया जो अब तक जारी है।
मध्य एषिया में इराक़ को बारूद के ढेर में बदल देने के बाद फ़िलिस्तीन और ईरान ही अमेरिका की ‘‘तेल लूट परियोजना’’ की रुकावट हो सकते हैं। फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध की कमर तोड़ने के लिए अमेरिका का वफ़ादार इज़राएल वहाँ मौजूद है ही। ईरान के मामले में हालात थोड़े जुदा हैं। एक बड़ा मुल्क होने और वहाँ राष्ट्रपति अहमदीनेजाद की लोकप्रिय अमेरिका विरोधी सरकार के होने से अमेरिका सही मौके की ताक में है। वो इराक़ जैसा लंबा प्रतिरोध झेलने के लिए तैयार नहीं है। इल्जाम ईरान पर भी यही लगाया गया है कि उसके पास जनसंहारक क्षमता वाले हथियार मौजूद हैं और वो परमाणु हथियार बनाने की साज़िष कर रहा है। हालाँकि इराक़ की ही तरह अब तक इसका कोई सबूत नहीं पेष किया जा सका है फिर भी इन अमेरिकी बहानों की असलियत सभी जानते हैं।
इन तीनों देषों में से एक उत्तरी कोरिया ही ऐसा देष है जिसने अपने पास परमाणु हथियार होने की न केवल ठोक-बजाकर घोषणा की है बल्कि साथ ही यह भी कहा है कि वो अपना हथियार पहले नहीं इस्तेमाल करेगा, लेकिन अगर अमेरिका देष की सुरक्षा पर हमला करता है तो वो चुप नहीं रहेगा। उत्तरी कोरिया जैसे छोटे से देष का यह रवैया ‘आ बैल, मुझे मार’ जैसा भले नज़र आता हो, लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विष्लेषकों के इस संकेत को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता कि अब तक जितने भी देषों पर अमेरिका ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हमले किये या करवाये हैं उनमें से एक भी देष परमाणु शक्ति संपन्न देष नहीं था। दूसरे शब्दों में, अमेरिका किसी परमाणु शक्ति संपन्न देष से भिड़ने का खतरा नहीं उठाना चाहेगा।
विनीत तिवारी