2:17 pm
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ऋषिकेश (प्रैसवार्ता) ऋषिकेश का नाम भारत में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में जाना जाता है। ऋषिकेश पूर्व में हषिकेश के नाम से जाना जाता था। ऋषिकेश का इतिहास पौराणिक ग्रंथों में आज भी पढऩे को मिलता है। ऋषिकेश ऋषि-मुनियों की तपस्थलियों के नाम से भी जाना जाता है, जहां आज भी ऋषिमुनि गंगा तट के किनारे तप कर कई सिद्धियों को प्राप्त करते हैं। ऋषिकेश की सीमा चार जिलों से घिरी हुई है जिनमें पौड़ी, नई टिहरी, हरिद्वार व देहरादून शामिल हैं। यहीं से विश्व प्रसिद्ध चारधाम श्री बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री सहित हेमकुण्ट साहिब की यात्रा शुरू होती है। ऋषिकेश में पौराणिक भारत भगवान का मंदिर, भैरो मंदिर, काली मंदिर, चन्द्रशेखर सिद्धपीठ, नीलकंठ महादेव सोमेश्वर महादेव, वीरभद्र महादेव व सिद्धपीठ हनुमान जी की आज भी देश एवं विदेश से पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है, जिससे देश-विदेशों में प्रतिवर्ष कई लाखों की संख्या श्रद्धालु इन सिद्धपीठों के दर्शन कर पुण्य कमाते हैं। वहीं ऋषिकेश में मनोकामना सिद्ध मां गंगा की अविरल धारा बहकर गंगा सागर तक पहुंचती है, जिसमें प्रतिदिन लाखों की संख्या में लोग स्नान कर पुण्य अर्जित करते हैं। ऋषिकेश में रामझूला लक्ष्मण झूला, गीता भवन, परमार्थ निकेतन, 13 मंजिल मंदिर सहित अन्य रमणीक स्थलों पर लाखों की संख्या में देश-विदेश पर्यटक दर्शनों के लिए पहुंचते हैं। तीन माह बाद हरिद्वार-ऋषिकेश में महाकुंभ मेले का आयोजन होने जा रहा है, जिसमें करीब 15 से 20 करोड़ श्रद्धालुओं के आने की संभावना है, श्रद्धालु महाकुंभ में हरिद्वार हरकी पैड़ी पर स्नान कर पुण्य अर्जित करते हैं। कहा जाता है कि हरकी पैड़ी पर समुद्र मंथन के समय जब देवगणों और राक्षसों को अमृत बंट रहा था, तब कुछ अमृत हरकी पैड़ी पर बह रही गंगा की अविरल धारा में गि गया था, जिसके कारण हरकी पैड़ी इस विशेष स्थान पर स्नान करने से श्रद्धालु पुण्य अर्जित करते हैं। ऋषिकेश से करीब 15 किमी. नीलकंठ महादेव का सिद्ध मंदिर भी है, जहां पर सावन के माह में लोग लाखों की संख्या में पहुंचकर शिवलिंग पर जल चढ़ाकर पुण्य लाभ कमाते हैं। कहा जाता है कि महादेव ने जब विष धारण कर लिया था तो वह नीलकंठ पर्वत पर आकर तपस्या करने लगे, इसीलिए इस मंदिर को नीलकंठ महादेव के नाम से जाना जाता है। नीलकंठ महादेव में अब तो बारहों महीने ही श्रद्धालु शिवलिंग पर जल चढ़ाकर दर्शन करने आते हैं, लेकिन सावन के महीने में नीलकंठ महादेव पर जल चढ़ाने का पुण्य लाभ अधिक मिलता है। ऋषिकेश में स्थित त्रिवेणी घाट पर गंगा-यमुना-सरस्वती का संगम भी होता है जिसे देखने के लिए देश-विदेशों से लाखों की संख्या में पर्यटक पहुंचकर आनंद उठाते हैं, त्रिवेणी घट पर इस संगम का अद्भुत नजारा पर्यटकों को बरबस ही अपनी ओर खींच लेता है। वहीं मां गंगा तट के किनारे शाम के समय जब श्री गंगा सेवा समिति द्वारा आरती की जाती है तो मां गंगा के जंगल के तटीय क्षेत्र में हिरन, मोर, हाथियों का झुंड आकर गंगा जल ग्रहण करता है व मां गंगा की हो रही आरती का अनुभव महसूस करता है। यह नजारा देख पर्यटक मुग्ध हो जाते हैं और मां गंगा को प्रणाम करते हैं।
2:15 pm
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नई दिल्ली (प्रैसवार्ता) 'मन तड़पत हरि दर्शन को और ओ दुनिया के रखवाले जैसे गीतों को अपनी मखमली आवाज से अमर बनाने वाले मोहम्मद रफी को दरअसल ये गीत उनके निव्र्यसनी होने की वजह से मिले थे और आज भी नए गायकों के लिए ये गीत प्रतिभा की असल कसौटी बने हुए हैं। मशहूर संगीतकार नौशाद अपने अधिकतम गीत तलत महमूद से गवाते थे। एक बार उन्होंने रिकार्डिंग के दौरान तलत महमूद को सिगरेट पीते देख लिया था। इससे चिढ़कर उन्होंने फिल्म बैजू बावरा के लिए मोहम्मद रफी को साइन कर लिया। रफी के बारे में माना जाता था कि वह कट्टर मुसलमान थे और सिगरेट शराब तथा किसी भी तरह के नशे से दूर ही रहा करते थे। इन गीतों ने मोहम्मद रफी को और प्रसिद्ध बना दिया और उनकी गायकी ने नौशाद पर ऐसा जादू किया कि वह उनके पसंदीदा गायक बन गए। इसके बाद नौशाद ने लगभग सभी गानों के लिए मोहम्मद रफी को बुलाया। रफी ने नौशाद के लिए 149 गाने गाए हैं जिनमें से 81 गाने उन्होंने अकेले गाए हैं। नौशाद शुरू में रफी से कोरस गाने गवाते थे। गीतों के जादूगर ने नौशाद के लिए पहला गाना ए आर करदार की फिल्म पहले आप (1944) के लिए गाया था। इसी समय उन्होंने कि गांव की 'गोरीÓ फिल्म के लिए अजी दिल हो काबू में नामक गाना गाया। मोहम्मद रफी इस गाने को हिंदी भाषा की फिल्मों के लिए अपना पहला गाना मानते थे। सुरों के बेताज बादशाह रफी को 1960 में चौदहवीं का चांद हो या गाने के लिए पहली बार फिल्म फेयर पुरस्कार मिला था। उन्हें 1968 में 'बाबुल की दुआएं लेती जा' के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया था। इन दोनों का संगीत रवि ने दिया था। रफी को सर्वश्रेष्इ पाश्र्च गायक का फिल्मफेयर पुरस्कार छह बार मिला। इसके अलावा उन्हें दो बार सर्वश्रेष्ठ पाश्र्चगायक के राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। 1950 और 1960 के दशक में मोहम्मद रफी कई संगीतकारों के पंसदीदा गायक बन गए। इनमें ओ.पी. नैयर शंकर जयकिशन तथा सचिनदेव बर्मन मुख्य हैं। एस डी बर्मन ने 50 और 60 के दशक में रफी को एक समय देवानंद की आवाज बना दिया था। ' दिन ढल जाएÓ, तेरे मेरे सपने, या हर फिक्र को धुंए में उड़ाता, जैसे गीतों को कौन भूल सकता है। ओ.पी. नैयर तो रफी से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने गायक तथा अभिनेता किशोर कुमार की फिल्म 'रागिनी' के लिए मोहम्मद रफी से मन मोरा बावरा नामक गाना गवाया। इसके बाद रफी किशोर कुमार के लिए कई अन्य फिल्मों में भी गाने गाए। नैयर ने रफी से 97 गाने गवाए। इनमें से रफी ने 56 गाने अकेले गाए हैं। इनमें नया दौर 'तुमसा नहीं देखा' तथा कश्मीर की कली नामक हिट फिल्में और उनके हिट गीत शामिल हैं। शंकर जयकिशन के सबसे पसंदीदा गायक बन चुके मोहम्मद रफी ने उनके लिए 341 गाने गाए। इन गानों में से 216 ऐसे गाने थे जिन्हें रफी ने अकेले गाया था। रफी के बारे में एक दिलचस्प वाकया है जब वह अपने भाई हमीद के साथ एक बार के एल सहगल के कार्यक्रम में शिरकत करने गए थे। बत्ती चले जाने के बाद सहगल ने कार्यक्रम में गाने से इनकार कर दिया। इसके बाद इनके भाई हमीद ने आयोजकों को कहा कि उनका भाई इस कार्यक्रम में गाकर भीड़ को शांत करा सकता है। बालक रफी (13) का यह पहला सार्वजनिक कार्यक्रम था। इसके बाद उन्होंने बुलंदियों की राह पकड़ी और गीतों के बेताज बादशाह बन गए। लाहौर रेडियो स्टेशन से उनके लिए स्थाई गायक का भी प्रस्ताव आया था। मोहम्मद रफी ने 11 भारतीय भाषाओं में तरकीबन 28 हजार गाने गाए। रफी के प्रशंसकों का मानना है कि उन्होंने 28 हजार से अधिक गाने गाए हैं। एक अनुमान के मुताबिक इनमें से चार हजार 516 हिंदी गाने हैं। सुरों का पर्याय बन चुका यह कलाकार आज ही के दिन हमें छोड़ कर सदा के लिए चला गया। उनके बारे में किसी गीतकार ने ठीक ही लिखा है, न फनकार तुझसा तेरे बाद आया, मुहम्मद रफी तू बहुत यादा आया।
2:14 pm
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रूड़की (प्रैसवार्ता) दीपावली पर हर कोई चाहता है कि उसके घर लक्ष्मी आए, जिसके लिए लोग श्रद्धाभाव के साथ पूजा अर्चना करते हैं। घरों की साफ-सफाई कर रोशन के द्वारा लक्ष्मी जी को खुश करने का प्रयास किया जाता है, लेकिन लक्ष्मी की सवारी उल्लू की तरफ कोई तरफ कोई ध्यान नहीं देता, जब उल्लू ही नहीं रहेंगे तो लक्ष्मी जी आएंगी कैसे। पहले हर गांव-शहर के पुराने वृक्षों की खोखर उल्लू का आशियान हुआ करते थे। उल्लूओं का वृक्षों की साख पर बैठना आम बात हुआ करती थी। कहावत भी है हर साख पर उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्ता क्या होगा, लेकिन आज उल्लू गर्दिश में है। जब से तंत्र-मंत्र और काले जादू के नाम पर उल्लूओं का अवैध व्यापार होने लगा है तब से लक्ष्मी के वाहन उल्लू पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। कई ऐसे तांत्रिक हैं जो पूजा-पाठ के लिए उल्लू के शारीरिक अवशेषों के इस्तेमाल की सलाह देकर इस दुर्लभ जीव का अस्तित्व मिटाने में लगे हैं। प्रकृति मित्र दिवाकर की माने तो भारत के साथ-साथ नेपाल, पाकिस्तान, भूटान, बंगलादेश और दक्षिण पूर्वोत्तर देशों में काले जादू के लिए उल्लूओं की मांग की जाती है। पाकिस्तान बार्डर अटारी क्षेत्र, अमृतसर, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, आसाम, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र में विभिन्न जगहों पर उल्लुओं की अवैध तरीके से तस्करी की जाती है। इसी तस्करी और उनके शिकार के कारण उल्लू की जान खतरे में हैं। अब आप ही बताईए उल्लू यानी लक्ष्मी के वाहन की जान खतरे में हो तो लक्ष्मी कैसे प्रसन्न हो सकती है। वन्य तस्कर अधिकतर मटमैले रंगे के उल्लू का ही शिकार करते हैं। कुछ लोगों में यह भ्रांति है कि उल्लू के खून से न्यूकोडरमा, अस्थमा व नपुंसकता का इलाज हो सकता है, लेकिन इसमें वैज्ञानिक स्तर पर कोई सच्चाई नहीं है। काले जादू के लिए धनई व ब्राउन फिश उल्लू का ही उपयोग किया जाना बताया गया है। उल्लू को पकडऩे के लिए शिकारी गोंद लगी लम्बी डंडी का प्रयोग करता है। इस प्रक्रिया में 50 प्रतिशत उल्लू डर व सदमे के कारण मौके पर ही मर जाते हैं, जबकि शेष बचे उल्लूओं में भी 40 प्रतिशत उल्लू एक सप्ताह में दम तोड़ देते हैं। ऐसे में लक्ष्मी के वाहन उल्लू की संख्या लगातार कम हो रही है। इसी कारण उल्लू अब दिखाई पडऩे बंद हो गए हैं। उल्लू को संस्कृत में उल्लूक, नत्रचारी, दिवांधधर्धर, बंगाली में पेचक, अरबी में बूम, लेटिन में आथेनेब्रामा इण्डिा नाम से जाना जाता है, वहीं उल्लू को कुचकुचवा, खूसट, कुम्हार का डिंगरा, धुधना व घुग्घु भी कहा जाता है। उल्लू की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह अपना सिर 160 कोण से भी अधिक घुमा सकता है। निशाचार पक्षी होने के कारण उल्लू चूहे व खरगोश आदि खाकर अपना पेट भरता है।
2:13 pm
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मेहमान सभी के यहां आते हैं। कुछ खास और कुछ लागे लगाए के, लेकिन खातिर-तवज्जो तो सभी मेहमानों की करनी होती है। दरअसल मेहमान नवाजी में सभी लोगों को खुशी ही मिलती है, क्योंकि इसी से पता लगता है कि भाई इनके भी कोई है। इसी भावना से कुछ ऐसे लोग अपनी नाक ऊंची किए घूमते रहते हैं, जिनके घर में खूब मेहमान आते हैं। अब मेहमानों की क्या है, जितना अधिक दोस्तों और परिचितों का दायरा होगा, उतनी ही अधिक संख्या में मेहमान भी आएंगे घर में। बहुत सारे लोग ऐसे भी मिल जाते हैं जिनमें यह सब खूबियां नहीं होती। यानिकि सीमित परिवार और दोस्त रिश्तेदार तो फिर उनके यहां मेहमान भी उंगलियों पर गिने चुने ही आने चाहिए। ऐसा होता भी है, लेकिन जनाब ये चंट लोग अक्सर ही यही कह कर अपना पिंड छुड़ा लेते हैं और अपना चेहरा साफ किए रहते हैं? क्या करें, हम तो कारोबारी लोग हैं। कहीं आने जाने की फुर्सत ही नहीं मिलती। उनका मतलब यह कि जब वे किसी के यहां नहीं जा पाते तो, फिर कोई उनके यहां क्या खाक आए। तो साहब समाज के कुछ कारोबारी और तराजू के कमाल से फलने फूलने वाले भाई लोगों ने अपने घरों में हमेशा न सही तो कम से कम किसी काम-काज या संस्कार के अवसर पर ही मेहमानों की भीड़ जुटाने का एक और तरीका ईजाद कर रखा है। मेहमान यानी कि खास मेहमान कम हैं तो क्या, वे थोक में कार्ड छपवा कर अपने ग्राहकों में ही बंटवा देते हैं। यदि पूरे न सही तो पचीस प्रतिशत ग्राहक आएंगे ही। व्यवहार का लिफाफा हाथों में लहराते हुए अपनी फीकी मुस्कानों के साथ आयोजक के हाथ में उसे सौंप ही जाएंगे, फिर आयोजक भाई अपनी बनियागिरी का हिसाब लगाते और गदगद होते लोगों से यही हांकते नजर आएंगे, अरे मेरे मुन्ने के मुंडन में तो छ: हजार रुपए का व्यवहार आया। तो साहब यह तो हुई व्यवहार की बात, लेकिन असली मुद्दा था मेहमानों का। तो मेहमाननवाजी भी कोई एकतरफा थोड़े ही करता है। कुछ ही समय बाद वह भी सवाई समेत वसूल लेता है। मेहमान भाई अकेले आए थे तो अपने राम पूरे परिवार के साथ मेहमानी कर आए, वह भी पूरे एक हफ्ते तक। जब लौटे तब तक मेहमाननवाजी करने वाले भाई पीले पडऩे लगे थे। आजकल महंगाई का जमाना है, तो मेहमान की आकांक्षा भी कम ही लोग खुशी-खुशी करते हैं। लेकिन जिस तरह बीमारी-हारी आने के लिए कुछ भी नहीं देखती, उसी प्रकार मेहमान भाई भी तंगी-तंगी नहीं देखते। बस धर धमकते हैं। आएंगे तो कऊछ न कुछ तो मिलेगा ही छानने के लिए चाहे घर में पहले ही छन्ना लगा हो। वैसे कुछ चालाक और होशियार मेहमान भी होते हैं। वे पार्टी देखकर या उनकी माली हालत देखकर ही उनके यहां मेहमानी करते हैं। यार वो मिश्रा जी, वहीं वो गढ़ी कनौसी वाले उनके यहां तो मुंह बांध के सेवा होता है। नहीं जाना उनके यहां मेहमानी करने। जब जाओ बस सत्तू पिला देते हैं। लेकिन फिर कहां चलें। अपना मेहमानी का राउन्ड तो पूरा हो चुका। अच्छा उस घर फूंक तमाशा देखने वाले मधोभाई के यहां फिर से चलते हैं। इस तरह आनन फानन में मेहमानी का कार्यक्रम बनाने वाले हजारों हैं। वास्तव में सैकड़ों किस्में पाई जाती है मेहमानों की ओर अपनी समाथ्र्य के अनुसार गरीब अमीर सभी खातिरदारी भी कर ही लेते हैं। अब साहब एक पते की बात उठ रही है इस प्रकरण मेहमानी में। हुआ यह कि वही माधोभाई अपनी दरियादिली के लिए कुछ ज्यादा ही मशहूर हो गए। अब मुफ्त में छानने फूंकने को मिले और मेजबान के चेहरे पर शिकन तक न आए तो फिर घर वापस जाने का मन किस अहमक मेहमान का होगा? जो आए तो चार-छ: दिन टिके जरुर। माधोभाई थे तो दिलदार लेकिन चार साल की शहंशाही में ही बोल गए और उन्होंने इस मेहमाननवाजी से छूटने के लिए कस्बे में घर बनवा लिया। गांव से काफी दूर और परिचितों व रिश्तेदारों की पहुंच से काफी दूर। फिर भी चीटियों की तरह संूघते कुछ तरकीबी रिश्तेदार उनके मेहमान बनते ही रहे। माधो भाई उन्हें संभालते रहे, लेकिन एक मेहमान ऐसा निकला कि माधोभाई को रक्त के आंसू रुला गया। हुआ ये कि माधोभाई कहीं बाहर निकल रहे थे। घर में उनकी सीधी सरल पत्नी थी। मेहमाननवाली में कभी भी पीछे नहीं रहीं। घर में अकेली थीं। तभी एक अपरिचित मेहमान आ गया। आप कौन हैं? ये तो कीं बाहर गए हैं। अपरिचित को देखते ही उन्होंने कहा-सुना तो उस मेहमन ने भी मौका ताड़ लिया। बोला झट से, अरे भाभी आप ने नहीं पहचाना मुझे। पहचानों भी कैसे? शादी के बाद पहली बार तो मैंने ही आप को देखा। मैं द्वारिका प्रसाद, माधो और हम मौसेरे, अरे सगे मौसेरे भाई हैं। शहर में रहते हैं। न आज आपके दर्शन कर पाए। ये लीजिए कुछ मिठाई है। उसने कुछ इस तरह का रोब डाला कि बेचारी भाभी मेहमाननवाजी में जुट ही गईं। खूब खिलाया पिलाया और मौका लगते ही द्वारका मेहमान तिजोरी तोड़ कर नकदी जेवर के साथ कपड़े भी साथ लेकर चंपत हो गये। माधो भाई लौटे तो पत्नी ने रो-रो कर सब हाल कहे तो वे मूच्र्छित ही हो गए। तब से वे आने वाले मेहमानों से बड़े सावधान रहने लगे हैं। -डॉ. सुरेश प्रकाश शुक्ल, लखनऊ (प्रैसवार्ता)
2:12 pm
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कृषक कन्या हम्मीर माता: कृषक कन्या हम्मीर माता जब अपने खेतों की रखवाली पर थी, उसने देखा कि चित्तौड़ के महाराणा लक्ष्मणसिंह के सबसे बड़े अरिसिंह जी अपने साथियों के साथ घोड़ा दौड़ाये एक जंगली सूअर का पीछा करते हुए चले आ रहे है। सूअर डरकर उसी के बाजरे के खेत में घुस गया। कन्या अपने मचान से उतरी और घोड़ों के सामने खड़ी हो गयी। बड़ी ही विनम्रता के साथ बोली, राजकुमार! आप लोग मेरे खेत से घोड़ों को ले जायेंगे तो मेरी खेती नष्ट होने से बच जायेगी। आप यहां रुकें, मैं सूअर को मारकर ला देती हूं। राजकुमार आश्चर्य से देखते रह गये। उन्होंने सोचा यह लड़की नि:शस्त्र सुअर को कैसे मारकर लायेंगी? उस लड़की ने बाजरे के एक पेड़ को उखाड़कर तेज किया और खेत में निर्भय होकर घुस गयी। थोड़ी ही देर में वे लोग स्नान कर रहे थे, तब एक पत्थर आकर उनके एक घोड़े के पैर में लगा, जिससे घोड़े का पैर टूट गया। वह पत्थर उसी कृषक-कन्या ने अपने मचान से पक्षियों को उड़ाने के लिए फेंका था। राजकुमार के घोड़े की दशा देखकर वह दौड़कर आई और क्षमा मांगने लगी। राजकुमार बोला, तुम्हारी शक्ति देखकर मैं आश्चर्य में पड़ गया हूं। मुझे दु:ख है कि तुम्हें देने योग्य कोई पुरस्कार इस समय मेरे पास नहीं है। कृषक कन्या ने विनम्रता से कहा, अपनी गरीब प्रजा पर कृपा रखें, यही मेरे लिए बहुत बड़ा पुरस्कार है। इतना कहकर वह चली गई। संयोग से जब राजकुमार व उनके साथी सायंकाल घोड़ों पर बैठे जा रहे थे, तब उन्होंने देखा, वही लड़की सिर पर दूध की मटकी रखे दोनों हाथों से दो भैसों की रस्सियां पकड़े जा रही है। राजकुमार के एक साथी ने विनोद में उसकी मटकी गिराने के लिए जैसे ही अपना घोड़ा आगे बढ़ाया, उस लड़की ने इसका इरादा समझ लिया और अपने हाथ में पकड़ी भैंस की रस्सी को इस प्रकार फेंका कि उस रस्सी में उस सवार के घोड़े का पैर उलझ गया और घोड़े सहित वह भूमि पर आ गिरा। निर्भय बालिका के साहस पर राजकुमार अरिसिंह मोहित हो गये, उन्होंने पता लगा लिया कि यह एक क्षत्रिय कन्या है। स्वयं राजकुमार ने उसके पिता के पास जाकर विवाह की इच्छा प्रकट की और वह साहसी वीर बालिका एक दिन चित्तौड़ की महारानी बनी जिसने प्रसिद्ध राणा हम्मीर को जन्म दिया। पन्नाधाय: पन्नाधाय के नाम को कौन नहीं जानता? वे राजपरिवार की सदस्य नहीं थी। राणा सांगा के पुत्र उदयसिंह को मां के स्थान पर दूध पिलाने के कारण पन्नाधाय मां कहलाई। पन्ना का पुत्र वह राजकुमार साथ-साथ बड़े हुए। उदयसिंह को पन्ना ने अपने पुत्र के समाना पाला अत: उसे पुत्र ही मानती थी। दासी पुत्र बनवीर चित्तौड़ का शासक बनना चाहता था। उसने एक-एक कर राणा के वंशजों को मार डाला। एक रात महाराज विक्रमादित्य की हत्या कर, बनवीर उदयसिंह को मारने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा। एक विश्वस्त सेवक द्वारा पन्ना धाय को इसकी पूर्व सूचना मिल गई। पन्ना राजवंश के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थी वह उदयसिंह को बचाना चाहती थी। उसने उदयसिंह को एक बांस की टोकरी में सुलाकर उसे झूंठी पत्तलों से ढककर एक विश्वास पात्र सेवक के साथ महलों से बाहर भेज दिया। बनवीर को धोखा देने के उद्देश्य से अपने पुत्र को उसके पलंग पर सुला दिया। बनवीर रक्तरंजित तलवार लिए उदयसिंह के कक्ष में आया और उदयसिंह के बारे में पूछा। पन्ना ने उदयसिंह के पलंग की ओर संकेत किया जिस पर उसका पुत्र सोय था। बनवीर ने पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर मार डाला। पन्ना अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र के वध को अविचलित रूप से देखती रही। बनवीर को पता न लगे इसलिए वह आंसू भी नही बहा पाई। बनवीर के जाने के बाद अपने मृत पुत्र की लाश को चूमकर राजकुमार को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए निकल पड़ी। धन्य है स्वामिभक्त वीरांगना पन्ना जिसने अपने कर्तव्य-पूर्ति में अपनी आंखों के तारे पुत्र का बलिदान देकर मेवाड़ राजवंश को बचाया। वीरांगना कालीबाई:वीरांगनाओं के इतिहास में केवल राजपूतनियों के नाम ही पाये जाते हों ऐसा नहीं है। राजस्थान की नारियों की नस-नस में त्याग, बलिदान व वीरता भरी हुई। यहां तक कि आदिवासियों ने भी आवश्यकता पडऩे पर जी-जान से देश की प्रतिष्ठा में चार-चांद लगाये हैं। राजस्थान की आदिवासी जन-जातियां सदैव से देशभक्त व स्वाभिमानी रही हैं। इनकी महिलाओं ने भी समय-समय पर अपना रक्त बहाया है। इन्हीं नामों में से एक नाम है वीर बाला कालीबाई का। स्वाधीनता आंदोलन चल रहा था। वनवासी अचंल को गुलामी का अंधेरा अभी भी पूरी तरह ढके हुए था। छोटी-छोटी बातों पर अंग्रेजी राज्य के वफादार सेवक स्थानीय राजा अत्याचार करते थे। प्रजा में जागृति न फैले इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था। वे भयभीत थे कि अगर वनवासी पढ़-लिख गये तो वे नागरिक अधिकारों की बात करेंगे और उनकी राजय सत्ता कमजोर होगी। राजा ने अपने क्षेत्र के वनवासी अंचल में सभी विद्यालय बंद करने का आदेश दिया। नानाभाई के पास आदेश भिजवाया कि वे अपनी पाठशालाएं बंद करें, लेकिन नानाभाई नहीं माने। अवज्ञा से क्षुब्ध मजिस्ट्रेट उन्हें पीटते हुए अपने शिविर तक ले जाने लगा। इतने में ही एक नन्हीं बालिका जो उसी समय घास काटकर लाई थी, चिल्लाते हुए ट्रक के पीछे दौड़ी, अरे तुम लोग मेरे मास्टरजी को क्यों ले जा रहे हो? छोड़ दो! इन्हें छोड़ दो! हाथ में हंसिया, पांव में बिजली और मुख से कातर पुकार करती वह बच्ची न बंदूकों से घबराई और न पुलिस की डरावनी धमिकयों से उसे तो बस अपने मास्टरजी दिखाई दे रहे थे। बालिका को देखकर वनवासी भी उत्साहित हो उठे और पीछे दौड़े। यह देखकर पुलिस अधिकारी ने बौखलाकर बंदूक तानकर कहा, ऐ लड़की, वापस जा, नहीं तो गोली मार दूंगा। लड़की ने उसकी बात को अनुसुना कर ट्रक के पीछे दौड़ते हुए वह रस्सी काट दी, जिससे बांधकर नानाभाई व सेंगभाई को घसीटा जा रहा था। पुलिस की बंदूक गरजी और बालिका की जान ले ली। कालीबाई के मरते ही वनवासियों ने क्रोधोन्मत्त हो मारू बाजा बजाना शुरू कर दिया और पुलिस की बंदूकों की परवाह न करते हुए उन्हें मारने के लिए दौड़े। गोलियों से कई अन्य भील महिलाएं भी घायल हुई। अपनी दुर्गति का अंदाजा लगा, पुलिस व मजिस्ट्रेट जीप में भाग निकले। घायलों को तीस मील दूर अस्पताल में ईलाज के लिए ले जाया गया। कालबाई के साथ घायल हुई अन्य भील महिलाएं नवलीबाई, मोगीबाई, होमलीबाई तथा अध्यपाक सेंगाभाई बच गये। वे स्वतंत्रता के बाद भी भीलों के मध्य काम करते रहे, किन्तु नानाभाई को नहीं बचाया जा सका और वीर बाला कालीबाई भी नानाभाई का अनुशरण करते हुए चिर-निद्रा में लीन हो गई। डूंगरपुर में नानाभाई व कालीबाई की स्मृति में उद्यान बनाया गया है और उनकी मृर्तियां भी स्थापित की गई हैं। -डॉ. संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी (प्रैसवार्ता)
2:11 pm
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आधुनिक युग में इलैक्ट्रोनिक मीडिया से उपजे शोर व विदेशी प्रसारण सेवाओं की अंधाधुंध बाढ़ ने हमारे परिवार में तहलका मचा दिया है-जिसमें जिज्ञासाओं का ऐसा बबंडर उठा है कि जब बड़े इसकी गिरफ्त में है, तो छोटे बच्चों को इन साधनों के उपयोग से कैसे रोका जा सकता है। रही बात, मनोरंजन की, तो भारतीय तथा विदेशी फिल्मों में, जहां टकराव है, वही रोमांचकारी विदेशी फिल्में डरावनी व कुछ भी कर गुजरने का सबल देती है, फिल्मों को देखना बच्चे को एक प्रदत्त अधिकार प्राप्त है कि यह तो उनके हक में शामिल है, जिसे माता-पिता देखने देने से वंचित नहीं रख सकते हैं। कम उम्र में स्कूल भेजे जाने से बच्चों में अपनी उग्र से अधिक सोच समझ का विकास हुआ है, वही वह अपने पर माता-पिता द्वारा रोक टोक लगाये जाने पर उग्र हो जाते है, तो परिस्थितियों को संभालना मुश्किल हो जाता है, चूंकि जिज्ञासा वश घर में बड़े भी टेलीविजन को देखते हैं। छोटे बच्चों के रहने पर बड़े ही नजर अंदाज कर जाते हैं कि वह क्या समझते होंगे, किन्तु बाद में वही लापरवाही नुकसान देह व बच्चों को प्रतिद्वन्दी की श्रेणी में लाकर खड़ी कर देती है। भारतीय समाज में मध्यम वर्ग व निम्र वर्ग की सोच, समझ व स्थिति में फर्क है। वहां फिल्मों का अभाव जल्दी देखने में आता है, बच्चे पूर्ण विकसित तो होते नहीं, जो देखा, सोचते हैं, सही है और अंजाम देने पर उतर आते हैं। ऐसे में सामाजिक व्यवस्था तो बिगड़ती ही है, साथ में बच्चे का भविष्य व माता-पिता की आशाओं उम्मीदों पर ढेरों तुषाराघात पड़ जाता है। यह कहना गलत होगा कि विज्ञान मनोरंजन व कुछ सीखने जैसी फिल्में बच्चों पर प्रभाव नहीं डालती, डालती हैं, किन्तु इनका प्रतिशत कम ही होता है। ज्यादातर लोग हिन्दी में बच्चों को बहादुरी, साहस व चमत्कार की फिल्मों को प्रधानता देते हैं। पशु, पक्षी, प्यार व उनसे दोस्ती की कहानियां भी होती है, जिस पर प्रतिक्रिया जुटाने पर पाया कि, ''बकवास, हर जगह मात्र शिक्षा, कैसी शिक्षा देना चाहते है-यह फिल्म बनाने वाले।'' हैरानी की बात की इतनी अच्छी फिल्मों पर यह प्रतिक्रया, उन्हें चाहिए स्पाईडरमैन, शक्तिमान जैसे करैक्टर, यानि कुछ करे या न करें, किंतु इतनी पावन, इतना बल अवश्य हो कि वे किसी की भी मदद कर सकें, हां बच्चों को कभी अपनी मदद व अपने बारे में सोचने का शायद वक्त ही नहीं है। कार्टून फिल्मों में जिस तेजी से चित्र चलते हैं वह कहानी दौड़ती है, उसी रफ्तार से उनको मजा आता है। यदि डॉयलाग डिलेवरी में भी फर्क या दूरी है, तो बच्चों को तुरंत ही बोरियत आ घेरती है। इतनी उतावली व उग्र प्रवृत्ति की पीढ़ी का क्या करें, क्या इन्हें धीरज व धैर्य वाली, ज्ञान की या जिज्ञासा वाली कोई मूवी दिखा सकेंगे। मुख्य बात तो तब है कि अधिकांश परिवारों में बच्चों को लेकर थियेटर ले जाना ही कठिन है। माता-पिता अपने लिये ही समय मुश्किल से निकाल पाते हैं, तो, बच्चों को उनकी बाल उम्र तक एक या दो फिल्में दिखा दो, तो समझो बहुत हो गया। बच्चे अपनी पूर्ति टैलीविजन से करते हैं। उस पर दिखाई जाने वाली किसी भी तरह की फिल्म उनको तो देखना है, चाहे वह ठीक हो या नहीं। यह दावित्य बनता है हमारा, कि हम बड़े बच्चों के चहूंमुखी विकास के लिए अच्छी व बेहतर फिल्मों का निर्माण कर उन्हें बच्चों के देखने व दिखाने की व्यवस्था करनी चाहिये। जैसे आजादी के या स्वास्थ्य के संबंध में बड़ों को जागृत कर रहे है, वैसे ही बच्चों के लिए फिल्में, नर्सरी, स्कूलों व मेलों की फिल्में दिखाई जाये, जिससे उनकी अच्छी सोच व समझ स्वस्थ मनोरंजन पद्धति का विकास हो। -अंजना छलौत्रे 'शशि',प्रैसवार्ता
2:08 pm
manmohit grover
यह रफी साहब की सरलता थी कि वह गाने के बदले जो भी मिल जाता था, ले लेते थे। वह रॉयल्टी लेने के खिलाफ थे। इसी मतभेद के कारण लता मंगेशकर के साथ उन्होंने चार साल तक गाना नहीं गाया। लता जी का कहना है कि फिल्मकारों ने अपने हितों के लिए रफी साहब के सरल-हृदय होने का फायदा उठाया था, लेकिन जब सचाई का पर्दाफाश हुआ तो फिर मिलाप में ज्यादा वक्त नहीं लगा
रफी साहब ने फिल्म हम दोनों में गाए साहिर लुधियानवी के इस गीत को अपनी जिंदगी में उतार लिया था। यही कारण है कि उन्होंने इसबात की कभी चिंता नहीं की कि उन्हें गाने के एवज में कितना मिल रहा है। रफी पैसे के मामले में अत्यंत संतोषी व्यक्ति थे और उन्हें जितना मिलता था, उसी से वह संतोष कर लेते थे। कई लोगों के लिए तो उन्होंने मुफ्त में भी गाने गाए थे। अपनी इसी उदारता के कारण उन्होंने संगीत कंपनियों से कभी रॉयल्टी की मांग नहीं की। वह मानते थे कि एक बार जब निर्माता गायक को गाने का पारिश्रमिक अदा कर देता है, तो मामला वहीं समाप्त हो जाता है, लेकिन उनकी इसी दानशीलता और उदारता के कारण न सिर्फ उनके और उनके परिवार के आर्थिक हितों के साथ कुठाराघात हुआ, बल्कि रॉयल्टी के मामले में लता मंगेशकर और अन्य गायकों के साथ अनबन भी हुई। लता और रफी के बीच एक-दूसरे के प्रति नाराजगी कई साल चली। इस दौरान दोनों न तो बातचीत करते थे और न ही एक साथ कोई गीत गाते थे। संगीत प्रेमी इस अवधि को पाश्र्वगायन के काले अध्याय के रूप में याद करते हैं। शायद यह पहला मौका था, जब इस सरल, सहृदय गायकने कड़ा रुख अपनाया था। कुछ निर्माताओं और संगीत कंपनियों को रफी के सरल स्वभाव के बारे में पता था। कुछ निर्माताओं द्वारा भावनात्मक रूप से बरगलाए एवं गुमराह किए जाने के बाद सीधे-सादे रफी ने स्वयं ही अनी रॉयल्टी के दावे समाप्त कर दिए। दूसरी तरफ लता जी का मानना था कि गायकों को गाने की रिकॉर्डिंग के पैसों के अलावा गाने की रॉयल्टी का भी भुगतान करना चाहिए। उनका कहना था कि अपने निर्माताओं के लिए आर्थिक मुश्किलें पैदा करना अपनी कला का सही मूल्य पाने की तुलना में भी ज्यादा गंभीर मुद्दा है। रफी के इस विचार ने उन्हें उन गायक-गायिकाओं के बीच बदनाम कर दिया, जो यह मानते थे कि गाने की सफलता गायक की आवाज पर निर्भर करती है। रफी और लता के बीच व्यावसायिक अलगाव करीब चार साल तक चला आखिरकार नरगिस के प्रयास से दोनों के बीच जमी बर्फ पिघली और शिकवे की दीवार टूटी, जब एक स्टेज कंसर्ट के दौरान दोनों को दिल पुकारे.... के लिए बुलाया गया। बाद में लता जी ने स्वीकारा कि उनहोंने एक मामूली बात के लिए रफी साहब के साथ गाने का सौभाग्य खोया था, लेकिन उन्होंने कहा कि रफी साहब जैसे ईमानदार और निष्कपट व्यक्ति से दोबारा मिलाप कर लेने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। लता जी ने रॉयल्टी के मामले को लेकर मोहम्मद रफी के साथ हुई अनबम के बारे में कहती है, रफी साहब न तो अपने अधिकारों से अनजान थे और न ही वह प्रोड्यूसरों या म्यूजिक डायरेक्टरों से डरते थे, क्योंकि वह समय ही ऐसा था कि हर गायक-गायिका की अपनी स्टाइल थी। जिस स्टाइल की फिल्म में जरूरत होती, तो उस गायक या गायिका या गायिका के बिना काम न चलता। कई हीरो का काम रफी साहब की आवाज के बगैर चलता ही नहीं था। लेकिन रफी साहब जरूरत से ज्यादा भले थे। उनका कहना था कि गाना गाने के एवज में प्रोड्यूसर हमें पैसे दे चुका है तो हम ज्यादा क्यों मांगे? जबकि मेरा कहना था कि कुछ गायकों के गीत आज भी बिक रहे हैं, पर उन्हें कुछ नहीं मिलता, जबकि उन गायकों की आज आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। इस पर रफी साहब ने कहा कि अभी कल ही खान मस्ताना (पुराने गायक) को मैंने पांच सौ रुपए दिए। हम ऐसा तो करते ही रहते हैं। लता जी का इस मामले में कहना था, हमारी एसोसियेशन ने पाश्र्व गायकों की ओर से जब रेकॉर्डिंग कंपनी से अपने अधिकार की मांग की तो उसने निर्माता को दे दी है आप उनसे मांग लें। कुछ निर्माता मान गए तो कऊछ ने हममें फूट डालने की कोशिश की। उन्होंने रफी साहब को अपने विश्वास में लिया, ताकि वह बाकी गायकों को रॉयल्टी मांगने से रोकें। मैंने रफी साहब को समझाने का प्रयास किया कि उन्हें या मुझे तो रॉयल्टी न मिलने से कोई दिक्कत नहीं होगी, लेकिन दूसरों को रोकने का हमें कोई अधिकार नहीं है। इसी बात को लेकर हम दोनों में बातचीत और गाना बंद हो गया।... बाद में मुकेश भैया (पाश्र्वगायक) से पता चला कि कई गायक जो हमारी तरफ थे, वे जाकर रिकॉर्डिंग भी करवा रहे हैं। रफी साहब की भी हां में हां मिलाते और हम लोगों के साथ भी। जब मुझे विश्वास हो गया कि कोई हमारा साथ नहीं दे रहा तो मैंने सिर खपाना बंद कर दिया। जहां तक मेरा अपना सवाल था, मैं जानती थी कि मुझे मांगने पर रॉयल्टी मिलेगी ही। बाद में रफी साहब से सुलाह हो गई। मनमोहित ग्रोवर,प्रैसवार्ता