11.8.09
10.8.09
देखो लोगों मेरे जाने का है पैग़ाम आया.
देख़ो लोगों मेरे जाने का है पैग़ाम आया..(2)
ख़ुदा के घर से है ये ख़त, मेरे नाम आया….देख़ो लोगो…
जिसकी ख़वाहिश में ता-जिन्दगी तरसते रहे।
वो तो ना आये मगर मौत का ये जाम आया। ख़ुदा के घर…..
ज़िंदगी में हम चमकते रहे तारॉ की तरहॉ ।
रात जब ढल गइ, छुपने का ये मक़ाम आया। ख़ुदा के घर…..
राह तकते रहे-ता जिन्दगी दिदार में हम |
ना ख़बर आइ ना उनका कोइ सलाम आया । ख़ुदा के घर…..
चल चुके दूर तलक मंज़िलॉ की खोज में हम।
अब बहोत थक गये रुकने का ये मक़ाम आया। ख़ुदा के घर…..
हम मुहब्बत् में ज़माने को कुछ युं भूल गये ।
हम है दिवाने, ज़माने का ये इल्ज़ाम आया। ख़ुदा के घर…..
जिसने छोडा था ज़माने में युं तन्हा “रज़िया”
क़ब्र तक छोड़ने वो क़ाफ़िला तमाम आया। ख़ुदा के घर…..
8.8.09
हत्या की कोशिश करने पर पति गिरफ्तार
दाता तेरे हज़ारों हैं नाम
कोई पुकारे तुझे रहीम,
और कोई कहे तुझको राम।…दाता(2)
क़ुदरत पर है तेरा बसेरा,
सारे जग पर तेरा पेहरा,
तेरा ‘राज़’ बड़ा ही गैहरा,
तेरे इशारे होता सवेरा,
तेरे इशारे होती शाम।…दाता(2)
ऑंधी में तुं दीप जलाए,
पत्थर से पानी तूं बहाये,
बिन देखे को राह दिख़ाये,
तेरी
क़ुदरत के हर-सु में बसा तू,
पत्तों में पौंधों में बसा तू,
नदिया और सागर में बसा तू,,
दीन-दु:ख़ी के घर में बसा तू,
फ़िर क्यों में ढुंढुं चारों धाम।…दाता(2)
ये धरती ये अंबर प्यारे,
चंदा-सूरज और ये तारे,
पतझड़ हो या चाहे बहारें,
दुनिया के सारे ये नज़ारे,
देखूँ मैं ले के तेरा नाम।…दाता(2)
7.8.09
चार पशु-चोर गिरफ्तार
अय धूप कि किरन...
तूं हर सुबह मेरे घर की खिड़की पर दस्तक देती थी।.
छोटी-छोटी किवाडों से मेरे घर में चली आया करती थी।
मैं चिलमन लगा देती फिर भी तू चिलमनो से झांक लिया करती।
तेरी रोशनी चुभती थी मेरी आंखों में,मेरे गालों पर,मेरी पेशानी पर।
मैं तुझे छुपाने कि कोशिश करती थी कभी किताबों के पन्नों से तो
कभी पुरानी चद्दरों से.लेकिन…..
ऎ किरन ! तू किसी न किसी तरहां आ ही जाती.ना जाने तेरा मुजसे
ये कैसा नाता था?क्यों मेरे पीछे पड गई है तूं ?
आज मुझे परदेश जाने का मौका मिला है.मै बहोत खुश हुं।
ऎ किरन ! चल अब तो तेरा पीछा छुटेगा !
दो साल बाद वापस लौटने पर…..
जैसे ही मैने अपने घर का दरवाजा खोला !
मेरा घर मेरा नहीं लगा मुझे,
क्या कमी थी मेरे घर मैं?
क्या गायब था मेरे घर से?…..
अरे हां ! याद आया ! वो किरन नज़र नहीं आती !
बहोत ढुंढा ऊसे,पर कहीं नज़र नहीं आई,वो किरन,
खिड़की से सारी चिलमनें हटा दी मैने,फिर भी वो नहीं आई,
क्या रुठ गई है मुझ से?
घर का दरवाज़ा खोलकर देखा तो,
घर की खिड़की के सामने बहोत बडी ईमारत खडी थी.उसी ने किरन को
रोके रखा था।
आज मैं तरसती हुं, ऊस किरन को, जो मेरे घर में आया करती थी।.
कभी चुभती थी मेरी आंखों में..मेरे गालों पर…
आज मेरा घर अधूरा है, ऊसके बिना.ऊसके ऊजाले से मेर घर रोशन था.
पर आज ! वो रोशनी कहां? क्यों कि ….!
वो धूप की किरन नहीं..
6.8.09
मायावती की पूरक बजट, मै हूं हिमायती...