तूं हर सुबह मेरे घर की खिड़की पर दस्तक देती थी।.
छोटी-छोटी किवाडों से मेरे घर में चली आया करती थी।
मैं चिलमन लगा देती फिर भी तू चिलमनो से झांक लिया करती।
तेरी रोशनी चुभती थी मेरी आंखों में,मेरे गालों पर,मेरी पेशानी पर।
मैं तुझे छुपाने कि कोशिश करती थी कभी किताबों के पन्नों से तो
कभी पुरानी चद्दरों से.लेकिन…..
ऎ किरन ! तू किसी न किसी तरहां आ ही जाती.ना जाने तेरा मुजसे
ये कैसा नाता था?क्यों मेरे पीछे पड गई है तूं ?
आज मुझे परदेश जाने का मौका मिला है.मै बहोत खुश हुं।
ऎ किरन ! चल अब तो तेरा पीछा छुटेगा !
दो साल बाद वापस लौटने पर…..
जैसे ही मैने अपने घर का दरवाजा खोला !
मेरा घर मेरा नहीं लगा मुझे,
क्या कमी थी मेरे घर मैं?
क्या गायब था मेरे घर से?…..
अरे हां ! याद आया ! वो किरन नज़र नहीं आती !
बहोत ढुंढा ऊसे,पर कहीं नज़र नहीं आई,वो किरन,
खिड़की से सारी चिलमनें हटा दी मैने,फिर भी वो नहीं आई,
क्या रुठ गई है मुझ से?
घर का दरवाज़ा खोलकर देखा तो,
घर की खिड़की के सामने बहोत बडी ईमारत खडी थी.उसी ने किरन को
रोके रखा था।
आज मैं तरसती हुं, ऊस किरन को, जो मेरे घर में आया करती थी।.
कभी चुभती थी मेरी आंखों में..मेरे गालों पर…
आज मेरा घर अधूरा है, ऊसके बिना.ऊसके ऊजाले से मेर घर रोशन था.
पर आज ! वो रोशनी कहां? क्यों कि ….!
वो धूप की किरन नहीं..