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21.6.09

Govt should stop opening more hospitals!

Health care reforms in India too need reforms as we need reforms in many other sectors: electoral. police, judicial and administrative.
6 decades of free health care policies in independent India have not brought succor to the larger percentage of population. Those at the base of pyramid do not have access to the basic health care. The central and state governments have spent massive amounts on opening and maintaining large hospitals to small dispensaries: the services are more or less free. Yet we have dismal performances being seen: they are best characterized by inefficiency, maladministration and waste of resources and poor work-ethics.

What is the solution: open more efficient hospitals? No, stop spending further money on this wasteful exercize. In my opinion, the following steps should be taken:

1. Govt hospitals be replaced with health insurance: Open no more govt hospitals, rather gradually abolish this system. Government must provide health insurance cards to each and every family. The concept of sliding scale in deciding premiums can be applied: to the families below poverty line, these insurance cards can be free , while those with high incomes, the premiums can be higher. Families can be given the option to opt out.
Any person with health insurance can get health care from the eligible health facilities (generally, private sector).
2. Regulate private health sector: Let the private health care sector prosper, but the govt must bring in strict regulations how the clinics, nursing homes and large hospitals operate. The current private health care sector in India is highly un-regulated, hence malpractice is prevalent. They often exist to reap maximum monetary benefits, while quality of health care and ethical practices are generally given low priority. A highly regulated system will help curb malpractice.
3. Govt to provide public health: The government must continue to provide preventive health services: vaccinations/immunizatiions, ante-natal care,etc.

20.6.09

कोई भारतीय नहीं..सब प्रादेशिक हैं ?


फिर उठ रहा है गर्मा गरम मुद्दा उत्तर भारतीय और मराठीका...शिवसेना का शिव बड़ापाव हो या कांग्रेस का पोहा..सबकिसी किसी को कुछ कुछ खिलाने की कोशिश कर रहेहैं। राजनीति का गंदे खेल को छोड़ दें तो मुद्दा कुछ खिलानेका नहीं हैं ..यहां मुद्दा मराठी मानुष को काम देने का है।लेकिन इस पर भी राजनीति शुरु हो गई हैं। मराठी औरउत्तर भारतीयों के मुद्दे पर बहस तो बहुत हुई लेकिन सारकभी कुछ नहीं निकला। मै आज फिर इस मुद्दे पर एक नईबहस को जन्म दे रहा हूं कि आखिर मराठी मानुष को उत्तरभारतीयों से इतनी चिढ़ क्यों है। और वो कौन से मुद्दे हैंजिन पर बहुत सी नई पार्टियां शुरु हुई हैं। चाहे वो सालों सेमराठी मानुष को आगे लाने के लिए बनी शिवसेना हो या महाराष्ट्र नव निर्माण सेना। क्यों मराठी लोगों को ऐसालगता है कि उत्तर भारतीय उनके काम को छीनते हैं। यहां पर एक बात तो माननी होगी कि यूं तो मेरे साथ कईमराठी लोग काम करते हैं मेरे आस पास रहते हैं उनको इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि महाराष्ट्र में उत्तरभारतीय काम करें या करें। ये बात तो निर्भर करती है कि काम पर रखने वाले किन लोगों को रखते हैं औरकिसको नहीं। मै एक साफ सुथरी बहस चाहता हूं इस मुद्दे पर कि मराठी लोगों को अपनी असुरक्षा का भाव कहांऔऱ क्यों आता है। सिर्फ महाराष्ट्र में भी बहुत से उत्तर भारतीय काम करते हैं औऱ कई लोग तो ऐसे हो जिनके पूर्वजशायद उत्तर भारतीय थे लेकिन वो नहीं है क्यों उनका जन्म वहीं के किसी अस्पताल में हुआ है। मेरे घर के ऊपरवाले मकान में एक महाराष्ट्रियन परिवार रहता था जब तक वो रहे हमारे उनके अच्छे संबध रहे पर जब मनसे केकार्यकर्ताओं का कहर उत्तर भारतीयों पर शुरु हुआ तो मैने उनसे इस मुद्दे पर व्यापक बातचीत की असल में मै वहांके आम आदमी की सोच को जानना चाहता था। उन्होंने जो मुझे बताया उसके मुताबिक महाराष्ट्र में लोगों को येफर्क नहीं पड़ता कि कौन उत्तर भारतीय है कौन नहीं ...पर दिक्कत तब आती है जब वहां पर काम देने वाली फर्मउत्तर भारतीयों को सस्ते लेबर की वजह काम देना ज्यादा पसंद करता हैं क्योंकि इसमें उन्हे मुनाफ़ा ज्यादा मिलताहै... और लागत कम लगती है। इसी वजह से वहां के मराठी लोगों में इस बात से आक्रोश बढ़ गया। उन्हें लगा किबाहर से लोग रहे हैं उन्हें काम मिल रहा है पर उन्हें नहीं। यहां समझने वाली बात ये है कि इस तरह कीरणनीति हर फर्म करती है चाहे वो महाराष्ट्र हो या दिल्ली..यहां भी अगर कोई फर्म अपना कारखाना लगाती है तोकोशिश करती है कि लोकल लोगों को कम से कम काम पर रखा जाये इसका कारण होता कि लोकल होने की वजहसे उनकी धाक जमी रहती है और इस वजह से अपर हैंड का काम करता लोकल होना। यहीं कारण है कि वो बाहरसे आये हुए कर्मचारियों को ज्यादा अग्रणी रखती है। इसमें उनका सस्ता लेबर भी एक प्लस प्वाइंट की तरह कामकरता है। एक मानसिकता इस पूरे बबाल के पीछे है वो ये कि अगर हमारे प्रदेश में कोई फैक्ट्री लगती है तो ज्यादासे ज्यादा लोग ये सोचते हैं कि अब यहां के लोगों को काम मिलेगा ...उस वक्त इस ख्याल पर बात नहीं होती किबहुत से लोगों को काम मिलेगा। इसी वजह से जो लोग बाहर से आते उन लोगों को वहां के स्थानीय लोगों केआक्रोश से रुबरु होना पड़ता है। यही बात महाराष्ट्र पर लागू होती है इसी वजह से वहां के लोगों को उत्तर भारतीयों सेचिढ़ होती है। या ये कहें कि उन्हें हर उस व्यक्ति से परेशानी होती है जो महाराष्ट्र से बाहर के होते हैं। अपने पड़ोस मेंरहने वालों से मैने ये भी पूछा कि तो फिर सिर्फ उत्तर भारतीयों को क्यों निशाना बनाया जा रहा है। तो उन्होंने कहाकि उत्तर भारतीयों को नहीं ग़ैर मराठी को निशान बनाया जा रहा है। क्योंकि महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों की संख्याज्यादा है इसलिए ज्यादा से ज्यादा निशाना उत्तर भारतीय बन रहे हैं। जबकि सच ये है कि वहां पर रह रहे सभी ग़ैरमराठी लोग निशाना बन रहे हैं आक्रोशित लोगों का शिकार बन रहे हैं।

18.6.09

कैसे दूर होगा रैगिंग का कैंसर?

रैगिंग का सांप जिस तरह से हर साल कई छात्रों को निगलता जाता है, उसे देखकर लगता कि कब इससे निजातमिल पायेगी। हर साल कई बच्चे इसकी वजह से आत्महत्या करने जैसा बड़ा कदम उठा लेते हैं। रैगिंग को रोकनेके लिए देश की सबसे बड़ी ताकत सुप्रीम कोर्ट ने भी कई तरह के कड़ेकानून बनाये है, लेकिन हर बार ये कानून फ़ेल हो जाते हैं और किसीकाम नहीं आतेइसका उदाहरण दूंगा उस वक्त का जिसको मैने देखा है,झेला है.....जब मै अपने कॉलेज में पढ़ा करता था तो उस वक्त भी रैगिंगके मामले सामने आते थे। मैने जब पहली बार कालेज में कदम रखातो उस वक्त मेरी भी रैगिंग हुई थी। मै और मेरा दोस्त कॉलेज के गेटपर पहुंचे भी नहीं पाये थे कि हमें आवाज आई कि फ्रेशर इधर आओ।हम दोनों को अंदाजा तो हो गया था कि अब तो गये बेटा...हम दोनों वहां पहुंचे, पहुचते ही सबसे पहले उन्होने हमसेहमारा नाम पूछा उसके बाद कहा कि नाच कर दिखाओ बीच सड़क पर हमें नाचना पड़ाक्या करते अंजान शहरअंजान लोगइसलिए हमने नाचकर दिखाया, लेकिन बात आगे बढ़ती कि कॉलेज की ही रैगिंग टीम गई औरहमारी जान में जान आई। लेकिन सिलसिला यहीं ख़त्म नहीं हुआ था... ये तो सिर्फ शुरुआत थी। अब तो जो कोईसीनियर मिलता वो कुछ कुछ करने को कहता कोई नचाता तो कोई गाने गवाता। लेकिन खतरा तो तब और बढ़जाता जब हर कॉलेज की तरह यहां भी गुंडे टाइप के लोग जाते हैं और उनसे हर कोई डरता है। चाहे टीचर हो यामैनेजमेंटक्योंकि इनमें ज्यादातर उन लोगों बच्चे होते है जो या तो मंत्री के लड़के होते है या किसी आईएएसके.... उस वक्त आप ख़ुद समझ ही गए कि....... मेरे साथ भी ऐसा हुआ। एक बात और कि इस टाइप के बदमाशलड़के सूनसान जगहों पर ही आपको जाने को कहेंगे क्योंकि वहां मानने पर मारने पीटने की आज़ादी जो होतीहै। मुझे भी सूनसान जगह देखकर ले जाया गयासबसे पहले मुझसे मेरा नाम पूछा गया और रहने कास्थान...रहने का स्थान इसलिए पूछा जाता है, क्योंकि इसी बहाने पता तो लगे कि कहां रहता है या रहती है। मैनेबता दिया कि मुज़फ्फरनगर.... शहर का नाम सुनकर एक बार तो लड़के कुछ सोच में पड़ गये, शायद इस वजह सेकि मेरे शहर का इतिहास ज़रा सा खराब है...लेकिन आगे कोई मांग बढ़ती कि तभी उनमें से एक लड़के ने आवाजलगाई कि ओए...लड़की.......देख लड़की रही है.....एक लड़की पर उनकी नज़र पड़ गयी जो बचते बचाते वहां सेनिकल रही थी। पता नहीं मेरी किस्मत अच्छी थी या उसकी किस्मत खराब कि उन बदमाश लड़कों ने मुझे तो छोड़दिया, पर उस लड़की को पकड़ने चले गये। मैं तो अपनी जान छुड़ाकर भागा, लेकिन थोड़ी दूर जाकर ख्याल आयाकि क्यों जाकर देखू कि कहीं उस लड़की को वो बदमाश ज्यादा परेशान तो नहीं कर रहे हैं। मैने तुरंत खुद जाकरकॉलेज के लोगों को सूचित किया। तब वो लोग उसे बचाने या कहें कि उसे छुड़ाने वहां गये। जब वो वापस आई तोउसके आंखों में आँसूं थे।...उसके आंसू से आप सहज ही अंदाजा ही लगा सकते हैं कि उस बेचारी के साथ क्या हुआहोगा....उस घटना के बाद कॉलेज मे बबाल हुआ, लेकिन मैनेजमेंट लाचार था। लेकिन हिम्मत की दात देता हूं उसलड़की की, कि उसने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई, लेकिन जैसा मैनेजमेंट ने किया था कुछ करके..... उसीतरह पुलिस ने भी कुछ कियाक्योंकि उनमें से सभी उच्च अधिकारियों के लड़के थे और इसी वजह से मामलादबता चला गया। उस दिन के बाद से उस लड़की को रोज देखता था। क्योंकि मुझे लगा कि आखिर कैसे ये लड़कीइतना सहने के बाद भी कॉलेज में रही है और उन बदमाशों को भी देखता थाक्योंकि वो हमेशा की तरह किसी किसी लड़की को रोककर रैगिंग के नाम अभद्रता कर रहे होते थे और कॉलेज मामले को शांत करता नजर आताथा और ऐसा चलता रहा अगले तीन साल तक जब तक मै उस कॉलेज में पढ़ा। हालाँकि आज मै उस कॉलेज में नहींहूँ पर शायद यह सिलसिला अब भी चल रहा होगाआखिर कैसे दूर होगा रेगिंग का कैंसर?

17.6.09

16.6.09

हां ये नस्लीय हिंसा है!...भारतीय सावधान !!!

ऑस्ट्रेलिया का नाम आते सबसे पहले हमारे दिमाग में जो तस्वीर उभर कर आती है, वो है वहां कि क्रिकेट टीम...बेहतरीन खेल से वहां के खिलाड़ियों क्रिकेट की दुनिया मेंअपना खौफ़ कायम कर रखा था। लेकिन आजकल इस देशकी चर्चा वहां के खिलाड़ियों के बेहतरीन खेल की वजह सेनहीं बल्कि वहां पर हो रही उस हिंसा की वजह से हो रही है।ये हिंसा एक आम हिंसा नहीं हैइस हिंसा का शिकार हो रहेसिर्फ भारतीय हैंकभी तो वो छात्र होते हैं तो कभी वहां परकाम करने वाले आम भारतीय....पिछले कुछ महीनो परनज़र डालें तो हम पायेंगे कि किस तरह से वहां पर हिंसा कादौर रुक नहीं रहा है औऱ जिसका शिकार भारतीय छात्र होरहे हैं। इन हमलों में वहां की सरकार तो इस आम लूट पाट के लिए होने वाला हमला बता रही है पर असल में ऐसाहै नहीं। वहां पर पिछले चालीस सालों से ज्यादा समय से भारतीय रह रहे हैं और वहां हमेशा से ही भारतीयों कोअच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था। सिर्फ भारतीय बल्कि वो देश जो विकासशील थे या ये कहें कि ऑस्ट्रेलिया केमुकाबले कम अमीर थे। उस वक्त यहां के लोगों में भारतीयों या यहां के लोगों प्रति कोई गलत भावना नहीं थी क्योंजिस तरह कम पैसे वाले या बेहाल को देखकर हम उन पर दया दिखाते हैं लेकिन जब वो हमसे आगे निकलनेलगते है उस वक्त हमें जलन होती है उसी तरह ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों का वर्चस्व बढ़ने लगा या कहें कि भारतीयपैसों के मुकाबले और अमीर होने लगे तो वहां के निवासियों को ये गवांरा नहीं हो रही है। यहीं कारण है कि वहां रहरहे 7 हज़ार टैक्सी चालकों में से साढ़े पांच हज़ार सिर्फ भारतीय ड्राइवर हैं और उन पर हमले के मामले कम होते हैंलेकिन पढ़े लिखे सभ्य़ और आर्थिक रुप से मजबूत भारतीयों या छात्रों पर लगातार हमलें हो रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया केबारे आप वहां के खिलाड़ियों के बर्ताव से पता लगा सकते है कि कभी भी इंग्लैड और साउथ अफ्रीका या बड़े देशों केखिलाड़ियों से उनकी झड़पें कम होती थी लेकिन भारतीय, श्रीलंका, पाकिस्तान जैसे देशों से उनका बर्ताव मैदान परभी दिख जाता है...भारतीय खिलाड़ियों से उनकी झड़पें तो कई बार सुर्खियां भी बटोर चुकी हैं। वहीं बांग्लादेश जैसे देशों से उनकी झड़पों की ख़बर नहीं आती है..क्यों ? ...इसका जवाब है कि ये देश उनके वर्चस्व को चुनौती देता नहीं दिखता है. भारतीय खिलाड़ियों से उनके दुश्मनी का कारण यही है कि क्यों कि भारतीय उनके वर्चस्व को चुनौतीदेते थे। इसका सबसे चर्चित उदाहरण है आई पी एल में जब कोलकाता नाइट राइडर्स के खिलाड़ी अजीत अगरकरको की गई नस्लीय टिप्पणी जिसमें ऑस्ट्रेलियन कोच ने किस तरह उनसे कहा था कि ....तुम भारतीय वहीं करोजैसा कहा जाये... इस बात से सहज़ ही अंदाजा लग जाता है कि किस तरह गुलाम रखने की मानसिकता के साथ केपले ऑस्ट्रेलिया के लोग भारतीयों को अपने से नीचे समझते हैं और जब उनको इसकी चुनौती मिलती है तो इसतरह कि नस्लीय हिंसा सामने आती है। और ये हिंसा कई सालों से रही है, जब से भारत आर्थिक रुप से प्रगतिकर रहा है। एक बात औऱ यह कि ये हालात सिर्फ ऑस्ट्रेलिया में नहीं हैसभी जगह शुरु होने वाले हैंक्योंकिसभी जगह आर्थिक मंदी है और भारतीयों को इसकी फिक्र नहींक्योंकि भारत में इसका ज्यादा असर देखने मेंनहीं आया है। इसलिये इसका समाधान कुछ नहीं हैकोई भी सरकार इसका हल नहीं निकाल सकती है। हां एक चीज है, जो हो सकती है और वो ये कि सभी भारतीय एकजुट होकर रहें औऱ सभी घटनाओं का मुंहतोड़ जवाब दें.....

ये कैसा बदनाम प्रेम ?

इतने दिनों से प्यार में पड़े पागल प्रेमियों के बीच ऐसी तकरार हुई कि एक दूसरे को फूटी आंख नहीं भाते थे। अब फ़िर एक दूसरे को मीडिया के सामने प्यार की मिसाल बता रहे हैं मै बात कर रहा हूं। चंद्र मोहन उर्फ चांद मोहम्मद औऱ अनुराधा बाली उर्फ फ़िज़ा की, जो कुछ महीने पहले ही प्यार की पता नहीं कौन कौन सी कसमें खाया करते थे। उसके बाद दोनों के बीच बढ़ी दूरियों के बारे मे भी हर शख्स जानता है फिजा की बात तो बडी ही मज़ेदार है। पहले इतना रोई कि लगा कि अब तो धोखा खाकर अक्ल खुल गई होगीलेकिन पिछले दिनो जब चांद मोहम्मद वापस गये तो तो जैसे प्रेम को फिर कोई पंख लग गये हों। एक बात समझ नहीं आती कि मियां ये कि जब आप दोनो का पहले विवाह हो चुका था तो प्रेम की पींगे क्यों बढ़ाई? अपनी और साथ ही साथ प्रेम शब्द को इन दोनों ने इतना दागदार कर दिया है कि प्रेम एक पवित्र रिश्ता होकर मात्र जिस्मों के मिलन का एक बहाना मात्र हो गया है। चांद मोहम्मद जो कि मेरे ख्याल से मे 50 की उम्र को पार कर चुके होंगे ने कहा है कि वो फिजा़ से नहीं मिल रहे थे क्योंकि उन्हे भड़काया गया था।अरे रे मेरे भड़काउ शेर जब मौज लेनी हुई तो वापस गये जब जी भर गया तो फिर वापस भड़का जाओंगे क्यो चाँद साहब आपकी नजर में मौज लेना प्रेम है क्या? वैसे बात कुछ भी कहो कमाल का राजनीज्ञ है चंद्र मोहन, जिसका तथाकथित प्रेम भड़का तो दूसरी शादी तक कर ली वो भी धर्म बदल कर औऱ साथ ही पहली को छोड़ भी दिया औऱ जब जी भरने सा लगा तो चल दिये विदेश दूसरी की तलाश मे अब कौन सा धर्म बदल रहे हो विदेशी मेम के चक्कर में कहीं क्रिस्चियन तो नहीं बन रहे हो। इन जैसे प्रेमियों की करतूतों की वजह से प्रेम जैसी पवित्र बंधन दूषित होता है कम से कम इन जिस्मानी प्रेम के भूखों को तो प्रेमी जोड़ो का नाम नहीं देना चाहिएनहीं तो प्रेमबदनाम होता है। इस फिज़ा को तो कौन कहे पता नही ये बेवकूफ है या बेवकूफ होने का नाटक करती है। मीडिया मे इतने ड्रामे करने के बाद भी चंद्र मोहन के मोहनी सूरत में पड़ गयीया इसे भी राजनीति का चस्का चढ़ा था, जो अपना रास्ता साफ करने के लिए हरियाणा के पूर्व उप मुख्यमंत्री को चुन लिया कि जैसे ही धोखा देने की बात होगी। ड्रामा करुंगी और जैसे ही वापस आयेगा थक हारकर इज्जत बचाकर तो अपनाने का नाटक करके फिर अपनी गोटिया फिट करुंगी चांद को जाने के बाद आपने देखा ही होगा कि किस तरह तथाकथित छली गई लड़की को अपनाने के लिए किस तरह लोग सामने आये थे अब तो उन्हें भी शर्म रही होगी कि किन चक्करों में फंसा दिया इस लड़की ने......

14.6.09

चाँद और फिजा फिर साथ, फिर अलग, फिर...

दोस्तों उस समय जो अन्तिम पंक्ति हमने लिखी थी, वह वाकई सार्थक हो चुकी है कि इस अजीब कहानी का कल क्या होगा? आज जैसा कि आप सब जानते हैं वें फिर से अलग हो चुके हैं। हालाँकि यहाँ हम किसी धर्म विशेष को अपनाने या त्यागने की बात कतई नही कर रहे और ना ही इससे हमें कोई सरोकार है। बस सवाल ये है कि क्या ऐसे ड्रामेबाज़ लोगों को राजनीति में जगह मिलनी चाहिए? क्या राय है आपकी???
फ्लैश बैक:- हरियाणा के पूर्व डिप्टी सी एम चन्द्रमोहन बिश्नोई उनकी माशूका अनुराधा बाली के प्या के किस्से सभी बखूबी जानते हैं दोनों ने इस्लाम कुबूल करने के बाद अपने नाम बदल लिए चंद्रमोहन जहाँ चाँद मोम्मद बन गए, वहीँ अनुराधा बाली फिज़ा मोहम्मद हो गईं कहा जाता है कि दूसरी शादी करने के लिए इन्होने अपना धर्म परिवर्तित किया यानि हिंदू से मुसलमान हो गए चाँद पहले से शादीशुदा है तो फिजा तलाक़शुदा है
दोनों की शादी हो गई और यह शादी इतनी मकबूल हुई कि दोनों की इस स्टोरी पर फ़िल्म तक बनने की तैयारी होने लगी परन्तु अचानक एक दिन पता नही क्यों चाँद, फिजा को सोती छोड़कर फुर्र हो गए फिजा ने चाँद पर अनेक आरोप जड़ दिए दोनों के बीच खटास इतनी बढ़ी कि आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला आम हो गया और दूरियां बढ़ती चली गईं यहाँ तक कि नौबत तलाक तक पहुँच गई
परन्तु आज इस स्टोरी में अचानक नया ट्विस्ट गया फिजा ने एक प्रेस कोंफ्रेंस बुलाई जहाँ चाँद मोहम्मद को देख मीडिया के लोग भी हैरान हो गए फिजा ने कहा कि मुझे मनाने के लिए पहले तो चाँद ने फोन किए और कुछ लोगों को भी भेजा था, उसके बाद आज सुबह बजे से स्वयं मेरे घर पर बैठे हैं
जब चाँद से फिजा के घर आने की वजह पूछी गयी तो उन्होंने कहा कि मुझे बहकाया गया था यानि मै बहकावे में गया था और अब मै फिजा से माफी मांगने आया हूँ चाँद ने यह भी कहा कि उन्होंने फिजा को तलाक़ नही दिया था हालाँकि फिजा ने चाँद पर लगाए इलज़ामात को वापिस लेने बारे स्पष्ट नही किया सिर्फ़ कहा कि इस बारे सोचूंगी
आज तक की कहानी जो कल के अख़बारों में छपेगी, हमने आपको बता दी। इस अजीब कहानी का कल क्या होगा? खुदा जाने