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9.2.10

स्वयं को समय दे पाना भी दूभर I

आज की तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी में इंसान इस कद्र लिप्त हो चुका है कि अपने-आपको समय दे पाना भी दूभर हो गया है. ऐसे में वह कह उठता है :-
ज़रा देर में आना ऐ होश I
अभी कहीं मै गया हुआ हूँ II

4.2.10

तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी हैरान हूं मैं...??




















घटना - एक
थ्रूआउट फर्स्टक्लास और गोल्ड मेडलिस्ट अनन्य बाजपेई (26) मुंबई में भाई के साथ रहकर सीए की पढ़ाई कर रहा था. इस बार उसका अंतिम साल था. परीक्षा की तैयारी ठीक से न होने के कारन डिप्रेशन में आ गया. परीक्षा की तारीख नजदीक आने से उसका डिप्रेशन बढ़ता जा रहा था. मुंबई से वह कानपुर अपने घर आ गया. घर पर ही रहकर परीक्षा की तैयारी करने लगा. अपने कमरे के बाहर 'डोंट डिस्टर्ब' का बोर्ड लगाकर घंटों पढ़ता. डिप्रेशन इतना ज्यादा बढ़ा गया की एक दिन अनन्य बाजपेई ने कमरे में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. फांसी पर लटकाने से पहले अनन्य ने अपनी मां के नाम ख़त भी लिखा. उसने लिखा- 'मां आई लव यू! मैं आपसे बहत प्यार करता हूं, पढ़ाई के कारन थोड़ी उलझन है इसलिए हमें माफ़ कर देना...!!!'


















घटना - दो
छत्रपति साहूजीमाहराज विश्वविद्यालय, कानपुर से बीबीए द्वितीय वर्ष का सनी (20) ने पढ़ाई के दबाव के कारन तनाव में आकर घर में चादर से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली.












घटना - तीन
११ साल की नेहा काफी अच्छा नाचती थी. वह बूगी-वूगी सहित तीन टीवी रियलिटी शो में अपनी इस कला का लोहा मनवा चुकी थी. नेहा डांस के बजाय पढ़ाई पर ध्यान देने की माता-पिता की जिद की वज़ह से तनाव में आकर आत्महत्या कर लिया.


















घटना - चार
कक्षा सात में पढ़ने वाले सुशांत पाटिल सोमवार की सुबह सात बजे स्कूल आए लेकिन क्लास में नहीं दिखे. हाज़िरी के व़क्त उनकी ग़ैरमौजूदगी देख उन्हें खोजा जाने लगा तो टॉयलेट में उनकी लाश झूलती पाई गई. कुछ विषयों में फेल हो जाने की वज़ह से तनाव में आकर सुशांत ने शौचालय में लटककर प्राण दे दिए.


















घटना - पांच
मेडिकल की पढ़ाई करने वाली १८ साल की भजनप्रीत भुल्लर ने पवई स्थित अपने घर पर ख़ुदकुशी कर ली. वह सायकोथेरेपी की छात्रा थी और फेल हो चुकी थी.


















घटना - छह
'नजफगढ़' के नंदा एंक्लेव में १९ साल की रीना ने फांसी लगाकर ख़ुदकुशी कर ली. उसके पास से एक नोट मिला है जिसमें उसने अपनी मर्ज़ी से ख़ुदकुशी करने की बात लिखी है. वह कैर गाँव स्थित भगिनी निवेदिता कॉलेज में पढ़ती थी. उसके पिता श्री ओम फौज से रिटायर हैं. पुलिस को जांच में पता चला कि वह कुछ समय से तनाव में रहती थी.









घटना - सात
दक्षिणपुरी की रहने वाली हिमांशी के प्री-बोर्ड परीक्षा में कम अंक आए थे और वह तीन विषय में फेल हो गई थी. छात्रा की एक नोटबुक पुलिस को मिली है जिसमें उसने गत २५ दिसंबर को आए दिन मां द्वारा डांटने फटकारने की बात लिखी है. उसके परिजनों का आरोप है कि कम अंक लाने पर छात्रा के साथ स्कूल में गलत व्यवहार किया जाता था जिस कारण से उसने ख़ुदकुशी कर ली.
हम बचपन से सुनते और पढ़ते आए हैं कि शिक्षा व्यक्ति को स्वावलंबित बनाती है. अज्ञानता की ग्रंथियों को खोलकर उसमें ज्ञान का प्रकाश प्रवाहित करती है. पढ़-लिखकर व्यक्ति अपने साथ-साथ परिवार और देश का नाम रोशन करता है. किन्तु उपरोक्त घटनाएं यह दर्शाती हैं कि वर्तमान समय में शिक्षा स्वावलंबन का कारक न बनकर आत्महत्या का कारण बनती जा रही है. ऐसी शिक्षा किस काम की...?? जो आत्महत्या करने को मज़बूर कर दे. निःसंदेह यह आज एक चिंतन का विषय बन गया है कि अतिआधुनिकता, अतिमहत्वाकांक्षा और अतिभौतिकता के दो पाटों के बीच पिस रहे अपने बच्चों का हमने कहीं उनका बचपन तो नहीं छीन लिया है...???
आंकड़ों की दृष्टि से देखें तो ये आंकड़े निश्चित रूप से डराने वाले हैं. आए दिन बच्चों की आत्म्हाया करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. अभिभावकों की असीमित अपेक्षाओं के दबाव से बच्चे उदासीनता में जीने को मज़बूर होने लगें हैं. इन घटनाओं के पीछे माता-पिता की आपसी अनबन और पढ़ाई का बढ़ता दबाव प्रमुख कारण रहा है. जिसके चलते बच्चे आत्महत्या करने को उत्प्रेरित होने लगे हैं. मनोचिकित्सकों का कहना है कि वर्तमान प्रतिस्पर्धात्मक समय में माता-पिता "आइडियल चाइल्ड सिंड्रोम" से ग्रस्त होने के कारण अपने बच्चे को स्पेशल किड से स्मार्ट किड और स्मार्ट किड से सुपर किड बनाने की भावना बलवती हुई है. अतिमहत्वाकांक्षी हो चुके माता-पिता के सज़ा बच्चे भुगतने को अभिशप्त है.
बच्चों में आत्महत्या के लिए उकसाने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है उनकी ज़िन्दगी में बढ़ता एकाकीपन. पहले यह एकाकीपन अतिसमृद्ध और संपन्न लोगों की ज़िन्दगी का हिस्सा था. वैश्वीकरण के फलस्वरूप कुछ सालों से शहरी जीवन जितना जटिल और महंगा हो गया है उसके चलते सामान्य माध्यमवर्गीय घरों की महिलाओं का नौकरी करना भी अनिवार्य हो गया है. पहले माता-पिता के बीच भी अनबन होती थी किन्तु बच्चों की ज़िंदगी में उनकी दूरी नहीं थी. पहले दादा-दादी का प्यार था. गर्मियों की छुट्टियों में ननिहाल जाने की उत्सुकता रहती थी. इन सबकी जगह अब टीवी, कम्प्यूटर, इंटरनेट और मोबाइल ने लिया है. आत्महत्या का दूसरा प्रमुख कारण शिक्षा का वर्तमान ढांचा है. शिक्षा के सरौते ने बच्चों से बचपना काटकर उन्हें रोबोट में तब्दील कर दिया है.
अभिभावकों को अपना मूल्यांकन करना होगा. अपने सपनों का लबादा बच्चों के बचपन पर लादने से काम नहीं चलेगा. यदि हम चाहतीं/चाहते हैं कि " मेरा नाम करेगा रोशन जग में राज दुलारा/दुलारी", तो बच्चों के बचपन पर अपनी अपेक्षाओं की आग न सुलगाएं. कहीं उस आग में हमारे बच्चे गोल्ड मेडल और नंबर की दौड़ में अपनी जीवनलीला समाप्त न कर लें. अभिभावक पहले स्वयं को अनुशासित करें. क्योंकि बच्चों के प्रथम शिक्षक माता-पिता ही होते हैं. यदि माता-पिता का व्यवहार अनुशासित रहेगा तो बच्चों का बचपन शायद बच जाए.

















फिलहाल ज़िन्दगी से जुड़ी कुछ पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं गौर फरमाएं....
"तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी
हैरान हूं मैं
तेरे मासूम सवालों से
परेशान हूं मैं
जीने के सोचा ही नहीं
दर्द संभालने होंगे
मुस्कुराए तो मुस्कुराने के
क़र्ज़ उतारने होंगे...!!"

प्रबल प्रताप सिंह

24.12.09

रास्ट्र वादिता और प्रगति

आदरणीय अकबर जी से बात हुई और मैंने उनसे आज्ञा ली दरअसल मै रास्ट्र चिंतन और रास्ट्र प्रगति पर एक जन जाग्रति अभियान चलाना चाहता था जिसके लिए मैंने मांननीय अकबर जी से दनेटप्रेस को रास्ट्र वादी मंच के रूप में प्रयोग करने का आग्रह किया और मुझे ख़ुशी इस बात की है आंतरिक सामाभाव रखने वाले अकबर जी ने मेरे अनुग्रह को स्वीकार करते हुए मुझे इसकेलिए आज्ञा तो दी ही साथ ही प्रोत्साहित भी किया और अपनी सक्रीय भागीदारी का अस्वाशन भी दिया ,,,,अतः मै उनका ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ और \हाजिर हूँ रास्ट्र वाद पर अपना चिंतन लेकर


जब कभी भी सामाजिक व्यवस्थाओ में परिवर्तन होता है ,--उनकी गति और अविरल प्रवाह में परिवर्तन होता है ,, तब नयी व्यवस्थाये जन्मती है और धीरे धीरे पुरानी व्यवस्थाये विलुप्त होने लगती है--- ,व्यवस्थाओ के इस परिवर्तन का समाज और रास्ट्र पर बहुत व्यापक प्रभाव पड़ता है , यह प्रभाव सकारात्मक या नकारात्मक दोनों ही हो सकता है ----, यदि प्रभाव सकारात्मक है तो थोड़ी हील हुज्जत के बाद ये व्यवस्था समाज द्वारा स्वीक्रत हो जाती है,---- और पुरानी व्यवस्था की जगह ले लेती है , परन्तु यदि यही प्रभाव नकारात्मक होता है,, तो इसके खिलाफ रास्ट्र वाद की दुहाई देता हुआ एक प्रबुद्ध वर्ग खड़ा हो जाता है ,,और व्यवस्था परिवर्तन का विरोध करता है ,, आम जन उस समय कर्तव्य विमूढ़ होता है ,,वह ना तो नयी व्यवस्था को पूर्णता अस्वीकार करता है--- और न ही स्वीकार ही , प्रबुद्ध वर्ग द्वारा असंगत व्यवस्था परिवर्तन के विरोध को और अल्प प्रबुद्ध वर्ग(यहाँ प्रबुद्ध वर्ग और अल्प प्रबुद्ध वर्ग के मेरे मानक के अनुसार चिंतन शील समाज का वह वर्ग जो प्रगति का तो विरोधी नहीं है- परन्तु किसी भी व्यवस्था परिवर्तन को पूर्ण चिंतन और मनन के साथ ही स्वीकार करता है तथा भविष्य की पीढियों पर उस व्यवस्था परिवर्तन का क्या प्रभाव पड़ेगा इसके प्रति जाग्रत होकर ही व्यवस्था परिवर्तन को स्वीक्रति देता है -प्रबुद्ध वर्ग में आता है --समाज का वह वर्ग जो समाज और रास्ट्र के हितो के प्रति तो चिंतित होता है ,,परन्तु उसका यह चिंतन सामायिक और वर्तमान परस्थितियों को लेकर ही होता है समाज और रास्ट्र पर व्यवस्था परिवर्तन के द्वारा पड़ने वाले दीर्घ गामी प्रभाव को लेकर ये वर्ग मौन होता है अल्प प्रबुद्ध वर्ग में आता है ) द्वारा व्यवस्था परिवर्तन के समर्थन को आंख बंद कर के ही देखता है ,--- यदि पुरानी व्यवस्था असंगत और शोषक है तो यह वर्ग उसके शोषण को तो महसूश करता है और उसके परिवर्तन की उत्कंठा भी रखता है परन्तु यह बिना चिंगारी का ईधन है ,जो आग को जलाए तो रख सकता है परन्तु जिसमे आग उत्पन करने की क्षमता नहीं है यही वो वर्ग है जो दोनों वर्गों ( प्रबुद्ध और अल्प प्रबुद्द वर्ग ) द्वारा आसानी से अपने साथ जोड़ा जा सकता है ,,, इस वर्ग द्वारा राष्ट्रीयता रास्ट्र वाद और रास्ट्र भक्ति की कोई स्वनिर्धारित व्याख्या नहीं होती . यह विभिन्न वर्गों द्वारा निर्धारित रास्ट्र वाद की व्याख्याओ के अनुसार अपने आप को रास्ट्रवादी सिद्ध करने का प्रयाश करता रहता है,,, अब यहाँ जो मुख्य बात पर दिखती है वह यह है की समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग रास्ट्र वाद के स्पस्ट और तर्क पूर्ण अर्थ से ही अनभिग्य है तिस पर विभिन्न राजनैतिक और सामाजिकदलों ने
अपने फायदे के हिसाब से रास्ट्र वाद की मनगढंत व्यखाये करके कोढ़ में खाज का काम किया है ,, जिससे बहुत बड़ा और दीर्घ गामी नकारात्मक प्रभाव समाज पर पड़ा ,और आम जन की रूचि अस्मिता और आत्म गौरव से जुड़े इन शब्दों से हट गयी ,, इन शब्दों को इतना गूढ़ कर दिया गया की ये शब्द भारी साहित्य की तरह नीरश और भारी लगने लगे जिनका प्रयोग लिखने पढने और बोलने तक ही रह गया और आम जन का जुड़ाव इन शव्दों से ख़त्म होने लगा ,, जब की सीधे शव्दों में देखा जाए तो अपनी अस्मिता और पहिचान को बचाए रखने के लिए नकारात्मक व्यवस्था परिवर्तन का विरोध ही प्रखर रास्ट्र वाद है ,,और यही सच्ची रास्ट्र भक्ति है . क्यों की रास्ट्र वादिता है तो रास्ट्र है और रास्ट्र है तो राष्ट्रीयता और यही रास्ट्रीयता हमारी पहिचान है ,, तो इन अर्थो में रास्ट्र वाद कोई गूढ़ विषय न होकर वयक्तिक विषय है जो सीधे सीधे व्यक्ति विशेष से जुड़ा है,, रास्ट्र वाद की व्याख्या में दो सबसे महत्पूर्ण अवयव है रास्ट्र और जन ,, रास्ट्र संस्क्रति , अध्यात्म ,धर्म दर्शन तथा भूखंड का वह भाग है जिसमे जन निवास करते है ,,, जन किसी भी रास्ट्र में रहने वाले मनुष्यों का वह समूह जो उस रास्ट्र की सांस्क्रतिक ,अध्यात्मिक, धार्मिक और इतिहासिक पहिचान की ऱक्षI करते हुए और उससे गौरव प्राप्त करते हुए निरंतर उस रास्ट्र की प्रगति और उत्थान के लिए प्रयाश रत रहता है जन कहलाता है ,, यहाँ ये ध्यान देने योग्य बात है की किसी भी रास्ट्र की भौगोलिक सीमाए परिवर्तनीय हो सकती है परन्तु किसी रास्ट्र का आस्तित्व तभी तक है जब तक उसकी सांस्क्रतिक और अध्यात्मिक पहिचान जिन्दा है जिसके ख़त्म होते ही रास्ट्र विलुप्त हो जाता है , और वह केवल भूखंड का एक टुकड़ा मात्र रह जाता है . यही सांस्क्रतिक धार्मिक और अध्यात्मिक पहिचान जन में राष्ट्रीयता का बोध कराती है, परन्तु एक जो चीज सबसे महत्व पूर्ण है वह ये है की रास्ट्र और जन एक दुसरे के पूरक तो है, परन्तु रास्ट्र सर्वोच्च है , जन के पतन से रास्ट्र का शनै शनै पतन तो होता है परन्तु रास्ट्र के पतन से जन का सर्व विनाश हो जाता है , अतः रास्ट्र की सर्वोच्चता और अस्तित्व को बनाये रखना प्रत्येक जन का कर्तव्य है क्यों की रास्ट्र है तो जन , रास्ट्र प्रेम की यही भावना रास्ट्र वाद है जिसमे व्यक्तिगत हितो को तिरोहित करके संघ समाज समूह के विस्तर्त वर्ग में अपना हित देखा जाता है,,यही त्याग की भावना रास्ट्रवादी होने का गौरव प्रदान करती है ,, अगर इसे सीधे शब्दों में देखे तो अपनी पुरातन उर्ध गामी व्यवस्था संस्क्रति और गौरव को बचाए रख कर प्रगति के मार्ग पर बढ़ना ही सच्चा रास्ट्र वाद है-- , यही राष्ट्रीयता की भी सच्ची पहिचान है ,,जो आज कल विभिन्न राजनैतिक दलों संगठनों द्वारा प्रचारित रास्ट्र वाद की व्याख्या से सर्वथा अलग है , अगर हम विभिन्न राजनैतिक दलों और संगठनों द्वारा प्रचारित रास्ट्र वाद का विश्लेषण करे तो तो हम यही पाते है की उनके द्वारा प्रचारित रास्ट्र वाद अधूरा रास्ट्र वाद है, और वे पूर्ण रास्ट्र वादिता का समर्थन नहीं करते ,,क्यों की कोई भी वाद एक के द्वारा स्वीकार्य तथा दूसरे के द्वारा अस्वीकार्य और दूसरे के द्वारा स्वीकार्य और पहले के द्वारा अस्वीकार्य हो कर प्रखर रास्ट्र वाद की व्याख्या नहीं कर सकता ,,,,,,
इसे हम धर्म से भी नहीं जोड़ सकते ,क्यूँ की हम किसी विशेष धर्म को रास्ट्र वादी और दूसरे को रास्ट्र विरोधी तब तक नहीं मान सकते जब तक उस धर्म के मानने वाले रास्ट्र वाद की परिक्षI में पास या फेल नहीं होते , अब हम फिर उसी विषय पर आ जाते है की आखिर रास्ट्र वाद है क्या ?क्या किसी एक वर्ग विशेष द्वारा प्रतिपादित मानको को पूरा करना रास्ट्र वाद है या फिर दूसरे वर्ग द्वारा निर्धारित मानको को पूरा करना सच्चा रास्ट्र वाद है ,,,इसे हम आधुनिक परिपेक्ष में सबसे विवादस्पद विषय वन्दे मातरम को ले कर देख सकते है , एक वर्ग विशेष इसके गायन को प्रखर रास्ट्र वाद और इसके विरोध को रास्ट्र द्रोह मानता है , वही दूसरा वर्ग इसके गायन की बाध्यता को धार्मिक स्वतन्त्रता का हननमानता है,, अब इन दोनों में किसे रास्ट्र वादी कहा जाए और किसे नहीं ,,यहअपर मै अपने विचार स्पस्ट करना चाहूँगा " की किसी व्यक्ति के अन्दर रास्ट्र वाद को डर ,भय ,प्रलोभन और बाध्यता के द्वारा नहीं पैदा किया जा सकता है , यह वो भावना है जो व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठ कर आत्म गौरव और सामाजिक त्याग से शुरू होती है ,,जो केवल और केवल जाग्रति के द्वारा ही संभव है , मै नहीं मानता की जो वन्देमातरम नहीं गाते वो रास्ट्र वादी नहीं और न मै ये मानता हूँ की जो वन्देमातरम गाते है वो प्रखर रास्ट्र वादी है ,,रास्ट्र वाद एक भावनात्मक जुड़ाव है जो संस्क्रति के प्रति महसूस होने वाले गौरव के रक्षIर्थ स्वत उत्पन्न होता है ,,ये बाध्यता नहीं है परन्तु आस्तित्व का संघर्ष है ,,अतः रास्ट्र वादिता के विराट स्वरूप को किसी गीत संगीत या दलगत राजनीति के मानको में ढालना उचित नहीं है ,,,रास्ट्र वाद आस्तित्व की पहिचान है ,,,जो जाति समाज वर्ग, धर्म और संघ से ऊपर उठी हुई त्याग की एक भावना है जो पूर्णता पुष्ट होने पर बलिदान में परिवर्तित हो जाती है ,,रास्ट्र वाद की उस श्रेष्ठता में पहुचने पर व्यक्तिगत आबश्यकताये व्यक्तिगत पहिचान , और व्यक्ति विषेयक सारे नियम रास्ट्र के हित में तिरोहित हो जाते है यही प्रखर रास्ट्र वाद की अति है ,, जो धर्म जाति और वर्ग संघर्ष से ऊपर है ,,रास्ट्र वादिता में जो एक चीज मुख्य रूप से दिखाई देती है वो हैआत्म त्याग की निस्वार्थ भावना ,, क्यूँ की इसके न रहते हुए रास्ट्र वाद की बात नहीं की जा सकती ,, जहा रास्ट्र जन के सम्मान पहिचान और गौरव के लिए उत्तरदायी होता है,, और जहाँ जन रास्ट्र के इतिहास प्रगति और उत्थान से गौरव पाते है,,वही रास्ट्र की सांस्क्रतिक विरासत को बनाये रखना और रास्ट्र को निरंतर प्रगति के पथ पर बढ़ाये रखना प्रत्येक जन का परम कर्तव्य होता है ,,,,,
इसे हम इस प्रकार समझ सकते है ,,की जन का एक वर्ग जहा रास्ट्र के लिए प्रगति और उत्थान कर उसके गौरव को निरंतर चर्मौत्कर्ष पर ले जाता है ,,वही दूसरा वर्ग रास्ट्र की संस्क्रति विरासत और इतिहास को सभाल कर आने वाले पीढ़ी को गौरवान्वित करने की व्यवस्था करता है,,और आने बाली पीढ़ी अपने गौरवान्वित इतिहास सेआत्म संबल प्राप्त कर के रास्ट्र के उत्थान में नित नए आयाम स्थापित करती है ,,,अतः रास्ट्र वादिता उत्थान की सीढ़ी है ,,,और चर्मोत्कर्स पर पहुचने का तरीका है

बिना रास्ट्र के जन अस्तित्व हीन है अतः आस्तिव को बचाए रख ने के लिए रास्ट्र वादिता नितांत आवश्यक है ,,,परन्तु रास्ट्र वादिता प्रलोभन नहीं है वह स्वीक्रति है, निर्भरता नहीं है उन्नति है ,,,, और प्रखर रास्ट्र वादिता से नित नयी उन्नति की जा सकती है और उन्नति के लिए नए आयाम स्थापित किये जा सकते है ,,,अतः रास्ट्र वादिता और प्रगति की प्रचलित वो धारणा की रास्ट्र वादिता में संस्क्रति और इतिहास के संरक्षण के कारण रास्ट्र वादिता प्रगति के मार्ग में बाधक है और प्रगति से रास्ट्र वादिता खो जाती है,,नितांत भ्रामक है,,,अतः रास्ट्र वादिताऔर प्रगति दोनों एक दूसरे के पूरक है ,,,प्रगति के नए आयामों के संयोजन के बिना तथा पुराने गौरव को बचाए बिना रास्ट्र को बचाना मुश्किल है ,,,अतः प्रखर रास्ट्र वादिता के लिए प्रगति वादिता आवश्यक है ,,परन्तु यह भी ध्यान रखना होगा की प्रगति वादिता के मानक रास्ट्र के गौरव मय इतिहास और संस्क्रति को ध्यान में रख कर ही तय करने होगे वही सच्ची रास्ट्र भक्ति होगी और वही सच्ची रास्ट्र वादिता होगी अंत में दो शब्दों के साथ मै अपनी लेखनी को विराम देता हूँ ,,,
"जिस व्यक्ति के अन्दर अपनी संस्क्रति सभ्यता और इतिहास को सजोने की क्षमताऔर प्रगति के नित नए आयाम स्थापित करने की तत्परता नहीं है वो न तो रास्ट्र वादी है और न ही प्रगति वादी है वो निरे पशु के सिवा कुछ भी नहीं है " ,

17.9.09

जनता - जानवर या जनार्दन ?

जनता जानवर है या जनार्दन या भगवान । यह तो हमारे देश के नेता तय करते हैं । वक़्त वक़्त के हिसाब से नजरिया बदलता है । चुनाव के समय जब वोट की आवश्यकता होती है तब तो जनता जनार्दन अथवा भगवान् होती है बाकी समय तो जानवर होती है और यही सोच को हमारे विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर ने जग जाहिर कर ही दी है की देश की इकोनोमी क्लास जिसमे जनता सफर करती है को केटल क्लास ( अर्थात जानवर के स्तर की श्रेणी ) कहकर । और यह सही भी तो है जो दिल मैं जनता के प्रति भाव है वह तो वाही तो मंत्री जी के श्रीमुख से बाहर निकला है की जनता जानवर के समान है । जिस पर क़र्ज़ का जितना बोझ डालों और ख़ुद उस क़र्ज़ के पैसे से खर्चीली जीवन शैली अपनाओं , अपने मन मुताबिक कानून को अपनी मुट्ठी मैं रख जनता को जैसा चाहे हांको , अव्यवस्था , मंहगाई और असुरक्षा के ख़राब माहोल मैं जनता को जानवर जिंदगी जीने हेतु छोड़ दो और ख़ुद पाँच सितारा और आराम जिन्दगी जियो । बस दो वक़्त की रोजी रोटी जुटाने हेतु उसकी जिन्दगी को खपा दो ताकि उसके पास न तो उनकी करतूत देखना का वक़्त हो और न ही देश के बारे मैं कुछ सोचने और पूछने का समय मिले ।

तो जनता के प्रति इस तरह की सोच रखने वाले नेताओं और जनप्रतिनिधियों और मंत्रियों से जन हित और जन कल्याण की अपेक्षा की जा सकती है । क्या इस तरह से पाँच सितारा होटलों मैं रहने वाले और वातानुकूलित खर्चीली यात्रा करने वाले , ऐशो आराम वाली जिन्दगी जीने वाले मंत्रियों से आम जनता के हितों के अनुरूप नीतियों के निर्धारण और क्रियान्वयन की उम्मीद की जा सकती है । जो आम लोगों के बीच न रहकर और जाकर उनके जीवन और जीवन शैली मैं झाँकने का प्रयास न करे और उन्हें और उनकी जिन्दगी की तुलना जानवर से करके देखे , क्या ऐसे व्यक्ति आम लोगों की समस्या और आवश्यकता से अच्छी तरह से रूबरू और वाकिफ हो सकता है । क्या ऐसे नेता आम जनता के सच्चे प्रतिनिधि हो सकते हैं ।

जरूरत है ऐसे जनप्रतिनिधि को पहचानकर इन्हे संसद , विधानसभा अथवा सरकार मैं जाने से रोका जाए और ऐसे जनप्रतिनिधि को चुना जाए जो जनता को जानवर नही अपितु जनार्दन समझे , जो जनता के हमदर्द हो और जनता के दुःख दर्द और मुसीबत मैं काम आए , लोगों की भावना और आवश्यकता के अनुरूप काम करें ।

15.9.09

भ्रष्ट्राचार को देश की कार्यसंस्कृति का हिस्सा बनने से रोकना होगा !

क्या भ्रष्टाचार देश के लोगों की कार्यसंस्कृति बन गया है और कंही न कंही भ्रष्टाचार को शिष्टाचार के रूप मे स्वीकार करने की मौन स्वीकृति दी जा चुकी है । क्योंकि अवसरवादिता के इस युग मे जरूरत पड़ने पर अधिकाँश लोग अपना काम निकलवाने हेतु किसी न किसी रूप मे चाहे उपहार के रूप मे हो अथवा नकद राशि के रूप मे, घूंस देने मे परहेज नहीं करता है । नतीजतन देश के हर बड़े और छोटे कार्य बिना किसी लेनदेन के नहीं हो रहे हैं । भ्रष्टाचार की यह नदी चाहे ऊपर से नीचे की बात करें या फिर नीचे से ऊपर की बात करें , दोनों दिशाओं मैं बह रही है । या यह कहें की यह दो दिषीय और दो धारिया होकर विकराल और बड़ा रूप धारण कर चुकी है । और इससे अब न्यापालिका संस्था भी अछूती नहीं रह गयी है, जिसे की माननीय मुख्या न्यायधीश भी स्वीकारने मैं गुरेज़ नहीं कर रहे हैं । हमारे प्रधानमन्त्री भी इस पर अपनी चिंता जता चुके हैं ।
कंही न कंही हमारे समाज और पूर्वज ने भी इस भ्रष्टाचार के पौधे को सीचने का काम किया है । जहाँ हम घर के बच्चों को अपने अनुरूप कार्य करवाने हेतु उसके मनपसंद चीज़ का प्रलोभन देते हैं, वहीं अपने पक्ष मे कार्य करवाने हेतु बड़े लोगों द्वारा भी उपहार का आदान प्रदान भी किया जाता है । यंहा तक कि भगवान को मनाने हेतु एवं कार्य सफल हो जाने पर बड़ी से बड़ी एवं कीमती चीजों का चढाव देने से भी नहीं चूकते हैं । संभवतः यही आदान प्रदान का रूप आज विकृत एवं विकराल भ्रष्टाचार का रूप ले चुका है जो इस समाज और देश को खोखला कर रहा है ।
तो क्या भ्रष्टाचार एक कभी न सुलझने वाली एवं चिरस्थायी समस्या बन चुकी है । क्या इस पर अंकुश लगाना और इसे जड़ से खत्म करना नामुमकिन हो गया है । मुझे लगता है बिलकुल नहीं । जरूरत है तो राजनीतिक एवं प्राशासनिक स्तर पर दृढ इच्छा शक्ति से इस पर अंकुश लगाने एवं ठोस कदम उठाने की। लोगों को अपने अधिकार के प्रति जागरूक होने और जागरूक करने की । शिक्षा के व्यापक प्रसार प्रचार करने की । प्रशासनिक कार्यप्रणाली को पूर्णतः चुस्त दुरुस्त , जवाबदेह एवं पारदर्शी बनाते हुए कुछ इस तरह के सख्त कदम उठाने की ।
१. देश के लोगों का पैसा विदेशी बैंकों मे जमा करने पर रोक लगाना ।
२.१०० से बड़े नोटों का चलन बंद करना ( स्वामी राम देव बाबा के अनुसार ) ।
३. लघु अवधि मैं त्वरित एवं निष्पक्ष रूप से कार्यवाही पूर्ण कर भ्रस्ताचारियों एवं दोषियों को कड़ी सजा दिलवाना ।
४. प्रतिवर्ष शासन द्वारा क्षेत्र के विकास और जनकल्याण हेतु जारी की जाने वाली राशिः का जिलेवार , विभागवार और कार्यवार जानकारी एवं उसके अनुसार कार्यों की समीक्षा रिपोर्ट सार्वजनिक प्रस्तुत करना ।
५. प्रतिवर्ष सरकारी कर्मचारियों / अधिकारियों से लेकर विधायक , सांसद एवं मंत्रियों को अपनी संपत्ति का व्योरा सार्वजानिक करना एवं उनके द्वारा अपने कर्तव्यों के पालन मैं किये कार्यों का व्योरा प्रस्तुत करना ।
६. सूचना के अधिकार का दायरा और व्यापक कर सभी को इस दायरे मैं लाना । यंहा तक की निजी एवं गैर सरकारी संस्थाओं को भी इसके दायरे मैं लाना ।
७. विभिन्न महत्वूर्ण देश हित और जनहित से जुड़े न्यायालीन प्रकरण एवं विभिन्न महत्वपूर्ण जनहित और देश हित से जुड़े जांच एवं तफ्तीश प्रकरण की प्रगति रिपोर्ट प्रत्येक तीन माह मैं सार्वजनिक करना.
८. राज्य एवं देश की सरकारों द्वारा किये गया कार्यों का व्योरा , मंत्री , सांसदों और विधायकों एवं अधिकारियों के कार्यों का व्योरा प्रति तीन माह मैं सार्वजानिक करना एवं इनका जनता के सामने जनता की निगरानी मैं रखना ।
इस तरह के जवादेह और पारदर्शी पूर्ण ठोस कदम देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करने मैं महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं ।