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16.10.09

मुलाकात ड्रीम गर्ल हेमामालिनी से

ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी ने अपने निवास पर ''प्रैसवार्ता'' को दिये गये एक साक्षात्कार में बताया कि 16 अक्तूबर 1948 को तमिलनाडू के अमनकुडी क्षेत्र में उनका जन्म हुआ और उन्हांने आंध्र महिला सभा चेन्न से शिक्षा ग्रहण की। 1961 में सबसे पहले तेलगू फिल्म ''पांडव वनमासम'' में नर्तकी की एक छोटी भूमिका की और 1964 में फिल्मी जगत में आने का प्रयास किया, परन्तु तमिल निदेशक श्रीधर ने यह कहकर वापिसी कर दी, कि मेरे में स्टार बनने की अपील नहीं है, परन्तु मैंने साहस नहीं छोड़ा और प्रयास जारी रखा। 1968 में हेमा मालिनी ने प्रसिद्ध अभिनेता और निर्देशक राज कपूर के साथ फिल्म 'सपनों के सौदागर' द्वारा फिल्म जगत में प्रवेश किया।
1970 में देवानंद के साथ मेरी फिल्म 'जोनी मेरा नाम' रिलीज हुई और इस फिल्म की सफलता ने मुझे स्टार बना दिया। धमेन्द्र और संजीव कुमार के साथ मेरे डबल रोल वाली फिल्म 'सीता और गीता' 1972 में रीलिज हुई, जिसे दर्शकों का भरपूर स्नेह मिला। 1990 और 2000 के दशक में मैंने बहुत क फिल्में की, जबकि 2004 में अमिताभ बच्चन के साथ फिल्म 'वीर जारा' में काम किया। 1992 में हेमा मालिनी 'दिल आशना है' के जरिये निर्देशक बनी। इस फिल्म में शाहरुख खान और दिव्या भारती थी। मैंने टी.वी लड़ीवार 'नुपुर' का निर्देशन करने के साथ इसमें अभिनय भी किया। अभिनेत्री होने का एहसास किस प्रकार लेते हो, पूछे जाने पर हेमा मालिनी ने कहा कि यदि निदेशक तुम्हें कहानी सही ढंग से बताये, तो अभिनय सहज-सुभाव हो जाता है। मैंने हमेशा निदेशक के आदेश का पालन करते हुए भली भांति समझने उपरांत ही अभिनय किया है। कोई एवार्ड या सम्मान, पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि फिल्म 'सीता और गीता' के लिए 1973 में सर्वोत्तम अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरस्कार और 2000 में भारत सरकार द्वारा पदम श्री एवार्ड से सम्मानित किया
राजनीति की चर्चा करते हुए ड्रीम गर्ल बताती है कि उन्हें राजनीति में दिलचस्पी तो थी, मगर विनोद खन्ना द्वारा प्रेरित करने पर उसने राजनीति में उस समय कदम रखा, जब श्री खन्ना पंजाब राज्य के गुरदासपुर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे थे। यह कहना कि अभिनेता एक कुशल नेता नहीं बन सकता, गलत है। फिल्मी जगत के लोगों में भी, जितना भी हो सके, समाज के हर वर्ग की सहायता करने का जज्बा होता है। धमेन्द्र के साथ शादी उपरात पंजाब राज्य से जुडऩे पर पंजाब कैसा लगा, पूछे जाने पर हेमा मालिनी कहती है कि उन्हें पंजाब और चंडीगढ़ ही सबसे अच्छा लगता है। पंजाबी भाषा मैं सीख रही हूं और धमेन्द्र जी की इच्छानुसार पंजाब में ही फिल्म स्टूडियो खोलने पर विचार किया जा रहा है। नृत्य बारे पूछे जाने पर हेमा मालिनी ने ''प्रैसवार्ता'' से कहा कि नृत्य ईश्वर की सौगात है और वह नृत्य तथा अभिनय दोनों कर सकती है, हालांकि मेरी प्राथमिकता नृत्य है। 6 वर्ष की आयु से नृत्य कर रही हेमा मालिनी भरत नाट्यम, उड़ीसी मोहिनी अटम में अपनी कला का प्रदर्शन कर चुकी है।
शारीरिक फिटनैस कितनी जरूरी है, के बारे में उन्होंने बताया कि एक अभिनेत्री और नर्तकी के लिए शरीर फिट रखना बेहद जरूरी है। जरूरत पडऩे पर हेमा मालिनी डायटिंग भी करती है, नृत्य का सहारा लेने के साथ-साथ योगा भी करती है।
पंजाब प्रदेश में लड़कियों का अनुपात गिरने पर चिंतित हेमा मालिनी इस क्षेत्र में कुछ ऐसा करने की इच्छुक है कि सामाजिक बुराई भ्रूण हत्या को रोकने के लिए लोगों को जागरूक किया जाये। महिलाओं को अपने संदेश में ''प्रैसवार्ता'' के माध्यम से हेमा मालिनी की अपील है कि गर्भावस्था के समय लिंग निर्धारण जांच करवाने वाले परिवारजनों का डटकर विरोध करे और कानून भी उनकी मदद करेगा। अपनी अपील से सभी राजनीतिक पार्टियों से 33 प्रतिशत महिला आरक्षण की मांग भी हेमा मालिनी ने की है। भविष्य बारे उनका कहना है कि वह राज्य कंवर के साथ एक फिल्म में काम करने जा रही है, जिसमें उसकी प्रिय सहेली रेखा भी है। मुझे वही रोल अच्छे लगते हैं, जिनके जरिये अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर सकूं, परन्तु अब ऐसा लगता है कि अपने मनपसंद किरदार निभाने के लिए मुझे खुद ही फिल्म बनानी पड़ेगी। राजनीतिक मीटिगें, नृत्य प्रदर्शन, समाज सेवा की व्यवस्थाओं के चलते फिल्मों के प्रति रूझान कम हुआ है।
नई अभिनेतित्रयों को सलाह देते हुए उनका कहना है कि अपने आप पर हमेशा यकीन रखो, चुनौतियों का डटकर सामना करो, ताकि परस्थितियों का सामना करने में समर्थ हो जाओ। मार्ग में आने वाली असफलताओं से न घबराये, सफलता आपके कदम चूमेगी। अपनी कीमत पहचाने और अपनी बात पर दृढ़ रहने से मेरी तरह जवान महसूस करे।
द्वारा : प्रैसवार्ता

21.6.09

एक मुलाक़ात-प्रभु चावला के साथ

अपनी लेखनी का लोहा मनवा चुके और 'सीधी बात' से जानी-मानी हस्तियों से अहम बातें निकालने का माद्दा रखने वाले प्रभु चावला से बीबीसी के संजीव श्रीवास्तव ने अपने कार्यक्रम 'एक मुलाक़ात' के लिए बातचीत की। जिसे आपके लिए हम यहाँ भी प्रस्तुत कर रहे हैं।

आप लोगों की बांह मरोड़ने में माहिर हैं. ख़बर निकालने की आपकी क्षमता केभी कायल हैं. आपका क्या कहना है?

मेरे काटे हुए तो बहुत लोग हैं. कई तो मर भी गए हैं. मेरा कहना है कि पत्रकार को डरना नहीं चाहिए. मैं जब पत्रकारिता में आया था तो एक ही सिद्धांत था ‘फीयर नन, फेवर नन’. किसी से डरो नहीं और और किसी को डराओ भी नहीं. जो सच है उसे ही लिखो या दिखाओ.

हर हफ़्ते हम आपको ‘सीधी बात’ पर देखते हैं, आज खुद को माइक के सामने देखकर कैसा लग रहा है?

कुछ ख़ास नहीं. मैं तो तैयार होकर आया हूँ कि कोई मुझसे भी टेढ़ी बात पूछेगा. 25 साल प्रिंट में काम किया तो आम लोग मुझे जानते नहीं थे, सिर्फ़ आप जैसे चुनिंदा लोग ही जानते थे. टेलीविज़न पर जब से आया हूँ तो लोगों को ग़लतफहमी हो गई है कि हम भी सेलेब्रेटी हो गए हैं.
मुझे ख़बरों में दिलचस्पी है. जब तक दिन में एक दो नई ख़बरें न हों तो अच्छा नहीं लगता. मैं 63 साल का हो गया हूँ. हालाँकि मैं एडीटर हूँ, लेकिन मैं खुद को आज भी रिपोर्टर मानता हूँ. ख़बर मैं आज भी नहीं छोड़ता हूँ. कोशिश करता हूँ कि दिनभर में पाँच-छह नए लोगों से बात करूँ. अपने साथी पत्रकारों से भी कहता हूँ कि रोज़ रात को ये चिंतन ज़रूर कीजिए कि आज आपने कितने नए लोगों से बात की, अगर नहीं की तो कुछ नहीं किया.

तो ये लिस्ट कैसे तैयार करते हैं कि आज किन नए लोगों से बात करेंगे?

हर चीज़ का सीज़न होता है. आम का, लस्सी का, बाजरे की रोटी का. जैसे पी चिदंबरम की प्रेस कॉन्फ्रेंस में जूता चल गया तो लोगों ने उसी को ख़बर बना लिया. लेकिन इस जूते के पीछे भी कुछ कहानी होगी, उसे कोई नहीं देख रहा. अब इस्टेंट जनर्लिज़्म हो रहा है. पाँच सेकेंड की बाइट दी और ख़बर हो गई.

खबर चुनने के लिए मेरी प्रक्रिया कुछ ऐसी है. मैं सुबह अख़बार पढ़ता हूँ. पुराने लोगों से फ़ोन पर बात करता हूँ. मसलन आजकल उम्मीदवारों की संपत्ति के ब्यौरे जारी हो रहे हैं. तो टीवी, अख़बारों में आ जाता है कि सोनिया गांधी के पास कार नहीं है. मेरी कोशिश ये जानने की रहती है कि सोनिया के पास आखिर क्या है. तो ख़बरों के पीछे की ख़बर क्या है, उसे ढूँढने की कोशिश मेरी होती है. 2004 में किसी व्यक्ति के पास क्या था और अब क्या है. राजनेताओं की दिलचस्पी किसमें है ये जानना बहुत ज़रूरी है. उन्हें क्या पसंद है और वो क्या चाहते हैं. इससे पता लगाया जा सकता है कि भविष्य में वो क्या करना चाहते हैं.

अब अमर सिंह को ही लीजिए. वो जो भी कहते हैं उसके पीछे ख़बर कुछ और ही होती है. कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना. यानी मेरी कोशिश अधूरी ख़बर को पूरा करने की होती है.

63 साल की उम्र में भी आप 16-18 घंटे काम करते हैं. तो कम समय में काम नहीं चलता क्या?

मेरा फुलटाइम पेशा पत्रकारिता है. मीडिया का स्वरूप दिन पर दिन इतना बदल रहा है कि एक से एक चुनौतियां आ रही हैं. प्रिंट से जब मैं टेलीविज़न पर आया तो ये चुनौती थी. बगैर डमी के मेरा कार्यक्रम ‘सीधी बात’ शुरू हुआ. पहली बार कैमरे का सामना करते हुए मैं कांप रहा था. इंटरनेट पर मुझे ब्लॉग लिखना होता है. प्रिंट में लेख लिखने होते हैं. तो प्रतिस्पर्धा इतनी है कि अपनी जगह को बनाए रखने के लिए मेहनत करनी पड़ती है.

आठ साल से आपका शो ‘सीधी बात’ चल रहा है. इस शो की प्लानिंग कैसे करते हैं?

टेलीविज़न पर एक चीज़ का ख़्याल बहुत रखा जाता है और वो है टीआरपी। ये ठीक है कि मैं सीनियर हूँ, लेकिन ये भी सही है कि टीवी में मैं शायद सबसे बूढ़ा एंकर हूँगा. जहाँ तक ‘सीधी बात’ की बात है तो इसमें बुलाए जाने वाला मेहमान कौन होगा, ये तय करने के लिए टीम है. तो जो व्यक्ति सुर्खियों में रहता है, उसके साथ ‘सीधी बात’ की जाती है. पहले राजनेताओं को बुलाया जाता था, लेकिन फिर फ़िल्मी हस्तियों और खिलाड़ियों के साथ ‘सीधी बात’ की.

ये भी ध्यान रखा जाता है कि मैं सीनियर लोगों के साथ ‘सीधी बात’ करूँ. हालाँकि मैं कई युवाओं के साथ भी ‘सीधी बात’ कर चुका हूँ. मसलन दीपिका पादुकोण की फ़िल्म ‘ओम शांति ओम’ बहुत सफल रही थी. तब मैंने दीपिका के साथ इंटरव्यू किया, लेकिन उस शो की टीआरपी बहुत कम रही. हालाँकि मैने प्रियंका चोपड़ा, शाहरुख़ ख़ान, अमिताभ बच्चन, आमिर ख़ान, धर्मेंद्र का भी इंटरव्यू किया है और वो शो बहुत सफल रहे.

टेलीविज़न की दुनिया में ये भी तो मुश्किल है कि शो तो हर हफ्ते जाना है. ऐसे में नए मेहमान कहाँ से लाएँ?

आपकी बात सही है. लेकिन हम कुछ मेहमानों को रिपीट भी करते हैं. जैसे लालू प्रसाद यादव के साथ मैंने एक साल में तीन बार सीधी बात की. तो अमर सिंह, राजनाथ सिंह, शत्रुघ्न सिन्हा, दिवंगत प्रमोद महाजन जैसी कुछ हस्तियां हैं जिनकी टीआरपी हमेशा आती है.

तैयारी क्या करते हैं, आप?

हमारी एक टीम है जो रिसर्च करती है. हालाँकि राजनेताओं के बारे में तो वो ख़ास रिसर्च नहीं करते, क्योंकि उन्हें ये गलतफहमी रहती है कि राजनेताओं के बारे में मैं ज़्यादा जानता हूँ. लालू यादव, अरुण जेटली को मैं तब से जानता हूँ जब वो यूनीवर्सिटी में पढ़ते थे. तो मेरे सीनियर होने का फायदा ये है कि मैं उन्हें बहुत नज़दीक से जानता हूँ.
‘सीधी बात’ में मैं अपने सामने वाले को मेहमान नहीं मानता, बल्कि उसे मैं टारगेट मानता हूँ. तो वहाँ मैं जनता के प्रतिनिधि की हैसियत से बैठता हूँ. लोग उनसे जो पूछना चाहते हैं, मैं कोशिश करता हूँ कि उनसे वही सवाल पूछूँ.

तो ‘सीधी बात’ में आपको सबसे प्रभावशाली शो कौन सा लगा?

कहना चाहिए कि जो मेहमान हावी हुए या आक्रामक हुए, उनमें उमर अब्दुल्ला रहे. मैंने उमर अब्दुल्ला का दो बार इंटरव्यू किया. पहली बार जब वो नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष बने थे और एक बार अभी जब मुख्यमंत्री बने. पहली ‘सीधी बात’ में मुझे लगा कि उमर अब्दुल्ला मुझ पर हावी हो गए.

प्रमोद महाजन के साथ ‘सीधी बात’ में उनका चेहरा लाल हो गया था. इसी तरह शाहरुख़ ख़ान के साथ ‘सीधी बात’. उनके साथ मैंने पाँच बार ‘सीधी बात’ की है, लेकिन दूसरी बार में शाहरुख़ ख़ान ने कह दिया था कि अगर स्टूडियो के बाहर होते तो मैं आपको गोली मार देता.

ऐसा क्या कह दिया था आपने शाहरुख़ ख़ान से?

मैंने जब उनसे कहा कि आप अपने से आधी उम्र की लड़कियों के साथ डांस करते हैं तब उन्होंने कहा कि आपकी आँखों में चमक बहुत आ गई है. मैंने जवाब में कहा कि मेरी ऐसी प्रवृत्ति नहीं है. फिर मैंने उनसे पूछा कि आपने पिछली बार कहा था कि सिगरेट छोड़ देंगे, लेकिन नहीं छोड़ी. उन्होंने कहा कि मैंने आपको छोड़ दिया, अगर आप बाहर होते तो आपको गोली मार देता. तो मेरी कोशिश लोगों के भीतर की असलियत को निकालने की होती है.

कौन सी ऐसी ‘सीधी बात’ रही जिसमें ये लगा कि आप ज़्यादा कुछ नहीं निकाल पाए?

दीपिका पादुकोण के साथ ‘सीधी बात’ रही. उनकी एक ही फ़िल्म आई थी. उनके बारे में ज़्यादा पता नहीं था. इसी तरह मीरा कुमार के साथ भी शो बहुत अच्छा नहीं रहा.

अच्छा प्रभु, आपके बचपन की बात करते हैं. कैसा रहा बचपन?

मैं जब पाकिस्तान से यहाँ शरणार्थी के रूप में आया तो एक साल का था। मेरे पिता बिज़नेस करते थे. जालंधर के शरणार्थी शिविर में रहे, फिर आगरा में रहे. आगरा में कक्षा तीन तक पढ़ाई की. एक ही कमरे में हम सात भाई-बहन रहते थे. मोहल्ले में सब्ज़ी बेचते थे, मां कपड़े सिलती थी. तीनों भाइयों में मैं सबसे नटखट था.

उसके बाद मेरे पिताजी दिल्ली आ गए. दुकान खोल ली थी. फिर शिवपुरी जंगल में भी हम रहे. 1958 में तब डाकू मानसिंह वहाँ मारा गया था. तो नियमित रूप से मैं स्कूल नहीं गया. मैट्रिक भी मैंने प्राइवेट की. उसके बाद दिल्ली में यमुनापार झिलमिल में हमने एक प्लॉट लिया और वहाँ रहने लगे. फिर 12वीं मैंने गाज़ियाबाद से की. जूते नहीं थे. पहली बार जूते तब पहने जब भाई की शादी हुई. फिर देशबंधु कॉलेज से ग्रेजुएशन की, अच्छे नंबर आए तो दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में पढ़े. फिर कॉलेज में लेक्चरर बन गए.

कभी ज़माना था कि फीस देने के लिए पैसे नहीं थे. घर में सिर्फ़ मैं ही था जो पढ़ रहा था, बाकी सभी लोग काम करते थे. पिता को भी उम्मीद थी कि मेरा बेटा कुछ करेगा.

तो पिता ने आपकी कामयाबी का लुत्फ़ उठाया?

दुर्भाग्य से नहीं. मैं जब एमए फ़ाइनल में था तभी उनका निधन हो गया. हाँ, मां ने मेरी कामयाबी देखी. जब उनका निधन हुआ तब मैं इंडिया टुडे में सीनियर एडीटर था. मैंने उन्हें गाड़ी में भी बिठाया. समाज में तब हमारे जैसे झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों की स्वीकार्यता नहीं थी, वो भी अंग्रेज़ी पत्रकारिता में.

संघर्ष के दौर में मेरे अंदर एक ही बात थी कि मुझे कुछ बनना है और मेहनत के अलावा दूसरा तरीका नहीं था.

तो इतने संघर्ष के बाद जो कामयाबी मिली, वो तो और भी शानदार रही होगी. तो आपने इसका लुत्फ़ उठाया?

मैं तो नहीं, लेकिन मेरा परिवार अब इसका लुत्फ़ उठाता है. मैं जो भी बना उसका श्रेय इंडिया टुडे को जाता है. इंडिया टुडे का कल्चर कुछ अलग तरह का था. इंडिया टुडे इलीट संस्था थी. अरुण पुरी ने मुझे प्रशिक्षित किया. सुमन दुबे ने मुझे स्टोरी लिखनी सिखाई.

कहीं न कहीं आपको लगता है कि आपके भीतर कामयाब होने की भूख थी, और इससे फर्क़ पड़ता है?

ये सच है कि अगर आपके अंदर भूख नहीं है तो आप सफल नहीं हो सकते. बच्चों में प्रतिस्पर्धा तो है, लेकिन उनके अंदर भूख नहीं है. पत्रकारिता में भी आपके अंदर ख़बरों की भूख होनी चाहिए.

आप कॉलेज में पढ़ाते थे तो पत्रकारिता में अचानक कैसे?

11 साल मैंने इकोनॉमिक्स पढ़ाई। मैंने सात साल तो पढ़ाया, लेकिन आखिरी के चार साल सिर्फ़ तनख्वाह लेने जाता था. कॉलेज में था तो थोड़ी राजनीतिक महत्वाकांक्षा थी. मणिशंकर अय्यर एसएफआई में थे, प्रकाश कराट थे. मैं भी एबीवीपी का अध्यक्ष बन गया. हमने 75 दिन तक यूनीवर्सिटी बंद कराई. फिर इमरजेंसी लगी तो गिरफ्तारी का सिलसिला शुरू हुआ.

तभी मेरी सगाई हुई थी. इसलिए ससुराल पक्ष की दौड़ भाग से मैं छूट गया. फिर शादी हुई, लेकिन पुलिस ने पकड़ लिया. बाद में ज़मानत हुई. काम कुछ था नहीं, इसलिए लिखना शुरू किया. हिंदुस्तान, स्टेट्समैन में लिखता था. लिखते-लिखते 1977 में इंडिया टुडे के संपर्क में आए.

तो बहन की शादी करनी थी, पैसा था नहीं. इसलिए कॉलेज में पढ़ाता भी था और इंडिया टुडे में भी काम करता था. कुछ समय बाद मैगज़ीन में नाम छपने लगा तो अच्छा लगा, इस तरह पत्रकारिता में आना हुआ.

अब आप फॉर्म हाउस में रहते हैं, बहुत अच्छे कपड़े पहनते हैं. कैसा लगता है?

मर्सिडीज़ मेरी गाड़ी तो है नहीं, कंपनी ने गाड़ी दे रखी है. मैं बहुत फैशनेबल किस्म का व्यक्ति तो नहीं हूँ. हाँ टाई पहनने का शौक ज़रूर है. हर शो के लिए लगभग अलग टाई पहनता हूँ. मैंने अब तक कोई 500 शो किए होंगे और मेरे पास 400 के लगभग टाई होंगी.

आपको सबसे ज़्यादा मज़ा किसका इंटरव्यू करने में आया?

राजनेताओं की बात करें तो अमर सिंह और लालू प्रसाद यादव. अमर सिंह तो कई बार बहुत गर्मी खा जाते हैं. फ़िल्मी हस्तियों में आमिर ख़ान. आमिर ख़ान ने चार साल बाद मुझे इंटरव्यू दिया.

और सबसे करिश्माई व्यक्ति जिसका आपने इंटरव्यू लिया हो?

मैंने टेलीविज़न पर अटल बिहारी वाजपेयी का इंटरव्यू करने की कई बार कोशिश की, लेकिन उन्होंने हाथ जोड़ लिए. हालाँकि पांच साल में मैंने प्रिंट के लिए उनके चार इंटरव्यू लिए. उनके पास बैठने से लगता था कि आप किसी करिश्माई व्यक्ति के पास बैठे हैं. इसी तरह डॉ मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी का व्यक्तित्व भी है.

फ़िल्मी हस्तियों में अमिताभ बच्चन के पास ऐसा रुतबा है. उनके साथ बातचीत करने से लगता है कि आप किसी ऐसे व्यक्ति से बात कर रहे हैं जो अपने विषय के बारे में सब कुछ जानता है.

आपको पत्रकारिता के लिए सबसे अच्छी प्रशंसा किससे मिली?

नरसिम्हा राव सरकार में माधव सिंह सोलंकी विदेश मंत्री थे. विदेश से लौटने के बाद मैंने सोलंकी के ख़िलाफ़ स्टोरी लिखी और उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा. सोलंकी ने मुझे अपने घर बुलाया और खाना खिलाया. ऐसे बहुत कम लोग हैं जिन्होंने मेरी पत्रकारिता की सराहना की. कांग्रेस, भाजपा में कई ऐसे नेता हैं जिनके ख़िलाफ़ स्टोरी लिखने पर उन्होंने लंबे समय तक मुझसे बात नहीं की.

और ऑन-एयर सबसे शर्मसार कर देने वाला पल?

एक इंटरव्यू में शत्रुघ्न सिन्हा ने मुझसे एक निजी सवाल पूछ लिया था. उन्होंने इशारों में मुझसे ये पूछा तो मैंने भी इशारों में जवाब दे दिया. हर किसी में कुछ कमियां होती हैं, मेरी भी कुछ कमज़ोरियां हैं.

दरअसल, 1971-72 में हम दोनों ने एक चैरिटी शो किया था. वो उस समय बहुत बड़े हीरो थे. तबकी कोई बात उन्हें याद थी.

और ऑफ़-एयर शर्मसार कर देने वाला पल?

तब जब मैं अपनी 25वीं सालगिरह पर अपनी पत्नी को विश करना भूल गया.

आपके जीवन का सबसे खुशनुमा पल?

जब मेरे बेटे की शादी हुई. मेरे दो बेटे हैं. एक वकील है और दूसरा ज़ी टीवी में है. अंकुर और अनुभव. इनके नाम के पीछे भी रोचक किस्से हैं. मेरी पत्नी गर्भवती थी और हम अंकुर फ़िल्म देखने गए थे, तब हमने तय किया कि अगर बेटा होगा तो उसका नाम अंकुर रखेंगे.

रही बात अनुभव की तो उसका जन्म प्रीमैच्योर था, हमें बुरे अनुभव से गुजरना पड़ा. इसलिए हमने उसका नाम अनुभव रखा.

कोई ऐसा दिन होता है, जब आप ख़बरों से एकदम अलग हो जाते हों?

नहीं. जिस दिन मैं ख़बरों से हट गया मतलब मेरे शरीर से खून निकल गया. ख़बर मेरे जीवन का हिस्सा हैं. साल में एक बार 15-20 दिन की छुट्टी ज़रूर लेता हूँ, लेकिन इस दौरान भी ऐसी जगह जाता हूँ जहाँ सूचनाओं से मेरा नाता बना रहे.

अरुण पुरी और सुमन दुबे को छोड़ आपके पसंदीदा पत्रकार?

अरुण शौरी को भी मैं अपना रोल मॉडल मानता हूँ. कुलदीप नैयर को भी मैं बहुत मानता हूँ.

आपके पसंदीदा फ़िल्म अभिनेता?

मुझे राजेश खन्ना बहुत पसंद थे. उनके अलावा मनोज कुमार, धर्मेंद्र, वैजयंती माला, वहीदा रहमान भी मुझे पसंद थे.

आपकी नज़र में सबसे खूबसूरत अभिनेत्री?

हमारे ज़माने में नर्गिस और वहीदा रहमान बहुत खूबसूरत थीं. मौजूदा अभिनेत्रियों में मुझे प्रियंका चोपड़ा बहुत खूबसूरत लगीं.

खूबसूरती की आपकी क्या परिभाषा है?

जिससे आप बात करें तो उसे अपने विषय के बारे में तो पता ही हो, दूसरे विषयों की भी उसे जानकारी हो.

आपका फेवरिट पास टाइम क्या है?

मैं फार्म हाउस में रहता हूँ. पेड़ लगाने का शौक है. मेरे फार्म हाउस में 2,000 पेड़ हैं. मैंने अपनी कॉलोनी में एक लाख पेड़ लगवाए और 98 फीसदी से अधिक पेड़ जिंदा हैं. पेड़ों की देखरेख करने का मुझे बहुत शौक है. फूलों से अधिक मुझे पेड़ों का शौक है.

युवा पत्रकारों के लिए प्रभु चावला का क्या संदेश होगा?

पत्रकारों के लिए मेरी राय यही होगी ‘फीयर नन, फेवर नन’. कई बार पत्रकार भी अपनी बीट का हिस्सा बन जाते हैं. मसलन कांग्रेस कवर कर रहे हैं तो उसकी ही भाषा बोलने लगेंगे, बीजेपी कवर कर रहे हैं तो वैसा ही बोलने लगेंगे.

पत्रकार अपनी स्टोरी से जाना-पहचाना जाता है. आपका भीतर से ईमानदार होना ज़रूरी है. पाठक या दर्शक आपके काम को आंकेगे न कि आरोप लगाने वाले को.

पत्रकारिता की विश्वसनीयता दिन पर दिन गिर रही है. पहले हम स्टोरी लिखते थे तो बहुत गंभीरता होती थी. मुझे याद है कि तीन-चार मुख्यमंत्रियों को हमारी स्टोरी के बाद इस्तीफा देना पड़ा. मैं इंद्रकुमार गुजराल के पास गया और कहा कि मेरे पास जैन कमीशन की रिपोर्ट है, मैं छापने जा रहा हूँ, आपका क्या कहना है. उन्होंने पंजाबी में कहा, " तू लिख ले यार. मैंने लिख दिया और सरकार गिर गई."

तो पत्रकारों को अपने पेशे की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए वही लिखना चाहिए जो वो देखते या सुनते हैं.

प्रभु चावला खुद को दो वाक्यों में कैसे बताएँगे?

प्रभु चावला पत्रकार के अलावा कठोर दिल का इंसान है. कठोर दिल मतलब ये कि मेरी कोशिश रहती है कि मैं खुद कष्ट में रहूँ, लेकिन दूसरों को कष्ट न होने दूँ. कोशिश करता हूँ कि मेरी वजह से दूसरे को व्यक्तिगत नुक़सान न हो.

आपकी पसंद के कुछ गाने?

पुराने गानों में मुग़ले आज़म का गाना ‘मोहब्बत की झूठी कहानी पर रोए’, जोधा-अकबर का गाना ‘ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा’ मुझे पसंद है. इसके अलावा ‘जब वी मेट’ का गाना ‘मौजां ही मौजां’. बागबां और फ़ना के गाने भी मुझे पसंद हैं. लगान का गाना ‘राधा कैसे न जले’ भी मुझे पसंद है.

21.5.09

एक मुलाक़ात- विनोद दुआ के साथ

विनोद दुआ, भारत में टेलीविज़न के जाने माने चेहरे और एक कुशल प्रसारक हैंबीबीसी के संजीव श्रीवास्तव ने अपने कार्यक्रम 'एक मुलाकात' के लिए उनसे बातचीत कीजिसे आपके लिए हम यहाँ भी प्रस्तुत कर रहे हैं

सबसे पहले ये बताएँ कि आप ब्रॉडकास्टिंग की दुनिया के सबसे जाने-पहचाने चेहरों में से एक हैं. कैसा लगता है?

बहुत अच्छा लगता है. दरअसल, शुरुआत बहुत पहले कर दी थी. जितने साल बिताए लाज़िमी है कि पहचाने जाएँगे. तो जो कमाया वो नाम है, पैसा तो आनी-जानी चीज़ है. जब सड़क पर लोग मिलते हैं, बात करते हैं तो उन्हें महसूस होता है कि ये कोई स्टार नहीं है, अपने जैसा है घर का बुना हुआ, तो और भी अच्छा लगता है.

एक पूरी पीढ़ी टेलीविज़न पर आपको देखते हुए बड़ी हुई है, जवान हुई है. तो क्या सोचा था कि इतने कामयाब होंगे. इतनी दौलत, शौहरत?

देखिए, जिस दौर में हम यूनीवर्सिटी में पढ़ते थे हम बहुत बेपरवाह होते थे. हमें बिल्कुल चिंता नहीं होती थी कि हमारा करियर क्या होगा. गिने-चुने विकल्प थे. आईएएस, आईपीएस, बैंक पीओ या फिर एमबीए करके डीसीएम मैनेजमेंट ट्रेनी बन गए. उस वक़्त रास्ते ही ये होते थे. इन रास्तों की मैंने कभी परवाह नहीं की, इसलिए करियर ने कभी सताया ही नहीं. या यूँ कहें, मुझे शुरू से ही पता था कि क्या-क्या नहीं करना है.

तो क्या-क्या सोचा था कि ये नहीं करना है?

10 से पाँच की नौकरी नहीं करनी है. किसी की मिल्कियत मंज़ूर नहीं करनी है. मेरे पिताजी ने बचपन में एक शेर सुनाया था, “आज़ादी का एक लम्हा है बेहतर, ग़ुलामी की हयाते जावेदां से.”
हम शरणार्थी कॉलोनी में बड़े हुए थे इसलिए मिजाज़ में एक अक्खड़पन आ गया था. पिताजी की तनख्वाह से ही गुज़र-बसर होती थी, लेकिन इसकी भरपाई मोहल्ले की ज़िंदगी ने कर दी थी. परवरिश बहुत अच्छी हुई, असुरक्षा नाम की चीज़ नहीं थी.

जबसे मैंने आपको देखा है, तब से मैं देखता आ रहा हूँ कि आप सही शब्दों का सही जगह पर इस्तेमाल करते हैं. ये आदत कब से बनी. शब्दों की बाज़ीगरी कब से शुरू की?

मैं छठी क्लास में था. तब हमारे मुहल्ले में दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी की बस आया करती थी. तो छठी में ही मैंने फणीश्वर नाथ रेणू का मैला आंचल पढ़ लिया था. बेशक उस समय ये तमीज़ नहीं थी कि उस उपन्यास का विश्लेषण कर सकें. तो शुरू से ही मेरा भाषा, साहित्य, संगीत, थिएटर से जुड़ाव रहा. हिंदी माध्यम से पढ़ाई की इसलिए साहित्य से नाता बना रहा. फिर कॉलेज गए तो बीए ऑनर्स अंग्रेजी और फिर एमए अंग्रेजी किया. तो कुल मिलाकर ये समझ में आया कि आपके दिमाग में अगर बातें स्पष्ट हैं तो शब्द खुद-ब-खुद आ जाते हैं. अगर विचार स्पष्ट नहीं हैं तो आप लफ्फ़ाजी करते हैं.

अपनी पसंद का एक गाना बताएँ?

मेरी पसंद का दायरा बहुत बड़ा है. फिलहाल मैं आपको अपनी पसंद का नया गाना बताऊँगा. ‘शो मि योर जलवा’ मुझे बहुत पसंद है. इसके अलावा, ‘बिल्लो रानी, कहो तो अपनी जान दे दूँ’ काफी पसंद है. ‘जुबां पे लागा, लागा रे नमक इश्क का’, ‘इट्स रॉकिंग’, ‘दिल हारा रे’, ‘ये रात ये चाँदनी’ और ‘झूमे रे, नीला अंबर झूमे’ बहुत पसंद हैं.

आपको नए गाने भी पसंद हैं. कोई ख़ास वजह?

इसका जवाब मैं एक शेर से सुनाऊँगा. ‘जो था न है, जो है न होगा, यही है एक हर्फे मुजिरमाना, करीबतर है नुमूद जिसकी उसी का है मुश्ताक ज़माना.’ रही बात नए गानों की पसंद की तो मैं आपको बता दूँ कि मैं खुद भी गाता हूँ. मैंने संगीत शिरोमणि तक भारतीय शास्त्रीय संगीत सीखा है. स्कूल में जब कभी मुझे गाना सुनाने के लिए कहा जाता था तो सब टूटे हुए दिलों के गाने होते थे. लेकिन अब के गानों में बहुत आनंद है, उत्साह है.

वापस टेलीविज़न पर लौटते हैं। पहली बार कैमरे का सामना कब किया. या फिर पत्रकारिता का सफ़र कहीं और से शुरू किया?


पत्रकारिता तो कभी की ही नहीं. मैं आज भी खुद को पत्रकार नहीं मानता. मैं खुद को कम्युनिकेटर, ब्रॉडकास्टर मानता हूँ. कॉलेज के ज़माने में मैं वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेता था, इसे मेरी उन गतिविधियों का विस्तार माना जा सकता था. तब टेलीविज़न पर यूथ फोरम नाम का प्रोग्राम आता था. उस समय ऐंकर नहीं बल्कि कॉम्पेयर बोला जाता था. जब भी हम दीपक वोरा और दूसरे अंग्रेज़ी कॉम्पेयर को देखते थे तो अच्छा लगता था, लेकिन उनके मुक़ाबले हिंदी के कॉम्पेयर बहुत नीरस होते थे. तभी मैंने फ़ैसला किया कि हिंदी टेलीकॉस्टिंग का सुधार किया जाना चाहिए.

ये 1974 की बात होगी. मैं ऑडीशन के लिए दूरदर्शन पहुँच गया. बढ़ी दाढ़ी, लंबे बाल, काली टी-शर्ट, नीली जींस, हाथ में अंग्रेज़ी उपन्यास. कीर्ति जैन उस समय प्रोड्यूसर थी. उन्होंने मुझसे पूछा कि आपको कैसे लगा कि आप कॉम्पेयर बन सकते हैं. मैंने कहा कि जितनी बार हिंदी का युग मंच देखा है, मुझे लगता है उनसे बेहतर कर सकता हूँ.

इंटरव्यू, कैमरा ऑडिशन, वॉयस टेस्ट पास किया. उन दिनों चयन प्रक्रिया बहुत सख्त होती थी. हम चार लोग चुने गए थे. अरुण कुमार सिंह, माधवी मुदगल, विजय लक्ष्मी क़ानूनगो और मैं. इस तरह शुरुआत हुई.

लेकिन टेलीविज़न पर आपकी असली एंट्री प्रणॉय रॉय के साथ इलेक्शन स्पेशल से ही दिखी?

देखिए, तब टेलीविज़न का इतना विस्तार नहीं था. जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, टेलीविज़न भी बड़ा होता गया. फिर 1982 में एशियाई खेल हुए तब टेलीविज़न का राष्ट्रीय विस्तार हुआ. फिर 1984 के चुनाव आ गए.

इलेक्शन स्पेशल से पहले भी क्या कोई करेंट अफेयर्स जैसा प्रोग्राम किया था?

मैंने आपको बताया न कि मैंने कभी पत्रकारिता की ओर नहीं देखा. मुझे पत्रकार नहीं होने का अफसोस भी नहीं है. मैं टेलीकॉस्टर हूँ और मेरी कोशिश रहती है कि अपनी बात दर्शकों तक पहुँच सकूँ.

प्रणॉय रॉय के साथ आपकी जुगलबंदी बहुत लोकप्रिय हुई. प्रणॉय के साथ आपके अनुभव?

दो लोग मेरे दिल के बहुत नज़दीक हैं. एक हैं प्रणॉय रॉय और दूसरे एमजे अकबर. मैंने उनके साथ न्यूज़ लाइन शुरू किया था. 1985 में ये पहला ग़ैर सरकारी प्रोग्राम था. उस प्रोग्राम को मैंने प्रोड्यूस किया था और एमजे अकबर उसके एंकर थे. वो दौर था जब मेरी शादी हो चुकी थी, मेरी बेटी दो-तीन महीने की थी. मुझे अपना करियर बनाना था. ये ख़बरों की दुनिया में मेरा पहला बड़ा प्रोग्राम था. ये प्रोग्राम बहुत कामयाब रहा.

उससे पहले 1984 के चुनाव में मुझसे कहा गया कि चुनाव विश्लेषण में जो प्रणॉय रॉय और अशोक लाहिरी कहेंगे, मैं उसका अनुवाद करूँगा. मैंने इससे पहले कभी अनुवाद नहीं किया था. लेकिन क्योंकि तालीम अंग्रेजी में हासिल की थी और परवरिश हिंदी में तो दोनों भाषाओं की समझ थी. जब ये कार्यक्रम शुरू हुआ तो जैसे ही प्रणॉय अपना वाक्य खत्म करते थे, मुझे बहुत जल्द इसका अनुवाद करना था.

लेकिन इस दौरान जो दिल के रिश्ते बने उसके बारे में ये कहूँगा कि आज भी मैं अक्सर शाम की कॉफ़ी प्रणॉय के साथ पीता हूँ. प्रणॉय और राधिका रॉय और एमजे अकबर जैसे लोगों का साथ विरले ही मिलता है.

एमजे अकबर की बात करें तो सही तर्कों के साथ अपने विचारों को रखना हमने उनसे सीखा. दूसरा 24 में से 18 घंटे काम कैसे किया जाता है, ये भी मैंने उनसे सीखा है. मुझे याद है कि टेलीग्राफ में उनका लगभग 80-100 लोगों का स्टाफ था और उनमें वो सबसे अधिक काम करते थे.

मजे़ की बात ये है कि 1991-2007 तक हम एक-दूसरे से नहीं बोले. किसी बात को लेकर हमारे बीच नाराज़गी थी. 16 साल हम नहीं मिले, लेकिन जब मिले तो 16 मिनट भी नहीं लगे. रही बात प्रणॉय-राधिका की तो इन दोनों से मैंने ये सीखा है कि अपनी सीमाओं को आप फैलाते रहें और हर समय अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करें.

आप 18 घंटे काम करने की बात कर रहे थे. लेकिन मुझे तो लग रहा था कि आप कुछ उन्मुक्त, किसी बंधन में न बंधने वाले होंगे. तो कितने अनुशासित हैं आप?

देखिए, जब मैं 18 घंटे की बात करता हूँ तो इसका मतलब ये नहीं कि 18 घंटे की शिफ्ट हो. लेकिन अगर ज़रूरत है कि मैं 20 घंटे काम करूँ तो मेरा वो वाला स्विच ऑन हो जाता है.

किसी ने जॉर्ज बर्नाड शॉ से पूछा था कि मैन और सुपरमैन लिखने में आपको कितना समय लगा, उनका जवाब था, छह महीने और पूरा जीवनकाल. बिल्कुल इसी तरह ये बात मुझ पर और आप पर भी लागू होती है.

मुझे ज़िंदगी अपने हिसाब से जीने में बहुत मज़ा आता है. मुझे अपना आलस भी पसंद है. मुझे अपनी गतिविधियाँ भी पसंद हैं. मैं जब भी आईना देखता हूँ तो मुझे अच्छा लगता है. मैं जब अपना कार्यक्रम देखता हूँ तो मुझे बहुत बुरा लगता कि मैं इससे भी अच्छा कर सकता था. मैं जो कमाता हूँ, उसे खर्च करने में मुझे फ़ख़्र होता है. मुझे गर्व है कि मैं अपने परिवारवालों को अच्छी जीवनशैली दे सका हूँ.

आपका ब्रॉडकास्टिंग, टेलीकास्टिंग का 34 साल लंबा सफर हो गया. इस सफर में कोई मील का पत्थर?

वर्ष 1984 में इलेक्शन स्पेशल प्रणॉय के साथ शुरू किया. न्यूज़ लाइन के बाद दूरदर्शन के लिए परख किया था. टीवी टुडे के लिए न्यूज़ ट्रैक किया. जब पहला ग़ैरसरकारी टीवी ज़ी टीवी शुरू हुआ तो उस पर मेरा प्रोग्राम चक्रव्यूह आया. ख़बरदार नाम से प्रोग्राम किया. पिछले लोकसभा चुनाव में मैंने 32 दिन में 22160 किलोमीटर का सफर रेलगाड़ी में किया.

महात्मा गांधी के पोते रामू गांधी के साथ मैं अक्सर इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में बैठा करता था. उनका कहना था कि गांधीजी ने भी भारत को समझने के लिए रेल में सफर किया था क्योंकि वो दक्षिण अफ़्रीका से आए थे और भारत को समझना चाहते थे और देश की हक़ीक़त जानना चाहते थे.

मैंने उत्तर में अपना सफ़र जम्मू से शुरू किया. तब उधमपुर शुरू नहीं हुआ था. दक्षिण भारत में आखिरी स्टेशन कन्याकुमारी, पश्चिम में भुज और पूर्व में लीखापानी था जो बर्मा सीमा के नज़दीक था. मैंने 32 दिन तक रेलवे के सेकेंड क्लास में सफ़र किया और 22160 किलोमीटर का सफर तय किया जिनमें से नौ रातें छोटे-मोटे होटलों में बिताई और बाकी 23 रातें ट्रेन में ही बिताई. तो कुल मिलाकर बहुत अच्छा अनुभव रहा.

कोई ऐसा अनुभव जिसे आप भुलाना चाहेंगे?

नहीं, मैं ऐसे किसी काम या अनुभव को मिटाना या भुलाना तो नहीं चाहूँगा. हाँ जो बातें याद रहती हैं, वो मैं आपको बताता हूँ. 1987 में मास्को में भारतीय महोत्सव की बात है. राजीव मल्होत्रा अंग्रेजी में कमेंट्री कर रहे थे और मैं हिंदी में. राजीव गांधी और गोर्बाच्योब को एक पौधा लगाना था. राजीव गांधी को गंगा जल और गोर्बाच्योब को उसमें वोल्गा नदी का पानी डालना था. राजीव मल्होत्रा ने जब अंग्रेजी में खत्म किया और मैंने शुरू किया तो कहा कि अब राजीव गांधी इसमें गंगा जल डालेंगे और गोर्बोच्योब इसमें वोदका जल डालेंगे.

एक और किस्सा है. मैंने दूरदर्शन पर एक शेर पढ़ा था. मिर्ज़ा ग़ालिब का कहना है ‘कौन जाए ग़ालिब दिल्ली की गलियाँ छोड़कर’. बहुत सारी चिट्ठियाँ आई कि हमें विनोद दुआ से ये उम्मीद नहीं थी वो शेर गलत पढेंगे और शायर का नाम भी ग़लत लेंगे.

दूरदर्शन में हड़कंप मच गया. कहा जाने लगा कि अब तो माफ़ी मांगनी पड़ेगी. लेकिन मेरा कहना था कि मैं दर्शकों से अपने अंदाज़ में निपटा लूँगा. मैंने कहा, ‘पिछले हफ्ते मैंने आपको एक शेर ग़ालिब साहब के नाम से सुनाया था. इससे पहले मैं इसे कॉलेज में अपने दादाजी के नाम से सुनाता था. लेकिन शेर ज़ौक़ का है कि हमने माना है दकन में इन दिनों क़द्रे सुख़न...कौन जाए ज़ौक़ पर दिल्ली की गलियाँ छोड़कर.’

गानों का शौक है, फ़िल्मों का नहीं?

मैंने दुनिया के क्लासिक 20-20 बार देख रखे हैं. मुझे हिंदी फ़िल्मों का बिल्कुल शौक नहीं रहा. अक्सर होता है कि शादी के बाद लोग बीवी के साथ फ़िल्में देखने जाते हैं. उस हल्ले में मैं भी एक-आध दफ़े चला गया, लेकिन फिर नहीं गया. 1994 में फ़िल्म फ़ेयर अवॉर्ड में जज बना तब मुझे 18 फ़िल्में देखनी पड़ी. उससे और पक्का हो गया कि फ़िल्में तो नहीं देखूँगा, लेकिन जो गाने पसंद आएँगे वो गाऊँगा.

फ़िल्म कौन सी पसंद आई?

मुन्ना भाई एमबीबीएस. स्लमडॉग मिलिनेयर मुझे अच्छी लगी. लेकिन मैंने फ़िल्में ज़्यादा देखी नहीं हैं. अमिताभ बच्चन, राजेश ख़न्ना, शाहरुख़ ख़ान का दौर मेरे सामने से गुज़र गया. संगीत की वजह से मैं फ़िल्मों के नज़दीक रहा. पचास के दशक से सत्तर के मध्य तक गाने बहुत अच्छे बने. तब गाने पेपर-प्लेट नहीं हुआ करते थे कि खाया और फेंक दिया. आज भी अच्छे गाने बनते हैं, लेकिन इनका जीवनकाल बहुत ज़्यादा नहीं होता.

खेलों में क्या पसंद है?

मैंने स्कूल के दिनों में सीके नायडू तक क्रिकेट खेला है. कॉलेज में वेटलिफ्टिंग में उपविजेता रहा हूँ. उसके बाद पत्रकारों की कुसंगति शुरू हो गई.

आपने ट्रेन से इतना लंबा सफ़र तय किया। आपकी पसंदीदा जगह?

रेल सफ़र के दौरान के तो कई अनुभव हैं. जो दो-तीन बातें मैं समझ पाया हूँ उसके बारे में कहूँगा कि महात्मा गांधी ने लोगों के दिलों के दर्द को महसूस किया तो उसमें रेल के सफ़र के अनुभव का बड़ा योगदान रहा होगा. क्योंकि जब आप पूरा हिंदुस्तान देखते हो तो आपको महसूस होता है कि आप शहरों में कितनी नकली दुनिया में रहते हैं. तो एक तो इससे विनम्रता का भाव आता है. दूसरा हिंदुस्तान बहुत खूबसूरत है. झारखंड, बिहार कितने खूबसूरत हैं, लोग कितने भले हैं.

विनोद दुआ को खाने का ज़बर्दस्त शौक है. कम से कम ‘ज़ायका’ (विनोद दुआ का टीवी प्रोग्राम) देखकर तो ऐसा ही लगता है?

नहीं. मैं आपको हक़ीक़त बताता हूँ. मेरी घ्राणशक्ति यानी सेंस ऑफ़ स्मेल और ज़ुबान बहुत अच्छी है. मेरा मानना है कि किसी की भी सांस्कृतिक पहचान के लिए ज़ुबान का रोल अहम है क्योंकि खाना आबोहवा के हिसाब से बनाया जाता है. खाने का मज़हब या धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. जहाँ तक खाने की बात है तो मैं पेटू नहीं हूँ.

आपके पसंदीदा व्यंजन?

मुझे शाकाहारी और मांसाहारी दोनों तरह के खाने पसंद हैं. मांसाहारी खाने में मुझे लाल गोश्त पसंद है. मेरा मानना है कि अगर ऊपर वाला है तो उसने खाली समय में घी, लाल गोश्त और अच्छी व्हिस्की बनाई. शाकाहारी खाने में मुझे हरी सब्जियाँ, केर-सांगरी, गट्टे की सब्ज़ी पसंद है. सुबह के खाने में पूरी-छोले, पुरानी दिल्ली के बेड़वी आलू अच्छे लगते हैं. इसके अलावा मुझे निहारी भी पसंद है.

प्रणॉय रॉय और एमजे अकबर के अलावा आपके पसंदीदा ब्रॉडकास्टर?

मुझे करण थापर के इंटरव्यू अच्छे लगते हैं क्योंकि वो काफ़ी तैयारी करते हैं. बरखा दत्त, अरणव गोस्वामी मुझे बहुत पसंद हैं. रोडीज़ का रघु, साइरस बरूचा मुझे अच्छे लगते हैं.

आपका पसंदीदा प्रोग्राम?

मैं एक आदर्श दर्शक हो ही नहीं सकता क्योंकि मैं खुद इसमें शामिल हूँ. इसलिए मेरे लिए टेलीविज़न चैनल देखना टैक्स्ट बुक पढ़ने के बराबर है.

आपने कहा कि करण थापर आपको पसंद हैं क्योंकि वो काफ़ी तैयारी करते हैं. आप खुद कितनी तैयारी करते हैं?

देखिए, जैसे रात आठ बजे मेरा कार्यक्रम है तो मैं चार बजे से काम शुरू करूँगा. मेरे साथ मेरी टीम होती है. मैं उनको बता देता हूँ कि क्या-क्या करना है. तो निर्भर करता है कि आपकी कसौटी क्या है. मैं अपनी स्क्रिप्ट खुद लिखता हूँ और अपने वॉइस ओवर भी खुद करता हूँ.

कुछ ख़ास करने की तमन्ना, जिसे करना चाहते हों?

देखिए. इस वक़्त जो हमारा हाल है, उसमें अगर आप चैनल की आईडी हटा दें तो आपको एक जैसे लगेंगे. तो इस वक़्त ज़रूरत है नए अंदाज़ में ख़बरों को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को पहुँचाने की. मुझे लगता है कि नई सोच ज़रूरी है. यानी सिर्फ़ बाइट जर्नलिज़्म नहीं, सिर्फ़ प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं.

कुछ व्यक्तिगत सवाल. शादी कैसे हुई आपकी?

मेरी बीवी पदमावती तमिलनाडु से हैं और एक डॉक्टर हैं. 1983 में जब उन्होंने मुझे शादी का प्रस्ताव दिया तो मैं सावधान नहीं था और मैंने हाँ कह दी. तो अब ये आप पर है कि आप इसे प्रेम विवाह माने या कुछ और.

1985 में हमारी पहली बेटी बकुल हुई. फिर 1989 में हमारी दूसरी बेटी मल्लिका हुई. बकुल अभी लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से पोस्ट ग्रेजुएशन करके आई हैं. मल्लिका अभी अमरीका में पढ़ रही है. मेरा और मेरी बीवी का ये फ़ैसला था कि हम अपनी बेटियों को उम्दा तालीम देंगे. मेरी पत्नी रेडियोलॉजिस्ट हैं और बहुत अच्छा गाती हैं. मेरी बेटियां भी अच्छा गाती हैं.

विनोद दुआ को सबसे ज़्यादा खुशी किस चीज़ से होती है?

छोटे बच्चे देखकर मुझे बहुत खुशी होती है. दूसरी बात कुछ भी कुदरती साफ़ बहता पानी, हरियाली मुझे अच्छी लगती है. तीसरी बात नेकनीयती से किए गए काम मुझे अच्छे लगते हैं. चौथी बात देसी घी में बना गोश्त मुझे बहुत खुशी देता है.

तो अपनी सेहत ठीक रखने के लिए क्या करते हैं?

इसका सीधा जवाब ये है कि मैं कम खाता हूँ और जो अच्छा लगता है कभी-कभी खाता हूँ. मेरा खाना-पीना बहुत सादा है. मसलन इस इंटरव्यू में आने से पहले मैं लंच में लौकी, बड़े की सब्ज़ी और दो चपातियाँ खाकर आया हूँ.

आप खुद को दो वाक्यों में कैसे बताएँगे?

नीयत तो है कि मैं नेकनीयत हूँ, मुख़्तार रहूँ और रोशन वजूद रहूँ. काफ़ी हद तक कामयाबी मिली है. लेकिन हक़ीक़त ये भी है कि कभी ब्रह्मांड की सच्चाई मेरी समझ में आ गई और कभी अपने ही भ्रम में उलझ कर रह गया.