शायद बहुत कम लोगों को ही यह जानकारी हो कि आधुनिक सिरसा शहर के बसने की बुनियाद में नगर में वर्तमान में स्थित थेहड़ की ईंटें व मलबा लगा हुआ हैं । आज से बहुत सदियों पहले नगर के उत्तरी दिशा की और स्थित थेहड़ की ईंटों व मलबे आदि से शहर में बड़ी-बड़ी हवेलियों व मकानों का निर्माण किया गया और आधुनिक शहर सिरसा की नींव डाली गई । इससे पहले मिट्टी के टीले के रूप में विद्यमान यह थेहड आज से सदियों बरस पहले एक विशाल दुर्ग था । दरअसल सिरसा शहर के उजड़ जाने के बाद 1836-37 में शहर को दोबारा बसाने की प्रक्रिया शुरू की गई । जोधपुर के अधिक्षक मेजर जनरल थोरस्वी ने जयपुर के नक्शे के आधार पर ही आधुनिक शहर सिरसा का नक्शा तैयार किया था । उस समय मलबे, मिट्टी व ईंटों की कमी थी, इसलिए उन्होनें यहा बसने वाले लोगो को थेहड़ का मलबा व ईंटें उठाने की अनुमति दी । कुछ ही समय में बहुत से लोगों ने थेहड़ की ईंटों से बडी-बडी हवेलियों व मकानों का निर्माण किया । बताया जाता हैं कि उस समय शहर में सबसे पहले गनेरीवाला परिवार आकर बसा । उन्हें भी मेंजर थोरस्वी राजस्थान के गंदेड़ी गांव से यहां लेकर आए । शहर को जयपुर के नक्शे पर बनाया गया, जिसमें आठ बाजार और चार चैराहे बनाए गए । उस समय शहर की कोई भी गली बंद नहीं थी । वर्तमान में शहर के उत्तरी दिशा में मिट्टी के टीले के रूप में थेहड़ विद्यमान हैं, वह टिला गयारवीं शताब्दी तक लाहे का एक दुर्ग था । इतिहासवेता रमेश चंद्र शालिहास के अनुसार 10वीं ईसवी से पहले किसी राजा ने दिल्ली की तरफ से आक्रमण रोकने के लिए हनुमानगढ़, सिरसा, बठिंड़ा व हांसी में विशाल किलों का निर्माण करवाया था । सिरसा में किले की उचांई 130 फीट से अधिक और क्षेत्रफल 5 वर्ग किलोमीटर से अधिक था । कहा जाता हैं कि सिरसा शहर सरस्वती नदी के किनारे बसा था और नदी के स्थान बदलनें व कोई बड़ा तुफान आने से यह किला 1173 ईसवी में जीर्ण-शीर्ण हो गया था । मिट्टी का एक विशाल टीला हैं, जिस पर शहर की आज भी कुछ लोग अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं । धरातल से टीले के उत्तरी भाग की उंचाई करीब 120 फीट हैं, जबकि पश्चिमी भाग की उंचाई करीब 50 से 80 फीट हैं । इस इलाके में हजारों घर हैं और विशेष बात हैं कि 100 फीट से अधिक उंचाई वाली इस जगह पर अनेक मंदिर व पीर की मजर भी हैं । बाबा सैयद पीर की यहां बहुत मान्यता हैं । पीर मजार के सेवक लीलूराम ने बताया कि वे बहुत वर्षों से यहां सेवक के रूप में काम कर रहें हैं और इस मजार की बहुत मान्यता हैं । करीब 25 हजार से अधिक लोग इस इलाके में निवास करते हैं और यह थेहड़ का क्षेत्र शहर के पांच वार्डो में आता हैं । हालांकि इस ऐतिहासिक धरोहर पर लोगो ने हजारों की संख्या में अवैध रूप से मकान बना रखे हैं। विशेष बात हैं कि बरसात के समय इस इलाके से अनेक प्रकार के अवशेष निकलते हैं। थेहड़ पर रहने वाले ही एक व्यक्ति के मुताबिक तो कुछ समय पहले उनके एक जानने वाले को एक छोटे मटके में अशर्फियां मिली थी । इतिहासवेता रमेश चन्द्र शालिहास भी ऐसी बातों को मानते हैं । उनके अनुसार चूंकि इस थेहड़ का अस्तित्व सदियों पुराना हैं, इसलिए यहां मुगलकालीन के अलावा बोद्धकालीन वस्तुएं भी मिलती हैं । उनके अनुसार प्रसिद्ध पुरातत्ववेता लीलाधर दु:खी को यहां बुद्ध की छोटी प्रतिमाएं व मुगलकालीन विशाल मटका सहित अनेक चीजें मिली थी । शालिहास ने बताया कि यहां एक मर्तबा पुरातत्व विभाग ने यहां निर्माण न करने संबधी बोडर भी लगाया, लेकिन यह अधिक कारगर नहीं हुआ । लोग थेहड़ के नीचले हिस्से को खोद खोदकर निरंतर मकान बनाते रहते हैं, इस वजह से अनेक बार थेहड़ का उपरी हिस्सा कभी गिर भी जाता हैं, लेकिन यहां के लोग अब इस प्रकार का जोखिमपूर्ण जीवन जीने के अभ्यस्त हो चुके हैं । थेहड़ के बहुत से इलाके में तो सिवरेज लाइन भी हैं और गलियां भी बनी हुई हैं । खैर यहां वर्षों से रह रहे लोगों को उजाडऩा तो कतई उचित नहीं हैं, लेकिन एक पुरातात्विक धरोहर के महत्व की उपेक्षा करना भी उचित नहीं हैं । फिलहाल थेहड़ पर शहर की बसे लोग अलग ही तरह का जीवन व्यतीत कर रहे हैं ।