“ सुनती हो? अभी तक तुम्हारा लाड़ला घर पहुंचा नहीं है’। रसोई से ज़रा बाहर तो आओ”! प्रोफ़ेसर अनिल अपनी पत्नी से बोले।
अभी थोडी देर पहले कालेज से आकर बैठक में बैठी राजुल दैनिक पेपर में अपना मुंह लगाकर चुपके से अपने बाबू जी का गुस्सा देख रही थी।
अपने हाथों को रुमाल से पोंछती हुई निर्मला गभराई सी रसोई से बाहर आ गई।
“ क्या है? चिल्लाते क्यों हो? आ जायेगा। कहकर तो गया है कि दोस्तों के साथ घूमने जा रहा हूं”।
“आज चौथा दिन है। पता नही कहाँ है? एक तो उसने अपना मोबाइल भी बंद कर रखा है। यहाँ सर पर बेटी की शादी की चिंता है । इसे तो हमारी या बहन की कोई चिंता ही कहाँ?
एक मेरी कमाई पे सारा घर चलाना है। बेटी की शादी कोई छोटी-मोटी बात थोडी है? प्रो.अनिल ने कहा”।
“शांत हो जाओ। इस बार उसे ठीक से समझाउंगी। आप परेशान न हो। बी०पी० बढ़ जायेगा। “निर्मला वातावरण को नोर्मल बनाने का प्रयास करने लगी।
तभी राजुल की सहेली कल्पना घर में आई। जो दीपक के दोस्त विनय की बहन थी। राजुल ने उस से कहा” क्या विनय, दीपक के साथ नहीं गया? सुरेश और पंकज तो दीपक के साथ गये हुए हैं”?
“क्या बात करती हो! आज ही तो वो दोनों मेरे घर आये थे।“कल्पना ने कहा।
”सुना!! ये दीपक ही हमारे घर में अँधेरा कर देगा, देखना तुम।“ प्रो.अनिल ने घबराहट में कहा।
“वे सब आज ही आए होंगे। दीपक भी आ जायेगा। चिंता मत करो”। “ राजुल बेटी तू ही अब अपने पिताजी को ज़रा समझा"। निर्मला स्वस्थ होने का दिखावा करते हुए बोली।
.....कि एकदम" लडख़डाता हुआ दीपक घर में आया। राजुल डर गई। कहीं पिताजी का हाथ ना उठ जाये भैया पर। वातावरण को गरम देखकर कल्पना ने भी यहाँ से उठ जाना ही ठीक समझा।
दीपक अपने बेडरूम की ओर चला गया। हाथों में वही सूटकेस थी, जो हर बार घूमने जाता तो ले जाया करता।
“ लो अब तो नशा भी करने लग गया है, तुम्हारा बेटा ! मैं अब उसे फूटी कौड़ी भी नहीं देने वाला। खुद ही
कमाए और खुद ही ख़ाए। मुझे कुछ भी नहीं चाहिए”। अपने भारी स्वर में निर्मला को डाँटते हुए प्रोफ़ेसर अनिल बोले।
शाम होने लगी थी। पर अभी तक दीपक अपने कमरे से बाहर नहीं आया था। निर्मला ने राजुल को कुछ इशारा किया। राजुल आहिस्ता से दीपक के कमरे में देखकर आई और अपनी माँ को सोने का संकेत दिया। मां और बेटी दूसरे कमरे की ओर चल दीं।
कनखियों से झाँकते हुए प्रोफ़ेसर अनिल ने माँ बेटी का संकेत देख लिया और अनजान बनकर टी.वी का स्विच ओन कर दिया।
टी वी पर लोकल न्युज़ थी। “ लाली वाला किडनी अस्पताल में किडनी एजेंट का भंडाफोड़। डॉक्टर और एजेंट गिरफ्तार। निर्दोष लोगों को बहला फ़ुसलाकर उनके गुरदे परदेश में बेच दिया करते थे”।
एक अन्जान डर ने प्रोफ़ेसर अनिल को हिलाकर रख दिया। सहसा खडे होकर दीपक के कमरे की ओर चल पडे। कमरे में अँधेरा था। डिम लाईट का स्विच ओन किया। बेड के पास रखा काला एयरबेग खोला एक पोलीथीन में सो-सो के करारे नोट रख़े हुए थे। साथ में एक लेटर था। लिखा था “बाबूजी-माँ ! मैं फ़िलहाल बेकार हुं। कंई जगह इंटरव्यू देता रहा कि नौकरी मिल जाये। पर हरबार निराशा मिली।
मुझे पता है दीदी की शादी है। मैं आपका हाथ कैसे बंटाता? तभी मुझे ये रास्ता मिला....
आपने मुझे जन्म दिया है। मेरा इतना तो फ़र्ज़ है कि मैं आपके कुछ काम आ सकुं। सोरी पिताजी!!!!
प्रोफेसर अनिल बेड का कोना पकडकर लडखडाते हुए खडे हुए। आहिस्ता-आहिस्ता दीपक के करीब पहुंचे। उसका शर्ट उंचा करके डरते हुए देखा पेट पर ड्रेसिंग लगी हुई थी। उन्हें अपना “दीपक” अंधेरे में ज़गमगाता नज़्रर आने लगा।
उन्हें लगा वो जल्दी बूढे होने चले हैं...............