बीते कल किसी काम से जींद शहर में किसी के घर गया था। चाय पीना लाजिमी था और इससे भी लाजमी था चाय बनाने में समय का लगना। इसी समय मेरी नजर पड़ी उत्तरी भारत के सम्पूर्ण अख़बार दैनिक ट्रिब्यून पर। मुझे तो स्थानीय खबरे ही ज्यादा भाती हैं, भावें वे सतही क्यों ना हों। आज भी इस अख़बार का सीधे दूसरा ही पन्ना खोल लिया। ध्यान गया सीधे एक शीर्षक पर," बाजरे की फसल पर अज्ञात बीमारी का प्रकोप।" पूरी खबर पढ़ कर खोपड़ी घूम गयी। अक बाजरे की सिर्टियों पर बैठा तो सै एक चमकीले हरे रंग का कीड़ा। पर बतान लागरे सै अज्ञात बीमारी। वा! रे, म्हारे हरियाणा अर म्हारी संस्कृति। इसमें किसका के खोट? मै खुद मेरी

ख़ैर ना तो किसानों को परेशान होण की जरुरत अर ना अधिकारीयों को अनजान रहने की जरुरत। यू कीड़ा जो बाजरे की सिर्टियों पर बैठा दूर तै एँ नजर आवै सै चर्वक किस्म का एक शाकाहारी गुबरैला सै। बाजरे की सिर्टियों पर यह गुबरैला तो काचा बुर(पराग) खाने के लिए आया है। आवै भी क्यों नही? इ

आपने हरियाणा में ज्युकर बहुत कम लोगाँ नै मोरनी पै मोर चढ्या देखा सै न्यू ऐ यू कीड़ा भी शायद बहु
इस कीड़े को खान खातिर म्हारे खेताँ में काबर, कव्वे व् डरेंगो के साथ-साथ लोपा मक्खियाँ भी खूब सैं। बिंदु-बुग्ड़े, सिंगू-बुग्ड़े व् कातिल-बुग्ड़े भी नज़र आवैं सैं। हथ्जोड़े तो पग-पग पर पावे सै। यें भी इसका काम तमाम करे सै। गाम कै गोरे से इतनी लिखी नै बहुत मानन की मेहरबानी करियो।
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