सामाजिक बंधन एक ऐसा बंधन हैं, जो न तो किसी तरह का या किसी देश का संविधान हैं और ना ही कानून। बल्कि ये एक ऐसी परम्परा हैं जो सदियों से चली आ रही हैं।
परंपरा भी ऐसी कि अलग-अलग। एक तरह कि नहीं। अगर हम बात हिंदुस्तान कि ही करे तो पुरे हिंदुस्तान मैं सैकड़ो तरह कि सामाजिक मान्यताएं हमें मिल जाएँगी। सामाजिक मान्यताएं धार्मिक रीती रिवाज को भी जन्म देती हैं और समाज को एक सूत्र में बांधने का भी काम करती हैं।
धार्मिक मान्यताएँ कि तरफ अगर हम अपना ध्यान करें तो उसमे भी हमें काफी भिन्नता दिखाई देती हैं, जैसे कि पूजा पद्धति को ही ले ले, बंगाल का हिन्दू वर्ग काली कि पूजा करता हैं तो उत्तर भारत के लोग दुर्गा और वैष्णव देवी कि पूजा करता हैं, उत्तर भारत के लोग कृष्ण और राम कि पूजा करते हैं तो दक्षिण भारत के लोग वेंकटेश और जगन्नाथ जी कि उपासना करते हैं, ये उपासना पद्धति आज जरुर धार्मिक बन गई हैं मगर किसी ज़माने में सिर्फ सामाजिक तरीका ही था।
शादी -विवाह के तरीके भी कुछ ना कुछ भिन्न हो ते हैं, हिमाचल के कुछ आदिवाशी कबीले में एक प्रथा हैं कि चाहे वो कितने ही भाई क्यों ना हो, शादी सिर्फ बड़े भाई कि ही होगी और पत्नी वो सबकी बनेगी( महाभारत काल में द्रोपदी कि तरह)। राजस्थान के आदिवाशी कबीलों में शादी से पहले लड़का एक साल तक लड़की के घर रहता हैं और अगर वो एक साल तक लड़की के घर का खर्च उठा सकता हैं तभी शादी कि बात आगे बढ़ेगी वर्ना ख़त्म।
और भी ना जाने कितनी परम्पराएँ जन्म देती हैं एक राष्ट को जिसे हम भारत वर्ष या हिंदुस्तान कहते हैं। इतनी सारी सामाजिक भिन्नताएं होने के बावजूद भी हिंदुस्तान एक जुट हैं।
ये मेरा पहला लेखा हैं नेट प्रेस के लिए। लेख लम्बा ना हो जाय इसलिए फिर कभी।
5 टिप्पणियाँ:
पहला लेख ही इतनी परिपक्व है। आगे का लेखन भी और सधा हुआ होगा। प्रयास जारी रखिए।
Thanks, Dr Lakhnavi
taarkseshvr bhayi shi kha saamajik bndhn hi hen jo hm aek dusre se bndhe hen or smaaj men arajkta nhin aa rhi he . akhtar khan akela kota rajsthaan
वाह! तारकेश्वर भय्या.... बढ़िया लिखा है... बहुत खूब!
वाह! तारकेश्वर भय्या.... बढ़िया लिखा है... बहुत खूब!
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