आजादी के बाद से कार्यपालिका में बड़े-बड़े घोटाले प्रकाश में आने शुरू हो गए थे और अब कई दशकों से न्यायपालिका भी इससे अछूती नहीं रही है। गंजियाबाद में जिला एवं सत्र न्यायलय में हुए प्रोविडेंट फंड घोटाले में माननीय उच्च न्यायलय के इलाहाबाद के तीन पूर्व न्यायमूर्ति गण सर्वश्री आर.पी यादव, आर.एन. मिश्रा, ऐ.के सिंह समेत 78 लोगों पर सी.बी.आई ने गाजियाबाद न्यायलय में आरोप पत्र दाखिल किया है। गाजियाबाद में तैनात रहे तीन जिला एवं सत्र न्यायधीश सर्वश्री आर.पी मिश्रा, आर.एस चौबे और अरुण कुमार के भी नाम अभियुक्तों में शामिल हैं।
गाजियाबाद में अप्रैल 2000 से लेकर फरवरी 2008 के बीच 482 ट्रेज़री चेकों जिनका मूल्य 6.58 करोड़ होता है चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के नाम आहरित कर लिया गया था। इसमें एक अभियुक्त आशुतोष आस्थाना की मृत्यु हो चुकी है। इसके पूर्व ही माननीय उच्च न्यायलय इलाहाबाद खंडपीठ लखनऊ के पुस्तकालय में काम कर रहे बाराबंकी निवासी दिनेश प्रताप सिंह ने अधिकारियो के दबाव के कारण आत्महत्या कर ली थी। सूत्रों का कहना यह है कि पुस्तकालय में हुए घोटाले के कारण श्री सिंह ने आत्महत्या कर ली थी जिसकी जांच दबा दी गयी थी। बाराबंकी की नजारत में हुए भ्रष्टाचार के कारण यहाँ के डिप्टी नाजिद गायब हो गए तो उनका आज तक पता नहीं चला जिसमें भी तमाम न्यायिक अधिकारी शामिल थे किन्तु न्यायपालिका का मामला होने के कारण कोई कार्यवाही नहीं हुई।
महत्वपूर्ण यह है कि न्यायिक अधिकारी न्यायमूर्ति गणों की भ्रष्टाचारी शक्ल को देखते हुए यह लिखने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है की उनके द्वारा प्रदत्त न्याय की गुणवत्ता कैसी होगी? माननीय उच्चतम न्यायलय से लेकर निचले स्तर तक बड़े अपराधियों के खिलाफ तथा विशेष कर आर्थिक अपराधो के मामलों में इनका कैसा होता होगा ?
बहुराष्ट्रीय निगमों, बड़ी-बड़ी कंपनियों के मामलों में विगत कुछ वर्षों से जनपक्ष की उपेक्षा की जा रही है उसका मुख्य कारण यह है कि बहुत सारे न्यायमूर्तियो के परिवार वालों के शेयर उन कंपनियों में हैं। उनके परिवार वाले उन कंपनियों के विधिक सलाहकार हैं। राज्य के पक्ष में भी न्यायपालिका का संतुलन सही नहीं रहता है उसका भी कारण यह है कि सेवानिवृत्ति के बाद सेवायोजन भी चाहिए उसके लिए राज्य के हर सही या गलत कार्य में उनका सहयोग होता रहता है। इस विषय पर ज्यादा लिखा नहीं जा सकता है दिक्कत हो सकती है !!!!!!!!
कुल मिलकर आज कार्यपालिका का आईना है हमारी न्यायपालिका ...................
गाजियाबाद में अप्रैल 2000 से लेकर फरवरी 2008 के बीच 482 ट्रेज़री चेकों जिनका मूल्य 6.58 करोड़ होता है चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के नाम आहरित कर लिया गया था। इसमें एक अभियुक्त आशुतोष आस्थाना की मृत्यु हो चुकी है। इसके पूर्व ही माननीय उच्च न्यायलय इलाहाबाद खंडपीठ लखनऊ के पुस्तकालय में काम कर रहे बाराबंकी निवासी दिनेश प्रताप सिंह ने अधिकारियो के दबाव के कारण आत्महत्या कर ली थी। सूत्रों का कहना यह है कि पुस्तकालय में हुए घोटाले के कारण श्री सिंह ने आत्महत्या कर ली थी जिसकी जांच दबा दी गयी थी। बाराबंकी की नजारत में हुए भ्रष्टाचार के कारण यहाँ के डिप्टी नाजिद गायब हो गए तो उनका आज तक पता नहीं चला जिसमें भी तमाम न्यायिक अधिकारी शामिल थे किन्तु न्यायपालिका का मामला होने के कारण कोई कार्यवाही नहीं हुई।
महत्वपूर्ण यह है कि न्यायिक अधिकारी न्यायमूर्ति गणों की भ्रष्टाचारी शक्ल को देखते हुए यह लिखने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है की उनके द्वारा प्रदत्त न्याय की गुणवत्ता कैसी होगी? माननीय उच्चतम न्यायलय से लेकर निचले स्तर तक बड़े अपराधियों के खिलाफ तथा विशेष कर आर्थिक अपराधो के मामलों में इनका कैसा होता होगा ?
बहुराष्ट्रीय निगमों, बड़ी-बड़ी कंपनियों के मामलों में विगत कुछ वर्षों से जनपक्ष की उपेक्षा की जा रही है उसका मुख्य कारण यह है कि बहुत सारे न्यायमूर्तियो के परिवार वालों के शेयर उन कंपनियों में हैं। उनके परिवार वाले उन कंपनियों के विधिक सलाहकार हैं। राज्य के पक्ष में भी न्यायपालिका का संतुलन सही नहीं रहता है उसका भी कारण यह है कि सेवानिवृत्ति के बाद सेवायोजन भी चाहिए उसके लिए राज्य के हर सही या गलत कार्य में उनका सहयोग होता रहता है। इस विषय पर ज्यादा लिखा नहीं जा सकता है दिक्कत हो सकती है !!!!!!!!
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