विशेष बलों के जरिए होने वाली फर्जी गिरफ्तारियों का सिलसिला उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है। दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल भी मनगढ़ंत कहानी पर फर्जी गिरफ्तारी करने के मामले में अदालत में मुँह की खा चुकी है। दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल की करतूत तब सामने आईं, जब अदालत ने मुठभेड़ के बाद गिरफ्तार किए गए कथित आतंकियों को रिहा कर दिया। इन कथित आतंकियों को स्पेशल सेल ने 2005 में मुठभेड़ के बाद दिल्ली से गिरफ्तार किया था। इन पर भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून पर हमले की साजिश का आरोप था। जिसे स्पेशल सेल ने एक बड़ी कामयाबी के तौर पर प्रचारित किया था। जबकि गिरफ्तार किए गए सभी चारो लोग पुलिस की तरफ से पेश की गई चार्जशीट के विरोधाभासी ब्यौरों के आधार पर निचली अदालत द्वारा बरी कर दिए गए हैं। अदालत ने स्पेशल सेल के कामकाज से असंतोष व्यक्त करते हुए बार-बार टिप्पणी की है कि स्पेशल सेल ने अपने अधिकारों का बेजा इस्तेमाल किया है। दिल्ली पुलिस ने मार्च 2005 में जिन चार लोगों को आतंकी बताकर गिरफ्तार किया था, पाँच साल बाद जब वे छूटे तो उनके पास न तो वह उल्लास था और न वे सपने, जो उन्होंने पुलिसिया साजिश का शिकार होने से पहले सँजोये थे।
आउट ऑफ टर्न प्रमोशन लेकर फर्जी एनकाउंटर करके अपनी पीठ थपथपाने वाली पुलिस से जन्मे विशेष दस्ते अब आतंकवाद और नक्सलवाद के नाम पर लोगों को निशाना बना रहे हैं। ऐसे में ये सवाल करना सहज हो जाता है कि आखिर देश का संविधान जो आजादी, जो सहूलियतें देता है, उसको नुकसान पहुँचाने वाले पुलिसकर्मी निर्दोष कैसे हो सकते हैं? क्या इन दस्तों के कारनामों से संविधान की मूल भावना को चोट नहीं पहुँचती है? दरअसल राजनीति में दिनों-दिन बढ़ती जा रही गैर-जिम्मेदारी ऐसे सवालों से मुँह चुरा रही है। जबकि सत्ता अपने अपने अपराध को छिपाने के लिए खौफजदा समाज बनाने की कोशिश में है। एक ऐसा समाज जहाँ हर किसी को केवल अपने जान और माल की चिंता में ही व्यस्त रहने की मजबूरी हो और सत्ता के पक्षपाती कदमों के संगठित
प्रतिरोध की स्थितियाँ ही न बन पाएँ। यही कारण है कि अधिकारों का दुरुपयोग करने के तमाम आरोपों के बावजूद विशेष पुलिस दस्तों को बनाए रखा जा रहा है। सत्ता भययुक्त समाज बनाने के लिए
धीमी न्याय प्रक्रिया का फायदा उठाकर इन बलों का बखूबी इस्तेमाल कर रही है। यही कारण है कि किसी भी बड़ी वारदात के बाद चैबीस या अड़तालीस घंटे के भीतर एक साथ कई गुनाहगारों की गिरफ्तारी हो जाती है। साजिशकर्ता जानते हैं कि जब तक मामला निष्कर्ष पर पहुँचेगा और अदालत का फैसला आएगा, तब तक बात पुरानी हो चुकी होगी। इसके अलावा ये विशेष दस्ते फर्जी गिरफ्तारियों और मनगढंत कहानियों के जरिये अपने औचित्य का भी बचाव करते हैं। क्योंकि जब तक इस तरह के अपराध होते रहेंगे या होने की सम्भावनाएँ जताई जाती रहेंगी, तब तक इन विशेष दस्तों के बने रहने का तर्क मजबूत रहेगा। कुल मिलाकर विशेष दस्तों को मिलने वाली विशेष सुविधाएँ इस तरीके के भ्रष्टाचार के लिए मनोबल देती हैं।
कहने का साफ मतलब है कि जब देश का सामान्य कामकाज सामान्य नियमों से चल सकता है,तो विशेष कानून और विशेष कार्य बल कितने जरूरी हैं? अगर ऐसे बलों की आवश्यकता है तो यह तय करने की जिम्मेदारी किसकी है कि इन बलों से नैसर्गिक न्याय की अवधारणा को कोई चोट न पहुँचे। अगर कोई नागरिकों की गरिमा को नुकसान पहुँचाता है तो ऐसे लोगों को दंडित करने की जिम्मेदारी किसकी है ? वक्त रहते सामान्य विधि प्रक्रियाओं और व्यवस्थाओं को मजबूत किया जाना जरूरी है, ताकि किसी भी तरह के विशेषाधिकार के बल पर नागरिकों की अस्मिता पर चोट करने वाली कारगुजारियों को रोका जा सके। ऐसे में इन विशेष पुलिसिया दस्तों को भंग किया जाना मानवाधिकारों के संरक्षण में पहला कदम साबित होगा।
(समाप्त)
-ऋषि कुमार सिंह
मोबाइल: 09313129941
आउट ऑफ टर्न प्रमोशन लेकर फर्जी एनकाउंटर करके अपनी पीठ थपथपाने वाली पुलिस से जन्मे विशेष दस्ते अब आतंकवाद और नक्सलवाद के नाम पर लोगों को निशाना बना रहे हैं। ऐसे में ये सवाल करना सहज हो जाता है कि आखिर देश का संविधान जो आजादी, जो सहूलियतें देता है, उसको नुकसान पहुँचाने वाले पुलिसकर्मी निर्दोष कैसे हो सकते हैं? क्या इन दस्तों के कारनामों से संविधान की मूल भावना को चोट नहीं पहुँचती है? दरअसल राजनीति में दिनों-दिन बढ़ती जा रही गैर-जिम्मेदारी ऐसे सवालों से मुँह चुरा रही है। जबकि सत्ता अपने अपने अपराध को छिपाने के लिए खौफजदा समाज बनाने की कोशिश में है। एक ऐसा समाज जहाँ हर किसी को केवल अपने जान और माल की चिंता में ही व्यस्त रहने की मजबूरी हो और सत्ता के पक्षपाती कदमों के संगठित
प्रतिरोध की स्थितियाँ ही न बन पाएँ। यही कारण है कि अधिकारों का दुरुपयोग करने के तमाम आरोपों के बावजूद विशेष पुलिस दस्तों को बनाए रखा जा रहा है। सत्ता भययुक्त समाज बनाने के लिए
धीमी न्याय प्रक्रिया का फायदा उठाकर इन बलों का बखूबी इस्तेमाल कर रही है। यही कारण है कि किसी भी बड़ी वारदात के बाद चैबीस या अड़तालीस घंटे के भीतर एक साथ कई गुनाहगारों की गिरफ्तारी हो जाती है। साजिशकर्ता जानते हैं कि जब तक मामला निष्कर्ष पर पहुँचेगा और अदालत का फैसला आएगा, तब तक बात पुरानी हो चुकी होगी। इसके अलावा ये विशेष दस्ते फर्जी गिरफ्तारियों और मनगढंत कहानियों के जरिये अपने औचित्य का भी बचाव करते हैं। क्योंकि जब तक इस तरह के अपराध होते रहेंगे या होने की सम्भावनाएँ जताई जाती रहेंगी, तब तक इन विशेष दस्तों के बने रहने का तर्क मजबूत रहेगा। कुल मिलाकर विशेष दस्तों को मिलने वाली विशेष सुविधाएँ इस तरीके के भ्रष्टाचार के लिए मनोबल देती हैं।
कहने का साफ मतलब है कि जब देश का सामान्य कामकाज सामान्य नियमों से चल सकता है,तो विशेष कानून और विशेष कार्य बल कितने जरूरी हैं? अगर ऐसे बलों की आवश्यकता है तो यह तय करने की जिम्मेदारी किसकी है कि इन बलों से नैसर्गिक न्याय की अवधारणा को कोई चोट न पहुँचे। अगर कोई नागरिकों की गरिमा को नुकसान पहुँचाता है तो ऐसे लोगों को दंडित करने की जिम्मेदारी किसकी है ? वक्त रहते सामान्य विधि प्रक्रियाओं और व्यवस्थाओं को मजबूत किया जाना जरूरी है, ताकि किसी भी तरह के विशेषाधिकार के बल पर नागरिकों की अस्मिता पर चोट करने वाली कारगुजारियों को रोका जा सके। ऐसे में इन विशेष पुलिसिया दस्तों को भंग किया जाना मानवाधिकारों के संरक्षण में पहला कदम साबित होगा।
(समाप्त)
-ऋषि कुमार सिंह
मोबाइल: 09313129941
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