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Randhir Singh Suman
आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि में आमतौर पर रहस्यवादी दर्शन को सृजनात्मक नहीं माना जाता। उसे जीवन के यथार्थ को अनदेखा कर एक वायवी संसार में पलायन करने का रास्ता माना जाता है। लेकिन मनुष्य के मन को उदारता, प्रेम और समता की भावभूमि की ओर उन्मुख और प्रेरित करने के लिए रहस्यवादी प्रवृत्ति आधुनिक मनुष्य के काम की हो सकती है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सूफियों के बारे में लिखा है: ‘‘हमारे देश के भक्तों और संतों की भाँति सूफी साधकों ने भी इसी अंतरतम के प्रेम पर आश्रित भाव-जगत की साधना को अपनाया है। यह साधना जितनी ही मनोरम है उतनी ही गंभीर भी। हमारे देश के अनेक सूफी कवियों ने इस प्रेम साधना को अपने काव्यों का प्रधान स्वर बनाया है। मलिक मुहम्मद जायसी का ‘पदमावत’ इस प्रेम साधना का एक अनुपम काव्य है। साधक के हृदय में जब प्रेम का उदय होता है तब सांसारिक वस्तुएँ उसके लिए तुच्छ हो जाती हैं, लेकिन संसार के जीवों के लिए उसका हृदय दया और प्रेम से परिपूर्ण रहता है। दूसरों के कष्ट का निवारण करने के लिए वह सब प्रकार से प्रयत्नशील रहता है और उसके लिए सभी प्रकार के कष्टों का स्वागत करता है। छोटे से छोटे से प्राणी लेकर बड़े से बड़े प्राणी तक उसकी दृष्टि में अपना महत्व रखते हैं। चूँकि सर्वत्र सभी प्राणियों में वे परमात्मा के दर्शन करते हैं अतः उन्हें सुख पहुँचा कर वे परम सुखी होते हैं। उनके लिए सब प्रकार का त्याग करने के लिए वे प्रस्तुत रहते हैं। बायजीद ने कहा है कि परमात्मा जिससे प्रेम करता है उसे तीन गुणों से विभूषित करता है - ‘‘उसमें समुद्र जैसी उदारता, सूर्य की तरह पर दुख का तरता और पृथ्वी की तरह विनम्रता पाई जाती है।’’
सूफी दार्शनिकों और साधकों के अलावा सूफी साहित्यकारों की भी कट्टरता के बरक्स उदारता के विस्तार में अहम भूमिका रही है। यूँ तो दुनिया का ज्यादातर श्रेष्ठ साहित्य मनुष्य के हृदय में निहित प्रेम, उदारता और परदुखकातरता की अनंत संभावनाओं के प्रकाशन का ही उद्यम है, लेकिन सूफियों का प्रेम काव्य इस मायने में अपनी अलग महत्ता और सार्थकता रखता है। अपनी लोकसंवेदना के चलते वह आम जीवन के ज्यादा नजदीक आता है। सूफी प्रेम काव्यों में लोक भाषा में लोक कथाओं को आधार बना कर लोकरंजन किया गया है। सांप्रदायिक और बाजारवादी कट्टरता दोनों मिल कर प्रेम और उदारता से संवलित सूफी साहित्य की संवेदना का अवमूल्यन करती हैं। आधुनिकतावादी और उसी की एक अभिव्यक्ति (मेनीफेस्टेशन) प्रगतिवादी बुद्धि की अपनी कट्टरताएँ जगजाहिर हैं। वह समस्त मध्ययुगीनता को अंधकार और बर्बरता का पर्याय मान कर चलती है। उसके मुताबिक आधुनिक युग से पूर्व मानव सभ्यता में कुछ भी ऐसा सारगर्भित नहीं हुआ है जिसे आज की विचारणा में केंद्रीय स्थान दिया जा सके। यह दरअसल बाजार की धुरी पर चढ़ी हुई बुद्धि है जो स्वतंत्रता के छद्म दावे में जीती है। मलिक मुहम्मद जायसी के ‘पदमावत’ में एक प्रसंग काबिलेगौर है, जिसे हमने अन्यत्र भी उद्धृत किया है। चित्तौड़गढ़ के व्यापारियों का एक काफिला व्यापार करने के लिए सिंहलद्वीप की यात्रा पर निकलता है। उनके साथ थोड़ा-बहुत कर्ज लेकर एक गरीब ब्राह्मण भी व्यापार की लालसा में चल देता है। जायसी ने व्यापार स्थल पर लगे बाजार की विशालता और भव्यता का चित्रण किया है जहाँ लाखों-करोड़ों में वस्तुएँ बिकती हैं। व्यापारी अपना-अपना व्यापार करते हैं लेकिन थोड़ी-सी पूँजी लेकर आया ब्राह्मण उस बाजार में कुछ भी खरीद नहीं पाता। व्यापारी लौटने लगते हैं। ब्राह्मण निराशा से भर जाता है। तभी बाजार के एक कोने में उसकी नजर पिंजड़े में बंद एक तोते पर पड़ती है जिसे व्याध वहाँ बेचने के लिए ले आया है। ब्राह्मण तोते से वार्तालाप करता है। उससे पूछता है कि वह गुणी पंडित है या केवल छूँछा है। अगर पंडित है तो ज्ञान की बात बता। तोता पीड़ा से भर कर कहता है कि हे ब्राह्मण मैं तभी तक गुणी और ज्ञानी था जब तक इस पिंजड़े में कैद नहीं हुआ था। अब तो मैं पिंजड़े में कैद हूँ और बाजार में बिकने के लिए चढ़ा दिया गया हूँ। ऐसी स्थिति में अपना सारा ज्ञान भूल गया हूँ। जायसी तोते की मर्मांतक वेदना को इस तरह व्यक्त करते हैं: ‘‘पंडित होई सो हाट न चढ़ा। चहउँ बिकाई भूलि गा पढ़ा।।’’ अर्थात जो ज्ञानी होता है वह बाजार में नहीं चढ़ता। मैं तो बिक रहा हूँ लिहाजा सब पढ़ाई भूल गया हूँ।
बाजार और विचार का द्वंद्व हमेशा से चला आ रहा है। इस प्रसंग में जायसी ने मध्यकालीन बुद्धिजीवी की बाजार के हाथों बिकने की वेदना को अभिव्यक्ति दी है। यानी वे बताते हैं कि पंडित, ज्ञानी या बुद्धिजीवी वही है जो बाजार की ताकत से स्वतंत्र है। आज हम देखते हैं कि दुनिया का ज्यादातर बौद्धिक कर्म बाजारवाद की सेवा में लगा हुआ है और बुद्धिजीवियों को इसकी कोई पीड़ा नहीं है। बल्कि वे अपनी बुद्धि को बाजार की सेवा में लगाने को आतुर नजर आते हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा बाजार लूटा जा सके। अध्यापक से लेकर आध्यात्मिक गुरु तक बाजारवाद की ताल पर नाचते नजर आते हैं। सिद्धांतकारों और साहित्यकारों-कलाकारों का भी वही हाल है। बुद्धिजीवियों के मार्फत दुनिया पर अपना वर्चस्व जमाने वाले बाजारवाद के प्रतिरोध की चेतना सूफी वाड्।मय में मिलती है। साहित्य के नित नए पाठ के आग्रहियों को इस तरफ भी थोड़ा ध्यान देना चाहिए।
-डॉक्टर प्रेम सिंह
(समाप्त)
लोकसंघर्ष पत्रिका के जून २०१० अंक में प्रकाशित
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