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9.6.10

लो क सं घ र्ष !: आर्थिक जीवन और अहिंसा -2

पिछली तीन चार शताब्दियों से धीरे-धीरे सारी विश्व आर्थिक व्यवस्था इस स्वतः चालित तथाकथित ‘आदर्श,‘ व्यवस्था के तहत संचालित हो रही है। कहा जा सकता है कि यदि ये दावे सचमुच सही हैं तो यह व्यवस्था अहिंसक समाज के मूल्यों पर भी सटीक बैठती नजर आती है। सिद्धांतों तथा ऐतिहासिक तथ्यों की कसौटी पर ये दावे कैसे और कितने खरे बैठते हैं यहाँ हम इस सवाल पर संक्षेप में विचार करेंगे। तथ्यों और इतिहास के आईने में झँाककर देखने पर बाजार व्यवस्था का यह तथाकथित अहिंसक सामाजिक मूल्यों अर्थात सामाजिक व्यक्ति के स्वतंत्र स्वैच्छिक निर्णय करने और उन्हें लागू करने की व्यवस्था पेश करने वाला आदशीकृत चित्र बालू की दीवार पर खड़ा यथार्थ के सर्वथा विपरीत नजर आएगा। अनेक वैकल्पिक और उच्च सामाजिक मूल्यों के प्रणेताओं ने इस काल्पानिक आदर्श व्यवस्था का सही चेहरा ही नहीं दिखाया है, सर्व-सम्मत मूल्यों मान्यताओं पर आधारित अहिंसा, समता, स्वतंत्रता और भाईचारे की नींव पर खड़ी वैकल्पिक व्यवस्थाओं के प्रारूप भी पेश किए हैं।
बाजार व्यवस्था ने सभी इन्सानों को मात्र ‘आर्थिक‘ मानव केवल निजी लाभ-लोभ, लालच की असीम चाहत से प्रेरित माना हैं। उनका राष्ट्र भी बाजार, उसके मूल्यों और उनको अक्षुण्य रखने में लगे राष्ट्रवाद की नींव पर स्थापित किया गया है। स्ंास्कृति भी इसी बाजार की चेरी मात्र बना दी गई है। इस व्यवस्था ने यह भी माना है कि सभी लोगों मंे शुरू से ही समान रूप से प्रतियोगिता में भाग लेने की क्षमता विद्यमान होती है। इस मत के अनुसार सभी के संसाधन, क्षमता में अवसर शुरआती दौर में समान मानने के बावजूद जो असमानताएँ एकाधिकारी प्रवृत्तियाँ तथा बढ़ता हुआ केन्द्रीकरण आदि पैदा होते हंै और बढ़ते हंै वे स्वाभाविक, प्राकृतिक और न्यायाधारित पुरस्कार माने गए हैं, विशेष क्षमताओं, परिश्रम, लगन आदि इनके प्रभाव पर अंकुश लगाने से इस मत के अनुसार मानव समाज की प्रगति बाधित और सीमित हो जाएगी। वैसे इस मत के कट्टर अनुयायी तो समाज का अस्तित्व तक स्वीकार नहीं करते हैं। कहा जाता है कि इस व्यवस्था के निर्णय बाजार में स्वतंत्र रूप से निर्धारित कीमतों के आधार पर किए जाते हैं जो सूचनाओं, प्रेरणाओं और अवसरों का सर्वसुलभ बयान करती हैं।
इतिहास और वर्तमान स्थिति पर नजर डालने पर उपर्युक्त कथनों का असत्य और खोखलापन साफ नजर आ जाएगा। पूँजीवाद के पूर्व की व्यवस्थाओं ने एक गहरी और बहुमुखी विषमताओं वाला समाज छोड़ा था। स्वतंत्र, समान और न्यायपूर्ण प्रतियोगिता के लिए इसमें रत्ती भर भी जगह नहीं थी। केवल एक व्यक्ति के साथ बँधे रहने की मजबूरी एक पूरे वर्ग में से किसी के साथ बँधे रहने की विवशता बन गई। इससे भी खराब तो यह हुआ कि ऐसे मजबूरी के बंधन भी सर्वसुलभ नहीं हो पाये। अनप्रयुक्त श्रमिकों की फौज को एक अनिवार्य, नैसर्गिक जरूरत या सच मान लिया गया। कभी कभार राजकीय दया दृष्टि की तजबीज के साथ। बाजार व्यवस्था का मूल नियम है जो जितना मजबूत और सक्षम है, इस प्राणी जगत की डारविन द्वारा प्रतिपादित गलाकाटू सामाजिक प्रतियोगिता उसे लगातार उतना ही अधिक समृद्ध तथा विपन्न जन को उतना ही असमावेशित और लगातार विपन्तर करता रहेगा।
राज्य हमेशा शक्तिशाली के नियन्त्रण में रहा है। व्यावहारिक स्तर पर हमेशा नहीं तो बहुधा सारे संास्कृतिक, आर्थिक कानूनी उपादान शक्ति के पिछलग्गू रहे हैं। इस तरह अस्वैच्छिक या परिस्थितिगत असमावेशन तथा विपन्नता को राजकीय तथा सांस्कृतिक बल ने एक व्यवस्थागत हिंसा का रूप दे दिया। सच है कि प्रतिरोध की संस्कृति, व्यवहार और नैतिकता एक छोटे से तबके द्वारा अक्षुण्य रखी गईं है जो इस व्यवस्था के चरित्र को उजागर करती है और परिवर्तन की प्रक्रियाओं और ताकतों की लौ को बाले रखती है। इस तरह कहा जा सकता है कि भयावह छद्म और खुली दोनों प्रकार की हिंसा पर आधारित बाजार व्यवस्था का ऊबड़-खाबड़ सातत्य बहुसंख्यक लोगों उनके देशों और समुदायों के पसीने, आसुँओं और खून की नींव पर खड़ा है और उनसे तरबतर रहता है। पिछली तीन-चार शताब्दियों जितनी खुली और प्रच्छन्न हिंसक और अन्याय भरी सदियाँ पहले कभी नहीं देखी गई थीं। यह विडम्बना और अधिक त्रासद हो जाती है इसलिए कि अब मानव मात्र को ऐसी हिंसा से मुक्ति दिलाने के सारे साजो सामान और शर्तें विद्यमान हैं।
सारांश यह है कि मानव समाज की प्रगति अपनी संभावनाओं को सिकरा नहीं पाई है। वह अनेक परिस्थितियों वश पनपी हिंसाधारित सामाजिक सम्बंधों के नागपाश तोड़ने की संभावनाएँ विकसित कर चुका है, खासकर तकनीकी क्षेत्र में। किन्तु सामाजिक व्यवहार तथा व्यवस्था में नहीं। वह अभी भी कबीर वाणी ‘‘सहज मिले सो क्षीरसम, माँगे मिले सो पानी। कह कबीर वह रक्तसम, ज्या में खींचातानी।‘‘ को जीवन का जीवन्त, ठोस आधार नहीं बना पाया है। इसमें शक्तिशाली लोगों द्वारा संस्थागत प्रच्छन्न रूप से थोपी गई हिंसा और इस हिंसा के स्वैच्छिक, स्वतंत्र, समता और एकजुटता को नष्ट करने की बार-बार देखी गई क्रूर शारीरिक हिंसा की बहुत बड़ी भूमिका है। एक अहिंसक समाज के निर्माण के रास्ते ज्ञान-विज्ञान, चेतना तथा संवेदी एकजुटता तथा तात्विक सारगर्भित लोकतंत्र ने उपलब्ध करा दिए हैं। नतीजन बहुस्तरीय, बहुआयामी प्रतिरोध और संघर्ष, हिंसा और अहिंसा की पक्षधर शक्तियों के बीच चल रहा है। इस अहिंसक समाज रचना हेतु संघर्ष की सफल परिणति में ही मानवता का भविष्य निहित है। उपर्युक्त समाज विज्ञानी विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अहिंसा और स्वतंत्र, स्वैच्छिक चयन की आपसी समानता, अथवा दोनों की गहरी एकरूपता को समझे बगैर आर्थिक जीवन में अहिंसा के स्थान को समझ पाना काफी दुष्कर है। स्वतंत्र, स्वैच्छिक चयन वह नहीं होता है जो देखने में औपचारिक और प्रक्रिया के रूप में ‘‘स्वतंत्र और स्वैच्छिक‘‘ हो, कई निर्णय मात्र सतही स्तर पर स्वतंत्र होते हैं। जैसे वे फैसले जो किसी दृश्य अथवा अदृश्य दबाव, विकल्पों की उपलब्धि को समाप्त करके, बाहरी ताकतों, प्रभावों, प्रलोभनों आदि द्वारा तयशुदा या प्रस्तुत किए गए विभिन्न किन्तु सीमित विकल्पों की सीमा में बाँधकर मानसिक, भौतिक, शारीरिक ताड़ना, प्रताड़ना, भय आदि द्वारा आतंकित करके और निर्णयकर्ता के परिवेश को निर्धारित, प्रभावित, सीमाबद्ध करके उसकी मानसिकता और मानस को ही अन्यजनों की निर्मिती बना दंे, केवल सतही, द्रष्टव्य और औपचारिक रूप में ही स्वतंत्र और स्वैच्छिक समझे जा सकते हैं। इस तरह निर्धारित जीवन किसी भी सामाजिक प्राणी को स्वतंत्र और स्वैच्छया वरणित जीवन से विपथित कर देता है। भौतिक और स्पष्टतया खुले तौर पर शारीरिक डर या उत्पीड़न के अभाव में भी ऐसी संभावनाओं की उपस्थिति तथा उनसे रक्षा या परित्राण के संभावना की अनुपस्थिति भी स्पष्ट और खुली शारीरिक हिंसा, रक्तपात आदि के समान ही हिंसक स्थिति होती है। कुछ बिरले, अनूठे व्यक्तित्वों तथा उनके संगठनों का ऐसी स्थिति से प्रतिरोध तथा अपनी स्वतंत्रता की दमदार ताल ठोककर की गई व्यावहारिक शब्देतर घोषणाओं का लम्बा इतिहास एवं उनकी स्मृतियाँ, तथा गाथाएँ निःसंदेह युगों-युगों तक मानवता की थाती बने रहते हैं। किन्तु प्रभुत्व और वर्चस्वी तबकों द्वारा ऐसे महावीरों की छवि को कलुषित करने के उपक्रम भी थम नहीं पाए हैं।


-कमल नयन काबरा
-मोबाइल: 09868204457
(क्रमश:)

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