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पुलिस के ज़ुल्म के किस्से सबने ही सुने हैं। उनकी कार्यप्रणाली पर भी अक्सर सवाल उठते रहते हैं। पुलिस का काम क़ानून व्यवस्था को बनाए रखना है। वो ऐसा करती भी है पर फिर भी उसकी छवि कोई खास अच्छी नहीं है। इसके दरअसल कई कारण है। पहले हम आपको पुलिस की पृष्ठभूमि के बारे में बता दें ब्रिटिश काल में वर्दीधारियों को लाट साहबों की कठपुतली कहा जाता था। अंग्रेजों ने पुलिस का गठन इसीलिए किया था की वो सत्ताधारियों का हुक्म बजा सकें। स्वतंत्रता से पहले तक पुलिस का काम अंग्रेजों का हुक्म बजने से ज्यादा कुछ नहीं था। अंग्रेज़ पुलिस का इस्तेमाल इस तरह से करते थे की आम जनता के बीच ब्रितानी हुकूमत का खौफ बना रहे। देश आजाद होने के बाद एक उम्मीद थी कि शायद पुलिस में कुछ परिवर्तन आएगा पर इस रवैये में कुछ खास अंतर नहीं आया। पहले अंग्रेज़ इसका दरुपयोग करते थे, अब राजनेता राजनेता गाहे -बगाहे इसका दुरूपयोग अपने राजनीतिक लाभ के लिए करते हैं। निचले स्तर से राजनीति का दखल शुरू होता है जो शीर्ष स्टार तक जरी रहता है पुलिस कमिश्नर या महानिदेशक वही बनता है जिसकी ट्यूनिंग सरकार से अच्छी हो इसके लिए सरकार वरीयता क्रम को भी नकार देती है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण किरण बेदी का ही ले लीजिये राजनीतिक संरक्षण पा कर पुलिस और निरंकुश हो जाती है पुलिस एकमात्र ऐसा विभाग है जिस पर सब अपना अधिकार चाहते हैं यही नहीं स्थानीय स्तर के नेता भी पुलिस पर दबाव बनाए रखना चाहते हैं पर इसके लिए मोटे तौर पर सरकार ही ज़िम्मेदार हैद्यदरअसल 1861 एक्ट के अनुसार जिस पुलिस बल का गठन किया गया था उसके पीछे अवधारणा यही थी की पुलिस राजनीतिक दृष्टि से उपयोगी हो और सत्ता के हर आदेश का पालन करे चाहे आदेश कुछ भी क्यों न होंद्यपरन्तु आज़ादी मिलने के बाद भी यही व्यवस्था कायम रही हालांकि आज़ादी के बाद भारतीय पुलिस का गठन किया गया पर मूल ढांचा वही रहा जो ब्रिटिश सरकार ने दिया थाद्यजैसे जैसे राजनीति भ्रष्ट होती गयी पुलिस का दुरूपयोग भी बाधा बाद में शाह आयोग का गठन हाजिसने पुलिस के दुरूपयोग को रोकने की वकालत की परन्तु संस्तुति को नहीं माना गयाद्यसरकार का स्वार्थ इसमें निहित थाद्यहालांकि बाद में राष्ट्रीय पुलिस आयोग के गठन से ये उम्मीद जगी थी की अब शायद कुछ सुधार हो परन्तु वो भी मर गयीद्यउसके केवल कुछ कम ज़रूरी सुझाव माने गएजानकार कहते हैं की सरकार कोई भी आये पर कोई इन सिफारिशों पर अमल नहीं करना चाहताद्यइसके बाद भी कई कमेटियां बनी मसलन रिबेरो कमेटीएपद्मनाभैया कमेटी एमनिमाथ कमेटीएसोली सोराबजी कमेटी परन्तु हर बार नतीजा वही धाक के तीन पात वाला रहा वेद मारवाह जो 1956 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं और दिल्ली के पुलिस आयुक्त के अलावाएझारखण्डएमणिपुर और मिजोरम के राज्यपाल भी रह चुके हैं कहते हैं किराज्नीतिक दल पुलिस सुधार में सबसे बड़ी बाधा हैं वे चाहते हैं कि पुलिस उनके इशारे पर काम करे 1981 की आयोग कि रिपोर्ट को ठन्डे बसते में डाल दिया गया और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद भी इसे लागू नहीं किया गया बल्कि एक मोनिटरिंग कमेटी बना दी गयी राजनेता पुलिस को अपना पर्सनल नौकर समझते हैं जब किसी राज्य का महानिदेशक मुख्यमंत्री के लिए दरवाजा खोलता हो तो निचले स्तर के पुलिसवालों के मनोबल पर इसका क्या असर पड़ेगा इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं वेद मारवाह के अनुसार वे पुलिस के पास अत्याधुनिक हथियारों और बाकी चीज़ों कि कमी भी मानते है जिस से पुलिस आतंकियों का मुकाबला करने में परेशानी महसूस करती हैद्यपुलिस वालों का वेतन भी कम होना उनके काम को प्रभावित करता हैद्यखासकर निचले कर्मचारियों के वेतन तो बढ़ने ही चाहियें उन पर काम का दबाव ज्यादा है और 1861 का ही पुलिस एक्ट अब भी चल रहा है उन्होंने राज्यपाल रहने के दौरान कई तरह के राजनीतिक दबावों का ज़िक्र अपनी पुस्तकष्इंडिया इन टार्मोइलष्में किया है किरण बेदी ने भी पुलिस सुधार कि काफी वकालत की और वे हमेशा इसके लिए लडती रही। इनका इमानदार होना भी राजनेताओं को खटकता था। यही कारण है की उन्हें दिल्ली का पुलिस आयुक्त नहीं बनाया गया। इसकी भर्त्सना पूरे देश में हुई थी और सरकार की थू-थू भी पर सरकार बेशर्मों का कारवां जो होती है, उसे इसकी भला क्या परवाह?हर पुलिस वाला भ्रष्ट नहीं होता और दोषी या भरष्ट अधिकारी को सजा मिलनी ही चाहिए चे वो पुलिस में हो या बाहरद्यबड़ा हो या निचले स्तर काद्यसबकी ज़िम्मेदारी अगर तय कर दी जाये और राजनेता पुलिस सुधार में दिलचस्पी दिखाएँ तो निशी ही तस्वीर बदल सकती है। हमें और आपको उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि जब तक सांस है तब तक आस है"मुकेश चन्द्र
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