देश के वर्तमान स्थिति के क्रम में कुछ प्रश्न मन को मथने लगते हैं- जीव हत्या कथा पूर्ण रूपेण वजिर्त होना चाहिये या इसकी अच्छाई-बुराई परिस्तिथियों के अनुसार तय होगी ? जिहाद, धर्म युद्ध या होली-वार सही हैं या ग़लत ? अपराध पर पश्चाताप या प्रायश्चित किन हालात में स्वीकार करना चाहिये ?
इन बातों पर धर्म गुरूओं, विद्धानों, विधि, वेताओं, समाज शास्त्रियों एँव राजनीतिज्ञों नें पक्ष-विपक्ष में बहुत बहसें की है। मानवधिकारवादियों नें कुछ अलग रूख़ अपनाया है। विस्तार से बात आज नहीं होगी, इस समय केवल संकेत।
ऊपर तीन प्रश्न लिखे गये- पहले के संबंध में यह कहना चाहूँगा कि गाँधी और गोडसे के साथ अगर एक जैसा व्यवहार हो तो मानवता तड़प उठेगी। ईसा, सुफ़सत तथा इमाम हुसैन एँव उनके परिवार की ज़िन्दगी को ख़त्म कर देना अत्यतं निन्दनीय एँव घृरिणत कार्य था। परन्तु क़ातिलों को, वे जहाँ जहाँ भी हों क्या प्रत्येक दशा में क्षमा-दान देना उचित होगा। यदि व्यक्ति, समाज या मानवता को सुरक्षित रखना है तो ऐसे हत्यारों के लिये तुलसीदास का यह निणर्य ठीक है।
तीसरा प्रश्न- बम्बाई आतंकी हमला कितना क्रूर था, कितनी महिलायें विधवा हुई, कितने बच्चों के माँ बाप खत्म हुये- 166 की हत्या, 350 ज़ख्मी, जानमाल का असीमित नुक़सान। अब इस माह जब अजमल क़स्साब को फांसी की सजा़ सुनाई गई तो उसके आंसू निकले वह रोने लगा। क्या यह पश्चाताप था ? क़तई नहीं। यदि पश्चाताप होता तो वह सुनवाई के दौरान कभी रोता। उस दरमियान तो वह बड़ा ढीठ बना रहा। अब जब रोया तो उसे ख़ुद अपनी मौत याद आई। फांसी की सजा़ तो लगता है उसके लिये बहुत ही कम है। ‘रहीम‘ की पंक्ति भी बहुत हल्की हो गई।
खीरे का मुंह काट के, मलिये लोन लगाय।
डॉक्टर एस.एम हैदर
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