1990-91 में विश्व में एकध्रुवीय हो जाने और अमरीका का इसका अगुआ बन जाने के बाद से ही उसने विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी गतिविधियां तेज कर दी हैं। लेकिन यूरोप और खासकर पूर्वी यूरोप पर उसका विशेष ध्यान है। इस अभियान में उसने सर्वप्रथम युगोस्वालिया को सभी अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और मान्यताओं की अवहेलना करते हुए कई भागों में विभक्त कर दिया। इसके साथ ही उसका दूसरा निशाना उन राष्ट्रों पर था, जो पहले समाजवादी खेमों के सदस्य थे। इस मुहिम में इन राष्ट्रों को नाटो सैनिक संगठन में सम्मिलित करना शामिल थे। इसके साथ ही मध्य एशिया के राष्ट्रों और इनके माध्यम से कैस्पियन सागर के तेल सम्पदा पर अधिकार जमाना इनकी नीति का भाग था।
शुरू में उसे कुछ सफलता भी मिली, जैसे कि बुल्गारिया, पोलैंड, रूमानिया आदि को नाटो का सदस्य बनाया गया और इनमें से कुछ में अमरीकी नाटो फौजी अड्डे भी स्थापित किये गये। लेकिन अभियान के इस क्रम में उसे बड़ा झटका ज्याॅर्जिया संकट के रूप में लगा। लम्बे समय से अमरीका उक्रेन को नाटो में शामिल करने के लिए प्रयत्नशील है। इस संबंध में उतार-चढ़ाव होता रहा है।
उक्रेन में अभी-अभी राष्ट्रपति का आम चुनाव संपन्न हुआ है। वहां की चुनाव प्रणाली के अनुसार राष्ट्रपति प्रत्यक्ष वोटरों द्वारा दो चरणों में चुना जाता है। पहले चरण में कई उम्मीदवार लड़ सकते हैं। यदि किसी को 50 प्रतिशत से अधिक नहीं मिला तो दो अधिक मत पाने वाले दूसरे चरण में लड़ते हैं। इस चुनाव के पहले दौर (31 जनवरी) में विक्टर यानुकोविच और वर्तमान प्रधानमंत्री युलिया तिमोशेको को क्रमशः 35 अज्ञैर 25 प्रशित मत मिले हैं जबकि उक्रेन के नाटों में शामिल करने की नीति के समर्थक वर्तमान राष्ट्रपति युश्चेको को मात्र 5 प्रतिशत ही मत मिल पाए हैं। इसका मतलब था कि अन्तिम दौर में जीतने वाला अमरीका समर्थक नहीं होता। क्योंकि यानुकोविच और तिमोशेकों दोनों ही अमरीका-विरोधी हैं। इस प्रकार उक्रेन को नाटो में शामिल करने के अमरीका मंसूबे पर पूर्ण विराम लग जाएगा। यह अमरीका के लिए बड़ा झटका है। इसके अलावा और अन्य तरह से भी उक्रेन महत्वपूर्ण है। यानुकोविच को मात्र 5 प्रतिशत मत मिलना नाटो सदस्य बनाने की उनकी अमरीका परस्त नीति को रद्द किया जाना है।
कैस्पियन सागर से तेल और गैस की आपूर्ति पश्चिम यूरोप के राष्ट्रों को कई माध्यम से होती है। इसमें रूस, तर्कमेनिस्तान समझौता अजरबैजान के तेल गैस के रूस के रास्ते पश्चिम यूरोप जाने और रूस-तुर्की के रास्ते पश्चिम यूरोप जाने और रूस-तुर्की समझौता जो गैस/तेल को दक्षिण यूरोप भेजेंगे, प्रमुख हैं। येश्चेंका इन सबके खिलाफ थे और वे चाहते थे कि रूस को इन सबसे अलग कर सारी तेल/गैस उक्रेन से ही होकर पश्चिम यूरोप को जाये। लेकिन स्पष्ट रूप से यह सब ख्याली पुलाव बन कर ही रह जायगा।
उपरोक्त तेल राजनीति का सीधा संबंध कैस्पियन सागर के तेल और गैस भंडार से है। पहले वह पूर्व सोवियत संघ की सम्पदा थी। उसके ध्वस्त होने के बाद वह सोवियत संघ से अलग हुए और कैस्पियन सागर से लगे राष्ट्रों की सम्पत्ति है। विभिन्न समझौतों के कारण इस तेल/गैस भंडार पर वर्चस्व स्थापित करना भी एक उद्देश्य रहा है। लेकिन उक्रेन के इस चुनाव से उसकी इस नीति को मुंह की खानी पड़ी है।
यूश्चेंको उक्रेन में सेवास्तोपोल में रूसी सैनिक अड्डे के भी खिलाफ थे। इस सैनिक अड्डे का काला सागर पर वर्चस्व से सम्बंध है। काला सागर से लगे बुल्गारिया और रूमानिया में पहले से ही अमरीका ने सैनिक अड्डा स्थापित कर रखा है और उसका उद्देश्य काला सागर पर अपना दबदबा जमाना है। उसका यह मंसूबा भी धराशायी होता दीख रहा है।ज्याॅर्जिया के संबंध में भी युश्चेंको/रूस की संकट भत्र्सना के पक्षधर थे। उक्रेन की आने वाली सरकार की इस मामले में भी अलग नीति होगी। कुछ दिन पहले उक्रेन से गुजरने वाली पाइप-लाइन के संबंध में रूस के साथ उक्रेन का संकट हुआ था। ये पाइप-लाइन पश्चिम यूरोप को भी जा रही है और इस संकट का असर पश्चिम यूरोप को पहुंचने वाले तेल और गैैस की आपूर्ति पर पड़ा था। इसलिए पश्चिम यूरोप के देश भी इस संबंध में अमरीका के विरूद्ध और रूस समर्थक नीति रखते हैं। इन सब घटनाओं का यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि उक्रेन में रूस पक्षी सरकार आने वाली है। लेकिन लड़ने वाले दोनों उम्मीदवारों ने साफ कर दिया है कि उनकी नीति तर्कसंगत और उक्रेनपक्षी होगी।
कुल मिलाकर आने वाले दिनों में अमरीकी नीति को इस क्षेत्र में भारी झटका लगने जा रहा है और ओबामा के लिए सांप-छछंुदर की स्थिति उत्पन्न होने वाली है। अगर ओबामा उक्रेन के संबंध में रूस के साथ टकराव की स्थिति पैदा करते हैं तो उनका रूस के साथ संबंध को ‘रिसेट’ करने (सामान्य बनाने) का कार्यक्रम धरा रह जायगा। अगर वह उक्रेन संबंधी नीति पर पीछे हटते हैं तो इसकी विरोधी रिपब्लिकन पार्टी इसकी नींद हराम करेगी।
चुनाव के दूसरे और अंतिम दौर में जिसमें सिर्फ दो सबसे अधिक मत पाने वाले उम्मीदवार ही लड़ते हैं। 7 फरवरी को दूसरे दौर में उक्रेन के विरोधी उम्मीदवार यानुकोविच ने प्रधानमंत्री तिमोशेको को राष्ट्रपति की दौड़ में बहुत थोड़े से मतों से हरा दिया। यानुकोविच को 48.40 तथा तिमोशेको को 45.99 प्रतिशत मत मिले। पश्चिमी देशों ने अपनी निराशा स्पष्ट की है। यूरोपीय संसद की परिषद के ‘रैपोर्टियर’ ने चुनावी नतीजे को ‘त्रासदी’ करार दिया है।
चुनाव नतीजे यानुकोविच के लिए नाटकीय वापसी है। वे भूतपूर्व प्रधानमंत्री हैं। 2004 के चुनावों में पश्चिम के हस्तक्षेप से चुनावी नतीजे उनके विरोध में गए जिसे “नारंगी क्रांति“ (!) कहा गया।
अब वे राष्ट्रपति के रूप में वापस आ गए हैं। जाहिर है उक्रेन दृढ़तापूर्वक पश्चिम-विरोध पर चलेगा; कम से कम संभावना तो यही लगती हैं।
-भारत भूषण प्रसाद
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