सपा के प्रभावशाली लीडर अमर सिंह ने दुबई में बैठकर पार्टी के सभी महत्वपूर्ण क्रमशः महामंत्री, प्रवक्ता एवं संसदीय बोर्ड की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। उनका यह इस्तीफा ऐसे समय पर आया है जब पार्टी के अन्दर से उनकी कार्यशैली के विरूद्ध बुजुर्ग समाजवादी लीडर ज्ञानेश्वर मिश्रा एवं पार्टी में सबसे समझदार माने जाने वाले डा0 राम गोपाल यादव के विरोध के स्तर फूटने प्रारम्भ हो गये थे और पार्टी मुखिया इस पर खामोश थे।
वर्ष 1993 में आकर पार्टी के ब्राण्ड एम्बेस्डर का रोल निभाने वाले अमर सिंह ने चंद वर्षों के दौरान जिस प्रकार मुलायम सिंह के दिमाग पर अपना बंगाल का काला जादू चढ़ाया था, जहां से उन्होंने कांग्रेसी लीडर सिद्धार्थशंकर राम की छत्रछाया में राजनीति की ए0बी0सी0डी0 सीखी थी, उसके चलते सपा के सबके बाद एक दिग्गज नेता किनारे लगते चले गये। चाहे वह ज्ञानेश्वर मिश्रा हो या डा0 रामगोपाल यादव चाहे वह शफीकुर्रहमान बर्क रहे हों या सलीम शेरवानी, चाहे वह बेनी प्रसाद वर्मा रहे हो या आजम खां या राज बब्बर अन्त में मुलायम का हाल यह हुआ कि सारी खुदाई एक तरफ अमर प्रेम एक तरफ। मुलायम पर अमर सिंह का ऐसा नशा चढ़ा कि वह समाजवाद का पाठ भूलकर साम्राज्यवाद की डगर पर चल पड़े। उनके पुराने दोस्त जो लोहिया के विचारों के थे वह तो किनारे लग गये अनिल अम्बानी, अमिताभ बच्चन, सुब्रतराय जय प्रदा व जया बच्चन के साथ उनकी गलबहिएं बढ़ती गई। परिणाम यह हुआ कि लोहिया का समाजवाद बकौल वयोवृद्ध समाजवादी लीडर मोहन सिंह के वह काॅरपोरेट समाजवाद में तब्दील हो गया। मुलायम के वोट की दौलत लुटती गई और विदेशी बैंकों में उनकी दौलत में भण्डार बढ़ते गये।
मुलायम सिंह की राजनीतिक बैसाखी दो प्रबल वोट बैंकों पर टिकी थी एक यादव दूसरा मुस्लिम जो उन्हें अपना सच्चा और खरा हमदर्द समझती थी और उनकी इसी छवि के कारण संघ परिवार के लोग उन्हें अपना कट्टर दुश्मन मान कर मौलाना मुलायम सिंह भी कहा करते थे।
अमर सिंह ने मुलायम सिंह के चरित्र को ऐसा बदला कि अखाड़े का यह पहलवान जो कभी लंगोट का बेइंतेहा मजबूत माना जाता था, पर बदनामी के कई दाग लगने लगे। कभी फिल्मी तारिकाओं का लेकर तो कभी उनके मुख्यमंत्री कार्यकाल में उनकी निजी सचिव रही एक महिला आई0ए0एस0 अधिकारी के साथ उनकी करीबी रिश्तों को लेकर। कहते हैं कि जब किसी व्यक्ति का चरित्र कमजोर हो जाता है तो वह आत्मबल से कमजोर होकर नैतिक पतन के अंधकार में चला जाता है। मुलायम के साथ भी ऐसा ही होने लगा। उनके घर में उनकी छवि बिगड़ने लगी। पहली पत्नी की बीमारी और उसके बाद उनका देहान्त फिर उनके पुत्र अखिलेश से उनके रिश्तों में कड़वाहट मुलायम सिंह की मौजूदा पत्नी व अखिलेश के बीच मतभेद के पीछे भी बताते हैं अमर सिंह का ही अहम किरदार शामिल है।
यही तक नहीं मुलायम सिंह के छोटे अनुज शिवपाल यादव, अखिलेश, डिम्पल वगैरह का एक ऐसा गुट अमर सिंह ने तैयार कर दिया कि मुलायम सिंह बिलकुल बेबस होकर अकेले रह गये मुलायम का अपना कोई स्वतंत्र निर्णय न हो पाता उनके ऊपर अमर सिंह का निर्णय ही सदैव हावी रहता। यहाँ तक कि बीते लोकसभा चुनाव में मुसलमानों में नफरत की निगाह से सदैव देखे जाने वाले कल्याण सिंह के साथ हाथ मिलाकर मुलायम ने अपने सबसे वफादार वोट बैंक मुस्लिम में भी हाथ धो लिया और इसी का लाभ उठाकर कांग्रेस ने अपने बरसों पुराने रूठे हुए मुस्लिम वोट बैंक को अपने घर वापसी कराने में सफलता प्राप्त कर ली।
अमर सिंह की ही गलत नीतियों के चलते हपले शफीकुर्रहमान बर्क, सलीम शेरवानी और राजबब्बर जैसे वफादार नेता मुलायम का साथ छोड़कर गये फिर उनके सबसे पुराने साथी बेनी प्रसाद वर्मा व आजम खाँ भी उनसे रूठकर अलग हो गये। यह सभी अमर सिंह के ही घायल रहे और मुलायम के अमर प्रेम के ही चलते उनसे नाराज हुए। बेनी का तो भरपूर इस्तेमाल कांग्रेस ने करके सपा को ठिकाने लगाने के अतिरिक्त उ0प्र0 में अपने दोबारा सत्ता में आने की राह हमवार कर ली। और वह सपने भी संजोने लगी, वही आजम खा की बयानबाजी ने मुस्लिम वोटों को उनसे काफी दूर कर दिया।
अमर सिंह ने मुलायम के हरे भरे राजनीतिक चमन में ऐसी आग लगाई कि उनके घर तक आग जा पहुंची। बताते हैं कि फिरोजाबाद में अखिलेश की पत्नी डिम्पल की हार की दुआ मुलायम की पत्नी कर रही थी तो वही पलटवार करते हुए मुलायम की पत्नी की पसंद के उम्मीदवार बुक्कल नवाब लखनऊ पश्चिम से विधान सभा उपचुनाव जो लालजी टण्डन के सांसद होने के पश्चात सपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे थे और जीत के करीब पहुंच गये थे कि अमर सिंह ने आकर एक ऐसा भड़काऊ भाषण इमाम हुसैन के हुसैनी लश्कर की तुलना अपने से करते हुए दिया कि बुक्कल नवाब का अपना स्वयं का शिया वोट बैंक उनसे रूठकर छिटक गया और सपा की जीती सीट मौके के ताक में बैठी कांग्रेस के पाले में चली गई। बुक्कल नवाब ने चुनाव बाद स्वयं यह बयान दिया था कि मेरी हार का कारण अमर सिंह है।
समाजवादी पार्टी के दिन प्रतिदिन गिरते राजनीतिक ग्राफ का सीधा लाभ कांग्रेस को हो रहा था जहाँ उसका मुस्लिम वोट जाने को पर तोल रहा था तो वहीं भाजपा के कमजोर होने पर हिन्दू मतों का धु्रवीकरण भी कांग्रेस की ओर होना प्रारम्भ हो गया। उधर विधान सभा का चुनाव होने में मात्र सवा दो साल बचे थे ऐसे में मुलायम सिंह की पार्टी की राजनीतिक भविष्य पर ही प्रश्न उठने खड़े हो गये थे। सपा से बड़े पैमाने पर भगदड़ प्रारम्भ होने के आसार भी साफ दिखने लगे थे सो मुलायम के पास इसके अतिरिक्त कोई चारा नहीं था कि अमर सिंह से छुटटी पा ली जाए। इसीलिए सोंची समझी रणनीति के तहत उन्होंने डा0 रामगोपाल यादव को उन्होंने आगेकर अमर सिंह के विरूद्ध उन्होंने मोर्चा खुलवा दिया वह जानते हैं कि अमर सिंह एक भावुक व्यक्ति हैं वह अपमान सहकर पार्टी में नही रह पायेंगे सो अमर सिंह की प्रतिक्रिया मुलायम की उम्मीदों के करीब आयी हैं। उधर अमर सिंह ने पार्टी की सदस्यता ना छोड़कर इतनी गुंजाइश बाकी बचा ली है कि दोबारा पार्टी में आने की डगर जीवित रहे। मुलायम भी अध्ययन करना चाहते हैं कि अमर सिंह के पार्टी से किनारा करने की खबर पाकर उनके रूठे नेताओं की तरफ से उन्हें क्या संकेत मिलते हैं।
समाजवादी का ऊँट किस करवट बैठेगा यह तो समय बतायेगा फिलहाल अमर सिंह के इस्तीफ से समाजवादी पार्टी के तेजी से होते नुकसान में थोड़ा ठहराव अवश्य आ जायेगा विशेष तौर पर मुस्लिम वोटों के पार्टी से जाते कदम रूक सकते हैं। परन्तु मुलायम सिंह को अपनी पुरानी छवि पाने में लोहे के चने चबाने होंगे क्योंकि सब कुछ लुटाने के बाद वह अब अपने होश में आने की तैयारी कर रहे हैं।
-मो॰ तारिक खान
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