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18.11.09

लो क सं घ र्ष !: राजनीति में विश्वासघात

एक खबर को अधिकतर अखबारों में मुख्य पृष्ठ पर जगह दी गई, ‘‘मुलायम और कल्याण की दोस्ती समाप्त।’’ राजनीति के पंडित जानते हैं कि राजनीति में स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं हुआ करते। वक्त की जरूरत थी, दोनों ने दोस्ती की। दोनों ने यह दोस्ती, अपने-अपने फायदे के लिए की थी। चूंकि मैं छात्र जीवन से समाजवादी आन्दोलन से जुड़ा रहा हूं इस कारण आचार्य नरेन्द्र देव, डा0 राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण से परिचित हूं। जब इन लोगों का नाम लेता हूं तो उस शख्सियत को भी नहीं भूल पाता जो समाजवादी आन्दोलन का एक स्तम्भ था जिसे नेताजी (राज नारायण) के नाम से जाना जाता है। हालांकि नेताजी के नाम से केवल सुभाष चन्द्र बोस को ही जाना जाता रहा है लेकिन राज नारायण के लोगों ने उन्हें नेताजी का नाम दिया और धरतीपुत्र कहा। सचमुच धरतीपुत्र ने समय के अनुसार राजनीतिक दोस्ती उन लोगों से भी की जिन्हें वह राजनीतिक दुश्मन मानते थे लेकिन सिद्धान्त विरोधी राजनीतिक दुश्मन का साथ उन्होंने केवल इसलिए पकड़ा कि उनके नेता डा0 राम मनोहर लोहिया देश में सही लोकतंत्र देखना चाहते थे और सही लोकतंत्र स्थापित करना चाहते जिसके लिए वह राजनीति में व्यक्तित्व पूजा और वंशवाद का मूल नष्ट करने के प्रयास में रहे। डा0 राम मनोहर लोहिया के शब्दों में, ‘‘मैं जानता हूं कि मैं एक चट्टान से टकरा रहा हूं और यह भी जानता हूं कि चट्टान को नहीं तोड़ सकूंगा लेकिन मुझे विश्वास है कि दरार जरूर डाल दूंगा।’’ यह शब्द उनके उस वक्त के थे जब वह पं0 जवाहर लाल नेहरू के मुकाबले चुनाव मैदान में उतरे। एक वाक्य और उद्धृत करता हूं डा0 राम मनोहर लोहिया का, जब उन्होंने ग्वालियर की महारानी के खिलाफ सुक्खो रानी को चुनाव मैदान में उतारा था, ‘‘लोकतंत्र में लोक प्रतिनिधि का चुनाव होता है और यही कारण है कि ग्वालियर के चुनाव में एक तरफ है ग्वालियर की महारानी तो दूसरी तरफ है हमारी उम्मीदवार हैं सुक्खो रानी।’’

समाजवाद के दार्शनिकों का यह मूलमंत्र समाप्त हो गया और समाजवादी आन्दोलन सुविधा और भोग की राजनीति में खो गया और समाजवादी नेता और कार्यकर्ता जो सुविधा और भोग की राजनीति में अपना स्थान बना सके, जीवित हैं, अन्यथा खो गये।

समाजवादी आन्दोलन तो नहीं रहा, लेकिन समाजवाद के नाम पर डा0 राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण और आचार्य नरेन्द्र देव के नाम पर शोषण की राजनीति शुरू हो गई और समाजवादी पार्टी ने जन्म लिया। इस पार्टी में सुविधा भोगी जातिवादी और सम्प्रदायवादी लोगों ने गठजोड़ किया और जिसके विरूद्ध समाजवादी नेता लड़ते रहे वही इस पार्टी में परवान चढ़ा और वह है वंशवाद। मुलायम सिंह यादव, शिवपाल सिंह यादव, राम नारायण यादव और अखिलेश यादव। भाई-भतीजावाद पर उठार-प्रहार करने वाली राजनीति पर भाई-भतीजावाद हावी हो गया। साम्प्रदायिकता और जातिवाद का बोलबाला रहा। मुझे याद है कि जब हम समाजवादी योजन सभा संसोपा और सोपा के लोग जाति तोड़ो सम्मेलन किया करते थे, आर्थिक और सामाजिक रूप से दबे कुचले दलितों को विशेष अवसर दिलवाने के लिए संघर्ष करते थे, आये दिन जगह-जगह सहभोज का आयोजन करते थे, भाई-भतीजावाद को मानना एक गाली समझते थे, आज हम उन्हीं मूल्यों को जीति रखकर अपने को समाजवादी घोषित करने में गर्व महसूस करते हैं। अब अगर मुलायम सिंह यादव भाई-भतीजावाद और वंशवाद को अग्रसर करने के लिए अपने ही जैसे चरित्र के व्यक्ति से दोस्ती करता है और दोस्ती करने के नतीजे में अपनी नींव खिसकती हुई देखकर दोस्ती समाप्त करता है तो इसमें कैसा विश्वासघात?

कल्याण सिंह जो एक समय में बावरी मस्जिद गिराने के दोषी रहे, भारत के संविधान की धज्जियां उड़ायी, अपने ही देश के कानून को जूतों की नोंक पर रखा, भारतीय जनता पार्टी से अलग होने के बाद उन्हें भी सहारे की जरूरत थी और अपनी इसी जरूरत को पूरा करने के लिए मुलायम सिंह का हाथ थामा। आवश्यकता के अनुसार हिन्दू राष्ट्र की स्थापना और मन्दिर आन्दोलन से जोड़ कर सत्ता में भागीदार बनाने के उद्देश्य से जब उन्हें मुलायम का साथ अच्छा लगा साथ हो लिए और जब यह साथ दोनों के लिए नुकसानदेह लगा तो दोनों ही अलग हो गये। ये थी स्वार्थ की राजनीति, फिर यह कहा जाय कि मुलायम ने कल्याण सिंह के साथ विश्वासघात किया या कल्याण सिंह ने मुलायम सिंह के साथ विश्वासघात किया, कोई मायने नहीं रखता और सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि जब दोनों को एक-दूसरे के साथ की जरूरत थी साथ रहे और जब जरूरत समाप्त हुई तो अलग हो गये।

सिर्फ इन्हीं दोनों नेताओं को नहीं बल्कि देश के किसी दल या दल के किसी नेता को देश की चिन्ता नहीं है और अगर चिन्ता है तो सिर्फ अपने स्वार्थ की। जिस नेता का स्वार्थ जिस दल से सिद्ध होता है, वह उसके लिए उस समय तक वफादार रहता है जब तक कि उसका स्वार्थ सिद्ध होता रहे, स्वार्थ टकराने के बाद वह जिस दल के प्रति वफादार रहा है उसका साथ छोड़कर उस दल के साथ हो लेता है जहां पर उसके स्वार्थ सिद्धि की गुंजाइश हो।

यही कारण है मुलायम सिंह और कल्याण सिंह का एक-दूसरे के साथ विश्वासघात का। अगर दोनों को अपने स्वार्थ की चिन्ता न होकर देश की चिन्ता होती तो दोनों को यह कभी न लगता कि दोनों ने एक दूसरे के साथ विश्वासघात किया। सच तो यह है दोनों ने एक दूसरे के साथ विश्वासघात न करके हमेशा देश के साथ विश्वासघात किया है, कर रहे हैं और करते रहेंगें, इसलिए आवश्यक है कि अपना भला छोड़कर देश का भला चाहने वाले एक साथ उठें और जन-जागरण चलाकर देश के कल्याण के लिए स्वार्थ त्यागकर आगे बढ़ें, इसी में हमारी भलाई है।

मुहम्मद शुऐब एडवोकेट
मोबाइल - 9415012666

loksangharsha.blogspot.com

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