अमेरिका को धीरे-धीरे ईरान की ओर बढ़ता देख, उत्तरी कोरिया को यह समझने में मुष्किल नहीं हुई होगी कि बुष की बनायी शैतान त्रयी में ईरान के बाद अगला क्रम किसका है। और जब बचाव का कोई रास्ता न समझ में आये तो आक्रामकता ही बचाव का अंतिम संभव हथियार बचती है। बेषक उत्तरी कोरिया के इस कृत्य से कोरियाई खाड़ी और पूर्वी एषिया में तनाव बढ़ा है और अमेरिका को अपनी पूर्वी एषिया में मौजूदगी बढ़ाने का बहाना भी मिला है, लेकिन उत्तरी कोरिया अगर परमाणु परीक्षण नहीं करता तो कौन सा अमेरिका उसे बख़्ष रहा था। 21वीं सदी की भीषणतम बाढ़ और उसके बाद आने वाली भुखमरी और अकाल जैसी परेषानियों से जूझते देष को 1985 से हाल-हाल तक सिर्फ़ मदद के वादे से बहलाया ही तो है अमेरिका ने।
उधर सीआईए और अमेरिकी राजनीतिकों का ये कहना जारी रहा है कि उत्तरी कोरिया एक बदमाष देष (रोग स्टेट) है। अमेरिका उत्तरी कोरिया पर यह दबाव डालता रहा कि वो अपना मिसाइल कार्यक्रम बंद कर दे ताकि उस पर से प्रतिबंध हटाये जा सकें और उत्तरी कोरिया का कहना था कि प्रतिबंध हटाना 1994 के एग्रीड फ्रेमवर्क समझौते में निहित है फिर ये नयी शर्त क्यों। उधर उत्तरी कोरिया को जिस 5 लाख टन मीट्रिक टन भारी तेल की आपूर्ति का वादा किया गया था और उसे सुनिष्चित करने के लिए केडो (केईडीओ) नामक एजेंसी बनायी गयी थी, वो लगातार फण्ड की कमी का षिकार बनी रही और इस कारण वक्त पर तेल आपूर्ति की अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा सकी। नतीजतन 10 जनवरी 2003 को उत्तरी कोरिया ने परमाणु अप्रसार संधि से अपने हटने का ऐलान कर दिया। तब से अनेक अनेक द्विपक्षीय व बहुपक्षीय वार्ताएँ चलती रहीं लेकिन उनसे उत्तरी कोरिया को न कोई मदद हासिल हुई और न अमेरिका की मंषाओं पर भरोसा हुआ। एक तरफ़ जाॅर्ज बुष ने उत्तरी कोरिया को 2008 में उस सूची से बाहर कर दिया जो अमेरिका ने आतंकवादी देषों की बनायी हुई थी लेकिन दूसरी तरफ़ उसे शैतानियत की त्रयी की सूची में दर्ज कर दिया। सन् 2003 के बाद से लगातार उत्तरी कोरिया के अनेक जहाज रोके गये, अनेक कंपनियों के व्यापार को प्रतिबंधित किया गया और दूसरे देषों में जमा उत्तरी कोरिया के करोड़ों डाॅलर ये इल्जाम लगाकर जब्त कर लिये गये कि इन पैसों से वो परमाणु हथियार बनाने की कोषिषें कर रहा है। एक तरह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसे हर तरह की संभव मदद से दूर करके और फिर उसके आर्थिक, सामरिक व व्यापारिक रिष्तों को काटने की कोषिष अमेरिका कर रहा है ताकि उसे हर तरह से कमज़ोर किया जा सके।
नयी शक़्ल में पुराना निजाम
बराक ओबामा के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने से अनेक विष्लेषकों को लगा था कि अमेरिकी सरकार युद्ध की विभीषिकाओं को जान समझ गयी है और ओबामा विष्व शांति कायम करने की दिषा में वाकई कुछ ठोस कदम उठाएँगे। लेकिन सिर्फ़ शक़्लें बदल जाने से व्यवस्था नहीं बदलती। इसीलिए सब कुछ थोड़ी-बहुत फेरबदल के साथ वैसा ही चल रहा है जैसे वो क्लिंटन या बुश के ज़माने में चलता था।
अमेरिकी टी वी चैनलों पर अमेरिकी विदेष विभाग व रक्षा विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों ने उत्तरी कोरिया को किसी अन्य ग्रह का देष बताया है जिसे कुछ पागल चला रहे हैं। जून 2009 में बराक ओबामा ने फ्रांस में बयान दिया कि ‘उकसावे की घटनाओं को पुरस्कृत करने की नीति जारी नहीं रखेंगे।’ इसके बाद 23 सितंबर 2009 को संयुक्त राष्ट्र संघ में दिये गये अपने पहले संबोधन में भी ओबामा ने उत्तरी कोरिया तथा ईरान का नाम साथ-साथ लेते हुए चेतावनी दी कि वे अंतरराष्ट्रीय समुदाय के नियम-कानूनों के मुताबिक बर्ताव करें वर्ना उन्हें परिणाम भुगतने होंगे। अंतरराष्ट्रीय शांति के इन छद्म पैरोकारों को इज़रायल या पाकिस्तान की शांति भंग करने की कोषिषें नहीं दिखायी देतीं क्योंकि वहाँ के हिंसक व अमानवीय अभियान अमेरिका के समर्थन व शह पर चलते हैं।
समय के परदे से झाँकतीं आषंकाएँ और संभावनाएँ
आधुनिक दौर में लड़ाइयाँ सिर्फ़ हौसलों और सैनिकों की गिनती से नहीं लड़ीं और जीती जातीं। इराक़ की मिसाल हमारे सामने है। ऐसे में एक छोटा सा देष उत्तरी कोरिया चाहे तो भी वो अमेरिका जैसी ताक़त का मुक़ाबला नहीं कर सकता। ज़ाहिर है कि उसके सामने बचाव का रास्ता यही है कि वो अपने आपको दुष्मन के सामने अधिक खतरनाक बना कर पेष करे। संभवतः यही रणनीति उत्तरी कोरिया को इस मंज़िल तक लायी है जहाँ उसने परमाणु हथियार बना लिये हैं या बनाने की क्षमता व तकनीक विकसित कर ली है। जिस मिसाइल कार्यक्रम को बुष के ज़माने में चीन और रूस के इसरार पर व अमेरिका से हल्के जल वाले रिएक्टर प्राप्त करने की उम्मीद में उत्तरी कोरिया ने एकतरफा स्थगित कर दिया था, मौजूदा अमेरिकी असहयोगात्मक रवैये से पूरी तरह नाउम्मीद होकर उसे फिर से शुरू कर दिया गया। अप्रैल 2009 में उत्तरी कोरिया ने राॅकेट से एक उपग्रह का सफल प्रक्षेपण करने का दावा किया। उत्तरी कोरिया के मुताबिक यह उपग्रह कार्यक्रम उनके शांतिपूर्ण वैज्ञानिक अभियान का हिस्सा था लेकिन उधर जापान, अमेरिका व दक्षिण कोरिया के रक्षा विषेषज्ञों का मानना है कि शांति के घोषित उद्देष्य की आड़ में उत्तरी कोरिया ने दरअसल लंबी दूरी की मार करने वाली मिसाइल तेपोंदोंग-2 का परीक्षण किया है जिसकी मारक जद में अलास्का और हवाई जैसे सुदूर अमेरिकी ठिकाने भी आते हैं। अनेक रक्षा विषेषज्ञ 4 जुलाई 2009 को किये गये उत्तरी कोरिया के बैलिस्टिक मिसाइल परीक्षणों को कम दूरी की मार करने वाले व दक्षिणी कोरिया व जापान के लिए सीधा खतरा मानते हैं।
दरअसल चीन व रूस, दोनों ही से सीमाएँ जुड़ने के कारण तथा जापान व दक्षिण कोरिया जैसे अमेरिका के घनिष्ठ सहयोगियों के दुष्मन होने के कारण और परमाणु शक्ति संपन्न देष होने के कारण उत्तरी कोरिया की भौगोलिक व सामरिक अहमियत अमेरिका के लिए काफी ज़्यादा हो जाती है। उत्तर कोरिया की अधिकांष ऊपरी सीमा चीन से लगी हुई है, केवल एक बहुत छोटा सा हिस्सा रूस के साथ भी सटा हुआ है। नीचे दक्षिण कोरिया है। गर्दन की शक़्ल वाले इस देष के एक तरफ पीला सागर है और दूसरी तरफ जापान सागर।
उत्तरी कोरिया व दक्षिणी कोरिया, दोनों ही देषों के पास विष्व की सबसे बड़ी तैनात और मुस्तैद सेनाएँ हैं। उत्तरी कोरिया की फौज दुनिया में चैथे क्रम की सबसे बड़ी तैनात फौज है जिसमें 12 लाख फौजी किसी भी युद्ध की आकस्मिक स्थिति के लिए तैयार हैं। दक्षिण कोरिया भी अमेरिकी फौजों के सहयोग से पीछे नहीं है। दोनों ही देषों में हर नागरिक को एक निष्चित अवधि तक फौज में काम करना अनिवार्य है।
दूसरे विष्वयुद्ध के बाद भी कोरियाई खाड़ी में जंग के हालात बने रहे और 1948 से शुरू हुई उत्तरी कोरिया व दक्षिण कोरिया की लड़ाई 1953 में जाकर रुकी लेकिन तब तक 35 लाख कोरियाई लोग अपनी जान खो चुके थे। उत्तरी कोरिया में सिर्फ़ चंद इमारतें ही साबुत बची थीं। समाजवाद के रास्ते पर चलने का निष्चय करने के बाद उत्तरी कोरिया को लगातार रूस और चीन का सहयोग मिलता रहा था। उधर दक्षिणी कोरिया को अमेरिका ने बड़े जतन से अपने खेमे में बनाये रखा, क्योंकि तत्कालीन सोवियत संघ और चीन जैसे दो ताक़तवर प्रतिद्वंद्वियों के बीच दक्षिणी कोरिया के रूप में उसे पूर्वी एषिया के भीतर वैसा ही सहयोगी हासिल हो रहा था जैसे मध्य एषिया के भीतर इज़राएल। अमेरिका के प्रति निष्ठा का फल दक्षिणी कोरिया को तमाम किस्म की माली और फौजी इमदाद के रूप में आज तक हासिल होता रहा है। दक्षिणी कोरिया की विस्मयकारी तरक्की में बहुत बड़ी भूमिका अमेरिका की रही है, यह सर्वज्ञाात तथ्य है। लेकिन बर्लिन की दीवार टूटने और सोवियत संघ के बिखरने से उत्तरी कोरिया के हालात बेहद नाजुक स्थिति में पहुँच गये।
मानवाधिकारवादी संगठन व एनजीओ उत्तरी कोरिया के हालातों की भयंकर तस्वीर खींचते हैं जहाँ लोग लोग तानाषाही में पिस रहे हैं, बच्चे भूख से मर रहे हैं और पूरा निजाम भ्रष्ट है और वो सिर्फ़ शासक के प्रति जवाबदेह है, न कि जनता के। जहाँ समाजवाद के नाम पर किस तरह की व्यवस्था उन्होंने बनायी है कि एक तरफ़ तो सारी खेती की ज़मीन राज्य की है व सहकारिता के आधार पर खेती होती है लेकिन जहाँ लोगों का जीवन स्तर बेहद खराब है, जहाँ उद्योग-धंधे लगाने और चलाने के लिए भले उर्जा की कमी है लेकिन मिसाइलें बनाने में वो इतना बड़ा विषेषज्ञ है कि उससे अमेरिका भी खौफ खाता है, जहाँ एक व्यक्ति को संविधान ने शाष्वत राष्ट्रपति का दर्जा देते हुए सामंतवाद की वंष परम्परा को भी स्वीकारा गया है।
दूसरे विष्वयुद्ध के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद व सोवियत समाजवाद के खेमों में बँटी दुनिया के बीच की अदृष्य रेखा को लौह परदे का नाम दिया गया था। तत्कालीन समाजवादी देषों की अंदरुनी खामियों, साम्राज्यवादी साज़िषों और सम्मोहक उपभोक्तावाद की वजह से लोहे का परदा भी तार-तार होता गया और बर्लिन की दीवार गिरने के साथ ही वो इतिहास में गर्क हो गया।
लेकिन पूरी तरह नहीं। क्यूबा और उत्तरी कोरिया के भीतर लाल रंग काबिज रहा। एक ओर क्यूबा ने जहाँ अपने छोटे से भौगोलिक वजूद के बावजूदअंतरराष्ट्रीय साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन को लगातार शक़्ल देने की कोषिष की, वहीं उत्तरी कोरिया ने अपने दरवाजे एक तरह से बाहरी दुनिया के लिए बंद कर लिए। रास्ता कौन सा सही है, ये तो सिर्फ़ इतिहास ही तय करता है लेकिन यह तो तय है कि आज भले ही क्यूबा और उत्तरी कोरिया अपने भौगोलिक विस्तार में बड़े देषों की तुलना में बहुत छोटे मुल्क हों, लेकिन वे उस छोटे से तिनके की तरह हैं जो साम्राज्यवादी देषों की आँखों में घुपकर उन्हें तिलमिलाने में सक्षम हैं।
मौजूदा परिस्थितियों में न तो चीन और न ही रूस उस तरह उत्तरी कोरिया के साथ आ सकते हैं जिस तरह कभी हुआ करते थे, लेकिन फिर भी उत्तरी कोरिया के पड़ोसी होने के नाते वे अच्छे से जानते हैं कि अगर उत्तरी कोरिया पर अमेरिका ने किसी तरह कब्जा कर लिया तो पूर्वी एषिया में अमेरिका की जड़ें और गहरी पकड़ बना लेंगी। इसलिए, जैसे भी हो सके, वे भी अमेरिका को इस क्षेत्र में और अधिक हस्तक्षेप के बहाने नहीं देना चाहते।
उत्तरी कोरिया के लौह परदे से हवा भी शासकों की मर्जी के बिना नहीं आती-जाती, इसलिए वो क्या सोचते हैं, पता नहीं चलता। लेकिन फिर भी जब चारों तरफ साम्राज्यवाद के आॅक्टोपसी पंजों की जकड़बंदी महसूस हो रही हो तो सोचा जा सकता है कि अपने आप में बंद रहने की रणनीति आत्मरक्षा के लिए अपनायी गयी होगी। साथ ही उत्तरी कोरिया के मई में किये गये परमाणु परीक्षणों ने विष्व के परमाणु सत्ता समीेरणों को भी प्रभावित किया है। ऐसे में, जब भारत जैसे बड़े देषों की राजनीतिक सत्ताएँ अमेरिकी वर्चस्ववाद के सामने घुटने टेक रही हों तो उत्तरी कोरिया जैसे छोटे से देष का यह निर्भीक कदम भारत सहित बहुत से अन्य देषों को भी उनकी गौरवषाली, उपनिवेषवाद विरोधी संघर्ष की परंपरा को याद दिलाता है।
बेषक उत्तरी कोरिया के परमाणु परीक्षणों ने पूर्वी एषिया ही नहीं, पूरी दुनिया में जंग के तनाव को बढ़ा दिया है; बेषक परमाणु हथियारों को किसी भी स्थिति में शांति के उपकरण नहीं कहा जा सकता और बेषक जंग सभ्य दुनिया में विवादों को हल करने का रास्ता नहीं होना चाहिए, लेकिन उत्तरी कोरिया के मामले में ये याद रखना ज़रूरी है कि एसके सामने जंग के हालात या परमाणु हथियार बनाने की परिस्थितियाँ पैदा करने की बड़ी जिम्मेदारी अमेरिका की है।
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विनीत तिवारी
2, चिनार अपार्टमेंट,
172, श्रीनगर एक्सटेंषन,
इन्दौर-452018 (म.प्र.)
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