यह रफी साहब की सरलता थी कि वह गाने के बदले जो भी मिल जाता था, ले लेते थे। वह रॉयल्टी लेने के खिलाफ थे। इसी मतभेद के कारण लता मंगेशकर के साथ उन्होंने चार साल तक गाना नहीं गाया। लता जी का कहना है कि फिल्मकारों ने अपने हितों के लिए रफी साहब के सरल-हृदय होने का फायदा उठाया था, लेकिन जब सचाई का पर्दाफाश हुआ तो फिर मिलाप में ज्यादा वक्त नहीं लगा
रफी साहब ने फिल्म हम दोनों में गाए साहिर लुधियानवी के इस गीत को अपनी जिंदगी में उतार लिया था। यही कारण है कि उन्होंने इसबात की कभी चिंता नहीं की कि उन्हें गाने के एवज में कितना मिल रहा है। रफी पैसे के मामले में अत्यंत संतोषी व्यक्ति थे और उन्हें जितना मिलता था, उसी से वह संतोष कर लेते थे। कई लोगों के लिए तो उन्होंने मुफ्त में भी गाने गाए थे। अपनी इसी उदारता के कारण उन्होंने संगीत कंपनियों से कभी रॉयल्टी की मांग नहीं की। वह मानते थे कि एक बार जब निर्माता गायक को गाने का पारिश्रमिक अदा कर देता है, तो मामला वहीं समाप्त हो जाता है, लेकिन उनकी इसी दानशीलता और उदारता के कारण न सिर्फ उनके और उनके परिवार के आर्थिक हितों के साथ कुठाराघात हुआ, बल्कि रॉयल्टी के मामले में लता मंगेशकर और अन्य गायकों के साथ अनबन भी हुई। लता और रफी के बीच एक-दूसरे के प्रति नाराजगी कई साल चली। इस दौरान दोनों न तो बातचीत करते थे और न ही एक साथ कोई गीत गाते थे। संगीत प्रेमी इस अवधि को पाश्र्वगायन के काले अध्याय के रूप में याद करते हैं। शायद यह पहला मौका था, जब इस सरल, सहृदय गायकने कड़ा रुख अपनाया था। कुछ निर्माताओं और संगीत कंपनियों को रफी के सरल स्वभाव के बारे में पता था। कुछ निर्माताओं द्वारा भावनात्मक रूप से बरगलाए एवं गुमराह किए जाने के बाद सीधे-सादे रफी ने स्वयं ही अनी रॉयल्टी के दावे समाप्त कर दिए। दूसरी तरफ लता जी का मानना था कि गायकों को गाने की रिकॉर्डिंग के पैसों के अलावा गाने की रॉयल्टी का भी भुगतान करना चाहिए। उनका कहना था कि अपने निर्माताओं के लिए आर्थिक मुश्किलें पैदा करना अपनी कला का सही मूल्य पाने की तुलना में भी ज्यादा गंभीर मुद्दा है। रफी के इस विचार ने उन्हें उन गायक-गायिकाओं के बीच बदनाम कर दिया, जो यह मानते थे कि गाने की सफलता गायक की आवाज पर निर्भर करती है। रफी और लता के बीच व्यावसायिक अलगाव करीब चार साल तक चला आखिरकार नरगिस के प्रयास से दोनों के बीच जमी बर्फ पिघली और शिकवे की दीवार टूटी, जब एक स्टेज कंसर्ट के दौरान दोनों को दिल पुकारे.... के लिए बुलाया गया। बाद में लता जी ने स्वीकारा कि उनहोंने एक मामूली बात के लिए रफी साहब के साथ गाने का सौभाग्य खोया था, लेकिन उन्होंने कहा कि रफी साहब जैसे ईमानदार और निष्कपट व्यक्ति से दोबारा मिलाप कर लेने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। लता जी ने रॉयल्टी के मामले को लेकर मोहम्मद रफी के साथ हुई अनबम के बारे में कहती है, रफी साहब न तो अपने अधिकारों से अनजान थे और न ही वह प्रोड्यूसरों या म्यूजिक डायरेक्टरों से डरते थे, क्योंकि वह समय ही ऐसा था कि हर गायक-गायिका की अपनी स्टाइल थी। जिस स्टाइल की फिल्म में जरूरत होती, तो उस गायक या गायिका या गायिका के बिना काम न चलता। कई हीरो का काम रफी साहब की आवाज के बगैर चलता ही नहीं था। लेकिन रफी साहब जरूरत से ज्यादा भले थे। उनका कहना था कि गाना गाने के एवज में प्रोड्यूसर हमें पैसे दे चुका है तो हम ज्यादा क्यों मांगे? जबकि मेरा कहना था कि कुछ गायकों के गीत आज भी बिक रहे हैं, पर उन्हें कुछ नहीं मिलता, जबकि उन गायकों की आज आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। इस पर रफी साहब ने कहा कि अभी कल ही खान मस्ताना (पुराने गायक) को मैंने पांच सौ रुपए दिए। हम ऐसा तो करते ही रहते हैं। लता जी का इस मामले में कहना था, हमारी एसोसियेशन ने पाश्र्व गायकों की ओर से जब रेकॉर्डिंग कंपनी से अपने अधिकार की मांग की तो उसने निर्माता को दे दी है आप उनसे मांग लें। कुछ निर्माता मान गए तो कऊछ ने हममें फूट डालने की कोशिश की। उन्होंने रफी साहब को अपने विश्वास में लिया, ताकि वह बाकी गायकों को रॉयल्टी मांगने से रोकें। मैंने रफी साहब को समझाने का प्रयास किया कि उन्हें या मुझे तो रॉयल्टी न मिलने से कोई दिक्कत नहीं होगी, लेकिन दूसरों को रोकने का हमें कोई अधिकार नहीं है। इसी बात को लेकर हम दोनों में बातचीत और गाना बंद हो गया।... बाद में मुकेश भैया (पाश्र्वगायक) से पता चला कि कई गायक जो हमारी तरफ थे, वे जाकर रिकॉर्डिंग भी करवा रहे हैं। रफी साहब की भी हां में हां मिलाते और हम लोगों के साथ भी। जब मुझे विश्वास हो गया कि कोई हमारा साथ नहीं दे रहा तो मैंने सिर खपाना बंद कर दिया। जहां तक मेरा अपना सवाल था, मैं जानती थी कि मुझे मांगने पर रॉयल्टी मिलेगी ही। बाद में रफी साहब से सुलाह हो गई। मनमोहित ग्रोवर,प्रैसवार्ता
रफी साहब ने फिल्म हम दोनों में गाए साहिर लुधियानवी के इस गीत को अपनी जिंदगी में उतार लिया था। यही कारण है कि उन्होंने इसबात की कभी चिंता नहीं की कि उन्हें गाने के एवज में कितना मिल रहा है। रफी पैसे के मामले में अत्यंत संतोषी व्यक्ति थे और उन्हें जितना मिलता था, उसी से वह संतोष कर लेते थे। कई लोगों के लिए तो उन्होंने मुफ्त में भी गाने गाए थे। अपनी इसी उदारता के कारण उन्होंने संगीत कंपनियों से कभी रॉयल्टी की मांग नहीं की। वह मानते थे कि एक बार जब निर्माता गायक को गाने का पारिश्रमिक अदा कर देता है, तो मामला वहीं समाप्त हो जाता है, लेकिन उनकी इसी दानशीलता और उदारता के कारण न सिर्फ उनके और उनके परिवार के आर्थिक हितों के साथ कुठाराघात हुआ, बल्कि रॉयल्टी के मामले में लता मंगेशकर और अन्य गायकों के साथ अनबन भी हुई। लता और रफी के बीच एक-दूसरे के प्रति नाराजगी कई साल चली। इस दौरान दोनों न तो बातचीत करते थे और न ही एक साथ कोई गीत गाते थे। संगीत प्रेमी इस अवधि को पाश्र्वगायन के काले अध्याय के रूप में याद करते हैं। शायद यह पहला मौका था, जब इस सरल, सहृदय गायकने कड़ा रुख अपनाया था। कुछ निर्माताओं और संगीत कंपनियों को रफी के सरल स्वभाव के बारे में पता था। कुछ निर्माताओं द्वारा भावनात्मक रूप से बरगलाए एवं गुमराह किए जाने के बाद सीधे-सादे रफी ने स्वयं ही अनी रॉयल्टी के दावे समाप्त कर दिए। दूसरी तरफ लता जी का मानना था कि गायकों को गाने की रिकॉर्डिंग के पैसों के अलावा गाने की रॉयल्टी का भी भुगतान करना चाहिए। उनका कहना था कि अपने निर्माताओं के लिए आर्थिक मुश्किलें पैदा करना अपनी कला का सही मूल्य पाने की तुलना में भी ज्यादा गंभीर मुद्दा है। रफी के इस विचार ने उन्हें उन गायक-गायिकाओं के बीच बदनाम कर दिया, जो यह मानते थे कि गाने की सफलता गायक की आवाज पर निर्भर करती है। रफी और लता के बीच व्यावसायिक अलगाव करीब चार साल तक चला आखिरकार नरगिस के प्रयास से दोनों के बीच जमी बर्फ पिघली और शिकवे की दीवार टूटी, जब एक स्टेज कंसर्ट के दौरान दोनों को दिल पुकारे.... के लिए बुलाया गया। बाद में लता जी ने स्वीकारा कि उनहोंने एक मामूली बात के लिए रफी साहब के साथ गाने का सौभाग्य खोया था, लेकिन उन्होंने कहा कि रफी साहब जैसे ईमानदार और निष्कपट व्यक्ति से दोबारा मिलाप कर लेने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। लता जी ने रॉयल्टी के मामले को लेकर मोहम्मद रफी के साथ हुई अनबम के बारे में कहती है, रफी साहब न तो अपने अधिकारों से अनजान थे और न ही वह प्रोड्यूसरों या म्यूजिक डायरेक्टरों से डरते थे, क्योंकि वह समय ही ऐसा था कि हर गायक-गायिका की अपनी स्टाइल थी। जिस स्टाइल की फिल्म में जरूरत होती, तो उस गायक या गायिका या गायिका के बिना काम न चलता। कई हीरो का काम रफी साहब की आवाज के बगैर चलता ही नहीं था। लेकिन रफी साहब जरूरत से ज्यादा भले थे। उनका कहना था कि गाना गाने के एवज में प्रोड्यूसर हमें पैसे दे चुका है तो हम ज्यादा क्यों मांगे? जबकि मेरा कहना था कि कुछ गायकों के गीत आज भी बिक रहे हैं, पर उन्हें कुछ नहीं मिलता, जबकि उन गायकों की आज आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। इस पर रफी साहब ने कहा कि अभी कल ही खान मस्ताना (पुराने गायक) को मैंने पांच सौ रुपए दिए। हम ऐसा तो करते ही रहते हैं। लता जी का इस मामले में कहना था, हमारी एसोसियेशन ने पाश्र्व गायकों की ओर से जब रेकॉर्डिंग कंपनी से अपने अधिकार की मांग की तो उसने निर्माता को दे दी है आप उनसे मांग लें। कुछ निर्माता मान गए तो कऊछ ने हममें फूट डालने की कोशिश की। उन्होंने रफी साहब को अपने विश्वास में लिया, ताकि वह बाकी गायकों को रॉयल्टी मांगने से रोकें। मैंने रफी साहब को समझाने का प्रयास किया कि उन्हें या मुझे तो रॉयल्टी न मिलने से कोई दिक्कत नहीं होगी, लेकिन दूसरों को रोकने का हमें कोई अधिकार नहीं है। इसी बात को लेकर हम दोनों में बातचीत और गाना बंद हो गया।... बाद में मुकेश भैया (पाश्र्वगायक) से पता चला कि कई गायक जो हमारी तरफ थे, वे जाकर रिकॉर्डिंग भी करवा रहे हैं। रफी साहब की भी हां में हां मिलाते और हम लोगों के साथ भी। जब मुझे विश्वास हो गया कि कोई हमारा साथ नहीं दे रहा तो मैंने सिर खपाना बंद कर दिया। जहां तक मेरा अपना सवाल था, मैं जानती थी कि मुझे मांगने पर रॉयल्टी मिलेगी ही। बाद में रफी साहब से सुलाह हो गई। मनमोहित ग्रोवर,प्रैसवार्ता
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