कृषक कन्या हम्मीर माता: कृषक कन्या हम्मीर माता जब अपने खेतों की रखवाली पर थी, उसने देखा कि चित्तौड़ के महाराणा लक्ष्मणसिंह के सबसे बड़े अरिसिंह जी अपने साथियों के साथ घोड़ा दौड़ाये एक जंगली सूअर का पीछा करते हुए चले आ रहे है। सूअर डरकर उसी के बाजरे के खेत में घुस गया। कन्या अपने मचान से उतरी और घोड़ों के सामने खड़ी हो गयी। बड़ी ही विनम्रता के साथ बोली, राजकुमार! आप लोग मेरे खेत से घोड़ों को ले जायेंगे तो मेरी खेती नष्ट होने से बच जायेगी। आप यहां रुकें, मैं सूअर को मारकर ला देती हूं। राजकुमार आश्चर्य से देखते रह गये। उन्होंने सोचा यह लड़की नि:शस्त्र सुअर को कैसे मारकर लायेंगी? उस लड़की ने बाजरे के एक पेड़ को उखाड़कर तेज किया और खेत में निर्भय होकर घुस गयी। थोड़ी ही देर में वे लोग स्नान कर रहे थे, तब एक पत्थर आकर उनके एक घोड़े के पैर में लगा, जिससे घोड़े का पैर टूट गया। वह पत्थर उसी कृषक-कन्या ने अपने मचान से पक्षियों को उड़ाने के लिए फेंका था। राजकुमार के घोड़े की दशा देखकर वह दौड़कर आई और क्षमा मांगने लगी। राजकुमार बोला, तुम्हारी शक्ति देखकर मैं आश्चर्य में पड़ गया हूं। मुझे दु:ख है कि तुम्हें देने योग्य कोई पुरस्कार इस समय मेरे पास नहीं है। कृषक कन्या ने विनम्रता से कहा, अपनी गरीब प्रजा पर कृपा रखें, यही मेरे लिए बहुत बड़ा पुरस्कार है। इतना कहकर वह चली गई। संयोग से जब राजकुमार व उनके साथी सायंकाल घोड़ों पर बैठे जा रहे थे, तब उन्होंने देखा, वही लड़की सिर पर दूध की मटकी रखे दोनों हाथों से दो भैसों की रस्सियां पकड़े जा रही है। राजकुमार के एक साथी ने विनोद में उसकी मटकी गिराने के लिए जैसे ही अपना घोड़ा आगे बढ़ाया, उस लड़की ने इसका इरादा समझ लिया और अपने हाथ में पकड़ी भैंस की रस्सी को इस प्रकार फेंका कि उस रस्सी में उस सवार के घोड़े का पैर उलझ गया और घोड़े सहित वह भूमि पर आ गिरा। निर्भय बालिका के साहस पर राजकुमार अरिसिंह मोहित हो गये, उन्होंने पता लगा लिया कि यह एक क्षत्रिय कन्या है। स्वयं राजकुमार ने उसके पिता के पास जाकर विवाह की इच्छा प्रकट की और वह साहसी वीर बालिका एक दिन चित्तौड़ की महारानी बनी जिसने प्रसिद्ध राणा हम्मीर को जन्म दिया। पन्नाधाय: पन्नाधाय के नाम को कौन नहीं जानता? वे राजपरिवार की सदस्य नहीं थी। राणा सांगा के पुत्र उदयसिंह को मां के स्थान पर दूध पिलाने के कारण पन्नाधाय मां कहलाई। पन्ना का पुत्र वह राजकुमार साथ-साथ बड़े हुए। उदयसिंह को पन्ना ने अपने पुत्र के समाना पाला अत: उसे पुत्र ही मानती थी। दासी पुत्र बनवीर चित्तौड़ का शासक बनना चाहता था। उसने एक-एक कर राणा के वंशजों को मार डाला। एक रात महाराज विक्रमादित्य की हत्या कर, बनवीर उदयसिंह को मारने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा। एक विश्वस्त सेवक द्वारा पन्ना धाय को इसकी पूर्व सूचना मिल गई। पन्ना राजवंश के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थी वह उदयसिंह को बचाना चाहती थी। उसने उदयसिंह को एक बांस की टोकरी में सुलाकर उसे झूंठी पत्तलों से ढककर एक विश्वास पात्र सेवक के साथ महलों से बाहर भेज दिया। बनवीर को धोखा देने के उद्देश्य से अपने पुत्र को उसके पलंग पर सुला दिया। बनवीर रक्तरंजित तलवार लिए उदयसिंह के कक्ष में आया और उदयसिंह के बारे में पूछा। पन्ना ने उदयसिंह के पलंग की ओर संकेत किया जिस पर उसका पुत्र सोय था। बनवीर ने पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर मार डाला। पन्ना अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र के वध को अविचलित रूप से देखती रही। बनवीर को पता न लगे इसलिए वह आंसू भी नही बहा पाई। बनवीर के जाने के बाद अपने मृत पुत्र की लाश को चूमकर राजकुमार को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए निकल पड़ी। धन्य है स्वामिभक्त वीरांगना पन्ना जिसने अपने कर्तव्य-पूर्ति में अपनी आंखों के तारे पुत्र का बलिदान देकर मेवाड़ राजवंश को बचाया। वीरांगना कालीबाई:वीरांगनाओं के इतिहास में केवल राजपूतनियों के नाम ही पाये जाते हों ऐसा नहीं है। राजस्थान की नारियों की नस-नस में त्याग, बलिदान व वीरता भरी हुई। यहां तक कि आदिवासियों ने भी आवश्यकता पडऩे पर जी-जान से देश की प्रतिष्ठा में चार-चांद लगाये हैं। राजस्थान की आदिवासी जन-जातियां सदैव से देशभक्त व स्वाभिमानी रही हैं। इनकी महिलाओं ने भी समय-समय पर अपना रक्त बहाया है। इन्हीं नामों में से एक नाम है वीर बाला कालीबाई का। स्वाधीनता आंदोलन चल रहा था। वनवासी अचंल को गुलामी का अंधेरा अभी भी पूरी तरह ढके हुए था। छोटी-छोटी बातों पर अंग्रेजी राज्य के वफादार सेवक स्थानीय राजा अत्याचार करते थे। प्रजा में जागृति न फैले इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था। वे भयभीत थे कि अगर वनवासी पढ़-लिख गये तो वे नागरिक अधिकारों की बात करेंगे और उनकी राजय सत्ता कमजोर होगी। राजा ने अपने क्षेत्र के वनवासी अंचल में सभी विद्यालय बंद करने का आदेश दिया। नानाभाई के पास आदेश भिजवाया कि वे अपनी पाठशालाएं बंद करें, लेकिन नानाभाई नहीं माने। अवज्ञा से क्षुब्ध मजिस्ट्रेट उन्हें पीटते हुए अपने शिविर तक ले जाने लगा। इतने में ही एक नन्हीं बालिका जो उसी समय घास काटकर लाई थी, चिल्लाते हुए ट्रक के पीछे दौड़ी, अरे तुम लोग मेरे मास्टरजी को क्यों ले जा रहे हो? छोड़ दो! इन्हें छोड़ दो! हाथ में हंसिया, पांव में बिजली और मुख से कातर पुकार करती वह बच्ची न बंदूकों से घबराई और न पुलिस की डरावनी धमिकयों से उसे तो बस अपने मास्टरजी दिखाई दे रहे थे। बालिका को देखकर वनवासी भी उत्साहित हो उठे और पीछे दौड़े। यह देखकर पुलिस अधिकारी ने बौखलाकर बंदूक तानकर कहा, ऐ लड़की, वापस जा, नहीं तो गोली मार दूंगा। लड़की ने उसकी बात को अनुसुना कर ट्रक के पीछे दौड़ते हुए वह रस्सी काट दी, जिससे बांधकर नानाभाई व सेंगभाई को घसीटा जा रहा था। पुलिस की बंदूक गरजी और बालिका की जान ले ली। कालीबाई के मरते ही वनवासियों ने क्रोधोन्मत्त हो मारू बाजा बजाना शुरू कर दिया और पुलिस की बंदूकों की परवाह न करते हुए उन्हें मारने के लिए दौड़े। गोलियों से कई अन्य भील महिलाएं भी घायल हुई। अपनी दुर्गति का अंदाजा लगा, पुलिस व मजिस्ट्रेट जीप में भाग निकले। घायलों को तीस मील दूर अस्पताल में ईलाज के लिए ले जाया गया। कालबाई के साथ घायल हुई अन्य भील महिलाएं नवलीबाई, मोगीबाई, होमलीबाई तथा अध्यपाक सेंगाभाई बच गये। वे स्वतंत्रता के बाद भी भीलों के मध्य काम करते रहे, किन्तु नानाभाई को नहीं बचाया जा सका और वीर बाला कालीबाई भी नानाभाई का अनुशरण करते हुए चिर-निद्रा में लीन हो गई। डूंगरपुर में नानाभाई व कालीबाई की स्मृति में उद्यान बनाया गया है और उनकी मृर्तियां भी स्थापित की गई हैं। -डॉ. संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी (प्रैसवार्ता)
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