भगवान दास दरखान - 3
यह बरसाती पानी आन की आन में उफान और सैलाब की सूरत इख़्तियार कर लेता है। तेज़ और तीखे रेले में मुसाफ़िरों से भरी हुई बसें बह जाती हैं। फ़सलें बरबाद हो जाती हैं। इन्सान और मवेशी बह जाते हैं। पत्थर, मिट्टी और घास-फूस के बने हुए मकान ढह जाते हैं। हर तरफ़ जल थल हो जाता है। तबाही और बरबादी का बाज़ार गर्म हो जाता है। यही पानी, जो पहाड़ों और उसके दामन में बसने वालों के लिए रहमत का पानी बन सकता है, ज़हमत और मुसीबत बन जाता है।
लेकिन वे जगहें जहाँ रूदकोहियाँ मौजूद हैं, इस तबाही से महफूज़ रहती हैं। उन जगहों पर पानी के तेज़ बहाव का रुख़ मोड़ने के लिए ढलवान पर जगह-जगह मिट्टी और पत्थरों के मजबूत और ऊँचे-ऊँचे पुश्ते बनाये गये हैं। इस तरह बारिश का पानी छोटी-बड़ी नालियों से बहकर उस ज़मीन को जलमग्न करता है, जिस पर खेती-बाड़ी होती है। मगर ऐसी बारानी ज़मीन पर आमतौर पर सिर्फ़ एक फ़सल होती है, जिसमें मक्की के इलावा ज्वार और बाज़रा पैदा होते हैं।
ऐसी रूदकोहियाँ (जल संग्रह का एक तरीक़ा) पहाड़ियों की तलहटी में जगह-जगह देखने में आती हैं। लेकिन झगड़ेवाली रूदकोही इस से भिन्न थी, ज्यादा उपयोगी और देर तक काम आने वाली। अपनी नौइयत और उपयोगिता के ऐतबार से वह एक छोटे से बाँध की तरह थी। उसका निर्माण इस तरह किया गया था कि बारिश के पानी की तेज़ धारा पुश्तों से टकराकर जब अपना रास्ता बदलती, तो नालियों से गुज़रती हुई ढलान के उस तरफ़ बहकर जाती, जहाँ ज़मीन खोदकर पानी का ज़ख़ीरा करने का निहायत मुनासिब इन्तज़ाम था। पानी का यह ज़ख़ीरा ज़मीन की सतह से कुछ बुलन्दी पर था और उसका हिस्सा एक विस्तृत गुफा के अन्दर दूर-दूर तक फैला हुआ था।
पानी का यह ज़ख़ीरा, जिसे स्थानीय बोली में खड्ड कहा जाता है, पहाड़ी चट्टानों के सख़्त और बड़े-बड़े पत्थर तोड़-फोड़कर निहायत जी तोड़ मेहनत से बनाया गया था, ताकि गर्मी के मौसम में पानी सुरक्षित रहे। खड्ड का पानी आम घरेलू इस्तेमाल के भी काम आता था। खड्ड से खेतों की सिंचाई करने के लिए जो नहरें और नालियाँ बनायी गयी थीं, वे ख़रीफ के इलावा कभी-कभी रबी की फ़सल की काश्त के वास्ते भी पानी मुहैया कराती थीं।
फ़रीकै़न (वादी-प्रतिवादी) का ताल्लुक़ तमन मज़ारी के रस्तमानी और मस्दानी क़बीलों से था। वे सुलेमान पहाड़ की दक्षिणी तलहटी में खेती-बाड़ी के साथ-साथ भेड़ चरवाही भी करते थे। साँझी रूदकोही से अपने खेतों को पानी देते थे। यह इलाका बलूचिस्तान के बुक्ती क़बीलों के निवास स्थान, डेरा बुक्ती से लगा हुआ है, जो शहज़ोर ख़ाँ मज़ारी की एक बलूच बीबी को बाप की तरफ़ से विरासत में मिला था। इसलिए अब वह उस जागीर में शामिल था।
पानी के बँटवारे का झगड़ा बढ़कर धीरे-धीरे रस्तमानियों और मस्दानियों के दरमियान पुरानी क़बाइली दुश्मनी की शक्ल अख्ति़यार करता गया। बदले की कार्रवाई के तौर पर मवेशी उठा लिये जाते, फ़सलों को नुक़सान पहुँचाने की कोशिश की जाती, रात केे अँधेरे में चोरी-छिपे पानी के बहाव का रुख़ मोड़ दिया जाता, ज़ख़ीरा यानी खड्ड के मुँह से रुकावटें हटा दी जातीं और अपने खेतों को ज़्यादा से ज़्यादा जलमग्न करने की गऱज़ से पानी की चोरी की जाती।
कई बार लड़ाई-झगड़े हुए, मगर पिछले हफ़्ते ज़बरदस्त हथियारबन्द मुठभेड़़ हुए। मुठभेड़ से पहले बाकायदा विरोधी फ़रीक़ को ललकारकर ख़बरदार किया गया था कि वह पूरी तैयारी के साथ मुक़ाबले पर आयें। इसलिए फ़रीकैन ने अपने-अपने क़बीले से जं़ग-आज़माओं और सूरमाओं को इकट्ठा किया, रात भर जागते रहे। सलाह-मशवरा करते रहे। अपनी और दुश्मन की ताक़त और असलहों का अन्दाज़ लगाते रहे और उसकी रौशनी में प्रभावशाली जं़गी कार्रवाई करने के मंसूबे बनाते रहे।
-शौकत सिद्दीक़ी
सुमन
loksangharsha.blogspot.com
लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाशित
.....जारी ......*
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