सिरसा(प्रैसवार्ता) राज्य के जिला सिरसा की अधिकांश निर्वाचित महिला पार्षद, सरपंच व पंच विजयी होने उपरांत भी स्वयं को पार्षद, सरपंच या पंच कहलाने का गौरव प्राप्त नहीं कर सकीं, क्योंकि इनके पति, ससुर, जेठ व देवर आदि ही सरपंच, पंच व पार्षद कहलाते हैं। एकत्रित किये गये विवरण अनुसार सरकारी तथा गैर-सरकारी, राजनीतिक, सामाजिक व धार्मिक संस्थाओं के समारोह इत्यादि में महिलाएं पंच, सरपंच व पार्षद होने पर भी भाग नहीं लेती, बल्कि उनके परिवारजन ही भागीदारी करते हैं। महिलाएं खेतों-खलिहानों, कारखानों, अस्पताल, स्कूल-कॉलेज, सरकारी कार्यालयों में मजदूर, नर्स, शिक्षक, क्लर्क व अधिकारी के रूप में महत्वपूर्ण योगदान दे रही है, परंतु ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को राजनीतिक रूप से ऊपर उठना स्वीकार नहीं किया गया है। वर्तमान में ग्रामीण समाज का परम्परावादी समाज तथा रूढि़वादी दृष्टिकोण यह मानकर चल रहा है कि नारी जीवन की सार्थकता ममतामयी मां, आज्ञाकारी बहू, गुणवती पुत्री तथा पतिनारायण पत्नी होने में है। नारी भोजन बनाने, घर को सजाने-संवारने से लेकर बच्चों के कपड़े सिलाई करने इत्यादि सहित हर काम में निपुण हों। महिलाओं और उनके कार्यों को पुरुषों की नजर से ही देखने का परिणाम है कि पार्षद, सरपंच या पंच निर्वाचित होने उपरांत भी महिलाओं की चेतना में कोई बदलाव नहीं आया है। जिला सिरसा के शहरों, कस्बों तथा ग्रामों में चुनावी पद्धति अनुसार अनुसूचित पिछड़ी तथा जनजाति की, जो महिलाएं चुनी गई हैं, उनमें दिहाड़ी मजदूर से लेकर संपन्न परिवारों से हैं, मगर बिड़म्बना देखिये कि न तो दिहाड़ी मजदूर को पार्षद, सरपंच व पंच कहलवाने का अवसर मिला है और न ही कोई चौधराइन, पार्षद सरपंच या पंच कहलाने का गौरव प्राप्त कर पाई है। अधिकांश पार्षद, सरपंच व पंच निर्वाचित महिलाएं पूर्ववत: घर, गृहस्थी, कृषि व रोजमर्रा के अन्य कार्य जारी रखे हुए हैं तथा ज्यादातर को अपने अधिकारों तथा पंचायतीराज के नियमों बारे कोई जानकारी नहीं है। कुछ महिलाएं तो जन-प्रतिनिधि चुने जाने उपरांत भी घूंघट में रहती हैं तथा अगूंठा टेक हैं, जबकि कुछ के हस्ताक्षर या अंगूठा उसके पति, ससुर, देवर-जेठ या अन्य परिवारजन लगा देते हैं। कई बार ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि जब कोई सरकारी गैर-सरकारी या सामान्य व्यक्ति किसी महिला पार्षद, सरपंच या पंच से मिलना चाहे तो परिवारजन मिलने नहीं देते। कुछ जन-प्रतिनिधि महिलाएं जरूर सक्रिय हैं। महिला प्रतिनिधियों की इस दशा का कारण समाज में व्याप्त पुरुष प्रधान मानसिकता तो हैं, परंतु उनका निरक्षर होना भी एक मुख्य कारण है। महिला प्रतिनिधियों के इस आरोप में भी सत्यता है कि उनके परिवारजन उन्हें आगे नहीं आने देते और न ही बैठकों में जाने देते हैं। यही कारण है कि वे निरंतर पिछड़ रही हैं। उनका मानना है, कि जब तक महिला जन-प्रतिनिधि स्वयं जागृत नहीं होंगी, उनके बूते दूसरी महिलाओं में भी चेतना की आशा नहीं की जा सकती। कुछ जन-प्रतिनिधि महिलाएं पुन: चुनाव के पक्ष में नहीं है, क्योंकि विजयी होकर भी उन्हें घर की चारदीवारी तक सीमित रहना पड़ता है। पुराने विचारों के लोग विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के आगे आने के पक्षधर नहीं है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि महिलाओं का राजनीति में दखल युगों से सत्ता में स्थापित पुरुष वर्ग को हजम नहीं होता। समाज महिलाओं को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में नहीं, बल्कि उस समाज के बीच रखकर देखता है, जो पुरुषों द्वारा निर्मित है। पुरुषप्रधान समाज में नारी की भूमिका घर-परिवार तक ही सीमित है और यह माना जाता है कि नारी घर की चारदीवारी में ही शोभा देती है। महिलाएं भले ही कुछ करना चाहती हों, मगर उनके भी विवशता होती है, क्योंकि पुरुष प्रधान समाज है। इसी प्रकार से निर्वाचित होकर भी महिलाएं उन प्रतिनिधि मात्र नाक की होकर रह गई हैं।
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