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9.9.09

मैं तेरे साथ - साथ हूँ।।


देखो तो एक सवाल हूँ
समझो तो , मैं ही जवाब हूँ ।।

उलझी हुई,इस ज़िन्दगी में।
सुलझा हुआ-सा तार हूँ।।

बैठे है दूर तुमसे , गम करो
मैं ही तो बस, तेरे पास हूँ।।

जज्वात के समन्दर में दुबे है।
पर मैं ही , उगता हुआ आफ़ताब हूँ

रोशनी से भर गया सारा समा
पर मैं तो, खुद ही में जलता हुआ चिराग हूँ ।।

जैसे भी ज़िन्दगी है, दुश्मन तो नही है।
तन्हा-सी हूँ मगर, मैं इसकी सच्ची यार हूँ।।

जलते हुए जज्वात , आंखो से बुझेंगे
बुझ कर भी बुझी, मैं ऐसी आग हूँ।।

कैसे तुम्हे बता दें , तू ज़िन्दगी है मेरी
अच्छी या बुरी जैसे भी, मैं घर की लाज हूँ ।।

कुछ रंग तो दिखाएगी , जो चल रहा है अब।
खामोशी के लबो पर छिड़ा , में वक्त का मीठा राग हूँ।।

कलकल-सी वह चली, पर्वत को तोड़ कर
मैं कैसे भूल जाऊ, मैं बस तेरा प्यार हूँ।।

भुजंग जैसे लिपटे है , चंदन के पेड़ पर
मजबूरियों में लिपटा हुआ , तेरा ख्बाव हूँ।।

चुप हूँ मगर , में कोई पत्थर तो नही हूँ।
जो तुम कह सके, मैं वो ही बात हूँ

बस भी कर, के तू मुझको याद
वह सकेगा जो, में ऐसा आव हूँ।।

मेहदी बारातै सिन्दूर चाहिए
मान लिया हमने जब तुम ने कह दिया , मैं तेरा सुहाग हूँ।।

खुद को समझना, कभी तन्हा और अकेला।
ज़िन्दगी के हर कदम पर , मैं तेरे साथ - साथ हूँ।।

3 टिप्पणियाँ:

बहुत ही प्रभावशाली अभिव्यक्ति ,मन प्रसन्न हुआ पढ़ कर.
हिन्दीकुंज

बहुत खूब
अति सुंदर काव्य

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