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26.7.09

खुद को तन्हा पाती हूँ ,,,(कविता)

-- दुनिया की इस भीड़ में,
खुद को तन्हा पाती हूँ ,,,
ना गम मेरा कम होता ,,,,,,
ना आंसू बहने रुकते है,,,,
हर उम्मीद छिन्न हो जाती है,
न कोई अपना लगता है,
सूरज की हर एक किरण,,,,
अब और अँधेरा फैला जाती ,,,,
बादल की हर एक चींख,
बस मेरी ही करुणा गाती ...
मीठे स्वर नहीं है भाते,,,
मुझको,
मातम का रंग ही भाता है,
बेबसी हसी उडाती है ,,,,
और खामोशी रुला जाती,,,,,
अब हर एक मौसम,
खोया-खोया सा लगता है,
चारो तरफ कुहासा है ...
सब सोया सोया सा लगता है
जाने क्यूँ उनसे रंजिश होती ,,
जिनको सब मिल जाता है ,,,
हमने तो बस खोया है ,,
और खोना ही भाता है,,
हम जिन्हें याद करते है हरपल,
क्या उनके ख्वावो में भी हम होते है
क्या कभी नमी होती है उन आँखों में ,,
जिनकी यादो में हम रोते है

क्या कभी नमीं होती है उन आंखों में ,,
जिनकी यादों में हम रोते हैं ???

इसी सवाल के साथ ,
अनु अग्रवाल

3 टिप्पणियाँ:

ईस मौसम में और यह रचना!!!
अरे बरख़ा थोडा थम के बरस, तन भीगा पर मन तो जलता है।

are mohtarma mousam to baimaan ho chalaa hai. saawan ki rim jhim ke bajaai muaa paseenaa tan ko bhigoye daal rahaa hai aise mai man ke saath saath sabhi kuch jal rahaa hai.
jhalli-kalam-se
angrezi-vichar.blogspot.com
jhallevichar.blogspot.com

वाह क्या बात है

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