बेहोशी के मीठे पल में,,
मैं शून्य क्षितिज में फिरता था ,,,
हिमगिरी की ऊंचाई चढ़ता था,,
फिर सागर में गिरता था ,,
कौतुक विस्मय हो लोगों को ,,
अपलक निश्चल देखे जाता था ,,
कर्तव्य विमूढ़ हो उनकी इस ,,
चंचलता को लिया करता था ,,
फिर हो सकेंद्रित निज की ,,
मस्ती में ही तो जिया करता था ,,
प्रीत और प्रेम को अनायास ही,,
खेता था,,
नीरस इन रागों में रस्वादन लेता था ,,
माधुर्य और माधुरी की ,,,
एक प्रथक कल्पना थी मेरे मन में ,,
इन बेढंगों से अलग,,
वासना थी मेरे मन में ,,
कभी प्रेम की व्याकुलता को ,,
मैंने महसूस नहीं किया था,,
कभी ह्रदय की दुर्बलता को ,,
मैंने महसूस नहीं किया था ,,
सौन्दर्य वशन इस धरती का ,,
मेरा प्रेमांगन था ,,
ऋतुओ का परिवर्तन ही ,,
मेरा प्रेमालिंगन था ,,
हर सर्द किन्तु चौमुखी हवा,,
मुझको हर्षित करती थी ,,,
सूरज की एक एक किरण ,,
उल्लासो से भरती थी ,,,
बस नया प्रेम अब खोज रहा हूँ ,,
वो सब भूल भूला के ,,,
छेड़ रहा हूँ नयी तान ,,
रागों में खुद को मिला के ,,,
मैं शून्य क्षितिज में फिरता था ,,,
हिमगिरी की ऊंचाई चढ़ता था,,
फिर सागर में गिरता था ,,
कौतुक विस्मय हो लोगों को ,,
अपलक निश्चल देखे जाता था ,,
कर्तव्य विमूढ़ हो उनकी इस ,,
चंचलता को लिया करता था ,,
फिर हो सकेंद्रित निज की ,,
मस्ती में ही तो जिया करता था ,,
प्रीत और प्रेम को अनायास ही,,
खेता था,,
नीरस इन रागों में रस्वादन लेता था ,,
माधुर्य और माधुरी की ,,,
एक प्रथक कल्पना थी मेरे मन में ,,
इन बेढंगों से अलग,,
वासना थी मेरे मन में ,,
कभी प्रेम की व्याकुलता को ,,
मैंने महसूस नहीं किया था,,
कभी ह्रदय की दुर्बलता को ,,
मैंने महसूस नहीं किया था ,,
सौन्दर्य वशन इस धरती का ,,
मेरा प्रेमांगन था ,,
ऋतुओ का परिवर्तन ही ,,
मेरा प्रेमालिंगन था ,,
हर सर्द किन्तु चौमुखी हवा,,
मुझको हर्षित करती थी ,,,
सूरज की एक एक किरण ,,
उल्लासो से भरती थी ,,,
बस नया प्रेम अब खोज रहा हूँ ,,
वो सब भूल भूला के ,,,
छेड़ रहा हूँ नयी तान ,,
रागों में खुद को मिला के ,,,
2 टिप्पणियाँ:
प्रवीण जी,
कमाल ! बहुत उम्दा !! बेहद बढ़िया !!!
*बेहोशी के मीठे पल में *
वाह, क्या बात है !
प्रवीण मै हैरान हूँ कि तुम हर छोटी और बडी संवेदना को अभिव्यक्त करते समय खुद को उस मे आत्मसात कर लेते हो तुम्हारे पास उमदा शब्दावली है विचार हैं और कुछ नया करने का जज़्वा है मेरा आशीर्वाद है कि तुम आसमान छूओ बधाई वैसे मै तुम्हारी रचना पढ कर निशब्द हो जाती हूँ समय लगता है बाहर आने मे
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