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29.6.09

कितनी तीव्र व्यथा ,,,



कितनी तीव्र व्यथा ,,,
ढो रहे हो हे तुच्छ जीव,,,
शायद ही सुख भान किया हो,,,कभी
शायद ही श्रम दान ना किया हो ,,,,कभी
कितना घ्रूणित है तुमारा जीवन ,,,
कितना कुंठित है तुमारा मन ,,,
कभी व्योम के पार ,,,
तुममे देखता हूँ,,,
कभी निज ह्रदय के उदगार,,,
तुममे देखता हूँ ,,,
कितना मस्त है ,,,
जीवन तुम्हारा ,,,
कितना व्यस्त है ,,,
जीवन तुमारा ,,,
पर मन ना कोई क्षोभ,,,
दिखता न कोई लोभ ,,,
हो प्रयासित ,,,
करने को प्रसारित ,,,
कर्म वड्या वधिकारस्तु,,,
माँ फलेसु कदाचिन,,,
है कितनी वयघ्रता ,,,
उन्नत नशा ,,,
कितनी दारुण दशा ,,,
कितनी तीव्र व्यथा ,,,

1 टिप्पणियाँ:

बहुत बढ़िया! आपकी और कृतियों की प्रतीक्षा है.
'बेशर्मी की इन्तहा.... ' पर आपकी टिप्पणी पर प्रतिक्रिया आई है. कृपया देख लीजिये. धन्यवाद!

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